युद्धरत मन और योग-पंचमणि कुमारी
युद्धरत मन और योग
मन विह्वल, तन बोझिल,
विज्ञान की बहती धारा,
विष्व-विजित जग क्रन्दन करता,
हृदय पर लगता कारा,
हे योग! प्राण की धारा।
वेदों से उपनिषद होकर,
कई काल को संवारा,
हे योग! प्राण की धारा।
पंतजलि की हस्त कृति में,
योग-योग की सृजन रीति में,
मानवता का प्यारा,
हे योग! प्राण की धारा।
चैतन्य, स्वरूप दिखाकर,
खुद से खुद को विजित करा कर,
विश्व-पटल पर शांति रमाकर,
योग समाधी को जगाकर,
अमृत-सागर-जलधारा।
हे योग! प्राण की धारा।
खुद का लक्ष्य, जीवन का सत्य,
जन्म-मृत्यु सब वारा,
हे योग! प्राण की धारा।
कोमल-कठोर, जो मार्ग क्रोध,
यूँ, तम की घोर कालिमा तोड़,
कर योग-योग, सर्वस्व-थोड़,
जीवन-जगत उजियारा,
हे योग! प्राण की धारा।
ये नहीं सिर्फ, दुःख शोक विदारक,
जीवन की दुर्गति उद्धारक,
कोमल- कोमल पंखुड़ी जैसी,
मधुरता की मधुरतम जैसी,
जीवन के अलभ्य-सुलभ पर,
कोटि-कोटि जनधारा,
हे योग! प्राण की धारा।
इन्द्रियों के बर्हिगमन पर,
मन की चंचलता की रमन पर,
क्रोध वेग, आवेष शमन पर,
शांति-षांति की धारा,
हे योग! प्राण की धारा।
बर्हि रिपु के दमन-षमन पर,
नित-नित करते क्रिया – कर्म पर,
जीवन के सुंदरतम पथ पर
कालिका सदृष्य कराला
हे योग! प्राण की धारा।
आसन, मुद्रा, ध्यान, योग
जीवन के हैं ये मार्ग कठोर,
चलना प्रस्तर के, खंड तोड़,
योग सुरम्य एक तारा,
हे योग! प्राण की धारा।
पंचमणि कुमारी
मोलदियार टोला, वार्ड नंबर १३, मोकामा, जिला- पटना
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