“माॅ” – डॉ. सुधीर शर्मा
“माॅ”
✍️कभी हँसाती कभी रुलाती
पल पल तेरी याद दिलाती,
अक्सर आकर मुझे जगाती
तेरी यादें मेरी माँ!
दिन तो जैसे तैसे कट जाता है
पर तेरी लोरी के बिन
नींद कहाँ आती है माँ !
अपनी गोदी में मेरा सिर रखकर मुझे सुलाती थी माँ!
जब तक मैं जागा करता था
तब तक तुम भी जागा करती थी,
जब तक था मैं नन्हा बालक
तुम भी कहाँ सो पाती थी माँ !
डूबकर अपनी ममता में
ऐसे हर पल साथ निभाती थी मां!
मैं तो तेरे दिल का टुकडा
तुम मेरे मन की दहलीज,
मेरी आँखों के अश्रु से
जाता तेरा ह्रदय पसीज,
रूठ कभी जाता था जब मैं,
आकर मुझे मना लेती थी माँ!
मुझे जिताती जानबूझ कर
हार के भी मुस्काती थी माँ !
यादों में है,तेरी सूरत
गोद तेरी न मिलती अब माँ
कहाँ छिपी हो जल्दी आओ
फिर अपनी ममता दिखलाओ,
कैसे भूलूँ प्यार तेरा मैं??
मुझ पर जान लुटाती थी मां!
कैसे मानू रुठ गई हो
क्यूँ तुम मुझसे दूर गई हो,
तुम बिन कैसे समय बीतता
कैसे हालतों से जीतता,
सब तेरा आशीर्वाद है
और सब तेरे प्रेम की छाया,
आज भी तेरे सम्मान मै,
हर दिन शीश झुकाता हूँ मां।।
स्वरचित मौलिक रचना (स्वप्रमाणित) – डॉ. सुधीर शर्मा , ग्वालियर