May 16, 2023

परिवार – रश्मि वर्मा

By Gina Journal

परिवार
पिछले कुछ दिनों से एक बात मैंने महसूस की है कि चाहे स्टॉफ हो मित्र मंडली हो, सामाजिक कार्य हों, रिश्तों के बीच में हो ऐसी माताएं जिनके ख़ास कर बेटे विवाह योग्य हैं वे बहुत अधिक चिंतित दिखाई देती हैं चेहरे से कांति तो जैसे रफूचक्कर हो चुकी है बेटे की मां होने की खुशी एक चिंता बनकर चेहरे पर झलकती है |
वहीं बेटियों की मां से बात होती है तो जवाब मिलता है अरे कहती है अभी शादी नहीं करनी है, शादी करना ही नहीं है वगैरह – वगैरह |
बच्चों की शादी के बारे में मां से कहो तो कहती हैं आजकल बच्चे कहते हैं मां यदि आप चाहती हो कि बुढ़ापे में खाने का सुख मिले तो कोई बात नहीं मैं बनाकर खिला दूंगा,कम से कम शांति से खाना तो खा पाएंगे सब लोग और चैन से रह भी पाएंगे | यह शब्द उनके अंतर्मन से निकलते हैं शायद अपने दोस्तों के वैवाहिक अनुभवों की झलक लिए होते हैं |
अभी पिछले हफ्ते की ही बात है समाचार पत्र में पढ़ा 24 साल के इंजीनियर ने मन की बात साझा की कि 58 लाख सैलरी पैकेज है मेरा,काम का कोई तनाव नहीं,अच्छा शहर,भरपूर सुविधाएं हैं लेकिन अकेलेपन के तनाव से मैं जूझ रहा हूं मन रिस्क लेना नहीं चाहता है,खुशी की तलाश में हूं क्या करूं?
ऐसी स्थितियां सब कुछ होने पर भी आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर कर देती हैं और जो नवयुवक देश के संबल हैं कर्णाधार हैं असमय ही मौत को गले लगा लेते हैं और समाज सोचता है अरे ऐसे कैसे हो गया?
जो भी नई घटना समय अनुसार समाज को झेलनी पड़ती है उसका प्रभाव लगभग 10 वर्षों तक समाज को झेलना पड़ता है | एक पीढ़ी पर इसका दारोमदार होता है आज 22 से 35 वर्ष तक के लोग शादी ही नहीं करना चाहते समय बीतता जाता है तब तक उम्र तक चालीस तक पहुंच जाती हैं |
उम्र का शारीरिक हार्मोनल संतुलन के साथ गहरा संबंध है | समय से ही शादी परिवार और समाज का सपना साकार होता है
यदि पैसे,समृद्धि,मकान और पालतू जीव पालने से ही खुशियां मिल जाती तो आज एक इंजीनियर का यह कमेंट सोचने को मजबूर नहीं करता जो शायद उन जैसे ही कई नव युवकों के दिल की आवाज भी हो सकती है जो बयां नहीं कर पाए हैं |
हम कितनी भी खुशियां बटोर ले बाहरी लेकिन यदि परिवार, रिश्तों की महक, अपनेपन से आप दूर हैं तो सच मानिए खुशियों को कस्तूरी मृग की तरह आप ढूंढते ही रह जाएंगे |सफलताओं को आप तभी सही मायनों में भुना सकते हैं जब परिवार साथ होता है माता-पिता और अपनों के साथ खुशी बांटने से दर्पण के अक्स के परावर्तन की तरह कई गुना बढ़ जाती है |
पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण,जिम्मेदारियों से पलायन की भावना परिवार और समाज के प्रति दायित्वों की भूमिका को यदि समय रहते माता-पिता एकल परिवार,नौकरी,कम बच्चों का होना इन सब कारणों से अगर बताने में चूक भी गए हैं तो आज की पीढ़ी इतनी तो सक्षम है ही कि वह समय रहते अपनी भूमिका को पहचान कर उस पर अमल करना शुरू कर दे |
बराबरी बेशक हो बेटा हो या बेटी शिक्षा,स्वतंत्रता,स्नेह और कार्य के बंटवारे को लेकर यह समानता हो सकती हैं लेकिन प्राकृतिक जिम्मेदारियों के निर्वहन को नकारना प्रकृति से खिलवाड़ करना है इसे समझना होगा और स्नेह और समर्पण के साथ शिरोधार्य कर एक दूसरे को सम्मान देना होगा तब शायद परिवार का रूप साकार हो पाएगा!परिवार बस पाएंगे वरना परिवार जो भारतीय संस्कृति की सदा से पहचान रहे हैं उनका क्या हश्र होगा यह सोच कर भी डर लगता है | हमारी कल्पना में तो परिवार बड़े- बूढ़ों,माता-पिता,बच्चों और ढेर सारे रिश्तों का पर्याय है जहां सुख-दुख, कमोबेशी में एक दूसरे को संभालते हुए सब आगे बढ़ते हैं!
रश्मि वर्मा रायगढ़ छत्तीसगढ़