June 3, 2023

95. हिंदी साहित्य में दलित चेतना का उद्भव-भारती

By Gina Journal

Page No.: 667-675

हिंदी साहित्य में दलित चेतना का उद्भव

भारती

पीएचडी शोधार्थी

हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय

 

चेतना का संबंध चेतन मन से है। अर्थात् नींद से जागना। सुप्त अवस्था से जागृत अवस्था में प्रवेश करना ही चेतना है। चेतना जीवधारियों में रहनेवाला तत्व है, जो इन्हें निर्जीव पदार्थों से भिन्न बनाता है। दूसरे शब्दों में हम उसे मनुष्यों की जीवन क्रियाओं को चलाने वाला तत्व कह सकते हैं। चेतना स्वंय को और अपने आस पास के वातावरण को समझने तथा उसकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है।चेतना के अभाव में मानव संवेगहीन हो सकता है।मनोविज्ञान के अनुसार चेतना मानव में उपस्थित तत्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूति भी होती है और इसी कारण अनेक प्रकार के निश्चय करने तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं। अतः चेतना मनुष्य की वह विशेषता है जो इसे जीवित रखती है और जो व्यक्तिगत और बाहरी विषय में तथा अपने पर्यावरण के विषय में बात करती है।

दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु के ‘दल’ से हुई। जिसका शाब्दिक अर्थ दबा-कुचला है। अर्थात् जिसे समाज व्यवस्था में वर्षों से शोषित-उत्पीड़ित किया गया। इस शब्द के अनुरूप यदि समझा जाए तो इसके अंतर्गत शूद्र वर्ण के अतिरिक्त स्त्री, पशु भी सम्मिलित हो जाते हैं। किंतु यदि भारतीय समाज व्यवस्था के संदर्भ में इसे देखें तो केवल और केवल चतुर्थवर्ण ही दलित कहा गया। कुछ विद्वानों का मानना है कि गांव की सीमा के बाहर आने वाली सभी अछूत जातियां, आदिवासी, भूमिहीन, खेत मजदूर श्रमिक, कष्टकारी जनता और यायावर जातियां सभी दलित शब्द की परिभाषा के अंर्तगत आती हैं।

मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मा के मुख से ब्राह्मण की, और पैर  से शूद्र की उत्पत्ति हुई है।भारतीय वर्ण व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज व्यवस्था चार वर्णों में बांटी गयी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी तथा काम के आधार पर वर्णों की व्यवस्था की गई जिसमें शूद्र को समाज के अपने से ऊपर के वर्णों की सेवा एवं साफ सफाई के साथ-साथ अत्यंत निकृष्ट कार्य सौंप दिए गए। प्रारंभिक कर्म आधारित समाज व्यवस्था धीरे-धीरे जन्म आधारित बन गई। शूद्र समाज के लिए यह व्यवस्था अभिशाप साबित हुई। जिसमें शूद्रों की स्थिति बद से बदत्तर बनती चली गई। ‘‘सामाजिक व्यवस्था के नाम पर हिंदू समाज को चार वर्णों में बांटा गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और शेष अवर्ण। हिंदु धर्म ने इस सामाजिक व्यवस्था के नाम पर बने चार वर्णों में पहले तीन को दिया और चौथे वर्ण एवं अन्यों को अद्विज कहकर न केवल अधिकारों से वंचित किया बल्कि अस्पृश्यता विषमता, ऊंच-नीच, भेदभाव मार फटकार, दुत्कार, अभाव, बेइज्जती को भी थोप दिया।’- (धर्म और राजनीति की दलित चुनौती-  डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर )

‘दलित’ शब्द मूलतः प्राचीन भारतीय व्यवस्था के उस निम्नतम वर्ग के लिए प्रयुक्त होता है जिसे शूद्र, श्वपच या दास कहा गया। ‘अछूत’ ‘हरिजन’ ‘अनुसूचित जाति-जनजाति’ उपेक्षित ‘बहिष्कृत’ या पिछड़ा वर्ग आदि को दलित का पर्याय माना गया। (संचतना- दि. 1981-1982- पृ. 70) मानक अंग्रेजी -हिन्दी शब्दकोष में ‘दलित’ शब्द के लिए ‘डिप्रेस्ड’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ – दबाना, नीचा करना, झुकाना, विनत करना, नीचे लाना, सवर नीचा करना, धीमा करना, म्लान करना तथा दलित वर्ग का अर्थ नीची जातियों के लोग, अछूत हरिजन, पीड़ित दबाए हुए पददलित, कुचलें-सताए हुए लोग दिया गया है। – (मानक अंग्रेजी हिंदी कोश, सत्यप्रकाश पृ. 36 )

डॉ0 श्यौराज सिंह बेचैन ‘दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।’ डॉ0 सोहनपाल ‘सुमनाक्षर’ – दलित शब्द जहां व्यक्ति को अपने अस्मिता, स्वाभिमान और अपने गौरवपूर्ण इतिहास पर दृष्टिपात करने को बाध्य करता है, वहीं पर अवनति, वर्तमान स्थिति और तिरस्कृत जीवन के विराम में सोचने के लिए विवश करता है। दलित शब्द आक्रोश, चीख, वेदना, पीड़ा, घुटन और चुभन, छटपटाहट का प्रतीक है।’ (दलित विमर्श मेरे हिन्दी दलित काव्य- प्रो0 कालीचरणत्र पृ. 25)

शूद्रों को ब्राह्मणों या अन्य उच्च जातियों की तुलना में एक ही अपराध के लिए कई गुना अधिक दंड दिया जाता था। उन्हें सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार छीन लिया गया। शूद्रों से केवल अन्य तीन वर्णों की सेवा की ही अपेक्षा की जाती थी। मनु ने शूद्रों की स्थिति को और अधिक गिराने और उत्पीड़न देय कई कड़़े नियम बनाए और उसे पुर्नजन्म या कर्म से जोड़ दिया। उनके अनुसार शूद्र यदि किसी ब्राह्मण के लिए बुरा कहे तो उसकी जीभ काट ली जाए। शूद्र की हत्या करने पर ब्राह्मण करे वही प्रायश्चित करने चाहिए जो पशु अथवा पक्षी की हत्या पर करता है। विषमतामूलक समाज की नींव वैदिक युग के आरंभ हुई थी जो वर्तमान तक जारी है।

श्री सुरेश चंद्र के अनुसार “भारतीय समाज में आदिकाल से ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व रहा है।जिन्होंने अपनी इच्छानुसार समाज को व्यवस्था दी, जिसमें कुछ बातें सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य रहीं, तो अनेक ऐसी रहीं जो भेदभावमूलक तथा शोषण को बढ़ावा देने वाली थी। सवर्ण-अवर्ण के बीच में ऊंच नीच और अस्पृश्यता आदि की भावनाएं ऐसी ही थी, इसी आधार पर अन्तयजों का शारीरिक,बौधिक एवं आर्थिक शोषण किया जाता था।कहना न होगा यहां का बौध धर्म इसी की प्रतिक्रिया में आया और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसने समतामूलक दृष्टि की स्थापना की । चौरासी सिद्धों सें सिद्ध सरहपा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। अपने समय में इस विद्वान सवर्ण ने असवर्ण स्त्री से विवाह किया।भेदभाव दूर करने का यह पहला प्रयास दिखाई देता है। किंतु दक्षिण के महाराष्ट्री संत तथा उनकी प्रेरणा एवं परिणाम के फलस्वरूप उत्तर भारत के अनेक हिंदी संतों ने प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसी भावनाएं एवं उद्गार व्यक्त किए हैं जिन्हें दलित चेतना की देन माना जा सकता है। हिंदी दलित साहित्य के इतिहास के विषय में विद्वान एकमत नहीं है।अनेक विद्वानों का मानना है कि दलित चेतना का आरंभ सबसे पहले मराठी साहित्य में हुआ। यह राजनीतिक चेतना की देन है। उत्तर भारत में यह कुछ देर से आई, किंतु हिंदी दलित साहित्य का मूल स्वर अस्पृश्यता, वर्णवाद, जातिवाद तथा आर्थिक शोषण के विरूद्ध रहा है।अतः यदि कहा जाए कि यहां दलित चेतना का विकास भक्तिकाल से हो गया था तो अनुपयुक्त न होगा।(दलित साहित्य एक इतिहास-सुरेश चंद्र शुक्ल, दलित साहित्य सृजन के संदर्भ, डॉ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी पृ.21-22  )

आदिकाल में चौरासी सिद्धों ने अपना प्रभाव लोगों पर डालना आरंभ किया। गोरखनाथ इनकी परंपरा को आगे बढ़ाते है। निर्गुणपंथी ने ईश्वर की परिकल्पना का विरोध किया जिसका जुड़ाव सीधे तौर पर वैदिक युग से था। नाथ पंथी अधिकतर निम्न कही जाने वाली जातियों से थे। उन्होंने जातियों का खंडन किया और उसका विरोध भी किया तथा पंडित पुरोहितों को फटकार लगाई। आदिकाल में हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिमों ने भी नाथपंथ की ओर अग्रसरता दिखाई। ऐसा माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था का जन्म शोषण के लिए हुआ था। यह शोषण रूका नहीं बल्कि काल दर काल बढ़ता चला गया। मध्यकाल में कवि नामदेव सामने आए जो पिछड़ी जाति से संबंध रखते थे। संत कवियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान कबीर का है।

 ‘‘जात ना पूछिये साधु की, पूछि जीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहा हो म्यान।।

अर्थात व्यक्ति जाति से नहीं अपने ज्ञान और कृत्यों के बल पर बड़ा बनता है।

        आधुनिक काल जो कि बेहद विस्तृत काल रहा है इस तक आते-आते दलित समाज की समस्याएं उभर कर स्पष्ट सामने आतीं थी। उन्हें समाज से दूर अलग बस्तियों में रखा जाता था। ‘‘-इस जाति समूह में वे लोग आते है जिन्हें समाज सामान्यतः अस्पृश्य या अछूत कहता है। महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले और उनकी धर्मपत्नी सावित्री बाई ने दलितों का शिक्षित करने का बीड़ा उठाया जिन पर उच्च समाज और यहां तक की स्वयं दलित समाज ने प्रश्नचिन्ह खड़े किए सावित्री बाई जब बालिकाओं का पढ़ाने जाती तो उन पर पत्थर तथा गोबर फेंक कर अपमानित किया जाता था। इन्होंने शूद्रों और दलितों को संगठित हो शिक्षित होने का संकल्प दिया। और कई विद्यालयों की स्थापना की। 1873 ई. में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की जो उच्च जाति के लोगों के वर्चस्व को चुनौती थी। इन्हीं से प्रेरित होकर अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान का बीड़ा उठाया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन की अल्पसंख्यंक संबंधी समिति को डॉ. अम्बेडकर ने एक पत्र लिखा था, जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने दृढ़ता से अपनी मांगें संविधान में अधिकारों के लिए रखी-(1) समान मूल अधिकार।(2) भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरूद्ध संरक्षण (3) सरकारी नौकरियों में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखना। (4) विधानसभाओं में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखना। (5) उनकी उन्नति के लिए अलग विभाग की स्थापना।(6) सामाजिक बहिष्कार करने वालों के लिए कड़े दंड की व्यवस्था।(7) शोषण-मुक्ति की ओर ध्यान दिया जाना।

दलितों को लेकर गांधी जी ने भी अग्रसर होकर कार्य किया। शायद उन्होंने भी भेदक के दर्द को झेला है भले ही वह भेद जाति आधारित न होकर रंग आधारित था। अंग्रेजी अफसरों द्वारा उन्हें ट्रेन से उतार देना क्योंकि वह उनकी श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। अंग्रेजो को यह नागवार गुजरा। दलितों के दर्द की पीड़ा को उन्होंने कहीं न कहीं समझा था। दलितों का ‘हरिजन’ शब्द का संबोधन इनके द्वारा ही किया गया।

आधुनिक भारत में अर्थात् स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दलित आंदोलनकारियों के संघर्ष के परिणामस्वरूप दलितों की स्थिति में कुछ हद तक सुधार आया। दलितों में अपने अधिकारों के प्रति तथा समाज में समानता स्थापित करने के उद्देश्य से चेतना का विकास हुआ। इस संबंध में ओमप्रकाश वाल्मिकी ने स्पष्ट किया-‘‘दलित चेतना का सीधा संबंध दृष्टि से है। दलित यानी हजारों साल से शोषित, प्रताड़ित, सामाजिक और धार्मिक विद्वेष से नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया, मानवीय अधिकारों से वंचित वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खड़ा अस्पृश्य, अंत्यज, पंचम कहे जाने वाले व्यक्ति की चेतना यानि दलित चेतना। यही चेतना दलित साहित्य की अंतः उर्जा में नदी के तेज बहाव की तरह समाविष्ट है, जो उसे पारंपरिक साहित्य से अलग करती है। भारतीय समाज व्यवस्था को सबसे बिना दलित चेतना की तीव्रता को समझना कठिन है। हजारों वर्षों की प्रताड़ना, शोषण, द्वेष, वैमनस्य और भेदभाव से दबा दलित सभी अस्मिता की खोज के लिए जागरूक दिखाई पड़ता है।… वैचारिक रूप से दलित चेतना के मंतव्य को साफ करते हुए वे कहते है- वैचारिक रूप से दलित चेतना, बंधुता और स्वतंत्रता के पक्षधर है। अनीश्वरवाद, आत्मवाद पुर्नजन्म, ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था का विरोध, आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद का विरोध,1 हिंदु देवी देवताओं के प्रति अनास्था अधिनायकवाद का विरोध, वर्गहीन समाज की पक्षधरता, भाषावाद, लिंगवाद का विरोध2 स्त्री के प्रति समानता का भाव आदि कुछ विशिष्ट बिंदु हैं।“ (वसुधा-1990 जन-मार्च-2012, पृ. 81)

        कैबिनेट मिशन योजना 1946 में निश्चित किया गया था कि भारतीय संविधान निर्माण हेतु परोक्ष निर्वाचन के आधार पर एक संविधान सभा की स्थापना की जाए। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई। संविधान निर्माण के कार्यों को सुगम बनाने के लिए कई समितियों का गठन किया गया जिसमें से सबसे महत्वूपर्ण प्रारूप समिति थी जिसके सभापति डॉ. अम्बेडकर चुने गए। सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए संविधान के अनच्छेद 15 के अंतर्गत प्रावधान किए गए जिसके अनुसार- ‘राज्य किसी भी नागरिक केवल धर्म मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।अनुच्छेद 17 के माध्यम से ‘अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया और 1955 ई. में संसद में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम पारित किया गया। ‘अस्पृश्यता से उपजी किसी भी नियोग्यता को लागू करना विधि के अनुसार दण्डनीय घोषित किया गया।

डॉ. अम्बेडकर संविधान के अंतर्गत आरक्षण का प्रावधान देकर कुछ हद तक दलितों की स्थिति को सुधारने में सफल हुए है। ‘‘भारतीय संविधान के तहत सभी नागरिकों को ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ ऐसा गरिमारूप स्थान देकर उनकी स्वत्रंतता, समानता, भ्रातृत्वभाव, न्याय एवं धर्मनिरपेक्षता इन मानवीय मूल्यों पर आधारित संपूर्ण प्रगति करने का उत्तरदायित्व संविधान ने दिया है। (इक्कीसवी सदी दलित आंदोलन, पृ. 108) डॉ. अम्बेडकर ही दलित साहित्य के प्रेरणास्रोत रहे हैं।इनकी प्रेरणा से दलित साहित्य सुदृढ़ हो रहा है।1967 ई. में महाराष्ट्र बौद्ध सम्मेलन और 1972 ई. में दलित पैंथर ये दोनों घटनाएं ही साहित्य परंपरा में अपना नाम दर्ज कर चुका है।

दलितों के संबंध में पूर्व की बनी हुई अवधारणा , खोखली रूढ़ीवादी मानसिकता के विरोध में दलित साहित्य का जन्म हुआ।दलित साहित्य समाज में परिवर्तन का द्योतक है।दलित एवं गैर दलित विचारको द्वारा दलितों की स्थिति को सुधारने एवं क्रांति संचारित करने के उद्देश्य से विभिन्न कहानियों,उपन्यास,आत्मकथा, कविता, नाटक आदि की रचना की गई है। दलितों के संबंध में पहले से जो अवधारणा बनी हुई है वह समाज की मानसिकता में काफी गहराई से व्याप्त हो चुका है। उन्हीं खोखली रूढ़ीवादी मानकों, सामंती अवशेषों के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित ही नहीं करता बल्कि समाज को बदलने का साहस भी प्रदान करता है। इससे सिद्ध होता है कि यह साहित्य समाज के लिए परिवर्तन रूपी औजार है। समाज का सबसे निम्न तपका जो आज भी गुलामी का शिकार है चाहे वह सामाजिक गुलामी हो या मानसिक, इस गुलामी से मानव को मुक्त करने की क्षमता रखता है। समाज में समता, स्वतंत्रता व बंधुता का भाव पैदा कर मनुष्य से जोड़ने का कार्य करता है।मूलतः दलित साहित्य भारतीय समाज में व्याप्त घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और धार्मिक पाखण्ड के विरूद्ध लिखा जाने वाला रचनात्मक इतिहास है।समाज में घृणा के कारण जो उपेक्षित कर दिए गए थे ।यह साहित्य उन्हीं की समता की बात करता है।

ओमप्रकाश वाल्मिकी की कहानी ‘सलाम’ में ब्राह्मण जाति का कमल उपाध्याय अपने मित्र चूहङ जाति के हरीश को उसकी जाति के भेदभाव को भूलकर आगे बढ़ने का हौसला देता है।कमल हरीश से कहता है-“हरीश अपने मन से हीन भावना निकालों।दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गई और तुम लोग वहीं के वहीं हो।उगते सूरज की रोशनी देखो।अपने आप पर विश्वास करना सीखो।पढ़ लिखकर ऊपर उठोगे तो सब कुछ अपने आप मिट जायेगा”।  1914 में ‘सरस्वती पत्रिका’ में प्रकाशित ‘हीरा डोम’ की “अछूत की शिकायत” कविता हिंदी दलित साहित्य की प्रथम कविता मानी गई जिसमें इन्होंने करूणा भरे शब्दों में दलित की दयनीय स्थिति को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है।

1975 से पूर्व हिंदी साहित्य में दलित साहित्य जैसी कोई अवधारणा नहीं थी। इसी समय के आसपास कमलेश्वर द्वारा सारिका पत्रिका में दो दलित विशेषांक निकाले। प्रेमचंद के अतिरिक्त शायद ही कोई गैर दलित साहित्यकार होगा जिसने दलितों की स्थिति को उजागर किया होगा।

वाल्मिकी की ही कहानी सपना में एस सी जाति का गौतम व ब्राह्मण जाति का ऋषि दोंनो एक ही कारखाने में वर्कर थे।मंदिर निर्माण में ऋषि की मदद गौतम ने भी की थी, पर जब उद्घाटन के दिन उच्च वर्ग के लोग गौतम को मंदिर में प्रवेश से मना करते हैं, तो ब्राह्मण जाति का ऋषि अपने मित्र गौतम की तरफ हो, उसके विरूद्ध अपनी ही जाति से लड़ता है।ऋषि गौतम के हक को याद कर गौतम से कहता है-नहीं गौतम, यह तेरी या मेरी लड़ाई नहीं है…….आज यह जगह छोड़कर तुम चले गये तो फिर इस लड़ाई को जारी रखना मुश्किल होगा।और फिर तुम क्यों जाओगे।जायेंगे वे जो निकम्मे और जाहिल हैं।यह मंदिर इनका कैसे हो गया…….आओ मेरे साथ………।

दलितों को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। समाज के अन्य वर्ग न तो कभी उनके साथ थे और न होंगे हां लेकिन बाबा साहब अंबेडकर की शिक्षा ने समाज को एक समझ दी है जिसके चलते आज का युवा दलितों के समर्थन में खड़ा हुआ है।

कुसुम वियोगी की कथा .अंतिम बयान. में एक दलित जाति की लड़की अतरो ने प्रधान के बेटे राजेन्द्र का वध कर दिया था। वह पापी उसकी अस्सत से खेलना चाहता था ।आज केवल पुरूष वर्ग ही नहीं, बल्कि उच्च जाति के शोषण के विरूद्ध दलित स्त्रिया आवाज उठाने लगी हैं, क्योंकि अब वे समाज में अपना भी वजूद स्थापित करना चाहती हैं। अतरो अपनी मुहँबोली भाभी से कहती है- भाभी अगर उसने मुझे कुछ कह दिया तो फिर देख दराती से गन्ने सा कतरकर रख दूंगी हरामखोर को गांव वाले देखते रह जायेंगे।

हिंदी दलित  साहित्य को समृद्ध करने में ओमप्रकाश वाल्मिकी, मोहनदास नैमिशराय,डॉ. एन.सिंह, सोहनपाल सुमनाक्षर, रजनी तिलक, डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम आदि का  महत्वपूर्ण स्थान है।दलितों का आत्मसंघर्ष ऊपर से जितना सहज और सरल दिखाई पड़ता है भीतर से उतना ही व्यापक और भयावह है।जो दलितों की अदम्य जीजिविषा का परिणाम है।अतः दलित साहित्य यातनाओं की त्रासदी से उपजा एक साहित्यक हस्तक्षेप है, जो संपूर्ण जड़वादी समाज को हिलाने का सामर्थ्य रखती है।

 

  1. डॉ. अंबेडकर और दलित साहित्य-डॉ. धर्मवीर, शेष साहित्य प्रकाशन दिल्ली-सं.1996
  2. दलित क्रांति का साहित्य-डॉ, श्यौराज सिंह बेचैन, संगीता प्रकाशन दिल्ली-सं.1998
  3. युगपुरूष अंबेडकर-राजेन्द्र मोहन भटनागर, राजपाल एण्ड संस प्रकाशन दिल्ली-1994
  4. बाबा साहेब अंबेडकरःएक चिंतन-मधुलिमये, आत्माराम एण्ड संस प्रकाशन दिल्ली-1997
  5. नयी सदी का पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियां,मुद्राराक्षस
  6. सलाम कहानी संग्रह, ओमप्रकाश वाल्मिकी

 

 

 

 

 

 

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