June 6, 2023

103. हिंदी साहित्य में समकालीन आधुनिक विमर्श -डॉ. पायल लिल्हारे ‌‌

By Gina Journal

Page No.: 725-734

हिंदी साहित्य में समकालीन आधुनिक विमर्श

             ‌       डॉ. पायल लिल्हारे ‌‌

                 सहायक प्राध्यापक हिंदी

           अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय निवाड़ी

              मो- 7987131767

          ईमेल- payalgurukul@gmail.com

——————————————

 

 

                   संसार में जो कुछ घटित होता है उसकी अभिव्यक्ति साहित्य में होती है। साहित्यकार का ह्रदय समाज की संवेदनाओं से स्पंदित होता है। वह समाज की नब्ज पकड़कर अपनी सार्थक भूमिका का निर्वहन करता है। साहित्य हमेशा से समाज को दिशा देने एवं लोकमंगल की भावना को साकार करने के लिए कृत संकल्पित रहा है। साहित्य सर्जनशील प्रक्रिया है जो बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है। वर्तमान समय में समाज के सभी वंचित, उपेक्षित, शोषित समूहों ने अपने अधिकारों, अस्मिता एवं अस्तित्व के लिए निर्णायक लड़ाई छेड़ दी है। यह लड़ाई किसी के विरुद्ध नहीं अपितु मानवता के पक्ष में लड़ी जा रही हैं। इसी से 21वी सदी के साहित्य में अनेक विमर्शों की प्रतिष्ठा हुई है। विविध विमर्शों के माध्यम से पीड़ित, वंचित वर्ग की दबी आवाज को बल मिला, उन्हें हाशिए से मुख्यधारा में आने में मदद मिली, उनकी समस्याओं पर समाज की दृष्टि पड़ी और उस वर्ग के उत्थान को बल मिला।

          हमारे समाज में आज भी लिंग, वर्ण, जाति, आर्थिक विषमता आदि के आधार पर घोर असमानता व्याप्त है। ये विमर्श वंचित वर्ग के हक के लिए बुलंद करने वाली आवाज है जिसके अंतर्गत उपेक्षित, वंचित, पिछड़ा वर्ग, स्त्री वर्ग हो, दलित वर्ग हो, आदिवासी वर्ग, किन्नर वर्ग हो या अन्य वर्ग शामिल है। वर्तमान में स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर, प्रवासी, बाल, वृद्ध, अल्पसंख्यक, किसान, दिव्यांग, पर्यावरण आदि विमर्शों के माध्यम से संबंधित वर्ग को हाशिए से मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है। हाशिए के समाज से तात्पर्य ऐसे समाज से है जो शोषित, पीड़ित, दमित, वंचित व उपेक्षित हो तथा मुख्यधारा से बहिष्कृत जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो। जिन्हें मुख्यधारा से विस्थापित कर हाशिए पर धकेल दिया गया है। हाशिए में पड़े समाज का उद्धार न तो शासन करती है न ही समाज। वर्चस्ववादी सत्ताधारी स्वार्थी वर्ग ऐसी षड्यंत्रकारी व्यवस्था निर्मित करता है जिससे हाशिए का समाज कभी भी मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाता है। यह अस्मितामूलक विमर्श हाशिए में चले गए लोगों को केंद्र में लाने का कार्य करता है। ऐसे में उन्हें स्वयं ही ‘अप्प दीपो भवः’ बनकर समाज की मुख्यधारा में स्थान बनाना होगा। यही उनकी मुक्ति का मार्ग हैं।

              किसी भी विमर्श को जानने से पूर्व विमर्श शब्द को जानना अत्यंत आवश्यक है। “विमर्श शब्द की उत्पत्ति ‘मृश’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से हुई है। जिसका अर्थ है- वितर्क, विवेचना, तथ्यानुसंधान, अधैर्य,अधीनता।”1

“विचार, विवेचन, परीक्षण, समीक्षा, तर्क ज्ञान-वादी वितर्क करने वाला।”2 अंग्रेजी में विमर्श के लिए Discourse शब्द प्रयुक्त होता है। विमर्श सामान्य अर्थ में दो वक्ताओं के बीच संवाद, बहस अथवा सार्वजनिक चर्चा या जीवंत बहस को कह सकते हैं। ‘विमर्श’ शब्द का सामान अर्थ है दो वक्ताओं के बीच संवाद या बहस अथवा सार्वजनिक चर्चा। आक्सफोर्ड अंग्रेजी कोश में भी ‘ डिस्कोर्स’ (Discourse) शब्द का अर्थ- भाषण या बातचीत ही है। सभी कोशों में ‘विमर्श’ शब्द का अर्थ किसी न किसी प्रकार बातचीत या विचार विवेचन से ही जुड़ा है। ‘विमर्श’ शब्द में जहाँ बातचीत और वार्तालाप इत्यादि अर्थ सामने आते हैं वही साहित्यिक रूप में इसका अर्थ किसी गंभीर विषय का गहन विवेचन-विश्लेषण और अंततः तर्कसंगत निर्णय पर पहुँचने का प्रयत्न है। डॉ.रोहिणी अग्रवाल के अनुसार-“विमर्श का अर्थ है- जीवंत बहस। किसी भी समस्या या स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों,संस्कारों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए उलट-पुलट कर देखना, उसे समग्रता से समझने की कोशिश करना और फिर मानवीय संदर्भों में निष्कर्ष प्राप्ति की चेष्टा करना। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में निष्कर्ष अंतिम निर्णय की तरह थोपे नहीं जाते,वरन् उन्हें समय के साथ मुठभेड़ कर नया स्वरूप ग्रहण करने की स्वतंत्रता दी जाती है।”3

    इन अस्मितामूलक मुक्तिकामी विमर्शों की वर्तमान में अत्यंत प्रासंगिकता है। विमर्शों की आवश्यकता इसलिए है ताकि हम स्त्री, दलित, पिछड़े, किन्नर, दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा में ला सकें। इन वर्गों को हमारा प्रगतिशील समाज आज भी मनुष्य नहीं समझ पा रहा है, विमर्शों के माध्यम से सामाजिक दुर्भाव का अंत हो सकें। साहित्य के माध्यम से समाज में सुधार लाना तथा सर्वसमभाव से परिपूर्ण समाज की स्थापना करना विमर्श का उद्देश्य है।

विमर्श अन्याय, अत्याचार, शोषण से मुक्ति एक अस्त्र है जो सामाजिक विषमता का अंत करता है।

विमर्श कल्याणकारी चेतना का निर्माण कर सभ्य एवं उन्नत समाज की स्थापना करने हेतु प्रयत्नशील है।

                कमोवेश रुप में सभी विमर्शों के मूल तत्व के रुप में हम समस्याग्रस्त वर्ग का संकट, अस्मिता का संकट, हाशिए का समाज, दमन, शोषण एवं अत्याचार का शिकार, उपेक्षित एवं समस्याग्रस्त जीवन, पहचान का संकट आदि समस्या से जूझते देखते हैं।

            नवोदित विमर्शों पर यह  आरोप लगाए जाते रहे हैं कि

नए-नए विमर्शों के आविर्भाव से साहित्य खंडित हो रहा है। साहित्य के गहन पठन-पाठन की परंपरा विलुप्त होती जा रही है जो आने वाले नई पीढ़ी को विभिन्न खाँचों एवं साहित्यिक हलकों में बांटकर खंडित व्यक्तित्व में परिवर्तित कर देगी। जबकि यह सच नहीं है। ऐसे लोगों के अनुसार ज्ञान का अध्ययन समग्र रूप से करना चाहिए न कि उसे विविध इकाइयों में बांटकर? पर क्या यह सच नहीं कि खंड दर्शन से ही समग्र दर्शन की अवधारणा सार्थक होती है। यदि डॉक्टर समग्र शरीर का इलाज करे तो वह किसी एक अंग से संबंधित बीमारियों का विशेषज्ञ नहीं हो सकता इसलिए वर्तमान में आँख, दांत, ह्रदय सभी अंगों के स्पेशलिस्ट डॉक्टर मिलेंगे। जिस प्रकार हमारे विभिन्न अंगों के समुच्चय से शरीर का निर्माण होता है उसी प्रकार विभिन्न विमर्शों,विद्माओं एवं रूपों से साहित्य परिपुष्ट, उन्नत व विकासशील होता है। विशेष रूप से समस्याओं पर ध्यानाकर्षित कर उनका निराकरण किये जाने हेतु विमर्शों की अत्यंत आवश्यकता है। यही कारण है कि अज्ञेय कहते हैं- ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा, है गर्व भरा मदमाता-सा इसको भी पंक्ति को दे दो।’ विमर्शों की यह उपादेयता है कि साहित्य में हम इनके माध्यम से खंड दर्शन से समग्र दर्शन की ओर बढे़ और साहित्य का एक विराट रूप निर्मित करें।

          विमर्शों के संबंध में मुख्यतः दो दृष्टिकोण प्रचलित है-

  1. स्वानुभूतिपरक साहित्य जो स्वयं उस वर्ग द्वारा लिखित होता है। जिसमें भोगे हुए यथार्थ का अनुभव की प्रमाणिकता के आधार पर प्रस्तुतीकरण होता है। यह बाल विमर्श पर लागू नहीं होता है।
  2. सहानुभूतिपरक साहित्य। जो इतर वर्ग द्वारा लिखा गया हो, जिसमें पीड़ितों की अनुभुति को साहित्यकार सहानूभूति के आधार पर कलात्मक अभिव्यक्ति देता है।

          स्त्री विमर्श एक ऐसा आधुनिक विमर्श है जो पुरुष समाज के बरकस नारी अस्मिता, नारी जीवन की ऐषणा, नारी स्वतंत्रता, नारी मुक्ति, नारी सुरक्षा का प्रश्न, दैहिक शोषण से मुक्ति आदि समग्र बातों को, नारी से जुड़ी समस्याओं को हर पहलू, हर दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करता है। स्त्री के संबंध में विचार विनिमय, उसे केंद्र में रखकर समझने के लिए संवाद या बहस नारी विमर्श है। नारी विमर्श का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न स्वतंत्रता का है। नारी विमर्श से अभिप्राय नारी को पुरुष से मुक्ति दिलाना अथवा संबंध विच्छेदन करना न होकर पुरुष वर्चस्व से मुक्ति दिलाना है। “स्त्री के संबंध में विचार विनिमय, उसे केंद्र में रखकर समझने के लिए संवाद या बहस।”4 जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के बराबर स्त्रियों के अधिकारों का समर्थन ही नारीवाद है। सुमन राजे स्त्री विमर्श को स्त्री के आत्मबोध, आत्मविश्लेषण और आत्माभिव्यक्ति का संघर्ष बताती हैं। तस्लीमा नसरीन का मानना है नारीवाद स्त्री-मुक्ति का संघर्ष है जो सभी स्त्रियों को बिना किसी भेदभाव के एक मनुष्य समझे जाने का आग्रह करता है। ‘औरत भी इंसान है’ यह बात तस्लीमा जी जोर देकर कहती हैं।डॉ.रोहिणी अग्रवाल का विचार है कि स्त्री-मुक्ति के लिए सर्वप्रथम पुरुष की मानसिकता में परिवर्तन होना अत्यंत आवश्यक है तभी वह स्त्री को एक वस्तु न मानकर मनुष्य का दर्जा दे पाएगा। वे लिखती है कि-“मनुष्य की सोच और दृष्टि में अपेक्षित परिवर्तन के बिना स्त्री-मुक्ति बेमानी है।”5 ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः’ कहकर जहांँ नारी का महिमामंडन किया गया वही नारी को पिता, पति, पुत्र आदि के अधीन कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी बढ़ावा दिया गया। हर युग में नारी का शोषण व्याप्त है। रामायण युग में अपहृत सीता की अग्निपरीक्षा करके भी त्याग दिया गया। महाभारत युग में द्रोपदी को जुए में हारने के बाद चीरहरण कर अपमानित करने का प्रयास किया गया। इस्लाम सत्ता के काबिज होने के बाद देश में स्त्रियों की दशा और भी दयनीय हो गयी। पितृसत्तात्मक समाज हमेशा से नारी की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है इसलिए उसने नारी की स्वतंत्रता को कुचला। सिमोन द बोउवार कहती हैं कि “औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है।”6 स्त्री की जिम्मेदारियों का, उसके दायित्वों का कोई अंत नहीं। सूरज को जगाने से लेकर चाँद को सुलाने तक उसकी जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती, उसे पारिवारिक दायित्वों पति-बच्चों आदि के सारे दायित्व अकेले ही संभालने पड़ते हैं। स्त्री चाहे किसी भी कार्य में दक्ष हो या कामकाजी ही क्यों न हो उसे रसोई में जाना ही पड़ता है। पति,बच्चों व परिवार की सेवा का भार,अतिथि स्वागत सत्कार, घर के रोजमर्रा के खर्चों का हिसाब, नातेदारी रिश्तेदारी का निर्वाह सभी उसके ही कर्तव्य माने जाते हैं। स्त्री बहुत कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करती। विभिन्न भूमिकाओं के बावजूद भी उसकी प्रतिष्ठा पर उंगली उठाई जाती है।

          इतिहास गवाह है कि कमजोर को दबाया जाता है, उसका शोषण किया जाता है। दलित शब्द का अर्थ है- “जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ,  कुचला हुआ, मर्दित, पस्त- हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि।”7 दलित साहित्यकारों पर बुद्ध, महात्मा फुले और डॉक्टर अंबेडकर के विचारों का स्पष्ट प्रभाव है। दलित साहित्य मनुष्य की मुक्ति का वह साहित्य है जो अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरोध में समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व की स्थापना के उद्देश्य से अपने भोगे हुए यथार्थ को समाज के सम्मुख रखता है। दलित साहित्य का स्वर तल्ख व कठोर है। दलित साहित्यकार ‘सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय’ के स्वप्न को देखता है। दलित साहित्यकार अपने भोगे हुए यथार्थ को समाज के सम्मुख रखकर अमानवीय रूढ़ियों, परंपराओं, अंधविश्वासों, जाति व्यवस्था आदि का विरोध करता है। दलित लेखन सामाजिक क्रांति का दस्तावेज है जो अमानवीय मूल्यों एवं गुलामी की दासता का विरोध कर समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व की स्थापना करता है। दलित साहित्यकारों का स्पष्ट मानना है कि दलितों की पीड़ा, उनके दर्द, उनके जीवन संघर्ष का चित्रण दलित ही कर सकता है क्योंकि ‘जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’ लेकिन गैर दलित साहित्यकार मानते हैं कि सहानुभूति के आधार पर उनके दुख-दर्द, पीड़ा, यातना, संघर्ष को महसूस किया जा सकता है। यानी स्वानुभूति व सहानुभूति का द्वंद्व आज भी जारी है।

             वर्तमान में आदिवासी भी दलितों की तरह जागरुक होकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। आदिवासी साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों के जीवन, समाज तथा दर्शन की अभिव्यक्ति होती है। आदिवासी अस्मिता,  उनकी पहचान, उनके अस्तित्व संबंधी संकटों के खिलाफ जारी प्रतिरोध का साहित्य आदिवासी साहित्य है। आज के आधुनिक युग में भी इन मूलनिवासियों को जंगली, बर्बर, आदिम, वनवासी आदि कहकर उनके साथ पशुओं के समान व्यवहार किया जाता है।जल, जंगल, जमीन, जबान, जमीर, मुद्दों, समस्याओं पर यह साहित्य विचार करता है। “आदिवासी की सबसे बड़ी चिंता उसका अपना अस्तित्व है। उसकी अस्मिता, भाषा, संस्कृति सब खतरे में है। आदिवासी की पहचान है कि उसकी बोली-भाषा जिंदा रहे, वे अपनी मातृभाषा में पढ़े, लिखे, बोले तथा अपने व्यक्तित्व का विकास करें।”8

          स्त्री व पुरुष को सृष्टि का आधार माना गया है किंतु समाज में एक ऐसा भी वर्ग उपस्थित है जिसे लोग हिजड़ा, किन्नर, खुसरा, थर्डजेंडर, छक्का, ट्रांसजेंडर, तृतीय लिंग, नपुंसक आदि कहते हैं। इस वर्ग को समाज ने हमेशा से ही घृणा की दृष्टि से देखा और उसके अस्तित्व को तिरस्कृत किया है किंतु यह समुदाय आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। हमारा समाज शारीरिक व मानसिक विकलांगों को भी अपनाता है किंतु लैंगिक विकलांगों को उनका परिवार भी अपनाने से कतराता हैं। उनकी फिक्र करने वाला, उन्हें प्रेम करने वाला कोई नहीं होता। उनके जीवन में घृणा, तिरस्कार,  निराशा व अकेलापन का अंधकार  ही मिलता है। किन्नरों को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्हें समाज का एक महत्वपूर्ण अंग बनाना एवं उनके प्रति समाज की मानसिकता में सकारात्मक व्यापक परिवर्तन लाना इस विमर्श का उद्देश्य है। हमारे लिंगोपासक समाज में लिंग निरक्षेप किन्नरों को हमेशा घृणा की दृष्टि से ही देखा गया और उसके अस्तित्व को तिरस्कृत किया है किंतु यह समुदाय अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है।

             प्रवासी साहित्य हिंदी साहित्य की एक नवीन व चेतनाशील विधा है। इस प्रवासी साहित्य ने हिंदी को वैश्विक रूप प्रदान किया है। हिंदी का प्रवासी साहित्य भारतेतर देशों को भारत से जोड़ने का एक सेतु बनता है जिसके मूल में भारतवंशियों का स्वदेश प्रेम, भाषा प्रेम, संस्कृति प्रेम आदि सम्बद्ध है। भारत से दूर बसे भारतीयों के अथक प्रयासों से प्रवासी साहित्य समृद्ध हुआ है। गिरमिटिया मजदूर बनकर, शिक्षा या रोजगार कई कारणों से व्यक्ति अपने देश से दूर दूसरे देश में बसता है। हमारे देश के लोग मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो, फिजी, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, चीन, जापान विश्व के सभी देशों में फैले हुए है। उनका शरीर विदेशी धरती पर है किंतु उनका मन भारतीयता से ओतप्रोत है। विदेश में रहकर मन से भारतीय बने रहना, भारत भूमि को याद करके यह अपनी भूमि से जुड़े रहने का प्रयास करते हैं।

            बच्चे राष्ट्र के भावी निर्माता होते है, वे किसी भी देश का भविष्य होते हैं, वे ही भविष्य में श्रेष्ठ नागरिक बनकर राष्ट्र का नव निर्माण करते हैं इसलिए बच्चों को बचपन में सही शिक्षा व सुसंस्कार प्रदान करना अनिवार्य होता है। इसलिए वर्तमान में बाल साहित्य की प्रसंगिकता है। निरंकार देव सेवक ने जिस भाषा में बाल साहित्य सृजन नहीं होता उसकी स्थिति नि:संतान स्त्री के समान मानी है। पाश्चात्य समीक्षक ‘हर्ति डार्टन’ ने बाल साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है- “बाल साहित्य से मेरा अभिप्राय उन प्रकाशनों से है जिनका उद्देश्य बच्चों को सहज रीति से आनंद देना है, न कि उन्हें मुख्य रूप से शिक्षा देना अथवा उन्हें सुधारना अथवा उन्हें उपयोगी रीति से शांति बनाए रखना।”9 माँ की लोरिया, दादी, नानी की कहानियाँ, बाल कविताएँ बालमन के मनोरंजन एवं बौद्धिक विकास का साधन हैं, जिनसे बच्चों का मन प्रफुल्लित होता है और वे खेल-खेल में सहज रूप से अपने आसपास की वस्तुओं का भी ज्ञान प्राप्त करता है। बाल साहित्य बच्चें से उसके बचपन को छीनने वाली समस्त ताकतों के विरुद्ध, बाल साहित्य बालक को सहज रूप से पल्लवित होने का अवसर प्रदान करना, उनके विचारों, भावनाओं एवं संवेदनाओं के कैनवास को रंगों से सजाना है। यह परमावश्यक है कि बाल साहित्य बच्चों के धरातल तक उतरकर उसके मनोभावों तथा रूचियों को ध्यान में रखकर, मनोरंजक शैली में ज्ञानवर्धक रूप से लिखा गया हो।”10

      व्यक्ति जन्म के पश्चात विभिन्न अवस्थाओं से गुजरकर वृद्धावस्था को प्राप्त करता है। बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक मनुष्य समाज में अपना अस्तित्व बनाए रखता है। जहाँ बचपन एक रंगीन दुनिया का निर्माण करती है, युवावस्था उमंग और उत्साह के साथ आगे बढ़ता है, उसी प्रकार वृद्धावस्था भय, निराशा, कुंठा, अकेलेपन आदि से भरा होता है। वृद्धावस्था में भी व्यक्ति परिवार, समाज आदि के केंद्र की परिधि से हटकर उपेक्षित जीवन जीता है। वृद्धावस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर व मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अकेला व उपेक्षित महसूस करने लगता है। वृद्धों के जीवन, संवेदनाओं, उनकी समस्याओं पर लेखन ही वृद्धावस्था विमर्श है। माता-पिता बच्चों द्वारा उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार सहन नहीं कर पाते हैं, उन्हें अपने ही परिवार में अपनी स्थिति नगण्य महसूस होती है तो कभी-कभी निर्दयी औलादे बुजुर्ग मांँ-बाप को अपनी आनंदमय जिंदगी में रोड़ा समझकर उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। इन सभी वजहों से वृद्धों का जीवन कष्टमय हो जाता है।

                   भारत जैसे हिंदू बहुल राष्ट्र में मुस्लिमों को शक की निगाह से देखा जाता है। इन्हें आज भी विदेशी कहकर इनकी देशभक्ति पर शक किया जाता है। इनकी वेशभूषा व संस्कृति को हेय दृष्टि से देखकर इनसे हिंदू समाज पर्याप्त दूरी बनाए रखता है। मुस्लिम जो वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी यहाँ रह रहे हैं उनसे उनकी पहचान पूछी जाती हैं। वे यहाँ के होकर भी आज तक इस देश के नहीं हो पाएं। उन्हें बार-बार सिद्ध करना होता है कि वे इसी देश के हैं, इसी मिट्टी के हैं, भारतीय है। उनकी समस्याओं को मुस्लिम विमर्श समग्रता से प्रस्तुत करता है।

            विकलांग व्यक्ति भी जीवन भर अपनी शारीरिक विकृति के कारण उपेक्षित जीवन जीता है। विकलांगता एक व्यक्तिगत त्रासदी है या दुर्घटना है जिसमें दिव्यांग व्यक्ति अपनी अक्षमताओं की स्वीकार्यता के साथ जितनी बार संघर्ष करता है उतनी बार टूटता जुड़ता है।

            इसी तरह किसान भी हाड़ तोड़ परिश्रम के बाद समाज में उपेक्षित है। पर्यावरण भी वर्तमान में चुनौतीपूर्ण समय से गुजर रहा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ व भौतिकवादी भोगवादी संस्कृति के कारण मानव ने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया है। इस दोहन से असंतुलित प्रकृति को संतुलित करना भी विमर्श के भीतर समाहित है।

             इसी प्रकार समाज में आज भी कई वर्ग ऐसे हैं जो उपेक्षित, दमित व शोषित है जिन्हें मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयत्न यह विमर्श करता है।

संदर्भ –

  1. सं. नरेंद्रनाथ बसु, हिंदी विश्वकोश, भाग-21, बी.आर. पब्लिशिंग कॉरपरेशन, दिल्ली, पृ.478
  2. सं.मुकुंदीलाल श्रीवास्तव, ज्ञानशब्दकोश, बनारस ज्ञानमंडल लिमिटेड, सं. माघी पूर्णिमा, 2011, पृ.741
  3. सं. डॉ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’, हिंदी साहित्य: वैचारिक पृष्ठभूमि, (लेख प्रो. रोहिणी अग्रवाल, स्त्री विमर्श और हिंदी साहित्य) हरियाणा साहित्य अकादमी, सं. 2008, पृ.229
  4. डॉ. कमल किशोर गोयनका, संचेतना पत्रिका, स्त्री के प्रति पुरूष अधिक संवेदनशील और कृतज्ञ है, मार्च 2008, पृ.22
  5. डॉ. रोहिणी अग्रवाल, समकालीन कथा साहित्य: सरहदे और सरोकार, आधार प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण 2007, पृ.122
  6. राजेंद्र यादव, आदमी के निगाह में औरत, पृ.15
  7. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.13
  8. रमणिका गुप्ता, आदिवासी लेखन-एक उभरती चेतना, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृ.125
  9. सुरेंद्र विक्रम, हिंदी बाल साहित्य: विविध परिदृश्य, पृ.16
  10. शकुंतला वर्मा, बाल साहित्य की संक्षिप्त रूपरेखा, पृ.33