110-स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में ‘झूलानट’ : एक अध्ययन-षानुप्रिया
Page No.: 772-778
स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में ‘झूलानट’ : एक अध्ययन
षानुप्रिया
स्त्रियों को लेकर हो रहे बहस को स्त्री विमर्श कहते है। स्त्री विमर्श एक साहित्य आंदोलन है जिसका आरंभ बीसवीं सदी में पाश्चात्य देश में शुरू हुआ। स्त्री विमर्श के केंद्र में स्त्री और पुरुष प्रधान समाज है। स्त्री विमर्श के अंतर्गत पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के खिलाफ स्त्री की आवाज़ , परंपरागत रूढ़िवादी व्यवस्था के प्रति सवाल ,पुरुष के जैसे समान अधिकार की मांग, सामजिक, आर्थिक, पारिवारिक, स्वतंत्रता की चाह, स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र अस्तित्व और स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार आदि आते हैं। लिंग भेद के विरुद्ध और अपने ऊपर हो रहे अन्याय,दमन, नियंत्रण, शोषण, अत्याचार, उपेक्षा, उत्पीड़न आदि के प्रति विद्रोह एवं प्रातिरोध व्यक्त करना इसका उद्देश्य है। स्त्री विमर्श पुरुष के खिलाफ नहीं बल्कि पुरुष सत्ता एवं ,पुरुष मानसिकता के प्रति एक बदलती दृष्टिकोण है ।
भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य में स्त्री विमर्श बहु चर्चित विषय रहा है। पाश्चात्य स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में मेरी वोलस्टोन क्राफ्ट, ऐलेन शोवाल्टेर, एडलीन, वर्जीनिया वुल्फ़, सिमोन द बोउआर, केट मिलेट, बैट्टी फ्रीडन आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं । स्त्री विमर्श के भारतीय परिप्रेक्ष्य कुछ खास और प्रमुख है। भारतीय स्त्री लेखिकाओं ने अपने जीवन की निजी अनुभवों को लेकर रचना की हैं । मैत्रेयी जी के अनुसार:- “ ‘स्त्री विमर्श’ इस विषय पर मैंने कुछ पुस्तकें पढ़ी है। जैसे-सिमोन द बउआर की ‘द सेकंड सेक्स’ और जर्मन ग्रीयर की किताब। देशी विदेशी पुस्तकें देखने पर में इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि अपने अनुभवों से जो विचार निकलते है, वे किसी किताब को पढ़ने के मोहताज नहीं। वे न, विचार होते है। न रास्ते सुझाते है।“1
भारतीय समाज में स्त्री सदियों से पारंपरिक,धार्मिक,सामजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों, जड़ परंपराओं से त्रस्त थी। भारतीय पुरुषवर्चस्व समाज द्वारा निर्मित, स्त्री के शरीर को लेकर नारी संहिताएं प्रचलित थी। भारतीय स्त्री इन सारे लकीरों से बाहर निकलना चाहती थी। हिंदी में स्त्री लेखन की शुरुआत महादेवी वर्मा से शुरू हुई। स्त्री लेखिकाओं ने अपना व्यक्तिगत संवेदना के आधार पर आधुनिक भारतीय स्त्री की सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, नैतिक स्थिति को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। समकालीन हिंदी स्त्री विमर्श के प्रतिनिधि महिला लेखिकाओं में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मैत्रेयि पुष्पा, उषा प्रियंवदा, मेहरुनिस्सा परवेज़, ममता कालिया, राजी सेठ, गीतांजलि श्री, कृष्णा अग्निहोत्री, मृदुला गर्ग, सूर्यबाला, अलका सरावगी, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान अदि प्रमुख है।
हिंदी महिला लेखिकाओं में मैत्रेयी पुष्पा विशिष्ट स्थान की अधिकारी है। स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में मैत्रेयी पुष्पा द्वारा लिखित साहित्य ज़्यादा महत्त्व रखते है। मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य के केंद्र में स्त्री है। अन्य स्त्री लेखिकाओं ने नगरों, महानगरों, कस्बों के स्त्री जीवन की विविध पहलुओं को अपने साहित्य में अभिव्यक्त किया है तो मैत्रेयी पुष्पा ने इन सारी महानगरीय स्त्री जीवन को छोड़कर गाँव-आँचल को अपनी कथा साहित्य की प्रष्ठभूमि बनायी है। मैत्रयी पुष्पा के अनुसार “ मेरे ख्याल में गाँव और शहर की महिलाओं का संघर्ष अलग -अलग है। गाँव की महिलायें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। जब कि शहर की महिलाओं का संघर्ष व्यक्तित्व केलिए है। शहर की महिलाओं की समस्या अपने व्यक्तित्व को लेकर है, अपने परिवार में, समाज में, अपनी स्थिति, अपनी भागीदारी की तलाश की समस्या है।”2
इनके उपन्यासों में ‘बेतवा बहती रही’, ‘इदन्नमम’, ‘चाक’, ‘झूलानट’, ‘आल्मा कबूतरी’, ‘अगनपाखी’, ‘विज़न’, ‘कस्तूरी कुंडल बसै’, ‘कही ईसुरी फाग’ और ‘फरिश्ते निकले’ आदि महत्वपूर्ण व प्रमुख है। सभी रचनाओं के सभी पात्र खासकर स्त्रियाँ है। मैत्रेयी जी की रचनाओं में स्त्री की सामजिक, पारिवारिक, आर्थिक शोषण और दमन की चर्चा मात्र नहीं है, इस के साथ-साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्थ के प्रति सशक्त प्रतिरोध एवं विद्रोह दिखाई देती है। मैत्रेयि जी की नायिकायें कमज़ोर नहीं है, वे अपने हक़ बे हिचक मांगती है, कभी स्त्री होने के कारण शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। वे अपनी देह की सीमा को, पारम्परिक लक्ष्मणरेखाओं को लांघते हैं। इस विकृत मानसिकता के सारे चुनौतियों को, अपनी ज़मीन में खड़े होकर अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते है। हर नारी पात्र एक समय साहसी, निडर, विवेकी और दृढ़ दिखाई देती है। मुख्य रूप से ‘झूलानट’ उपन्यास के ‘शीलो’ जैसी पात्र। मैत्रेयी पुष्पा के स्त्री संकल्प के बारे में डॉ विजय बहादुर सिंह कहते है कि “मैत्रेयी पुष्प की स्त्री सम्बन्धी कल्पना इस तरह बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की ही नहीं, इक्कीसवीं सदी की स्त्री की उज्वल और दमदार भविष्य ऐतिहासिक उद्घोषणा भी है।“3
मैत्रेयी पुष्पा के सशक्त और सब से लघु उपन्यास है झूलानट। यह एक छोटी सी परिवार की कथा है। इस उपन्यास की नायिका शीलो और नायक बालकृष्ण हैं। झूलानट एक समय शीलो और बालकृष्ण दोनों की कहानी है। उपन्यास के आरंभ बालकृष्ण से होता है, लेकिन हम ग्रामीण परिवेश की साधारण सी नायिका शीलो के चरित्र की ओर ज़्यादा आकर्षित हो जाते हैं। इसके कारण तो बहुत होते है, शीलो परंपरागत नायिका रूप संकल्प के विरुद्ध निर्मित है। शीलो अन्य कथा नायिकाओं की तरह सुन्दर, गोरा, रूपवती, सुनयनी, पढ़ी लिखी नहीं होती। इस तरह मैत्रेयी जी ने शीलो के द्वारा नायिका से जुडी हुई हर फैंटसीयों को तोड़ दिया, साथ ही इस सच को भी स्थापित कर दिया है कि, अनपढ़ -गवार, काली- पतली लड़की भी नायिका बन सकती है। इस उपन्यास की भूमिका में राजेंद्र यादव लिखता है कि:-“ गाँव की सादारण- सी औरत है शीलो- न बहुत सुन्दर और न बहुत सुघड़……लगभग अनपढ़ – न उसने मनोविज्ञान पढ़ा है, न समाजशास्त्र जानती है। राजनीति और स्त्री विमर्श की भाषा का भी उसे पता नहीं है। पति उसकी छाया से भागता है। मगर तिरस्कार ,अपमान और उपेक्षा की यह मार न शीलो को कुएँ-बावड़ी की ओर धकेलती है और न आग लगाकर छुटकारा पाने की ओर। वशीकरण के सारे तीर -तरकश टूट जाने के बाद उसके पास रह जाता है जीने का निःशब्द संकल्प और श्रम की ताकत -एक अडिग धैर्य और स्त्री होने की जिजीविषा…उसे लगता है कि उसके हाथ की छठी अंगुली ही उसका भाग्य लिख रही है…. और उसे ही बदलना होगा। “4
इस उपन्यास में मैत्रेयी जी ने स्त्री जीवन की बहुत सी समस्याओं की जिक्र किया है। उपन्यास में शीलो और पति के बीच के मुड़भेड़ और पति द्वारा शीलो की उपेक्षा, शीलो और सास के बीच के टकराहट और इस के द्वारा नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी की द्वन्द, शहर जाकर शीलो के पति सुमेर के बिना किसी रिवाज़-रस्म के दूसरी शादी, बालकृष्ण और शीलो के बीच के सम्बन्ध और बिना शादी के रहना, शीलो द्वारा कानून ,संस्कार, रीति -रिवाज़, धार्मिक बंधन, नैतिक नियम, झूठी परंपरा आदि को तिरस्कृत करना। समाज द्वारा निर्मित पतिव्रता संकल्प को तोडना, स्त्री पुरुष के बीच के भेद- भाव ,असमानता आदि घटनाएँ इस उपन्यास के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है।
भारतीय समाज में स्त्री सामजिक, पारिवारिक, धार्मिक, नैतिक नियमों के कैद में हैं, इन समस्त नियंत्रण शीलो जैसी स्त्री के लिए है। इन सभी नियंत्रणों को वह नकारते हुए अपने आप को महत्त्व देती है। पति सुमेर द्वारा परित्यक्त होने के बाद, सास की प्रेरणा से शीलो देवर बालकृष्ण को पति के रूप में स्वीकारते है। बुन्देलखंड में सिर्फ स्त्री की दूसरी शादी ‘बछिया’ दान करके सादा रीति से संपन्न किया जाता है, लेकिन शीलो बछिया करने में तैयार नहीं होती ,वह साफ़ मना कर देती है। सभी गाँव के लोग उस पर अपवित्रता और अनैतिकता के आरोप करते हैं । अम्मा के अनुसार : “बछिया होगी! नहीं तो गाँव के लोग, बिरादरी वाले पूछेंगे नहीं कि सुमेर की दुल्हन बालकिशन की घरवाली कैसे हुई?”5 लेकिन कोई बिरादरीवाले या गाँववाले यह नहीं पूछते है कि सुमेर की दूसरी शादी, शादी की रीति -रिवाज़ से हो गयी या नहीं? या कोई नियम – क़ानून यह जानने केलिए तत्पर नहीं है कि सुमेर ने शीलो की उपेक्षा क्यों की?। हर वक्त शादी के वचन निभाना ,सारे रस्मे निभाना सिर्फ स्त्री केलिए ज़रूरी होती है। पुरुष इन नियमों के अनुसरण करते है या नहीं है, किसी को कोई परवाह ही नहीं। लेकिन स्त्री को किसी भी स्थिति में इन झूठी परम्पराओं का पालन करनी पड़ती है। शादी के बिना मनमर्जी से रहना स्त्री के लिए वर्जित है और पुरुष केलिए मनमर्जी करना उसके पौरुष है। लेकिन शीलो अपनी मर्ज़ी से जी लेती है। वह समाज के नियम ,परिवार के इज़्जत या बिरादरी के लोगों की परवाह ही नहीं करती। इसके सम्बन्ध में शीलो सुमेर से कहते है कि: “ बालकिशन तो ऐसा ही है हमारे लिए ,जैसे तुम्हारे लिए तुम्हारी दूसरी औरत। बिनब्याही, मनमर्जी की। “6
भारतीय समाज में स्त्री शादी के बंधनों से बंधित है। पुरुष आसानी से इन बंधनों को तोड़ सकते है। एक ही वक्त इस बंधन को तोडना स्त्री केलिए स्त्रीत्व का अपमान और पुरुष के लिए जन्म सहज पुरुषत्व या मर्दानगी के रूप में लेते है। जब शीलो बालकृष्ण के साथ बिना शादी से रहती है, तब समाज और परिवार उस पर अनैतिकता की आरोप लगाते है और उसे ‘शील’ बनाने का आदेश देते है।जब सुमेर के बात आते है तो उलट जाते है, जैसे:- “अरे। अम्मा को भी आश्चर्य हुआ। इस गाँव में क्या चार – छह लोग ऐसे नहीं है, जो सालों -साल नहीं आते। आते है, तो उनकी स्त्रियाँ उनसे बेतुके सवाल नहीं करती। हालाँकि उनको गुपचुप अंदाज़ में मालूम रहता है कि स्वामी को बंगाल की जादूगरनी औरतों ने अपने चंगुल में कर रखा है। इसमें ख़ास बात क्या है ?मर्द की मर्दानगी है। गाँव समाज को भी उज्र नहीं होता, तभी न मौन रह जाते हैं लोग। इसमें न्याय-अन्याय की बात कहाँ आती है? बिना रोटी के भूखे पेट कितने दिन रह सकता है आदमी? निद्रा -भय -मैथुन -आहार… यह दिगार बात है कि औरतों को व्रत उपवास का अभ्यास आरंभ से ही डाल दिया जाता है। “ 7 औरत को बचपन से लेकर बंदी होकर जीने केलिए प्रशिक्षण देते है, स्त्री एक कटपुतली जैसी है, आहार, निद्रा मैथून के बिना भी वह रह सकती है।
इस पुरुषवर्चस्वसवादी समाज स्त्री को दोयम दर्जा दिया है। इस समाज के अनुसार पुरुष की सेवा करना या पति की सेवा करना ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। विवाह के पूर्व पवित्र होना और विवाह के बाद पतिव्रता रहना, यह केवल स्त्री केलिए लाजिमी है। शादी के बाद पति के आलावा किसी दुसरे पुरुष की ओर देखना कसूर है। लेकिन पति कितनी भी रखवालियों से सम्बन्ध रख सकते है। शादी की बंधन में स्त्री अनेक तरह के शोषण की शिकार होती है। कथा का आरंभ में शीलो दुखित, उपेक्षित, शोषित नज़र आती है। लेकिन आगे चल कर शीलो मणिधरिणी नागिन बनती है और सब को अपनी काबू में रखते हैं।
एक वक्त के बाद उपन्यास की कथागति और परिवार की गति दोनों शीलो के सुलझाव के अनुसार है। वह किसी के गुलाम बनकर रहना नहीं चाहती, न पति की, न बालकृष्ण की, न सास की। किसी को उस पर कोई हक़ नहीं है, जब सुमेर वापस आते वक्त उसे अकेले में बात करना चाहता है तो तब शीलो उसको अपनी औकात समझाती है, इससे वह यह व्यक्त करना चाहती है कि अब सुमेर को उस पर कोई हक़ नहीं है।
इस प्रकार उपन्यास की नायिका अपने ऊपर हो रहे अन्याय एवं अनीति के खिलाफ संघर्षरत दिखाई देती है, शीलो अनपढ़ होते हुए भी एक विवेकी और शातिर औरत है। जब पति द्वारा शीलो उपेक्षित हो जाती है तब वह मायके वापस जाने के बारे में या आत्महत्या करने के बारे में नहीं सोचती, बल्कि वह उसी घर में अपने लिए एक जगह बनाती है, और अपना हक़ और जायदाद मांगती है और वह एक समय सुमेर और बालकृष्ण दोनों की संपत्ति की हिस्सेदारी होती है। सब अपने काबू में कर देती है।
उपसंहार : मैत्रेयी पुष्पा भोगे हुए यथार्थ को प्रमाणिकता के साथ अंकित करनेवाली लेखिका है। इसलिए समकालीन हिंदी महिला लेखिकाओं में मैत्रेयी जी अलग खड़ी है। मैत्रेयी जी ने अपने उपन्यास लेखन द्वारा स्त्री विमर्श के हर पहलूँ को रेखांकित किया है ,अपने उपन्यास के साहसी , निर्भीक नायिकाओं के द्वारा स्त्री को जाग्रत किया है। स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में मैत्रयी जी की अन्य नायिकाओं के तहत शीलो कुछ ज़्यादा महत्व रखते है। इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के ऊपर हो रहे अन्याय ,दमन शोषण के खिलाफ शीलो अपनी विद्रोह एवं प्रतिरोध व्यक्त कर देती है, साथ ही साथ जायदाद, सेक्स ,समाज के प्रतिष्ठा के बारे में सोच ने केलिए शीलो हमें विवश भी कर देती है। उपन्यास में ऐसी बहुत सन्दर्भ है जहां फन पर चोट लगी नागिन की तरह शीलो अपनी प्रतिरोध व्यक्त कर देती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1)मैत्रेयी उवाच, सुशील सिद्धार्थ, पृ :46
2)मैत्रेयी पुष्पा-मेरे साक्षात्कार, सं. विज्ञान भूषण, पृ :69
3)विजय बहादुर सिंह, मैत्रेयी पुष्पा : स्त्री होने की कथा,पृ :116
4)मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट, पृ:5
5)मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट, पृ:74
6)मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट, पृ:112
7)मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट, पृ:62
षानुप्रिया
शोधार्थी,हिंदी विभाग,महाराजास कॉलेज,एर्णाकुलम,केरल
9846108963
shanupriyausha@gmail.com