May 20, 2023

समकालीन दलित आत्मकथाओं में बालजीवन – BRINDA GOPI

By Gina Journal

समकालीन दलित आत्मकथाओं में बालजीवन – BRINDA GOPI

        बालक एक पौधे की तरह होता है उसे जैसा घात पानी मिलेगा उसी प्रकार उसका विकास होता है | किन्तु भारतीय समाज के कुछ सवर्ण लोगों ने धर्म के नाम पर दलित समाज से पैदा होने वाले माज़ूम पौधों की जड़ों पूरी तरह से तोड़ने की प्रयास करती है | हमारे सुशिक्षित समाज में सालों से बच्चों के मन में जातिगत एवं आर्थिक हीन भावना को पैदा किया जा रहा है | खासकर दलित बच्चों के मामले में | उन्हें समाजिक, आर्थिक एवं जातिगत कारणों के वचत से कई प्रकार के शोषणों का सामना करना पड़ा है | एक बच्चे के विकास के हर पड़ाव ऐसी मानसिकता रखने वाले जनता से गुज़रता है | जन्म के बाद बड़े होने की साथ साथ उन्हें ‘दलित’ का लेबल देकर उन पर निजी भावना उत्पन्न कराती है | समाज एवं परिवार की आर्थिक एवं जातिगत स्थितियों का भी प्रभाव बच्चों पर पड़ती है | इसके कारण उनके मन में  हीन भावना भी पैदा होती है | ज़्यादातर दलित आत्मकथाओं में दलितों के बचपन के दर्दनाक ज़िन्दगी देखने को मिलती है | वास्तव में दलित आत्मकथा एक दलित के बचपन के बहाने भारतीय समाज की जाति एवं वर्ण केन्द्रीय सामाजिक व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है | दलित आत्मकथाएं यह स्थापित करती है कि इस सभ्यता मूलक समाज में एक बचपन कितना असुरक्षित और संकटग्रस्त है | दलित बच्चों की ज़िन्दगी कई तरह की यातनाओं से भरी है | उन्हें जन्म से लेकर अपनी जाति के कारण परिवार, समाज, और शैक्षिक क्षेत्र में अलग अलग परिस्थितियों की सामना करना पड़ा है |

            एक बालक के मन शीशे की तरह नाज़ुक होती हैं | बाकी बच्चों की अपेक्षा दलित बच्चों की दुनिया, रहन-सहन, पालन-पोषण, विधि निषेध सभी बातों में अंतर होती है | एक बच्चे का ज्ञान का पहला पाठ उसके परिवार से प्राप्त होता है | उसी परिवार से उसके बालमन में जाति भावना का पहला बीज बोया जाता है | दलित बच्चों को बचपन से ही युवावस्था के दायित्व, बालविवाह आदि विवश होकर करना पड़ती है | ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ में बालक शौरराज की व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन की कहानी न सिर्फ एक दलित की कहानी बनकर उभरती है, बल्कि इस त्रासदी से गुज़र रहे लाखों-करोड़ों दलितों की व्यथा को दिखाती है | बालक शौराज को अपने पिताजी के मुत्यु के बाद घर परिवार को संभालना पड़ती है | पिता का साया उठ जाने के बाद प्रताड़ना, उपेक्षाएं, संघर्ष, जातीय उत्पीडन, संकोची, स्वाभिनी और हीनताबोध से वह ग्रसित हो जाता है | बालक शौरराज बचपन से ही अपने जीवन-निर्वाह का बीड़ा उठाता है और मजदूरी, मोचीगीरी, राजमिस्त्री इत्यादि काम करती है | शिक्षा प्र्राप्त करने केलिए बालक श्यौराज को स्कूल का सारा खर्चा स्वयं उठाना पड़ती थी | पढ़ाई के साथ साथ उन्हें कई कर्तव्य को निभाना पड़ती थी | एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ पेट की भूख और अन्य ज़रूरतें होती थी | कभी कभी मजदूरी के बाद स्कूल जाना और दो-तीन दिन भूखे रह जाना भी पड़ती थी | एक दलित का बचपन नरक तुल्य होती है | इसी के बारे में ओम प्रकाश वाल्मीकि अपने आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखते हैं कि “इतना स्पष्ट कहना है कि गाँव के बाहर गन्दी बस्ती में बीते जीवन का चित्रण आज तक साहित्य में नहीं हुआ है | नर्क सिर्फ कल्पना है | हमारे लिए बरसात के दिन किसी नारकीय जीवन से कम नहीं है |” बालक ओम प्रकाश बचपन से ही अपने परिवार की घोर दरिद्रता देखा है | मांगे हुए पुस्तक और कपड़ों से रहना पड़ती थी | भूख मिठाने केलिए उन्हें किसी के घर की अथवा बारात की जूठन सुखाकर महीने भर काम चलाना पड़ती थी | अपने जाति के कारण एक बच्चे को अपने बचपन से लेकार क्या क्या सहना पड़ रही है | एक समय के भूख मिठाने कलिए उन्हें कहाँ कहाँ गिडगिडाना पड़ती है | ‘अपने अपने पिंजरे’ का मोहनदास का ज़िन्दगी भी अन्य दलित अत्मकथाकारों की तरह अभावग्रस्त ही रहा है | ओम प्रकाश वाल्मीकि की तरह उन्हेंभी अपने बचपन में जातिवाद और छुआ छूत का ज़हर पीने की आदत डालनी पड़ी हैं | ‘झोपड़ी से राजभवन तक’ में बालक माताप्रसाद को भी आम दलित बच्चों का सा ही बचपन रहा है | उन्हें पढ़ाई करने के समय में खेत की काम, मकान की दीवारें बनाना, घास घिसाई, फसल की निराई आदि काम करने पड़ी थी | ‘तिरस्कृत’ का लेखक सूरजपाल चौहान की बचपन भी बाकी दलित बच्चों की तरह नरकतुल्य था | सवर्ण समाज द्वारा न सिर्फ सूरजपाल चौहान की बल्कि समग्र दलित समाज की अवहेलना उनके बालमन पर घातक और कभी न भुलाने वाली चोटें पहूँचाती है | बचपन की दरिद्रता और दलित परिवार में जन्म काँच जैसे नाजुक मन बाले दलित बचपन को चूर-चूर कर देते है | जहां बचपन खेलकूद और आसमान में विचरण करने केलिए है, वहां ‘दलित बचपन’ को जाति के नाम पर अपमानित करने केलिए छोड़ दिया है | सवर्ण द्वारा निर्मित करने वाले ऐसी विचित्र घटनाएं बहुत जोर से बाल मन को ढेस पहुँचाती हैं |

           परिवार के बाद एक बच्चे केलिए स्कूल ही दूसरा घर है | क्योंकि स्कूल ही एक बच्चे को नई नई रिश्तें और रास्ता दिखाती है | स्कूल में उन्हें कई तरह के लोगों से मुलाक़ात भी होती है | स्कूल समाज की आइना की तरह होती है | लेकिन दलित बच्चे केलिए अपने जाति के कारण शैक्षणिक क्षेत्र भी कठिनाइयां और दर्द से भरे हुए है |स्कूल में दलित बच्चों के साथ व्यवहार अच्छी तरह से नहीं होती है | कक्षा में अधिकारी लोग दलित बच्चों के साथ अच्छे व्यवहार नहीं करती है | उन्हें भोजन के समय में भी भेदभाव करते हैं | दलित बच्चों को क्लास में अपने उम्र के बच्चों से अलग बिटाते है | इन सभी व्यवहार से दलित बच्चों को पढाई के प्रति अरुचि पैदा करती है और कभी कभी वे शिक्षा भी छोड़ते हैं | शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी दलित बच्चों की हाल बहुत कष्टदायक है | स्कूल में दलित बच्चों को नहीं पढ़ाते थे | ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ में कहते हैं कि, कदम-कदम पर जाति के नाम पर छात्र ओम प्रकाश वाल्मीकि को अपमानित किया जाता था | उन्हें अपमानित करने में शिक्षक सवर्ण छात्रों का साथ अवश्य दिए जाते थे |साफ़ सुथरे पहनकर कक्षा में जाओ तो साथ के लड़के कहते ‘अबे चूहड़े का, नए कपडे पहनकर आया है’ मैले कपडे पहनकर गए तो वे कहते है कि ‘अबे चूहड़े के, दूर हट बदबू आ रही है |’ सिर्फ पढ़ाई केलिए नहीं स्कूल में ओर कई बातों में अपनी जात के वजह से उन्हें शर्मिन्दगी महासूज़ होती थी | स्कूल में जाति के नाम पर आक्षेप करना बालमन में चोट लाती है | वे खुद से घृणा करने लगती है | शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में दलित होने के करण जिस पध्दति से मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि को अनुभव आये उसी पध्दति से कौशल्या बैसत्री का भी अनुभव है | वह अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में लिखा है | जाति के कारण स्कूल में उनको अलग पध्दति से व्यवहार था | बहुत डर कर पढ़ाई करनी पड़ती थी | कई बार अपनी जाति छिपाकर झूठ भी बोलना पड़ता था | वे लिखती हैं कि “मैं अस्पुश्य हूँ, इसका मुझे बहुत दुःख होता था | और मैं हीनता महसूस करती थी |”स्कूल में दलित बच्चों पानी पर भी शोषण होती थी | जब प्यास लगे तो दलित बच्चों को नल को चूने की अधिकार नहीं था, किसी सवर्ण छात्रों की मदद से ही उन्हें पीने केलिए पानी मिलती थी | ऐसी घटनाएं हमें ओम प्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’, सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’, माताप्रसाद की ‘झोपड़ी से राजभवन’ में देखने को मिलती है | यह कैसी विडंबना है, जो पानी जैसी चीज़ से भी दलितों को वंचित रखती है | ज्ञान देकर एक अच्छे नागरिक का निर्माण करने वाले शैक्षणिक क्षेत्र किस तरह बाल मन में जाति का नीव डाल रही है, यह आश्चर्य की बात है |

          पढ़ाई और खेलकूद करने की बचपन में दलित बच्चों को बाल विवाह का शिकार भी होना पड़ा है | झोपड़ी से राजभवन में हम देख सकते है कि माताप्रसाद को बालविवाह का शिकार होना पड़ा है | दस साल की उम्र में उनकी शादी हो गयी थी | शादी के पहले लड़की वाले उनको देखने वाले घटना को वह आत्मकथा में दिखाई है “मैं बकरी चरा रहा था | मुझे बुलाया गया | मैं दौड़ता हुआ औया | एक लाठी से मेरी लंबाई माप कर मुझे मुठी से नापा गया |” डॉ.टी.आर जाटव भी अपनी आत्मकथा ‘मेरा सफ़र मेरी मंजिल’ में भी उनके बालविवाह के बारे में बता दिया है | वे अपनी शादी के बाद घर परिवार को संभालने के साथ साथ शिक्षा ग्रहण करने की दयनीय स्थितियों को भी व्यक्त किया है |

          एक बालक के मन शीशे की तरह नाज़ुक होती हैं, एक बार टूटा तो खतम | दलित बच्चे को अपने जन्म से लेकर जाति के कारण कई शोषणों के शिकार होना पड़ा हैं | इस जाति भेद के कारण होने वाले कई घटनाएं बालमन पर आघात पहूँचाता है | इसका असर उनके पूरी ज़िन्दगी पर पड़ती है | परिवार से लेकर समाज तक उन्हें ‘दलित’ का लेबल मिलकर मन में हीन भावना पैदा होती है | दलितेतर बच्चों में भी सवर्ण समाज इस तरह जाति का नीव दाल देती है | इस वचत से उनमें भी उच्च जाति और नीच जाति जैसे विचार पैदा होती है | इस तरह उनमें भी आसानी से जातिभेद का विषबीज अपनी जड़ जमा लेती है | देखा जाए तो हमारे भारत के वायु भी जाति से प्रदूषित है |  इसका असर सबसे पहले बच्चों पर पड़ती है | अन्य बच्चों की अपेक्षा दलित बच्चों की स्थिति काफी दयनीय है | उन्हें जन्म से लेकर उनके दिमाग में जाति को इंजेक्ट किया जा रहा है | यह सवर्ण समाज की काली साजिश है |

सन्दर्भ सूची

  1. हिंदी दलित आत्मकथाएं ;एक अनुशीलन -डॉ .अभय परमार
  2. अपने अपने पिंजरे -मोहनदास नैमिशराय
  3. जूठन- ओम प्रकाश वाल्मीकि
  4. मेरा सफ़र मेरी मंजिल- टी. आर जाटव
  5. तिरस्कृत- सूरजपाल चौहान
  6. मेरे बचपन मेरे कन्धों पर- श्यौराज सिंह बेचैन
  7. शिक्षा और सामाजिक सरोकार- राजाराम भादू
  8. दलित साहित्य एवं चिंतन- डॉ.जाया प्रकाश कर्दम
  9. दलित बचपन ;वेदना का विस्फोट- नितिन गायकवाड
  10. झोपड़ी से राजभवन तक – माता प्रसाद6

BRINDA GOPI

PhD Research scholar

Sree Sankaracharya University Of Sanskrit, Kalady, Kerala