May 19, 2023

63.पद्मा शर्मा के साहित्य में स्त्री विमर्श-कृष्ण कुमार थापक

By Gina Journal

Page No 452-460

पद्मा शर्मा के साहित्य में स्त्री विमर्श

शोधार्थी
कृष्ण कुमार थापक
रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल म.प्र.
ई-मेल आई डी – krishnathapak1988@gmail.com

शोध निर्देशक
डॉ संगीता पाठक
प्रोफेसर
मानविकी एवं उदार कला संकाय
रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल म.प्र.

शोधसार : पद्मा शर्मा एक विख्यात साहित्यकार हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श और स्त्री के उत्थान के विषय में लेखन किया हैं। उनके साहित्य में स्त्री जीवन के अलग-अलग पहलुओं को उजागर करते हुए समाज में उनके सामाजिक स्थान के विषय में सोचने के लिए प्रेरित किया हैं। पद्मा शर्मा ने अपने जीवन के अनुभव और आसपास के परिवेश से कथानक गढ़े हैं जिनका स्वर समसामयिक परिस्थितियों में परिवर्तित हो गया हैं। इनके स्त्री पात्र शोषण से शोषित, उनके विरुद्ध भी और अपने जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक भी हैं। पितृसत्तात्मक संस्कृति और रूढ़ीवादी परम्पराओं को तोड़कर स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाली आधुनिक स्त्री का अंकन उन्होंने बड़े ही सशक्त ढंग से किया हैं। उन्होंने नारी विमर्श को नया आयाम देते हुए नारी अस्मिता के प्रश्नों को चिंतनशीलता, गांभीर्य, वाचालता एवं मुखरता के साथ चित्रित किया हैं। इसलिए साहित्य में नारी विमर्श को बड़ी गंभीरतापूर्वक स्थापित करने का श्रेय पद्मा शर्मा को दिया जा सकता हैं। इन्हीं कारणों से पद्मा शर्मा हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।

बीज शब्द : पद्मा शर्मा, माँ, स्त्री विमर्श, कामकाजी नारी, पितृसत्तात्मक, भ्रूण हत्या, पुनर्विवाह, महिला सशक्तिकरण।

मूल आलेख :  पद्मा शर्मा का साहित्य स्त्री विमर्श, नारी मुक्ति, नारी समस्याएँ, नारी अस्मिता इन जैसे और कई विषयों को समेटने की कोशिश करता हैं। आज स्त्री विमर्श एक तरह से अपने अधिकारों की पैरवी करता हैं और देखा जाए तो स्त्री विमर्श की वजह से ही स्त्री की दयनीय हालात में काफी हद तक सुधार भी आया हैं।

पद्मा शर्मा की कविता ‘विज्ञापन की महिला’ में स्त्री की मानसिक और आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया हैं। जिसमें बताया गया है कि आज की नारी आर्थिक संसाधन एकत्रित करने में तथा वर्तमान प्रतिस्पर्धी जीवन में असहाय, मजबूर एवं बेबस हैं। उसे अपने मूल्यों की रक्षा करना है और आर्थिक रूप से सशक्त भी होना हैं क्योंकि महिलाओं को अक्सर सभी के द्वारा उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता हैं। ‘विज्ञापन की महिला’ कविता में नारी की मनःस्थिति का चित्रण इस प्रकार से किया गया हैं-

“चेहरे पर खुशी

आँखों में उत्साह

मेकअप की कई पर्तों में ढँकी

सजी-सँवरी

बाहर से हँसती हुई

अन्दर से गमगीन

पर खिली हुई दीखती है

विज्ञापन की महिलाएँ”1

पद्मा शर्मा ने ‘महिलाओं का शासन’ कविता में महिला सशक्तिकरण की उस भ्रमात्मक स्थिति की ओर इंगित किया गया हैं। जिसमें बताया गया है कि बहुत से लोग सोचते हैं कि महिलाओं को सशक्त होना चाहिए। महिलाएँ भले ही पंच, सरपंच, पार्षद, विधायक और सांसद आदि बन जाए लेकिन वास्तव में महिलाएँ केवल कठपुतली शासिका होती हैं जिसकी डोर पुरुषों के हाथों में हैं। उसे प्राप्त सभी संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग सही मायनों में पुरुषों द्वारा ही किया जा रहा है यह बात उन्हें दुखद लगती हैं क्योंकि यह उन्हें समाज में असमानता का अनुभव करावाती हैं। वह कहती हैं कि-

“रंच मात्र

शासन नहीं कर पायीं

घर पर भी

फिर…

कैसे करेंगी शासन देश पर

पुरुष प्रधान समाज पर”2

पद्मा शर्मा की कविता ‘खज़ाना’ में नारी को अपने नारी होने के एहसास की पीड़ा को जिस तरह कविता में लाती हैं। वह झकझोर के रख देती हैं। आज समाज में लड़कियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं है चाहे वह पिता के मित्र हो, भाई के मित्र हो और मोहल्ले पड़ोस के व्यक्ति हो इन सभी की युवावस्था में प्रवेश करती हुई लड़कियों पर कुदृष्टि पड़ती है। इस तरह से लड़कियाँ हर तरह से शोषित, उत्पीड़ित और प्रताड़ित दिखाई देती हैं उनका देह के स्तर पर भी उत्पीड़न किया जाता हैं। यह उत्पीड़न शारीरिक रूप से ना सही बल्कि नजरों की कुदृष्टि के रूप में हमें पद्मा शर्मा की कविताओं में दिखाई पड़ता हैं। माता-पिता अपनी लड़कियों को नियमों के बंधन में इस तरह जकड़ देते हैं जिससे लड़कियाँ खुलकर अपनी बात माता-पिता से नहीं कर पाती हैं।

“मेरे मुँह खोलने पर

पिता, भाई, माँ

लगा देंगे मेरे पैर में जंजीर

रोक देंगे मेरी ही उड़ान”3

वर्तमान समय में लड़कियों के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण लोगों की ओछी मानसिकता है सरकार को आवश्यकता हैं कि लोगों में महिला सशक्तिकरण के प्रति जागरूकता फैलाने के साथ-साथ, अपराध को कम करें ताकि लड़कियाँ बिना डरे सहमे घर की चहारदीवारी से बाहर निकल सके और अपनी ऊँचाइयों की बुलंदियों पर पहुँच सकें।

पद्मा शर्मा की कहानी ‘कस्तूरी मृग नाही’ अत्यंत संवेदनशील हैं जो माँ की ममता और संघर्ष को दर्शाती हैं। जिसमें बताया है कि ‘लाजवंती’ के जीवन में कितनी विपत्तियाँ आई उन्होंने हँस कर उन्हें झेला था और अपने बच्चों पर आंच भी नहीं आने दी। अपने पति का स्वर्गवास हो जाने के बाद तो वे अरावली पर्वत की तरह विपत्तियों के सम्मुख खड़ी हो जाती थी और अपने बच्चों पर कोई भी विपत्ति नहीं आने देती थी वह अपनी सम्पूर्ण जिंदगी बच्चों के उत्थान और समृद्धि में लगा देती हैं। फिर भी उनके बच्चे अंततः भौतिकता की दौड़ में इस कदर अंधे हो जाते हैं कि अपनी कैंसर पीड़ित माँ के इलाज के लिए चंदा एकत्रित करते हैं। यह बात सिर्फ इस कहानी में नहीं बल्कि आज के समय में पारिवारिक जीवन की वास्तविकता है जिसे हम ‘कस्तूरी मृग नाही’ के नारी पात्र ‘लाजवंती’ के इस कथन से बखूबी समझ सकते हैं- “वह कमरे में आकर रोने लगी आँसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह सोच रही थी कि जिन लड़कों को मैंने अपना दूध पिला कर बड़ा किया है आज उसकी कीमत लग रही है जिस स्तन ने उसकी भूख मिटाई है आज उसी के ऑपरेशन के लिए चंदे हो रहे हैं क्या एक भी बेटा ऐसा नहीं जो कह सकता है कि मैं अपनी माँ का बोझ उठाँऊगा।”4

पद्मा शर्मा ने अपनी कहानी ‘आँचल के साए’ में नारी की मनःस्थिति, मानसिक आघात और मानसिक वेदना पर प्रकाश डाला हैं। जिसमें बताया गया है कि आज की नारी शिक्षित और उच्च पदों पर आसीन होते हुए भी कहीं ना कहीं आज भी शोषण का शिकार है बिना हैसियत, दमन और अधिकार के जीवन व्यतीत कर रही हैं। शोषित, उत्पीड़ित एवं सिमटी-सी रहने वाली स्त्री ने अधिकांश स्थानों पर अपने हक को पहचान तो लिया है लेकिन अभी भी वह पुरुष प्रधान समाज की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं ऐसा प्रतीत होता है कि सभी लोग मनु स्मृति का आधार लेकर ही जीवन यापन कर रहे हैं उसके अनुरूप स्त्री बाल्यकाल में पिता के, यौवनावस्था में पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहती हैं। इस प्रकार स्त्री का सम्पूर्ण जीवन पुरुष के अधीन बीत जाता हैं अब आवश्यकता है कि स्त्रियों को समाज की कुरीतियों के दबाव में अपना जीवन नष्ट करने या नैतिकता की कोरी चादर के खिलाफ आवाज उठाने की। कई स्तरों पर तो नारी ही नारी की स्वतंत्रता के मार्ग में बाधक है। कहानी की नारी पात्र सि्मता सोचने लगी कि आखिर कब तक में हारती रहूँगी – “महिलाओं को एक महिला के हारने पर कितना आनन्द आ रहा है। पुरुष के ही पैरों तले दबी महिलाएँ पुरुष की ही जीत में प्रसन्न होती हैं। इनका क्या कसूर है। प्रारम्भ में इनको सिखाया भी तो यही गया है- पुरुष की जीत और औरत की हार। पुरुष का उच्छृंखल, स्वतन्त्र जीवन और महिलाओं का पददलित, शोषित जीवन। फिर आँखें नया कैसे देख सकती हैं।”5

वर्तमान समय में शिक्षित वर्ग बेसक विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ नहीं हैं मगर अभी भी अशिक्षित और कट्टर धार्मिक लोग इसके विरुद्ध हैं। पद्मा शर्मा की कहानी ‘अंतिम विदाई’ में नारी के पुनर्विवाह की समस्या को उठाया गया है जिसमें बताया गया है कि चाची के पुत्र ‘सोनू’ की दुर्घटना में असमय मृत्यु हो जाती है जिससे उसकी बहू विधवा का जीवन व्यतीत करते हुए समाज के व्यंग्य बाण, शंकाओं और गलत-फहमी का दंश झेलना पड़ता हैं। चाची अपने पारिवारिक हितों के लिए सामाजिक नियमों को तोड़कर वैधव्य झेल रही अपनी विधवा वधू रश्मि का कन्यादान करती हैं। वैवाहिक कार्यक्रम की सभी रीति परम्पराएँ चल रही थी अचानक पंडितों के बीच बहस छिड़ जाती हैं कि कन्या की एक बार भांवर पड़ने के बाद दूसरी बार नहीं पड़ती हैं। चाचा शांतिपूर्वक सुन रहे थे किंतु चाची विनम्रतापूर्वक ऊँची आवाज में बोलती है कि- “फेरे तो पड़ेंगे। फेरे से ही तो पति-पत्नी बनेंगे। वचन हारेंगे तभी तो शादी का महत्त्व समझेंगे जब लड़के के फेरे हो सकते हैं तो लड़की के फेरे क्यों नहीं हो सकते?” उन्होंने कुछ देर तक पल्ले की ओट से सबके चेहरे तके फिर बोली-“मैं ज्यादा तो नहीं पढ़ी लेकिन शास्त्र रचे किसने हैं हम तुमने ही ना। फिर उसमें फेरबदल भी तो कर सकते हैं”6

पद्मा शर्मा की कहानी ‘मॉल’ में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा किए जाने वाली स्त्री के शोषण को अभिव्यक्त किया गया हैं। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को व्यवसाय में अधिक मुनाफे के लिए ऐसी लड़कियाँ चाहिए जो दिखने में आकर्षक, स्वच्छन्द ख्यालों और मधुर वाणी बोलने वाली हो। जिससे ग्राहक उनके सौंदर्य से आकर्षित होकर अधिक से अधिक सामग्री का क्रय करें तथा मालिक को उचित मुनाफा दे। स्त्री के मानवीय सौन्दर्य की सहज अनदेखी हो रही है क्या महिलाएँ सिर्फ मौज-मस्ती और पुरुष को आकर्षित करने का साधन मात्र हैं। कहानी ‘मॉल’ के नारी पात्र ‘संध्या’ कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

“जो देते हैं मेहनताना

शोषण कर रहे हैं

जेबें भर रहे हैं

दे रहे हैं कम

पा रहे हैं मनमाना

उनकी देह और मन के उत्पीड़न का बुन रहे हैं

सरेआम ताना-बाना”7

पद्मा शर्मा ने अपनी कहानी ‘कोख’ के माध्यम से कन्या भ्रूण हत्या की चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित किया हैं। आज के समय में बालिकाओं की संख्या बालकों की अपेक्षा कम होती जा रही हैं जिसका प्रमुख कारण माँ के गर्भ में शिशु का पलना प्रारम्भ होने पर ही आधुनिक मशीनों के द्वारा यह ज्ञात कर लिया जाता हैं कि कोख में पलने वाली संतान पुत्र या पुत्री। परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए जन्म से पूर्व बालिका शिशु को गर्भ में ही नष्ट कर दिया जाता हैं क्योंकि भारतीय समाज में लड़कियों को मारने की प्रथा का प्रचलन सदियों पुराना है कहानी के पात्र ‘समता’ की जेठानी की पूर्व में ही तीन संतान हो चुकी थी। इसलिए ‘समता’ पर कोख में पल रही है पुत्री को नष्ट करने का अनुचित दबाव डाला जा रहा था। जिसका ‘समता’ दृढ़ शब्दों में विरोध करती है और कहती है कि “कह दो मैं नहीं आ रही।” फिर कुमुद के चेहरे की ओर देखते हुए बोली, “दीदी मैं अपनी बेटी को जन्म दूँगी।” कहकर वह अपने कपड़े ब्रीफकेश में जमाने लगी”8

पद्मा शर्मा की कहानी ‘रिश्ते बेमानी’ में भाई द्वारा अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए जीवनसंगिनी और बहन के पवित्र रिश्ते को कलंकित करने की घटना का चित्रण किया गया हैं। जिसमें बताया गया है कि आज के समय में कुछ लोग नौकरी में पदोन्नति के लिए रिश्तो का भी सौदा करने में हिचकिचाते नहीं हैं और इस पदोन्नति के लिए इस कदर अंधे हो जाते हैं कि वह कम्पनी में अपनी पदोन्नति के लिए  धर्मपत्नी को बॉस से दैहिक सम्बन्ध बनाने के लिए विवश करता है तथा उसे कम्पनी के बॉस के कमरे में भेज देता हैं। कुछ दिन बाद वह अपनी सगी बहन की इज्जत का भी सौदा कर लेता है जब यह बात कहानी की की पात्र अम्मा को पता चलती है तब वह कहती हैं कि “तूने अपनी जिंदगी तो खराब कर ली मेरी बेटी की जिंदगी खराब क्यों कर रही है भाभी ने हाथ मटका कर कहा अपने बेटे से कहो उसे ही तरक्की का नशा चढ़ा है मैंने भी यह सब अपनी मर्जी से नहीं किया तुम्हारे बेटे ने जबरदस्ती नरक में धकेला है”9

पद्मा शर्मा की कहानी ‘अधूरी अभिलाषा’ में प्रेमिका की पीड़ा को दिखाया गया हैं। जिसमें बताया गया है कि आज सभी रिश्ते और सम्बन्ध बेईमानी होते जा रहे हैं चाहे हम बात करे पारिवारिक सम्बन्धों या प्रेमी-प्रेमिका के सम्बन्धों की। अब हमें वह निश्चल प्रेम बहुत कम देखने को मिलता हैं बल्कि यह देखा जाता हैं कि पुरुष किसी भी तरह स्त्री को जाल-फरेब में फसा लेता है और उसके साथ दैहिक खिलवाड़ करने के उपरांत बीच मझधार में छोड़ कर चला जाता हैं। कहानी की पात्र ‘अभिलाषा’ इस दरिंदे समाज से पीड़ित होकर चाकू अपने उधर में घोंप लेती हैं और बिलख पड़ती है- “अरे पापी आज तूने एक नहीं दो हत्याएँ की हैं। एक मेरी और दूसरी उस भावी शिशु की जो अपने सपने भी न बुन पाया था। अच्छा ही है सपने देखना खतरनाक हैं। अच्छा हुआ वह नवजात सपने नहीं बुन पाया। वह लड़का होता तो तेरे समान दूसरों से छल करता और यदि लड़की होती तो तेरे जैसे हैवानों की दुनिया में वह किसी ना किसी के द्वारा छली जाती।”10

पद्मा शर्मा के उपन्यास ‘लोकतंत्र के पहरुए’ में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले लोकतंत्र में स्त्री की शोषित दलित और उत्पीड़ित दशा को उजागर किया गया हैं। जिसमें बताया गया है कि संविधान के नियमों के अनुसार चेयरमैन के पदों की आरक्षण सूची निकली और उसके कस्बे की सीट महिला आरक्षित हो गई महिला सीट आरक्षित होने के कारण ‘जगना’ अपनी पत्नी ‘संतो’ को चुनाव मैदान में खड़ा करने की सोचता हैं लेकिन ‘संतो’ इस गंदी राजनीति में प्रवेश नहीं करना चाहती हैं क्योंकि राजनीतिक यात्रा के दौरान यौन उत्पीड़न का खतरा अनवरत बना रहता हैं। जगना पार्टी का टिकट प्राप्त करने के लिए संतो को राजधानी भेज देता है और उसको पार्टी का टिकट प्राप्त करने के लिए धन और चरित्र से भी हाथ धोना पड़ता हैं। ‘संतो’ के राजधानी से लौटने पर जगना सवालिया निगाहों से देखता है- “जमीन ताकती पत्नी ने ब्लाउज के भीतर घुडसा पार्टी का टिकट निकाला और उसकी तरफ बढ़ाते हुए सेहमी आवाज में कहा काम हो गया और बेहोशी के आगोश में लुढ़क गई”11

निष्कर्ष : निःसंदेह कहा जा सकता हैं कि आज के समय में स्त्री कामोवश अधिक स्वतंत्र और सुदृढ़ हैं किंतु यह भी सत्य हैं कि वह अपनी धुरी पर अस्थिर है कभी वह हैं राजनीति के चौसर पर छली जाती है, तो कभी कामुकता के गुनाहों की दुनिया में सिसकियां लेती हैं। पद्मा शर्मा का साहित्य महिलाओं की अनोखी चुनौतियों और अनुभवों को उजागर करने का एक शक्तिशाली साधन रहा हैं। उनके साहित्य में नारी पात्रों ने पुनर्विवाह, भ्रूण हत्या, माँ के ममत्व, कामकाजी महिला, महिला सशक्तिकरण और स्त्री शोषण आदि समस्याओं को भोगा एवं सवाल भी उठाए हैं तथा वह पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने के लिए स्त्री एकजुटता के महत्व पर प्रकाश डालती हैं। पद्मा शर्मा एक शक्तिशाली आख्यान बनाती हैं जो लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की वकालत करता हैं। अतः उनके साहित्य के नारी पात्र स्त्री विमर्श की ज्वलंत समस्या को उठाने में सक्षम साबित होते हैं।

सन्दर्भ :

  1. पद्मा शर्मा, साइकिल और अन्य कविताएँ, लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस (2021) पृ. सं.- 17
  2. वही, पृ. सं.- 21
  3. वही, पृ. सं.- 15
  4. पद्मा शर्मा, रेत का घरौंदा, नवचेतन प्रकाशन (2004) पृ. सं.- 15
  5. वही, पृ. सं.- 31
  6. पद्मा शर्मा, जलसमाधि एवं अन्य कहानियाँ, शिल्पायन प्रकाशन (2012) पृ. सं.- 86-87
  7. पद्मा शर्मा, इज़्ज़त के रहबर, बोधि प्रकाशन (2022) पृ. सं.- 44
  8. पद्मा शर्मा, जलसमाधि एवं अन्य कहानियाँ, शिल्पायन प्रकाशन (2012) पृ. सं.- 114
  9. https://hindi.matrubharti.com/index.php/book/19898512/rishte-bemani
  10. पद्मा शर्मा, रेत का घरौंदा, नवचेतन प्रकाशन (2004) पृ. सं.- 93
  11. पद्मा शर्मा, लोकतंत्र के पहरुए, सान्निध्य बुक्स (2022) पृ. सं.- 159