May 31, 2023

91. समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श -डॉ. हरमंदर सिंह

By Gina Journal

Page No.: 650-654

समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श

डॉ. हरमंदर सिंह

प्राचार्य

माता मोहन देवी बेदी कन्या महाविद्यालय अनुपगढ़,

जि. श्री गंगानगर, राजस्थान

 

प्रस्तावना

        सदियों से पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था ने नारी को सीमाओं के बंधन में बांध रखा है। नारी स्वतंत्र अस्तित्व की कामना करती रही किंतु उसे हमेशा सामाजिक मर्यादा तथा नैतिकता के मुद्दे से जोड़ दिया गया। परिणाम स्वरूप नारी पीढ़ियों से शोषित एवं अन्याय को सहने पर मजबूर बनी है। नारी को समाज व्यवस्था में कई प्रकार का संघर्ष करना पड़ा है। नारी-विमर्श को लेकर अनेक साहित्यकारों ने अपना मत प्रकट किया है। मैत्रेयी पुष्पा ने नारी की यथार्थ स्थिति की चर्चा करना नारी विमर्श माना है। कात्यायनी का मनाना है कि ‘नारी-विमर्श’ स्त्री-पुरुष के बीच फैले नकारात्मक भेदभाव को मिटाकर सकारात्मक भाव का निरूपण करना है। वास्तव में नारी-विमर्श अपने समय और समाज जीवन की वास्तविकताओं तथा संभावनाओं को तलाश करने वाली दृष्टि है। कई ऐसी रूढ़ियां एवं प्रथाएं भारतीय समाज में रही है; जिनसे नारीको ही बलि चढ़ाया गया है। सती प्रथा भी उनमें से एक रही है। स्त्री के उत्पीड़न का इतिहास प्राचीन है। नारी की दासता एवं दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति को महिला साहित्यकारों ने उजागर किया है।

        हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में रहा है। सभी क्षेत्रों में स्त्री की स्थिति समानता की नहीं है। समकालीन महिला साहित्यकारों ने अपने कथा-साहित्य में स्त्री-विमर्श का चित्रण बहुत ही गहराई से किया है। समकालीन हिंदी महिला लेखिका ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, नासिरा शर्मा, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान एवं अलका सरावगी आदि ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से नारी-विमर्श पर प्रकाश डाला हैं।

समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श

        समकालीन परिप्रेक्ष्य में नारी-विमर्श पर चिंतन हुआ है। नारी की समाज में अनगिनत समस्याएं रही है, नारी का दु:ख एक नारी ही समझ सकती है। स्वतंत्रता प्रेम का उदात्त रूप है, इस बात से हम अवगत है। साहित्यकार अपने समकालीन जीवन यथार्थ का चित्रण रचना के द्वारा प्रस्तुत करता है। ‘मृदुला गर्ग’ ने भारतीय समाज को नजदीक से देखा और समझा है। मुख्यत: कहानियों में मध्यम वर्गीय चेतना को दर्शाया गया है। इनकी कहानियां व्यक्तिगत से सामाजिक तथा सामाजिक से दार्शनिक बनती नजर आती है। ‘यह मैं हूं’ कहानी में विशेष रूप से सामाजिक जीवन पर एक स्त्री की व्यथा का चित्रण है। ‘मीरा नाची’ कहानी में स्त्री- विमर्श को दर्शाया गया है। मन के अंदर के दबे संस्कारों को कहानी में उजागर किया है। लेखिका ने नारी को मानव रूप में देखने के लिए प्रेरित किया है। प्रसव वेदना से पीड़ित नारी प्रति संवेदना जगाकर नारी संघर्ष का चित्रित किया है। विषमता की मार सहती नारी को लेखिका ने निरूपित किया है। समाज में नारी का दोहरा संघर्ष होता है। स्त्री का शोषण सिर्फ बलात्कार और वेश्या बनाएं जाने तक ही सीमित न होकर पैदा होने से पहले कोख में, बाद में चिता पर, शिक्षा से वंचित, सजने-संवरने की बंदिशे, कम खाना खाने को देने की, मारपीट की आदि कई समस्याओं से नारी पीड़ित रही है। विवाह को सामाजिक व्यवस्था मानकर स्त्री हमेशा समझौता करती है। फिर भी उसे हताशा एवं कुंठा ही मिलती है। इसका वर्णन ‘ग्लेशियर’ में गहराई से किया गया है। जिसमें एक स्त्री की कहानी है, जो भावनाओं के तर्कशक्ति एवं विवेक पर भी गहरा अधिकार करती है।

        मृदुला गर्ग ने उपन्यासों में भी स्त्री विमर्श को एक अनोखे अंदाज में व्यक्त करने का प्रयास किया है। ‘मैं और मैं’ उपन्यास में ‘राकेश’ अपनी पत्नी से इसप्रकार से बातचीत करता है; जो पुरुष प्रधान समाज की सोच को दर्शाता है। ‘कठ गुलाब’ उपन्यास में बेटा और बेटी के भेद को दर्शाया गया है। जब ‘विपिन’ ‘नीरजा’ से कहता है कि “मुझे तुमसे मेरा ही बेटा चाहिए। क्या तुम मेरे स्पर्श तुम्हारे गर्भ में रखकर मुझे एक बेटा दोगी?”1 अतः यहां बेटा और बेटी के भेद की मानसिकता का चित्रण हुआ है। ‘नीरजा’ उसे ठुकराकर ऐसे अधेड़ उम्र वाले से विवाह करती है; जिसे अब बच्चा नहीं चाहिए। ‘नीरजा’ ‘विपिन’ से कहती है कि “हालांकि बेटा-बेटी एक समान है, यह कानूनों बनके बरसों बित गए किंतु हर तरफ यही हो रहा है नालायक बेटे को सब कुछ और बेटी को बेदखल कर दिया जाता है। पर मैं इसे चुपचाप क्यों सहन कर लूं? इसीलिए यह रीत है, यही परंपरा है किंतु आज मुझे मेरी अस्मिता कि मेरी स्वाभिमान की पहचान हो गई है।”2 परिवार में बेटी को नहीं बेटे को प्राथमिकता दी जाती है, उसके साथ समानता का व्यवहार नहीं होता। डॉ. अंजली चौधरी का कथन है कि “लेखिका ने सिद्ध कर दिया कि समय चाहे कितना भी प्रगति क्यों न कर लें, स्त्रियों की स्थिति में सुधार आना अत्यंत कठिन कार्य है। लेखिका ने अपने समग्र साहित्य का यही उद्देश्य निश्चित किया है कि अगर व्यक्ति से समाज बनता है तो क्या एक स्त्री व्यक्ति नहीं है? क्या उससे समाज नहीं बनता? तो फिर क्यों इसकी छवि और स्थिति को इतनी खराब रखते हैं जिससे हमारा समाज भी खराब कहलाए…।”3 मृदुला गर्ग के कथा-साहित्य में नारी के व्यक्तित्व की स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की छटपटाहट है।

        समकालीन महिला की समस्याओं को ‘ममता कालिया’ ने साहित्य में स्थान दिया है। साथ ही समस्याओं का समाधान भी दर्शाने का प्रयास किया है। ममता कालिया ने अपने साहित्य में युवा, सुशिक्षित, वृद्ध सभी प्रकार की स्त्रियों की समस्याओं को उजागर करती है। स्त्री चाहे कितनी ही सुशिक्षित क्यों ना हो, उसके प्रति समाज का दृष्टिकोण अच्छा नहीं होता। उसकी शिक्षा को कोई महत्व नहीं दिया जाता साथ ही उसकी प्रतिभा को नजरअंदाज किया जाता है। उसको घर की चारदीवारी में कैद करने की प्रवृत्ति होती है; जो साहित्य में चित्रित की गई है। ममता कालिया के ‘बेघर’ उपन्यास की नायिका की समस्या इससे अलग नहीं है। संजीवनी वह नौकरी करती है और घरवाले उसके शादी के प्रति इसलिए उदास है कि वह पैसे कमाकर लाती है। उपन्यास के नायक परमजीत की शादी तय होने पर लड़कीवालों से चार हजार नगद, पंद्रह तोला सोना, बारात में दो सौं आदमियों को दावत में देसी घी, लड़के के लिए दो सूट और एक लड़के के लिए और पिताजी के लिए आदि मांग रखी जाती है। ‘परमजीत’ पढ़ा लिखा होने के बावजूद भी दहेज प्रथा का विरोध नहीं कर पाता। बाद में मिले दहेज से ‘परमजीत’ अपनी बहन बिन्नों के लिए दहेज की तैयारी करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी समाज में प्रचलित प्राचीन प्रथाएं दिखाई देती है।

         ममता कालिया के ‘एक पत्नी के नोट्स’ उपन्यास में नायक ‘संदीप’ बुद्धिमान है किंतु अपनी प्रेमिका ‘कविता’ से विवाह के पश्चात बुरा बर्ताव करता है। पत्नी को हमेशा दूसरों के सामने नीचा दिखाने की कोशिश करता करता है। ऑफिस में अधिक समय देता है तब ‘कविता’ देरी से आने पर उन्हें टोकती है तो उसे शेर सुनाकर चुप कर देता है। अपनी साहित्यिक प्रवृत्ति से वह चोट पहुंचाने का कार्य करता है। भरी महफिल में भी उसके अलावा किसी और का प्रभुत्व उसे बर्दाश्त नहीं होता। इस प्रभुत्व को प्राप्त करने के लिए वह किसी को भी चोट पहुंचा कर अपनी विजय सिद्ध करना चाहता है। वह हमेशा ऐसे व्यक्तियों पर चोट करता है जिन्हें सपने में भी इसकी कल्पना न हुई हो। एक दोस्त की सुंदर बीवी पर वह उर्दू बोलकर प्रभाव जमाना शुरू करता है परंतु वह न पिघलने पर उसे शेर सुनता है। उसे लगता है कि शहर की हर सुंदर स्त्री उसपर फिदा हो जाए। कई बार कविता इस व्यवहार से दुखी हो जाती है। एक बार ‘कविता’ प्यार से ‘डोंट बी स्टुपिड’ कहती है तब ‘संदीप’ उखड़ जाता है और पास आकर ‘कविता’ के पंजे पर अपना जूता पीस देता है। इससे कविता का गला भर आता है और कहती है कि मैं इतने बड़े सदमे से लौटी थी, सिर्फ तुम्हारे लिए। पर तुम्हारे पास मुझे देने के लिए सांत्वना के दो बोल भी नहीं हैं।”4 ‘कविता’ को जब अपनी योग्यता के अनुसार लेक्चरशिप की नौकरी मिलती है तब उस पर कई प्रकार की पाबंदियां लग जाती है।

        ममता कालिया के साहित्य में नारी चेतना का शोध नारी के संवेदनशील अनुभवों एवं अनुभूतियों का निरूपण करता है। डॉ.सानप शाम के अनुसार “ममता जी ने अपने उपन्यासों में अपनी संवेदनशील प्रवृत्ति व कल्पनाशक्ति के आधार पर अत्यधिक विस्तृत भावभूमि पर नारी-पात्रों की संवेदनाओं का चित्रण किया और उन्हें विविध रंगों और रूपों में सुसज्जित कर, नविन अभिव्यक्ति प्रदान की।”5 ममता कालिया के उपन्यासों में सर्वाधिक आकर्षित करनेवाला तथ्य अनुभूतियों का सूक्ष्म चित्रांकन करता है।

निष्कर्ष :-

        समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श को महिला साहित्यकारों ने मुख्यतः गहराई से प्रस्तुत  किया है। अतः स्त्री समाज की जीर्ण रूढ़ियों से मुक्त होना चाहती है। अधिकांशतः समस्याएँ सामाजिक क्षेत्र में जन्म लेती हैं तथा उसका संबंध अधिकतर नारी जाति से है। सामाजिक अंध परंपराओं में दबी पिसी स्त्री की पीड़ा, व्यथा, दुःख-दर्द ही नहीं अपितु शोषक व्यवस्था के विरोध में आक्रोश का स्वर भी निकालती है। सदियों से साहित्य तथा समाज का प्रमुख अंग बना नारी-विमर्श समकालीन समय में प्रासंगिक बना है।

संदर्भ ग्रंथ :-

  • 1 मृदुला गर्ग, कठ गुलाब, पृ. 215
  • 2 वही, पृ. 215
  • 3 अंजली चौधरी, इक्कीसवीं सदी के हिंदी महिला कथा साहित्य में स्त्री-विमर्श, पृ.100
  • 4 ममता कालिया, एक पत्नी के नोट्स, पृ. 68
  • 5 डॉ. सानप शाम, ममता कालिया के कथा-साहित्य में नारी-चेतना, पृ. 248