93. समकालीन दलित उपन्यासों में चित्रित विषय वैविध्य- Alka Prakash
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समकालीन दलित उपन्यासों में चित्रित विषय वैविध्य
समकालीन हिंदी साहित्य में दलित साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है । दलित साहित्य दलितों की अस्मिता और अस्तित्व की पहचान कराती हैं । भारतीय समाज में मुख्य रूप से हिंदू समाज में छुआछूत की भावना हमेशा से सजीव रहा है।दलित साहित्य ने समाज के इन्हीं खोखलेपन को व्यक्त करते हुए मानव अधिकारों से वंचित, हाशिएकृत, शोषित, उत्पीड़ित जीवन का यथार्थ चित्रण किया। दलित साहित्य पर गौर करने पर हम यह समझ सकते हैं कि दलित लेखकों ने अपने भोगे हुए अनुभूतियों को ही अपनी रचना के रूप में व्यक्त किया है ।दलित रचनाकारों ने अपना दर्द , सदियों का संताप एवं आक्रोश आदि कई बातों को रेखांकित करने के लिए उपन्यास विधा को माध्यम बनाया है । दलित लेखन वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था के घोर विरोधी हैं । दलित लेखन में एक बात स्पष्ट है कि वह बाबा साहेब आंबेडकर को अपना प्रेरणा स्रोत मानते है । डॉ. आंबेडकर ने दलितों को ब्राह्मणवादी – सामंतवादी शोषण -उत्पीड़न से मुक्ति का रास्ता दिखाया था । उनके दर्शन से प्रेरणा लेकर दलित साहित्य अपने अस्तित्व में आया ।
उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक अपनी सहानुभूतियों – विचारों को , अपने और अपने समाज में आत्मसंघर्ष को तथा सामाजिक आयामों के अंतर को बड़े ही व्यापक दृष्टि से व्यक्त कर सकता हैं । और दलित उपन्यास सामाजिक यथार्थ के निकट रहता है और सर्वाधिक प्रमाणिक भी । रामजीलाल सहायक द्वारा 1954 में लिखे ‘बंधन मुक्त’ ही हिंदी के प्रथम दलित उपन्यास है , किंतु यह अप्राप्य है । इसलिए जयप्रकाश कर्दम द्वारा 1994 में ‘छप्पर’ को हिंदी के प्रथम दलित उपन्यास माना जाता है । यह उपन्यास पश्चिमी उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव मातापुर के यथार्थ जीवन पर आधारित है और विशेष रूप से दलितों के दीन – हीन जीवन के चित्रण के साथ समाजिक आर्थिक शोषण की स्थितियों को भी दर्शाया हैं । इस उपन्यास में चंदन एक ऐसा पात्र है जो अपने दलित समाज के लिए अपने संपूर्ण जीवन समर्पित करना चाहता है । मातापुर गांव की चमार दलित बस्ती के अति दीन – हीन सुक्खा की कथा बताते हुए लेखक ने कहा है कि साधन संपन्नता के नाम पर उसके पास सिर्फ एक ‘छप्पर’ है । उपन्यास में ग्रामीण और नगरीय जीवन का चित्रण है । अधिकतर कामकाजी लोग शोषित, पीड़ित और अन्याय का शिकार हैं । साथ ही गांव वालों के मन कई तरह की धार्मिक मान्यताएं , अंधविश्वासों – पाखंड विचारें भी उल्लंघित हैं जिसके चलते गांव वाले गांव में बरसात करवाने केलिए यज्ञ का आयोजन करने केलिए चंदा एकत्र करते है इसपर चंदन उन्हें समझाता है कि “मनुष्य सबसे बड़ी सत्ता है, दुनिया में मनुष्य से बड़ी कोई चीज नहीं है । आत्मा , परमात्मा , ईश्वर,ब्रह्म और भगवान इसमें से कोई भी वास्तविक नहीं हैं । ये सब मिथक हैं,काल्पनिक हैं,तथा भोले – भाले लोगों को बेवकूफ बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देशय से चालाक लोगों द्वारा ईजाद किए गए हैं ।“ इस उपन्यास में चंदन आदर्शवादी और गांधीवादी दोनों विचारधारा के प्रतीक भी हैं ।
मोहनदास नैमिशराय द्वारा 2002 में प्रकाशित ‘मुक्तिपर्व’ एक चर्चित दलित उपन्यास है । उपन्यास में चमार जाति का एक दलित परिवार के माध्यम से शोषण, उत्पीड़न , दरिद्रता , विपन्नता , घृणा , गुलामी भरे जिंदगी से गुजरता हुआ परिवार का चित्रण हैं । यहां उपन्यासकार केवल एक साहित्यिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं कर रहे हैं , बल्कि वे स्वयं सामाजिक – सांस्कृतिक आंदोलन में मुखर होकर प्रतिभागिता करते आए हैं और उनके मन में यह प्रश्न कुलबुलाता रहा है कि समाज में चलता आ रहा जातिवाद व श्रेष्ठवाद क्यों अन्य लोगों पर अपना रौब जमाता है? क्यों बार – बार मानव – मानव के बीच में भ्रातृत्व की अस्वीकृति करता है? उपन्यास जिस संवेदनशीलता से समाजिक मुद्दों को उठाता है यदि उसी संवेदनशीलता से नागरिक समाज उनको अपनाए तो , हो ही नही सकता की सामाजिक गुलामी के दलदल में पड़े लोगों को व्यवहारिक तौर पर समानता न मिले । उपन्यास सवाल उठाता है कि विदेशी सत्ता की गुलामी से मुक्ति के साथ ही देश के सभी लोग भी गुलामी से मुक्त होने चाहिए थे । ‘ मुक्तिपर्व ‘ जनमानस को चेतना के लिए प्रेरित करते हुए कहता है कि हमारे – तुम्हारे आस – पास जो अंधेरा पसरा हुआ है , उसको दूर करने केलिए हमें जिस रौशनी की आवश्यकता है उसका केंद्र शिक्षा है । यह उपन्यास लोगों में सहिष्णुता स्थापित करने हेतु शिक्षा और संघर्ष को अपरिहार्य मानता है ।
अजय नावारिया जी के उपन्यास ‘उधर के लोग’ मध्यवर्गीय नौकरी पेशा दलितों के मध्य बन रही जातीय पहचान के उद्घाटन के विरुद्ध एकजुटता का संदेश है । जातीय पहचान की मानसिकता दलितों में भी है इसका चित्रण भी उपन्यास में देखने को मिलता है । मैं शैली में लिखा गया यह उपन्यास एक उभरते हुए सामाजिक , आर्थिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक समुदाय के तौर पर दलित समाज की समीक्षा करता है और तमाम मतभेदों के बावजूद उनमें पैदा हो रही संघर्ष चेतना का उद्घाटन करता है ।
मोहनदास नैमिशराय का 2004 में प्रकाशित उपन्यास ‘आज बाजार बंद है’ वेश्याओं के जीवन पर आधारित है । उपन्यास की वेश्याएं गरीबी और अभाव का जीवन जीनेवाली शोषित पीड़ित है । उपन्यास में शबनम भाई एक ऐसे पात्र है जो खुद वैश्या भी हैं जो वैश्या जीवन का संताप भोगते हुए जीवन की प्रौढ़ता के चरण साहसपूर्ण कदम उठाती है । धोखा देकर लाई गई नई लड़की को वैश्या न बनाकर वह उसे आजाद कर देती है । इसमें लेखक ने ऐसे नारी पात्र का सृजन किया है जो वेश्याओं की पीड़ा को समझती है और उसे अपने लिए लड़ने की हिम्मत देती है । इस प्रकार उपन्यास में लेखक द्वारा समाज में हाशिएकृत , शोषित , उत्पीड़ित नारी को संघर्ष करने के लिए , अपने लिए लड़ने और जीने के लिए एक नए राह दिया है तथा वेश्याओं को राष्ट्र बेटी कहकर उन्हें सम्मान दिया है ।
सत्यप्रकाश का उपन्यास ‘जस तस भई सवेर’ दलित जीवन की विवशता और प्रतिरोध के द्वंद्व की मार्मिक कथा है । इसमें दलित जीवन में बलात्कार जैसी स्त्री त्रासदी का समाजशास्त्रीय विवेचन हुआ है । उपन्यास की कथा रामरति , घुसिया और सन्नो की विवशता और प्रतिरोध के बीच घूमती है । यह तीनों गांव के जमींदार चौधरी देवीपाल द्वारा बारी – बारी से बलात्कारित होती हैं । आरंभ में अपने आर्थिक समाजिक प्रभाव से जमींदार उनके प्रतिरोध को रोकने में सफल होते है । विवश होकर समाज के सामने इन्हे चुप रहना पड़ता है , किंतु जब शोषण और अत्याचार चरम पर पहुंचते है तब विद्रोह की लावा फूट पड़ता है । तीनों एक दूसरे के लिए हौसला बनता है । और कानून के जरिए अपने लिए इंसाफ चाहती है , मगर वहां भी उन्हें पुलिस के तरफ से उपेक्षा ही मिलते है । सच जानते हुए भी पुलिस लोग चुप रहते है । इस प्रकार ‘जस तस भई सवेर’ दलित जीवन की भीषण त्रासदी का मारक दस्तावेज है । सत्यप्रकाश ने इसे लाक्षणिक शीर्षक , मार्मिक वक्तव्यों और जोरदार कथ्यों द्वारा एक उत्कृष्ट साहित्यिक रचना बना दिया है ।
सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हें बदलना ही होगा’ दलितों, स्त्रियों और दलित-स्त्रियों के संघर्ष की कहानी कहता है. शिक्षण संस्थाओं में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को उजागर करता यह उपन्यास दलित जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालता है । उपन्यास में धीरज कुमार और महिमा भारती नाम के दो चरित्रों के माध्यम से दलितों और स्त्रियों के शोषण और उनके प्रतिरोध को दर्शाया गया है. पूरे कथानक में मनुवादी सवर्ण मानसिकता के लोगों का बोलबाला है. आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग गरीबों और मजदूरों के शोषण करते दिखते हैं. दिल्ली जैसे बड़े शहर में भी जातिगत भेदभाव की उपस्थिति को दर्शाया गया है । दलित जाति के लोगों को किराए पर घर न मिलने की समस्या पर काफी जोर दिया गया है ।
भारतीय समाज में वर्ण भेद और जाति भेद की भावना हमेशा से रहती आई है ।
सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘नीला आकाश’ में हमें दलित जीवन के यथार्थ चित्रण देखने को मिलते है । यहां सवर्णों के षडयंत्रो के सामने दलितों के शोषण उत्पीड़न और अभावपूर्ण जीवन का चित्रण किया गया है । इस उपन्यास में सुशीला जी ने भाषावादी सोच को सदैव जिंदा रखने की कोशिश की है , साथ ही इसमें दलित नारी का संघर्ष,जातिगत भेदभाव की भावना,दलित जागरण,अंबेडकरवादी सोच आदि बातों को भी प्रतिबिंबित किया ।
मोहनदास नैमिशराय के प्रमुख उपन्यासों में से एक है ‘वीरांगना झलकारीबाई’ । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीरांगना झलकारीबाई का महत्वपूर्ण योगदान है । बहुत कम लोग जानते है कि झलकारीबाई झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रिय मित्रों में से एक थी और झलकारीबाई ने समर्पित रूप में न सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया बल्कि झांसी की रक्षा में अंग्रेजों के सामना भी किया । झलकारीबाई ने निस्वार्थ भाव से देश की सेवा की है फिर भी इतिहास के पन्नों में उनका नाम कही भी नहीं लिखा गया । झलकारीबाई पिछड़े समाज से थी , इसलिए चाहे वो देश के सेवा में जितनी भी कुर्बानियां क्यों न दो उनका समाज के उच्च वर्गीय लोगों के सामने कोई मोल है ही नहीं ।
संक्षेप में कहें तो दलितों को आज भी समाज में हाशिए पर रखा गया है । शिक्षा , पेशा या कोई भी क्षेत्र क्यों न हो दलितों की समस्याएं सदियों से चली आई है , और आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक पहुंचते हुए उन समस्याओं को पूरी तरह से मुक्ति नहीं मिल पाई है । मगर शिक्षा और आत्म निर्भरता एक हद तक इन समस्याओं के सामना करने के लिए उन्हें हौसला देते है । दलित उपन्यासों से भविष्य को अनेक संभावनाएं है । इनके माध्यम से समाज में जागृति लाई जा सकेगी । और इससे दलितों के उन्नमन संभव है ।