June 3, 2023

101.हिंदी कहानियों में चित्रित वृद्धावस्थाजनित एकाकीपन-उज्ज्वल सिंह

By Gina Journal

Page No.: 712-720

हिंदी कहानियों में चित्रित वृद्धावस्थाजनित एकाकीपन

नाम – उज्ज्वल सिंह

पीएच.डी. शोधार्थी

राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय

अरुणाचल प्रदेश

  भूमिका

मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन में किसी न किसी प्रकार की तैयारियों में लगा रहता है। कभी अपने भविष्य को सुखमय बनाने के लिए कठिन परिश्रम करता है तो कभी बच्चों के भविष्य को सुखमय बनाने के लिए कठिन परिश्रम करता है। उसका सारा जीवन इन्हीं व्यवस्थाओं को पूरा करने में धीरे-धीरे व्यतीत होता चला जाता है। जब तक युवावस्था रहती है परिवार के लोगों में उसका एक आदर रहता है। जैसे-जैसे वह वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता जाता है उसी प्रकार नई पीढ़ी को घर में बैठे वृद्ध माँ-बाप बेकार से प्रतीत होने लगते हैं। जब तक वृद्ध पिता घर में कमाकर लाता है तब तक तो सब ठीक चलता है। लेकिन जैसे ही वह अपनी नौकरी से रिटायर होकर घर पर बैठ जाता है वैसे ही घर में धीरे-धीरे कलह शुरू होने लग जाता है। घर की इसी कलह में वृद्ध अपने आपको अकेला महसूस करने लगता है। हिंदी कहानियों में वृद्ध पात्रों के इसी एकाकीपन के अनुभवों के विविध पक्षों का विश्लेषण किया है।

हताशा  का भाव

वृद्ध अपनी अंतिम अवस्था में पहुँचकर घर एवं समाज के वातावरण को देखककर बहुत हताश हो जाता है। वृद्धावस्था में वृद्ध व्यक्ति अपने आप को परिवार से एकदम अलग कर लेते हैं। उसका कारण उनके साथ परिवार का बुरा व्यवहार रहता है। ऐसी स्थिति में उन्हें कुछ बातें भले ही बुरी लगती हैं तो भी वे उसके विषय में परिवार के लोगों से कुछ नहीं कहते अपने अंदर ही अंदर अपने गुस्से को समेटते रहते हैं। ऐसी स्थितियों में वे काफी हताशा का अनुभव करते हैं। उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानी ‘वापसी’ में वृद्धों की इसी हताश भावना को प्रस्तुत किया है- “गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कही टांगने को दीवार पर नजर दौड़ायी। फिर उसे मोड़कर अलमारी के कुछ कपड़े खिसकाकर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आखिर बुड्ढा ही था।”[i] व्यक्ति अपना सारा जीवन अपने परिवार को सुखी रखने में लगा देता है। अपने बच्चों को हर प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान करना चाहता है। लेकिन जैसे-जैसे वह युवावस्था से होकर वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता है वैसे-वैसे वह अपने परिवार से दूर होता चला जाता है। परिवार भी वही है, लोग भी वही हैं, लेकिन बच्चे अब बड़े हो रहे हैं और माता-पिता बूढ़े। युवा पीढ़ी को अपने माता-पिता की सलाह उनके जीवन में रोकना-टोकना खटकने लगता है। इससे वे अपने माता-पिता से दूरियाँ बना लेते हैं। अपने परिवार को अच्छी सुख-सुविधा देने के लिए पिता अपना सारा जीवन लगा देता है। आज उस घर में उसके लिए एक कमरा तक नहीं रहता है। ऐसी स्थितियों से वृद्धों में हताशा छा जाती है। चित्रा मुद्गल ने अपनी कहानी ‘गेंद’ में वृद्धों के अकेलेपन की हताशा को दर्शाया है- “सचदेवा जी की बढ़ी आँखों में पैनापन आ समाया। बड़ी देर तक सड़क के किनारे की घास-फूस में वे बच्चे की गेंद टोहते रहे। बच्चे की हिदायत पर सड़क के उस पार भी गेंद ढूँढने की कोशिश की ? गेंद कहीं नहीं दिखी। हताश हो वे उसके निकट आ खड़े हुए। बच्चे का चेहरा उतर गया। तुम यकीन के साथ कह सकते हो कि गेंद बाहर उछली थी? उछली न”[ii] |   इसमें लेखिका ने दिखाया है कि वृद्ध सचदेवा वृद्धाश्रम में अकेले रहते हैं। पड़ोस के बच्चे की गेंद जब घर से बाहर गिर जाती है तो उस के अनुरोध पर वे गेंद ढूँढते है लेकिन न ढूँढ पाने के कारण वे हताश हो जाते हैं। मृदुला गर्ग ने ‘उर्फ़ सैम’ में वृद्धावस्था के एकाकीपन से उत्पन्न हताशा को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- “उसके पास नहीं है। मेरे पास भी नहीं है। अपना मकान न हो तो क्यों लौटकर आएगा कोई? पिताजी, अमेरिका में मुझे कमी किस बात की है। ऊँची नौकरी है, घर-बार है पर…. उसने एक दीर्घ नि:श्वास भरी, ‘मन मेरा अटका रहता है। कितना अकेला हूँ मैं? कहाँ है मेरी जड़ें? कोई है ऐसा घर जिसे मैं अपना कह सकूँ?’क्षण भर वह अपने पर काबू पाने की कोशिश में चुप रहा।”[iii]  इस कहानी में लेखिका ने दर्शाया है कि सावन प्रताप सिंह उर्फ सैम मूलतः भारत का नागरिक है तथा कुछ समय पूर्व अमेरिका में जाकर बस गया है। भारतीय सभ्यता और अमेरिकन सभ्यता में ज़मीन-आसमान का अंतर है। सैम ने अपनी युवावस्था का जीवन अच्छे से व्यतीत किया परंतु जैसे ही वह वृद्धावस्था की और अग्रसर होता है उसे अपने वतन की याद सताने लगती है। लेकिन अब यहाँ उसका अपना कहने के लिए कुछ शेष नहीं है। उसके निम्न कथन से कि ‘मन मेरा यहीं अटका रहता है। कितना अकेला हूँ मैं? कहाँ हैं मेरी जड़ें ? कोई है ऐसा घर जिसे मैं अपना कह सकूँ ?’ इस कथन से ज्ञात होता है कि सैम स्वयं को कितना अकेला महसूस करता है। उसकी इस अनुभूति में हताशा साफ-साफ दिखाई देती है।

संबंधों की निरर्थकता का बोध 

हिंदी साहित्य में विभिन्न लेखकों ने वृद्धों से संबंधित कहानियों में संबंधों की निरर्थकता को बखूबी ढंग से प्रस्तुत किया है। हिंदी कहानियों में लेखकों ने यह अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है कि कोई किसी के अकेलेपन को साझा नहीं कर सकता। देखने में ऐसा लगता है कि सब लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं लेकिन हकीकत तो यह है कि एक साथ रहकर भी वे अलग ही रहते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्धावस्था की ओर बढ़ता हुआ मृत्यु की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे उसके अपने लोग उससे पराए होते चले जाते हैं। सब को अपने स्वार्थ से मतलब होता है चाहे उसके लिए किसी वृद्ध को तकलीफ होती है तो होती रहे। इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता। हिंदी की विभिन्न कहानियों में संबंधों की निरर्थकता का बोध दिखाई देता है। वृद्धावस्थाजनित एकाकीपन में संबंधों की निरर्थकता को भीष्म साहनी ने अपनी कहानी ‘चीफ की दावत’ में प्रस्तुत किया है- “आखिर पाँच बजते-बजते तैयारियाँ मुकम्मल होने लगीं। कुर्सियाँ मेज तिपाइयाँ, फूल सब बरामदे में पहुँच गए । ड्रिंक का इंतजाम बरामदे में कर दिया गया था । अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा । तभी शामनाथ के आगे सहसा एक अड़चन खड़ी हो गयी माँ का क्या होगा ? इस बात की ओर न उनका ध्यान गया था । मिस्टर शामनाथ श्रीमती की ओर घूमकर अंग्रेजी में बोले …. ‘माँ का क्या होगा?’ श्रीमती काम करते-करते ठहर गयीं और थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोलीं, ‘इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के पास भेज दो। रात भर बेशक वहीं रहें ,कल आ जायें।”[iv] उपर्युक्त उद्धरण में माँ और बेटे के संबंधों की निरर्थकता दिखाई देती है । शामनाथ के घर उसके चीफ दावत पर आने वाले है जिसके लिए घर को पूरी तरह से सजाया जा रहा है । घर का पुराना सामान छिपाया जा रहा है और घर को पूरी तरह से बनावटी तौर से सजाया जा रहा है । जैसे ही शामनाथ की नज़र बूढ़ी माँ पर जाती है तो वह यह सोचने लगता है की माँ को कहाँ छिपाएँ । क्योंकि माँ जल्दी खाना खाकर सो जाती हैं । सोते हुए वह बहुत तेज खर्राटे लेती हैं जिसकी आवाज़ बाहर तक आती है । शामनाथ सोचने लगता है कि अगर माँ जल्दी सो गई और उसके खर्राटे चीफ ने सुन लिये तो….? यहाँ पर शामनाथ की अपनी बूढ़ी माँ के प्रति उदासीनता से साफ-साफ संबंधो की निरर्थकता का बोध होता है । चित्रा मुदगल ने संबंधो की निरर्थकता को अपनी कहानी ‘गेंद’ में दर्शाया है- “सिद्धेश्वरी बहनजी का किस्सा भूले नहीं होगे आप । एकमात्र मकान बच्चों के नाम लिख देने के बावजूद इसी शहर में होकर भी उनके घरवाले उनके क्रियाकर्म में नहीं आए ।”[v] इसमें यह दर्शाया गया है कि व्यक्ति अपने जीवन में संतान की चाह अत्यधिक करता है । संतान को पालता है परंतु वहीं संतान जिसके लिए माता-पिता ने कितनी रातें जाग-जाग कर काटी थी कि उसकी संतान को किसी प्रकार की तकलीफ न हो । वही संतान बड़ी होकर अपने बूढ़े माँ-बाप के लिए थोड़ा सा भी समय नहीं दे पाती । वृद्ध माता-पिता के पास जो कुछ संपत्ति होती है उसे वह किसी न किसी प्रकार अपने नाम लिखवा लेते हैं । संपत्ति के अपने नाम हो जाने पर संतान वृद्ध माता-पिता को किसी न किसी बहाने से वृद्धाश्रम में भेज देती है । संतान द्वारा अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेजना उनके संबंधों की निरर्थकता को प्रकट करता है । मिथिलेश्वर ने अपनी कहानी ‘हरिहर काका’ में संबंधों की इसी निरर्थकता को प्रस्तुत किया है- ” हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी पत्नियों को यह सीख दी थी कि हरिहर काका की अच्छी तरह सेवा करें । समय पर उन्हें नाश्ता-खाना दें। कुछ दिनों तक वे हरिहर काका की खोज खबर लेतीं रही। फिर उन्हें कौन पूछने वाला ठहरा ? चौका लगाकर पंखा झलते हुए अपने मर्दों को अच्छे-अच्छे व्यंजन खिलातीं । हरिहर काका के आगे तो बची-खुची चीजें आतीं । कभी-कभी तो हरिहर काका को रूखा-सूखा खाकर ही संतोष करना पड़ता ।”[vi]   इसमें लेखक ने हरिहर काका और उनके तीनों भाईयों के संबंधों को दर्शाया गया है । हरिहर काका के भाईयों को उनसे जो थोड़ा बहुत लगाव था उसकी जमीन के कारण लेकिन उसकी पत्नियों को हरिहर काका से किसी प्रकार का कोई लगाव नहीं था । हरिहर काका और उनके भाईयों की पत्नियों द्वारा उन्हें रूखा-सूखा भोजन देना और अपने पतियों को अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पकवान बनाकर खिलाना । इस व्यवहार से यहाँ पर संबंधों की निरर्थकता साफ दिखाई देती है । नरेन्द्र कोहली ने अपनी कहानी ‘शटल’ में संबंधो की निरर्थकता को अभिव्यक्त किया है- “जब भगवन्ती बड़े बेटे के पास चली जाती है तो घर में उससे दो बातें करने वाला भी कोई नहीं रह जाता । ईश्वरदास को अकेलापन बहुत अखरता है । वह अकसर सोचता है कि- उसके ये बेटे, जिनकी शादियों को दो-दो,चार-चार साल हुए हैं,वे यह क्यों नहीं कि उनके बाप की शादी को पैंतीस साल हो गए हैं । ये साले अभी से अपनी बीवियों से एक दिन भी अलग नहीं रह सकते तो वह जिसने पैंतीस साल में एकदम अपने आप को आश्रित बना लिया है- कैसे भगवन्ती के बिना रह सकता है ? बुढ़ापे में और कोई साथ बैठकर प्रसन्न भी नहीं है- वे उसकी पैंतीस वर्षों की संगिनी को भी उससे अलग करने पर तुले हुए हैं ।”[vii]  जब भगवन्ती अपने बेटे के पास कुछ दिनों के लिए आती है । भगवंती के चले जाने से ईश्वरदास उस घर में एकदम अकेला हो जाता है । उस घर में उससे कोई बात नहीं करता । घर में एकदम अकेले हो जाने के कारण उसे अपना अकेलापन खलता है । उसके दोनों बेटे बुढ़ापे में माँ-बाप को अलग करने में तुले हुए हैं । बड़ा बेटा उसकी माँ को यह कह कर ले जाता है कि उसकी पत्नी की तबियत खराब है । ईश्वरदास छोटे बेटे के पास रहता है और उसकी पत्नी बड़े बेटे के पास रहती है । इस तरह यहाँ पर ईश्वरदास और उसके बेटों के बीच संबंधों कि निरर्थकता दिखाई देती है ।

राग एवं विराग का द्वंद्व

हिंदी साहित्यकारों ने कहानियों में वृद्धावस्थाजनित एकाकीपन के अंतर्गत राग एवं विराग के द्वंद को दर्शाया है । अपने द्वारा संचित संपत्ति एवं परिवार से व्यक्ति का लगाव जीवन की अंतिम साँस तक लगा रहता है ।बदलती परिस्थितियों एवं परिवार के लोगों की अनदेखी से वृद्ध हो चुके माता-पिता को अपने परिवार के प्रति विराग उत्पन्न होने लगता है । जिस परिवार पर कभी उसका हुक्म चला करता था । आज उसी परिवार में वह किसी कोने में पड़े अपने जीवन के बचे-खुचे दिनों को काट रहा है । कभी-कभी तो वृद्ध अपने बच्चों की कर्कश बातों से आहत होकर घर छोड़ने तक का फैसला कर लेते हैं । लेकिन बदनामी के कारण वृद्ध माता-पिता अपना फैसला बदल देते है । वृद्ध के इसी राग एवं विराग के द्वंद को नरेन्द्र कोहली ने अपनी कहानी शटल में दर्शाया है- ” ईश्वरदास को जरा बुरा लगा । भला वह खाली हाथ क्यों आया? ऐसे खाली हाथ आना क्या अच्छा लगता है… पर लाता भी कहाँ से ? उसकी कोई अपनी कमाई है ? बेटों के तो अपने ही इतने खर्चे है कि कुछ बचता नहीं । उसे रोटी मिल जाती है, यही बहुत है । उसके हाथ पर कोई कुछ रखे तब तो… उसके बेटे को बता दिया था कि वह अपने कपड़े लाया है, पर बेटे ने कुछ कहा नहीं था । जाने क्यों कुछ नहीं कहा….।” जब ईश्वरदास अपनी पत्नी से मिलने बड़े बेटे के घर जाता है । बेटे द्वारा यह पूछने पर कि ‘बाबू जी इस थैले में क्या लाए ? कितनी बार कहा है कि कुछ मत लाया कीजिए’- बेटे का यह वाक्य सुनकर उसे पछतावा होता है कि वह क्यों खाली हाथ आया, ठीक है उसकी कुछ आमदनी नहीं है फिर भी उसे यूँ खाली हाथ नहीं आना चाहिए था । वह इसी राग-विराग के द्वंद में बैठा सोचता रहता है । वह खाली हाथ क्यों चला आया । ” बाबू जी, यह…” उसने  देखा बेटा उसे एक रुपए का नोट दे रहा था, ” बस के लिए ।” एक बार ईश्वरदास के जी में आया कि अपनी जेब खनखनाकर कहे,”बहुत पैसे हैं बेटे, मेरे पास । पर फिर चुपचाप रुपया ले लिया । अगली बार आएगा तो बच्चे के लिए कुछ लेता आएगा ।” इन वाक्यों में ईश्वरदास अपने बड़े बेटे के पास अपनी पत्नी से मिलने यह सोचकर जाता है कि वह भी तो उसका अपना ही घर है लेकिन वहाँ पहुँचकर बेटे द्वारा यह पूछे जाने के बाद कि वह कब वापस जाएँगे । इस परिस्थिति में ईश्वरदास के मन में परिवार के प्रति आकर्षण के बावजूद उसके प्रति मोहभंग का द्वंद्व चलने लगता है । इस विवेचन से स्पष्ट है कि लेखक ने अपनी कहानियों में वृद्धावस्था की सूक्ष्म मनोविज्ञान का प्रमाणिक और यथार्थ चित्रण करने के लिए रिश्ते नातों तथा सांसारिक विषयों के प्रति उनके मोह के साथ-साथ काल गति के कारण उपस्थित होने वाले मोहभंग को भली प्रकार उभारा है । इस द्वंद्व से इस कहानी में संघर्ष कि सृष्टि हुई है और वरिष्ठ पीढ़ी कि मानसिकता अधिक विश्वसनीय रूप में सामने आ सकी है ।

पराएपन का बोध

व्यक्ति के बचपन और युवावस्था के बहुत साथी होते हैं । वृद्धावस्था में सब एक-एक करके उसका साथ छोड़ने लगते हैं । वृद्धावस्था में उसके परिवार के लोग भी उसका साथ छोड़ देते हैं । वृद्धावस्था में व्यक्ति अपने आप से इतना परेशान नहीं होता जितना अपने परिवार वालों की बेरुखी से होता है । व्यक्ति दूसरों की बेरुखी को तो किसी हद तक सह लेता है लेकिन परिवार की बेरुखी उससे सहन नहीं हो पाती । ऐसी स्थिति में वृद्ध व्यक्ति अपने आप को एक दम अकेला महसूस करने लगता है । इसी अकेलेपन के कारण परिवार में रहते हुए भी अपने ही लोगों से पराएपन का बोध होने लगता है । नरेन्द्र कोहली ने पराएपन को अपनी कहानी ‘शटल’ में भी प्रस्तुत किया गया है- “पुस्तकें अब भी घर में आती थीं पर वे उसके बेटे कि पसंद की होती थी । उसकी पसंद और बेटों की पसंद में अंतर था । उसके बेटे जो प्रेम-कथाएँ पढ़ते थे, ईश्वरदास को वे एकदम नापसंद थीं ।”[viii] घर में जब माता-पिता वृद्ध हो जाते हैं तब बच्चों के घर में उनकी पसंद-नापसंद का कोई महत्व नहीं रह जता है । बच्चों को सिर्फ अपनी पसंद से मतलब रहता है । यहाँ पर ईश्वरदास के बेटे के घर में पुस्तकें आज भी आती हैं लेकिन वे सब बेटे की पसंद की होती हैं, उनमें से एक भी पिता की पसंद कि नहीं होती । घर में इस प्रकार की परिस्थितियों को देखते हुए परिवार जन का स्वार्थपूर्ण चेहरा और ईश्वरदास द्वारा पराएपन का बोध दिखाई देता है ।

अलगाव बोध

वृद्धावस्था में व्यक्ति को अकेलापन, अधूरापन और अलगाव का बोध होता है । इन सब बावजूद उन्हें जीना भी है । वृद्धावस्था में प्रायः देखा जाता है कि वृद्ध अपने ही घर-परिवार में अकेले पड़ जाते हैं । अपनों की इस बेरुखी से वृद्ध अंदर ही अंदर घर-परिवार में घुट-घुटकर जीने लगते हैं । इसी अकेलेपन से उत्पन्न अलगाव को मिथिलेश्वर ने अपनी कहानी ‘हरिहर काका’ में दर्शाया है-“हरिहर काका ! वह तो बिलकुल मौन हैं अपनी जिंदगी के शेष दिन काट रहे हैं । एक नौकर रख लिया है, वही उनके लिए खाना बनाता खिलाता है । उनके हिस्से में जितनी फसल होती है, उससे अगर वह चाहते तो मौज की जिंदगी बिता सकते थे । लेकिन वह तो गूंगेपन का शिकार हो गए हैं । कोई बात कहो, कुछ पूछो, कोई जवाब नहीं । खुली आँखों से बराबर आकाश को निहारा करते हैं । सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ कहते-सुनते हैं,लेकिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं ।”[ix] इसमें हरिहर काका अपने भाइयों द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण अपने आप को उस घर से अलग कर रहने लगते हैं । भाइयों का व्यवहार उनके परिवार के प्रति अंधे प्रेम कि जड़े हिला देता है और वे अलगाव की भीषण यातना की मानसिक अनुभूति से भर उठते है । हरिहर काका का अपने आप को परिवार से अलग करना और मौन व्रत धारण करना उनके आत्मनिर्वासन होने को प्रकट करता है ।

निष्कर्ष

हिंदी कहानियों में वृद्धावस्था के एकाकीपन का चित्रण इस रूप में किया गया है कि वह वृद्ध पात्रों की नियति प्रतीत होती है । कहानियों में चित्रित अधिकतर वृद्ध पात्र अपने-आप को अकेला महसूस करतें हैं । यह अकेलापन किसी एक पात्र का नहीं बल्कि कहानियों में अधिकांश पात्रों का है । इसी अकेलेपन से ग्रस्त होकर उनमें हताशा का भाव उत्पन्न होने लगता है । यह समस्या असुरक्षा और अकेलेपन की नहीं बल्कि तृष्णाओं की है, जिसके कारण व्यक्ति अंतर्मुखी होता चला जाता है । इसीलिए कथाकारों ने कहानियों में संबंधों की निरर्थकता का बोध, राग एवं विराग का द्वंद्व,पराएपन का बोध आदि की सहायता से वृद्धों के एकाकीपन की करुण त्रासदी को सफलतापूर्वक चित्रित किया गया है ।

 संदर्भ सूची

[i] शरण,गिरिराज(संपा.).2006).वृद्धावस्था की कहानियाँ, नई दिल्ली:प्रभात प्रकाशन, पृ 23

[ii] मुद्गल,चित्रा.गेंद, वागर्थ(1993),पृ 123

[iii] गर्ग,मृदुला.(2004).संगति विसंगति सम्पूर्ण कहानियाँ भाग-2, नई दिल्ली:नेशनल पेपरबैक्स, पृ 395

[iv] साहनी, भीष्म.(2007).प्रतिनिधि कहानियाँ, नई दिल्ली:राजकमल प्रकाशन, पृ 14-15

[v] वही, पृ 14

[vi] सिंह,संध्या.(2007).संचयन भाग-2 कक्षा 10, नयी दिल्ली:राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्, पृ 04

[vii] शरण,गिरिराज(संपा.).2006).वृद्धावस्था की कहानियाँ, नई दिल्ली:प्रभात प्रकाशन,पृ 68

[viii] वही, पृ 65

[ix] सिंह ,संध्या.(2004).संचयन भाग-2 कक्षा 10,नयी दिल्ली. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्, पृ 13

 

नाम – उज्ज्वल सिंह

पीएच.डी. शोधार्थी

राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय

अरुणाचल प्रदेश