June 3, 2023

100. पत्रकारिता विमर्श-एस. राजलक्ष्मी

By Gina Journal

Page No.: 707-711

पत्रकारिता विमर्श

एस. राजलक्ष्मी

सहायक प्राध्यापिका

ए एम जैन महाविद्यालय , चेन्नई

           पत्रकारिता वर्तमान समय में बहु आयामी हो गई है। पहले साहित्यिक  रूप में ही पत्रकारिता का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और प्रचलित भी हुआ। जब से व्यवसाय का रूप में पत्रकारिता अवतरित हुआ तब से बहुपथनिय हो गई है। बदलते समयानुसार  पत्रकारिता का स्वरूप और उसकी चुनौती में भी काफी बदलाव आ गया है। पत्रकारिता विविधवर्नी हो गई है । उसका व्यावसायिकरण होता गया उसकी विश्वसनीयता भी थोड़ा कम हो गई है ।फिर भी लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को आज काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जो पत्रकार है वह कभी-कभी परिस्थिति वश अपने भावनाओं को पूरी तरह से व्यक्ति नहीं कर पाता है। जो कि उसकी जो बोलने और लिखने का प्रभाव पूरे समाज को प्रभावित करता है।प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की समृद्धि विकास और उपलब्धियों के साथ उसके मूल्य की प्रस्तुति में अनेक उपक्रमों से  गुजरना पड़ा समकालीन हिंदी पत्रकारिता पर भूमंडलीकरण , बाजारवाद उपयोगितावाद के प्रभावों को समझाना भी लेखनी का एक लक्ष्य है ।

संचार शब्द communication का हिंदी रूप है इसकी उत्पत्ति लेटिन भाषा के communico से हुई है। किसी बात को आगे बढ़ाना , चलाना और उस समाचार को फैलाना इसका अर्थ है।संचार संस्कृत के चार धातु से उत्पन्न है जिसका अर्थ है चलना । जब हम किसी  विचार या हमारे ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाते हैं और यह प्रक्रिया सामूहिक स्तर पर उभर कर आती है तो इसे जनसंचार कहते हैं ।इसका उद्देश्य यही है कि जानकारी या विचार को समाज के सभी वर्ग के लोगों तक पहुंचाना। पहले प्रेस में पत्रकारिता का प्रकाशन होता था पर आजकल आधुनिकरण और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वजह से हम चंद क्षणों में  घर बैठे ही विश्व भर में जितनी भी घटनाएं घटती है हमें  मालूम हो जाता है।

विमर्श शब्द का अर्थ है विवेचन करना या विचार करना। आलोचक नामवर सिंह का एक ही उद्देश्य था कि लेखन की बजाय वाचिक विमर्शात्मक आलोचना का स्वरूप को स्थापित कर वाद-विवाद एवं संवाद की स्थितियों को उन्नत बनाना था।

पत्रकारिता विमर्श विषय पर मैंने वीरेंद्र जैन के उपन्यास” शब्द बध ” से उपन्यासकार के विचारों को यहां प्रस्तुत की हूं। शब्दों को कहां बोलना है या कहां हम परिस्थिति वश चुप हो जाते हैं और  कहां तक एक पत्रकार के जीवन में  एक शब्द भी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करती है यह उपन्यासकार वीरेंद्र जैन ने बहुत सुंदर रूप में प्रस्तुत किए हैं।प्रतिबध्द प्रकाशन का कर्मचारी शांतिलाल जी प्रकाशन में चलते शोषण और भ्रष्टाचार का विरोध करते हुए कहते हैं कि “जो सहता है उसी को दबाया जाता है हम क्यों सहें हम लूले लंगड़े हैं ,कोढ़ी अपाहिज है इनकी दया पर जिंदा है हार्ड तोड़ मेहनत करते हैं ।इन्हें तिजोरी बर कमा कर देते हैं तब मुट्ठी भर हिस्सा ले पाते हैं यहां नहीं तो कहीं और काट लेंगे फिर क्यों दबे?”1 आनंद शांतिलाल की बातों से सहमति प्रकट करता है कांता जी ने लेखकों के रॉयल्टी स्टेटमेंट बनाने का काम शुरू करते ही आनंद को बुलाय

कर कांता जी ने आनंद को स्टेटमेंट की जानकारी और साथ-साथ लेखकों के साथ उनके निजी संबंधों कैसे हैं यह भी व आनंद को बताती है, और किसे कितना भुगतान दिया है हुआ है यह भी साथ में बताती है । कांता जी रॉयल्टी स्टेटमेंट में”जिनके साथ चैक लगे होते उनसे और कोई पुस्तक देने का आग्रह करने को कहती । जिनके साथ चेक नहीं होता था उनसे रॉयल्टी कभी ना दे पाने की कोई ना कोई वजह लिखने को कहती, जिनकी बिक्री कम होती है उन्हें यह आश्वासन की हम पूरे प्रयास कर रहे हैं”2  कई दिनों तक लेखकों को पत्र लिखवाने में व्यस्त रहा। इस दौरान आनंद को जबरदस्त और विद्रोही पत्र पढ़ने को मिला पत्र लेखक का था , जिसको पिछले वर्ष भी रॉयल्टी नहीं दी गई थी और इस वर्ष भी कोई बहाना बनाकर अपनी असमर्थता प्रकट की गई थी । तब लेखक ने कांताजी पर व्यंग्य करते हुए लिखा कि,”कांता जी आप का कृपा पात्रता कोई आश्चर्य नहीं हुआ रॉयल्टी की जहां प्रकाशित की व्यवस्थाओं से परिचित होने का अवसर मुझे पहले भी कई बार मिला है। आपने तो शालिन ढंग से अपनी असमर्थता प्रकट की है। छोटे प्रकाशक तो इस मौके पर बकायदा रोने ही लगते हैं , पर जब बताते हैं कि उनकी हालत कितनी खराब चल रही है तो कई बार मन में दया का सागर भर जाता है लेकिन सोचता है बेचारे ने ना जाने कब से हरि सब्जी तक नहीं खाई होगी जाने दोनों समय का भोजन भी इसे नसीब होता होगा या नहीं देखो किस कदर हमारे विचार फैलाने के काम में जुटा है बिना भूख प्यास माया लोभ की परवाह किए।”3  इस पत्र को पढ़कर कांता जी ने शीघ्र ही आनंद को आदेश दिया कि उनके नाम का चेक बना कर भेज दिया जाए। सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं नहीं बल्कि पत्रकार अपने ही अस्तित्व को बनाए रखने में बहुत संघर्ष करता है। प्रकाशक लेखक की रचनाओं को सारे संसार के सामने प्रस्तुत करता है । उस व्यवस्था के कुछ लोग लेखकों के लिए लेख प्रकाशन करने के लिए थोड़ा पैसा लेते हैं या उन्हें यह नहीं पता चलता है कि किस का प्रकाशन कर रहे हैं खुद लिखकों से पैसा लिया जाता है नहीं तो लेख के प्रकाशन में विलंब किया जाता है। इस उपन्यास में वीरेंद्र जैन ने इसका भी पुष्टि किए हैं,”कुछ प्रकाशक रुपया जिस लेखक से लेते हैं उसी से छापें जरूरी नहीं । कभी-कभी इनके यहां से पांडुलिपि खो जाती है ,कभी कागज नहीं उपलब्ध होता तो , कभी प्रेस दगा  दे जाता है ।लेखक बेचारा चक्कर लगाता रहता है और यह उसके पूंजी के दम पर अपने मित्रों परिचितों और रिश्तेदारों की किताबें जाते रहते हैं। कुछ है जो किसी तरह के झमेले में नहीं पड़ते बेबस रॉयल  मुक्त लेखकों की रचनाएं छापते हैं”4 कुछ प्रकाशक ऐसे भी हैं जो यह जानने की कोशिश तक नहीं करते कि वे क्या छापते हैं,”इस शहर में मुझे अब जाकर मालूम हुआ कि प्रकाशकों की सचमुच कई वैरायटीया है कुछ तो जानते ही नहीं कि उन्होंने छापा क्या है उन्हें इससे कोई सरोकार ही नहीं कि वे क्या छाप रहे हैं उनके लिए तो बस इतना जाना काफी है कि हमारा फलां लेखक फलांं महकमें में अफसर है और  आधी तो ,कोई पूरी प्रति खरीदवा लेता है। कुछ है जो अपनी पूंजी लगाते ही नहीं वह तो लेखक की जेब देकर प्रकाशन कर उसी से वसूल लेते हैं और लेखक जो भी लिखे कागज दे आए उन्हें छापने के बाद  इधर से उधर पहुंचाते रहते हैं” 5

प्रकाशक सभी बातों पर लिखिए लेख को छापते हैं पर कोई प्रकाशित ऐसे हैं जो अपनी मनपसंद बातों को मान्यता देने वाले लेखकों का ही ले जाते हैं इस उपन्यास के प्रतिबध प्रकाशन के प्रकाशक कांता जी जो साम्यवादी बातों को मान्यता देती है इसके कारण वे साम्यवादी लेखकों के लिए की जाती है,”कांता जी साम्यवादी है। साम्यवाद का प्रचार करना उनके प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य है साम्यवादी विचारधारा को मानने वाले लेखक ही यहां से जाते हैं” 6

लेखक बहुत भावुक व्यक्ति है जो अपने लेखन के द्वारा सबको मनोरंजन या चेतना जागृत करता है ।वह किसी भी अत्याचार को सहन ना कर पाते हैं इसका फायदा उठाकर कुछ प्रकाशक इन से घूस लेकर लेख जाते हैं या अपने प्रकाशन में काम देकर जमकर शोषण करते हैं।इस उपन्यास में आनंद वर्धन के मित्र उस को समझाते हुए कहते हैं ,”अरे यार तुम इस बलभद्र को नहीं जानते।…. इसकी आदत है लेखक किशन के लोगों को नौकरी पर रखने की।क्योंकि लेखक जो होता है वह बुद्धिजीवी होता है भावुक होता है भावनाओं की कदर करता है प्रकाशकों लेखकों की इस कमजोरी को जानते हैं इसलिए जानबूझकर लेखक किस्म के लोगों को काम पर रखते हैं ताकि उनका जमकर शोषण कर सके और वह  शर्म के मारे केवल इस संकोच वश कि कहीं उनके विरोध करने से बलभत्र जी का अपमान ना हो जाए कहीं उनके दिल को ठेस ना पहुंचे अपना शोषण होने देते हैं क्योंकि विरोध को कहीं तो प्रकट करना होता ही है तो सो बलभद्र के बजाय साहित्य उनकी रचनाओं में उस का शमन होता रहता है।”7

लिखने की जिंदगी में हर चीज है उतना ही समाचारों का प्रकाशन करना है किसी सूचना का प्रकाशन करना। लेखक बहुत ही भावुक व्यक्ति होता है तभी तो वह किसी भी विषय के नेता है वह बहुत सजीव बनता है जिससे पाठक घन बहुत मनोरंजन हो जाते हैं या उन्हें सूचनाएं प्राप्त होती है। इसी प्रकाशन की जिंदगी में इतनी ज्यादा  समस्याएं है जो हमें विचार विमर्श करना पड़ेगा और उनकी समस्याओं को समझने और सुलझाने पड़ेगी। जहां सरस्वती की प्रधानता ज्यादा रहती है वहां लक्ष्मी की कमी होती है। हमें लेखकों और प्रकाशकों के संगठन को जानकर अहम लेख और साहित्यकारों की कद्र करना जरूरी है।

एस. राजलक्ष्मी

सहायक प्राध्यापिका

ए एम जैन महाविद्यालय , चेन्नई

पुस्तक सूची:-

1.शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 124

  1. शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 125

3.शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 126

4.शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 136

5.शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 100

  1. शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 111

7.शब्द बध उपन्यास -वीरेंद्र जैन – पृ 94