हिमांशु जोशी के कथा-साहित्य में वृद्धजनों के प्रति संवेदना -डाँ. अरूणा रायचूर
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हिमांशु जोशी के कथा-साहित्य में वृद्धजनों के प्रति संवेदना
. डाँ. अरूणा रायचूर
हिमांशु जोशी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न, निर्भाीक एवं साहसी साहित्यकार हिन्दी साहित्य की उर्जावान प्रतिभा है। उनकी साहित्य साधना का क्षेत्र ऐसा है कि जिस क्षेत्र को उन्होंने स्पर्श किया है वी चंदन की भाँति अपनी सुगंध चारों ओर फैलाता है। इसलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में जोषी जी मील का पत्थर है। जोषी जी की भाशा सरल एवं सुद्रढ़ है। उनकी भाशा एवं बुनावट को समझने में थोड़ी बहुत दिक्कत हेे हिेय की प्रासंगिकता,वं मानवी संवेदना ही हमें साहित्य की ओर आकृश्ट करती है। जोशी जी ने अपने साहित्य के माध्यम से मानव समाज का उद्देश्य, संवेदना और विभिन्न परिस्थितियों को प्रस्तुत तो किया ही है। हिमांशु जोशी स्वातंत्र्योीसार हित् के ब्रह्म के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी पचितभ् य विभिन्न साहित्यिक कृतियों के माध्यम से दिया है।जोशी जी का साहित्य अपने आप में तो पूर्ण है ही,मगर उन पर तत्कालीन समय की समकालीन सामाजिक,राजनैतिक,सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि परिस्थितियों का प्रभाव भी है।उसने इन सभी परिस्थितियों के आधिन होााअश् है। परिस्थितियों के आधिन होकर ही रचनाओं का चित्रण किया जोशी जी आधुनिक समय के एक बड़े अच्छे रचनाकार हैं।इनका साहित्य यथार्थता की धरातल पर खड़ा है। विविध विधा पर लेखनी चलाकर हिन्दी साहित्य को ओत-प्रोत किया है। इस प्रकार जोशी जी जी एक सक्रिय, विख्यात,संवेदनशील, भावुक, प्रतिभा सम्पन्न तथा बहुचर्चित साहित्यकार हैं। 4ाुा4के अद्व समाज का दर्पण है,लेकिन इससे भी एक कदम आगे बढ़कर शोधार्थी यह कहना चाहती है कि साहित्य सवर काण ही नहीं है, अपितु दीपक भी है।यह वह दीपक है जो समाज में व्यापत बुराईयों के पथरीले और अंधकारमय मार्ग में समाज को भटकन से या विलिन हो जाने से बचाता है और अच्छाई और संस्कारों को सुमार्ग एवं उज्जवल मार्ग पर चलने के लिए समाज का उभइसा का्रिक्रकर कर ा दीता कर ा्र करा पथ प्रा्रशै, कभी इस दीपक का प्रकाश मशाल की धधकती ज्वाला बनकर समाज को आहत करता हुआ,उस पर व्यंग्य करता हुआ, उसका मार्ग प्रशस्थ करता है। इस साहित्य को जनम देनेवाला ही साहित्यकार है। जोशी जी भी ऐेस ही समाज के पथ प्रदर्शक रहे हैं। इनमें भी प्रंउनतसंत कथा-साहित्य का तो मूल उद्देश्य ही समाज का कल्याण करना एवं मानवीय संवेदना को जागृत करना है। उनका कथा-साहित्य मनोरंजन के लिए ही नहीं, अपितु एक निश्चित उद्देश्य को लेकर लिखा गया है। जोशी जी का उद्देश्य यही रहा है कि आज के आधुनिक समय में लोग संवेदनहीन एवं निर्मम होते जा रहे हैं, वे केवल अपना ही स्वार्थ देखते हैं। जोशी जी अपने साहित्य के माध्यम से लोगों की संवेदना जागृत करता चाहते हैं एवं समकालीन परिस्थितियों से वाकेफ कराना चाहते हैं। अमर्लंमान समय की घटनाएँ अतीत और भविश्य दोनों को हिलाकर रख देती हैं। विश्व की अनेकानेक विशमताएँ और विघटनों ने मानवीय संवेदना पर गहरा प्रहार किया है। आज मनुश्य दुहरी जिन्दगी जी रहा है। समाज में वासनाएँा हो गया है। बलात्कार, खून, हत्या, लूँट और अत्याचारों का आतंक देखकर सामान्य उन विश्वास और मानवता के सभी उदात भावनाएँ नष्ट हो गयी है। जोशी जी अपने साहित्य के माध्यम से लुप्त हो रही मानवीय संवेदना को फिर से लोगों में जागृत करना चाहते हैं। हिमांशु जोशी जी ने अपने कथा-साहित्य में मानव मात्र की आशाओं-निराशाओं,सुख-दुःख, अपेक्षाओं, मान-अपमानों, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, प्रेम-घृणा, विस्मय, उत्साह, कुंठा आदि के साथ-साथ सामाजिक विषमता, रूढि़यों, परंपराओं में जकड़ा मजबूर और उसकी टूटती-बिखरती आषाी, मध्य तनाव, घुटन तथा अजनबीपन आदि की सोद्देश्य अनुभूति करा के एवं मनुश्; को मनुश्यत्व की पहचान करा के वास्तविक अर्थ में संवेदना की पहचान करायी है। वृद्धावस्था मनुष्य जीवन की करूण कथनी है।इस अवस्था में पहुँचकर मनुष्य कितना विवश, असहाय और दयनीय बन जाता है,यह तो एक भुक्तभोगी समझ सकता है। पूर्ण यौवन काल में अपने आप को सशक्त, सर्वश्रेश्ठ समझने वाला व्यक्ति वृद्धावस्था में, लाचार, विवश और पराश्रित होने पर बाध्य हो जाता है,पर इस अवसथा में भी वह लोभ, मोह आदि से वंचित नहं रह पाता है।क्यांेकि ‘‘बचपन मिठाईयों का, यौवन प्रेम और लालसााआराकय होता है।’’1 परंतु वृद्धावस्था में व्यक्ति को अपने जीवन की निसससारता भी प्रतीत होने लगती है। इतिहास साक्षी है कि वृद्धावस्था के कश्टों की कल्पाज ाक मात्र नें सुखों से विरक्ति पैदा कर दी थी। अमर्लंमान युग में संयुक्त परिवारों के विघटन से वृद्धजनों की स्थिति और भी दयन्भ्य होती जा रही है।आज की युवा पीढ़ी उनकी देख-भाल से उदासीन होती जा रही है। बल्कि पूर्णतःविमुख हो चुकी है। ऐसे वृद्धजनों के प्राीार दजंोख हो चुकी है। ऐसे वृद्ध ृद्धजनों के प्राीार दजंो ााई देती है। उन वृद्धजनों के जीवनयापन सेवा-सुश्रुशा आदि के प्रति सहानुभूतिपूर्ण अभिव्यक्ति उनके कथा-साहित्य में हुई है। ‘बनस बीत गया’ कहानी में अनन्त पलटन में है। एक बार भयंकर गोलाबारी में अनंत शहीद हो जाता है। इसका गहरा प्रभाव वृद्ध ़ तालेहसय हो जाते हैं। ताउजी अपनी वेदना छिपाकर अनन्त की माँ को दिलासा देते हुए कहते हैं कि ‘‘अनन्त की माँ रोकर उसकी आत्मा को दुःख क्यों देती है? फिरनदबा तेंगगयबय … बैरी निकला पूरब जनम का। इस बुढ़ापे में आके आज यह दिन भी देखना पड ़ा।’’ ‘आँखे’ कहानी के बाबा बुढ़ापे तक परिवार का बोझय हैं। बुढ़ापा आने से धीरे-धीरे बाबा की आँ बर्ताव होने लगता है और सभी लोग उनका मजाक उड़ाने लगते है। जैसे – ‘‘ानाजी (काकी के पिता) बात-बात पर बाबा की खिल्लियाँ य यबार खाँ ’ बाबा की सेवा करना तो दूर मगर उनके इलाज के लिए भी उनके बेटे साफ मनाकर देते हैं।‘‘अब क्या देखना है जिसकी इत्ती लालसा है। एक पारँव, मसान घर पर। इस बुढयापे में भी क्या कहीं आँखें लौटती है।’’ ‘पाशाण हो गयी। नंदा के पिताली ‘‘जीवन भर जिस सच से इतना डरते रहे, आज लवन की इस संध्या में, जिस सच को जी रहे हैं, उसे देखने मात्र से रोंग4े खडे़ हो। जातहवर्श की अवसस्था !एक विधवा बहू! एक अनाथ पोता, जिसके दूध के दाँत भी अभी टूटे नहीं!’’ वृद्धबवस्था पदह असहा6 एवं पुत्र द्वारा उपेक्षित वृद्ध को जोशी जी ने ‘आश्रय’ कहानी के माध्यम से चित्रित किया है। श्रेया और प्रि यांशु न्यूजर्सी में रहते हैं। प्रियांशु के माता-पिता दिल्ली में रहते हैं।माता की मृत्यु के बाद बिमार, अकेले और पिता हो। मोजातपेिबेचकर उनहें वृद्धाश्रम में भेज देने के लिए प्रियांशु को कहती है, मगर प्रियांशु इसका विरोध करता है। मगर श्रेय ा सब कुछ तत कर चुकी थी। इससे प्रियांशु परेशान एवं उग्र हो जाता है। उसी समय दरवाजा खोलकर पापा आते हैं और बताते हैं कि‘‘पगले हो तुम!व्यर्थ में शोर मचा रहे हो। मैंने तुम्हारी सारी बातें सुन ली है। अरे, तुाम्रहेाने‘भ्फज्ञेरारे ’’ ‘दाहल कािख्ताऊावृजीद्वद्वयारा वृद्धणवस्था की करूणता दिखाई पड़ती है।ताऊजी का बेटा नर‘दा तराई की सड़ी गरमी में मिट्टी-मेंघुल-घुलकर मर गया। घरवाली छिछली चट्टान से गिरकर पहले ही चल बसी थी। अब जैसे तैसे ताऊजी ने खान खाकर झूस जैसे तिनाड़ पौते को ाीरसाला- बूरी सोहबत में पड़कर बिगड़ गया। सबको भिखमंगा करके पापी खुद चल बसा। जवान इकलौते पोते का सदमा सह नहीं पाये बेचारे। पूरी तरह मगला गयेा तरह मगला गये। नरबल्लभ प्रधान कहते हैं, ‘‘हे परमेसर, न देना ऐसा दुःख किसी को! थ्तनके जैसा एक सहारा था, वह भी भरपूर जवानी में धोखा देकर चजा गया।यह दुर्दिन देखने से तो अच्छा था, बुढ़ऊ की पहले ही आँखें मुँद जाती।पता नहीं, किस पाप के पहाड़ के ढोने के लिए इस चौथी अवस्था में जिन्दी है ?’’’ ‘एक बार फिर’ कहानी में चित्रित परिवार के पिता वृद्ध एवं बिमार जीभतोेुेु य अम बीमार पिता पर निर्दयी होकर खुलेआम इलजाम लगा के दूसरों के सामने बेनकाब इसाो करते हणृणा से, उपहास से घूरकर देखती जिससे वृद्ध पिता स्वयं को कमरे में बंद कर लेते हैं। खुली खिड़की के पास बैठे-बैठे रात और दिन बिताते रहैावच है ‘‘मर-मरकर जहा ँ इतनी जिंदगीयाँ जी,वहाँ एक बार फिर जी जीकर मरण देखने में क्या हर्ज।’’ ‘छाया मत छूना मन’ उपन्यास में वसुधा के पिता बिशनदास की वृद्धावस्था का दयनीय चित्रण जोशी जी ने संवेदनशील है। बिशनदास पक्षाघात की बिमारी का शिकार हो जाते हैं। जिससे उसका फिरना,चलना, काम पर जाना बंद हो जाता है। परिणामस्वरूप पत्नी और पुत्री कंचन उसकी अवहेलना करती है।हारतालरेय शी वृद्धएवं रूग्ण पिता को ठहराया जाता।‘‘पिता की दयनीय स्थिति देखी न जाती, उस पर माँ अकारण झिड़क देती। डबडबायी आँखों से पिता तब छत पर कुछ खोजने लगते, विवश भाव से।’’ वसुधा के माध्य म से बिषनदास की करूणता एवं उपेक्षित भावना दिखाई पड़ती है। ‘अरण्य’ उपन्यास में मानिक की माँ की वृद्धावस्था, लाचारी एवं करूणता को दिखाया गकनि है। माण् माता-पिता को छोड़कर भाग जाता है। पिता की मृत्यु के बाद घर आता है, लेकिन काम करने के बजाय वृद्ध माँ से लड़ता-झगड़ता है और बूरी आदतों में फँ वृद्ध अपनी व्यथा व्यकत करते हुए कावेरी को कहती है कि ‘‘मेरे खोटे चेल करम, ताले ही फूट गये। कैसे बाप की कैसी नौहाल औलाद जनमी! ऐसी गहरी चोट लगने पर भी अकल आयी नहीं। …क्या करूँ? कैसे मरूँ? यह पापी परान निकाले निकलता भी तो नहीं। इन वर्णनों से संकेत मिलता है कि जोशी जी ने वृद्धबवस्था को अति कष्टकारी अवसथा माना है। इस दयनीय एवं वृद्धवस्था में अपने पुत्रों के पास रहने, पुत्रों का साथ या उससे मिलनेवाली अवहेलना, पुत्र की मृत्यु और असहाय बीमानी से छुटकारा पाने के लिए लालायीत वृद्धजनों का हृदयस्पर्शी चित्रांकन जोशी जी ने अपने कथा-साहित्य में संवेदनशील से किया है।
सहायक ग्रंथ :
1 भोलानाथ तिवारी हिन्दी भाशा की सामाजिक भूमिका द.भा.हि.प्र.सभा,मद्रास -1984
2 हिमांशु जोशी- नवभारत टाइम्स – जून 1977
3 हिमांशु जोशी – सागर तट के शहर
4 हिमांशु जोशी – जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियाँ