May 5, 2023

20. चित्रा मुद्गल के उपन्यास में नारी विमर्श – डॉ. लिट्टी योहन्नान

By Gina Journal

Page No.: 132-140

 चित्रा मुद्गल के उपन्यास में नारी विमर्श – डॉ. लिट्टी योहन्नान

चित्रा मुद्गल का जन्म 10 दिसम्बर, 1944 को सामंती परिवेश के गाँव निहाली खेडा, जिला उन्नाव उत्तर प्रदेश के एक सम्पन्न ठाकूर परिवार में हुआ। चित्राजी पिताजी के साथ अनेक स्थानो पर रहने के कारण जीवन का उनका अनुभव बढ़ता गया और उन्हें देश के अलग हिस्सों के लोगों की जिन्दगी ओर समस्याओं को समझने का अवसर मिला।

चित्रा जी ने अपनी साहित्यक यात्रा का प्रारंभ सन 1964 से किया। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लेखनी चलाई है। साहित्यकार के रूप में चित्रा जी ने उनके कहानियाँ कविताएँ उपन्यास, बाल साहित्य आदि का लेखन किया है।

चित्रा मुद्गल ने पहले कहानियाँ लिखी उसके बाद उन्होंने उपन्यास  लिखना आरँभ किया है। उनके उपन्यास में शिक्षित तथा अनपढ नारी, घरेलू कामकाजी नारी, विज्ञापन जगत की नारी और उनकी समस्याओं को लेकर लिखा गया है। उनके अब तक पाँच उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। एक डाक जमीन अपनी, माधवी कन्नगी, अवाँ, गिलिगडु, दि क्रूसेड। आठ भाषाओं में अनुदित उनके उपन्यास ‘आवाँ’ को देश के छह प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। ‘आवाँ’ पर 2003 में व्यास सम्मान मिला था।

हिन्दी उपन्यास के इतिहास पर नयी विहंगम दृष्टि डाली जाए तो पिछले पाँच दशक के उपन्यासों में नारी की स्थिति में यथेष्ट परिवर्तन एवं उतार चढाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। विश्व भर की आवादी में आधी से अधिक स्त्री है पर सबसे अधिक उपेक्षित है। हिन्दी साहित्य में अपने नारी मुक्ति आंदोलन एक संगठित रूप में सत्तर के बाद ही रूप लेता है। स्त्री विमर्श का अर्थ पुरुषों का विरोध नहीं अपितु उसकी मांग है कि स्त्री पुरुष संबंधों में एक दूसरे के प्रति सम्मान और आत्मीयता का भाव आवश्यक है।

आठवे दशक के अन्त में स्त्री-विमर्श ने अपनी गति पकड ली और नौंवे दशक का यह प्रमुख विषय बन गया। नारी विमर्श, शब्द विवेचन, विचार, समीक्षा, परीक्षण, ज्ञान और कोश गत अर्थ में चरम बिन्दु को परिभाषित करता  है। इस दृष्टि से गहरे अर्थ वाला यह शब्द नारी मुक्ति या नारी स्वतन्त्रता के

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साथ नारी की अस्मिता, चेतना, स्वाभिमान आदि तत्वों को अपने भीतर समेटे हुये है।

    नारी का अपने जीवन जीने का ढंग व अपने शरीर पर स्वयं को कर्ता बनाने के प्रयास या अत्म निर्णय की क्षमता हासिल करना नारी विमर्श के अन्तर्गत आता है।

    समकालीन कथा साहित्य में नारी जीवन के संघर्ष, रोमांस, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में बदलाव आदि को लेकर कई रचनाएँ लिखी गयी है। वैसे भी स्वातंत्र्योत्तर भारत में विगत पचास – साठ वर्षो से सामाजिक, आर्थिक, राजनौतिक जीवन में अभूतपूर्व बदलाव परिलक्षित होते है।

    हिंदी साहित्य में पिछले कुछ वर्षों में महिला कहानिकारों का एक सशक्त प्रवाह प्रवाहित हुआ है। कथा लेखन में महिला रचनाकारों ने अपनी पहचान बनायी हैं। उन्होंने नारी के दुख दर्द की भावनाओं को व्यक्त किया है। नारी समस्याओं को लेकर विद्रोह किया है। बीसवी सदी में नारी विमर्श और दलित विमर्श पर जोरदार चर्चा हो रही है। नारी तथा दलित के छुए अनुछुए, खुले अनखुले प्रसंगों पर साहित्यकार अपनी लेखनी चला रहा है। चित्राजी के अनुसार  स्त्री विमर्श को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। आज “स्त्री विमर्श और दलित विमर्श योनि विमर्श मात्र रह गए है”1

    आज नारी को यह देखना है कि वह परिवर्तन में पश्चिमीकरण का अंधानूकरण न करे। भारतीय नारी अपनी संस्कृति को गरिमा प्रदान कर नारी मुक्ति के लिए संघर्ष करे न कि पश्चिमीकरण का अंधानुकरण करके। चित्रा मुद्गल का मानना है कि – “स्त्री मुक्ति उसके मस्तिक की पहचान से जूडी है। जिस दिन मान लिया जाएगी कि समाज के विकास में स्त्री को मुकम्मल भागीदारी के बिना सर्वांगीण विकास संभव नहीं हैं, उस दिन समझा जाएगा कि स्त्री स्वतंत्र हैं, मुक्त है।”2

    स्त्री मुक्ति की लडाई सिर्फ देह मुक्त करना नहीं तो अपने मस्तिष्क को भी मुक्त कराने को है। स्त्री को अपनी लडाई खुद लडनी है। चित्रा मुद्गलजी ने  कहानी तथा उपन्यास में स्त्री स्वतंत्रता का वास्तविक तथा तर्कशुद रूप में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंद आचरण था। फ्री सेक्स नहीं। समाज में पुरुषों के समकत स्त्रियों को प्राप्त आधिकारों का

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सही उपयोग है। चित्रा मुद्गल ने स्त्री-विमर्श को केवल देह भर ही नहीं माना बल्कि “स्त्री केवल अपनी देह भर नहीं है। उसके पास अपना समूचा व्यक्तित्व है जिसमें उसकी बुद्दि, उसकी संवेदना, उसकी तर्कशक्ति-उसकी निर्णय क्षमता, उसका विवेक उसका मूल्यबोध सब कुछ अपना निजी हो सकता है। बिना किसी दबाव या अदिक्रमण के स्त्री इस सबका विकास करे और स्वयं को एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में गिनवा सके, यही स्त्री विमर्श का अभिष्ट हो सक्ता है।”3 नारी के अस्तित्व की कल्पना अभी भी चिन्ताग्रस्त है। चित्रा मुद्गल ने इन समस्या को अपने उपन्यास साहित्य के माध्यम से चित्रित कर उनके स्वतंत्र अस्तित्व के असार जागृत किए है। लेखिका के कथा साहित्य के केन्द्र में नारी जीवन है और समग्र रूप में उनका साहित्य नारी जीवन की विडम्बनाओं को अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत किया है। “किसी भी उपन्यासकार द्वारा उपन्यास की रचना में प्रवत्त होते समय तीन बात महत्वपूर्ण होती हैं जिनसे प्रेरित होकर वह अपनी कृति का सूजन करता है। पहली बात यह है कि जिस सामाजिक परिवेश में वह रहता है वहाँ की विशेष घटनाओं का उसकी चेतना पर बहुत गहरा प्रभाव पडा हो। दूसरी बात है – रचनाकार संपर्क में आये हुए कुछ विशेष पात्रो से प्रभावित होकर उन्हें अपनी रचना में रुपायित करता है। अतः उपन्यास में जो चरित्र सृष्टि होती है वह रचनाकार के व्याक्तिव एक रुचि के अनुकूल ही हो होती है। तीसरी बात है – कलाकार अपने जीवन में पारिवारिक, राजनीतिक आर्थिक, शैक्षाणिक, साहित्यिक आदि से उत्पन्न समस्याओं से जूझता रहता है। तब उसकी भावनात्मक एव विचारात्मक चेतना के मानस पटल पर अन्नत तंरग उमडने लरती है। उनमें से कुछ निन्दुओं को संघटित कर अपनी रचना में पात्र सृष्टि करता है।”4 चित्राजी के उपन्यास जीवन के सभी क्षेत्रों को स्पर्श उनके गहन चिन्तन का प्रमाण प्रस्तुत करते है।

पारिवारिक सदस्यों द्वारा नारी यौन – शोषणः

    नारी जाति के लिए यौन – शोषण एक अभिशाप है। उस स्थिति में यह अभिशाप और भी अछिक भयावह हो उठता है जब अपने ही परिवारवालों द्वारा यौन – शोषण किया जाता है।

    चित्रा मुद्गल के आवा में भी परिवारजनों के द्वारा लडकियों के यौन – शोषण का प्रभावी चित्रण हुआ है। उपन्यास की नायिका नमिता भी इस यौन –

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शोषण की पीडा से भी मुक्त नही है। जब नमिता दस साल की थी, तब एक बार  माँ ने इन्द्र भैया के उपनयन संस्कार के लिए एक हफते पूर्व ही भेज दिया था। एक दिन बच्ची नमिता जब मौसी के कहने पर नाश्ते का ट्रे लेकर मौसा जी के कमरे में पहुँची तो मौसा उससे इछर – उधर की बातों से फुसलाते हुए उसके साथ अजीब तरीके से पेश आए। “सहसा वही उनकी अप्रत्यशित हरकत से बेचैन हो आई। बाते करते हुए मौसा जी के हाथों ने उसकी चड्डी का नाडा खोल दिया और उसकी पेशाब में ऊँगली डालते हुए…… ”5 ऐसा नहीं कि उसने प्रतिकार नहीं किया पर मौसा की ताकत के सामने वह हार गई और जब उसने मौसा जी की इस हरकत की शिकायत माँ से की तो माँ ने बात भी पूरी नहीं होने दी।

    नमिता की अंतरंग सहेली स्मिता की बहन भी ऐसे ही शोषण का शिकार बनी है। उसका दुर्भाग्य यह है कि स्वयं अपने मटकाकिंग पिता से शोषित है और एक बार नहीं कई बार। स्मिता की यह बात सुनकर नमिता सकते में आ गई थी – “पिता के लिए कोई पुत्री देह हो सकती है”6 यहाँ तक कि पिता से वह गर्भवती भी हो गई। उस गर्भ से उसने छुटकारा तो पाया लेकिन इस हादसे ने उसे मानसिक रोग का शिकार बना दिया।

    वासवानी मैडम के पास काम करने वाली नमिता की सहकर्मी गौतमी भी अपने परिवार जनों द्वारा शोषित है। उसकी माँ अपने व्यभिचारी पति से तलाक लेकर द्वारा विवाह करती है जहां गौतमी को दो सौतले भाई मिलते हैं सौतले बडा भाई विनोद, गौतमी से जबरन शारीरिक संबन्ध बनाता है, जिसके कारण वह गर्भवती हो जाती है और आत्महत्या करने का प्रयास करती है तब उसे मैडस वासवानी बचाती है और अपने पास नौकरी देती हैं।

    इस उपन्यास में नारी की विभिन्न समस्याओं को समाज के समक्ष रखने का प्रयास किया है।

नारी की कोख का शोषण

    भारत में प्राचीन काल से स्त्री को उसकी मातृत्व शक्ति के कारण पूजा जाता है। नारी वादियों के अनुसार स्त्री की यह शक्ति ही उसकी दासता का कारण बनी हुई है। खानदान के लिए वंश चलाने वाला कोई होना चाहिए यह वंश खानदान को एक स्त्री ही दे सकती है। इसलिए पुत्रवती स्त्री का समाज में

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हर काल में सम्मान होता आया है किन्तु स्त्री ने कभी सोचा भी न होगा कि उसकी इस शक्ति का पुरुष समाज शोषण कर सकता है।

    चित्रा मुद्गल के आवाँ उपन्यास में हिन्दी साहित्य में पहली बार धोखे से कोख को खरीदने की प्रवृत्ति का भंडफोड किया गया है। नमिता मैडम वासवानी के यहाँ अभूषणों की माँडलिंग करती है। इसी काम वास्ते हैदराबाद जाती है। वहाँ पवार का पात्र एक दलित श्रमिक और उभरते नेता की भूमिका निभाता है। नमिता को पवार नाम जातिवादी जाल में फँसना उसे मंजूर नहीं होता। दूसरी तरफ संजय कनोई धीरे – धीरे नमिता के निकट आने का प्रयत्न करता है। वह धन संपत्ति से समृद्ध है। वह विवाहित है। लेकिन निःसन्तान है। संजय नमिता के झ्ठे स्नेहपूर्ण और सम्मानपूर्ण व्यवहार से नमिता उसे अपना सब कुछ समझकर अपना सर्वस्व प्रदान करती है। कुछ समय पश्चात् नमिता गर्भवती बनती है।

    दूसरी तरफ संजय उसे बार – बार बच्चा न गिराने के लिए सचेत करता है। नमिता न संजय की पत्नी बन पानी है और न रखैल। हैदराबाद में नमिता को अन्ना साहब की हत्या का समाचार मिलता है तो इस आघात में उसका गर्भपात हो जाता है। नमिता के गर्भपात की खबर सुनकर संजय कनोई प्रेमी का नकाब फाडकर असली रूप में उसके सामने आ जाता है। जानती हो बाप बनने के लिए मैने तुम्हारे ऊपर कितना खर्च किया? ……………………………… ……………..मैं रडियों से बाप नहीं बनना चाहता था, जिनके लिए बच्चा पैदा करना महज सौदा – भर हो …………….. भर ऐशोआराम में रह सकती थी। संजय कनोई की पत्नी निर्मला माँ बनने में असमर्थ है और संजय को अपना पौरूष प्रमाणित करने के लिए बाप बनना है। स्त्री को उसकी सहमति या असहमति से केवल देह समझ, उस भोग और बच्चे पैदा करने की मशीन समझने वालों के मुँह पर करारा तमाचा लेखिका ने इस उपन्यास के माध्यम से दिया है। मृदुला गर्ग के शब्दों में – कोख के लिए ब्याही जाने की नियति तो, हिन्दुस्तानी औरत हमेशा से झेलती आई है, पर कोख को इच्छा से उधार देने (गौतमी के संदर्भ में) था उसके लिए छल द्वारा उपयुक्त होने की अवमानना आज के युग की देन है – गौतमी और नमिता के जरिए, आवां ने बीसवी सदी के उत्तरार्ध के इस सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति दी है।

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स्त्रियों द्वारा अन्याय का विरोध

    भारतीय संस्कृति में स्त्री सदियों से शोषित – दलित रही है। उस पर होने वाले इन अनगिनत अत्याचारों का – चाहे वे परिवारजनों की ओर से किए जा रहे हों या किसी अन्य की ओर से विरोध करने वाली स्त्री को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। निसंदेह खुले रूप में उसकी प्रशंसा की जाती है, पर अंदर ही अंदर उसकी आलोचना ही होती है। चित्रा मुद्गल इसकी अपवाद है, जिन्होंने अपने उपन्यासों में अनेक जगहों पर ऐसी स्त्रियों का चित्रण किया है, जो अन्याय का विरोध करती हैं।

    बहुत सार्वभौमिकता की नीवं परिवार से आरंभ होती है। एक अच्छे परिवार की स्थापना स्त्री के हाथों में है। एक अच्छे परिवार एक अच्छे समाज का एक अच्छे समाज एक अच्छे राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पुराण में स्त्री के महत्व को सूचित करते हुए मनू ने ऐसा कहा है – भत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।

    एक जमीन अपनी की अंकिता संघर्षशील लडकी है। घरवालों के विरोध के बावजूद उसने सुधांशु से विवाह किया है। उसने जब देखा कि सुधांशु को पत्नी के रूप में एक स्त्री की नहीं केवल नौकरानी चाहिए, जो बस उसी के लिए जीती रहे मारपीट सहती रहे और अपने में घुटती रहे, तो वह उसे त्यागकर विज्ञापन एजंसी में नैकरी करने लगती है।

    गिलगडु उपन्यास में बाबु जसवंत सिंह के कानपुरवाले घर में विज्ञापन करने वाली सुनगुनिया अशिक्षित होते हुए भी बडी हिम्मत से काम लेती है और अपने भविष्य की रक्षा करती है। उसके पति के मरने के बाद उसके जेठ ने उसके हिस्से की जायदाद हडपने केलिए उसे जबरदस्ती एक दुहाजु बूढे के गले में बाँधना चाहा, पर तडके टट्टी फिरने के बहाने बच्चो को ले पैदल बस अड्डे निकल दी और बस पकड बाबू जसवंतसिह के घर पहुँची।

कामकाजी स्त्रियों का पारिवारिक संघर्ष

    आवा में ऐसे निम्न – मध्यवर्गीय परिवार का चित्रण हुआ है, जिसमें परिवार के प्रमुख ने बीमारी के कारण बिस्तर पकड लिया है और बाकी सदस्य जीविका चलाने केलिए संघर्ष कर रहे है। नमिता अपने परिवार के लिए कडी मेहनत करती है परन्तु उसके परिवार में एक बात की हमेशा कमी रही है और

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वह है परिवारिक सौहार्द। नमिता की माँ उन स्त्रियों में से एक है, जिसे परिवार की तुलना में अपने मायके से सम्बन्धित कोई वस्तु अपने प्राणों से भी प्रिय लगती है। अपनी बेटी के लिए माँ के ये शब्द बहुत कुछ कह जाते है – कमीनी कुकरी! अर्थी उठी नहीं बाप की और तू हो गई जनरैल! पिछे खडी सुन रही थी तेरी गुर्राहट, कुंती ने भले ही पूछी तो झपट पडी लागा-लिहाज छोड उसे चबाने। नमिता की माँ के संदर्भ में मृदुला गर्ग को टिप्पणी बहुत ही मार्मिक है कि उपन्यास की पहली कडी में भाषा की सहज रवानी कथानक को बढाने में ही नहीं, उसकी कुटिलता और क्षुद्रता का अद्भुत चित्रण मिलता है, नमिता की माँ में। हिन्दी साहित्य में चिरकाल से चले आ रहे माँ के महापात्र का विगठन अविस्मरणीय है। ……………… स्वय वह एक रसीली औरत की तरह हास-परिहास कर सकती है, जिन्दगी को भरपूर जी सकती है, पर बेटी के लिए दरेगा बनी रहती है, सोचा जाए तो जीवन में ऐसी अनेक माँए दिख जाएँगी पर साहित्य में उनका परत-दर-पर उघडता रूप विरल है।

    संक्षेप में कह सकते है। चित्रा मुद्गल ने हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में बीसवी सदी के अंतिम दशक में प्रवेश किया है। उनके उपन्यासों में उन्होंने आज के आदमी और समाज कहलाए जाने वाले उसने विभिन्न वर्ग समूहों को उन्हीं की यथास्थितियों में चित्रित किया है। इनमें महानगर का छदम और ग्राम-विरह का एहसास एक साथ-जीता हुआ नज़र आता है। प्राय यह देखा जाता है वि एक महिला उपन्यासकार की कृति में अधिकतर स्त्री पात्र दबे, कुचले, शोषित रूप में  चित्रित होते हैं और उसके विरोधी प्रवृत्तियों पुरुष पात्र में ठूँस दी जाती है। वास्तव में यह साहित्यकार का एकांगी दृष्टिकोण होता है लेकिन चित्रा जी के उपन्यास किसी एकांगी सोच के परिणाम एवं सृजन नहीं है। चित्रा मुद्गल जी के उपन्यास सच में इक्कीसवीं सदी में स्त्री विमर्श हेतु इसलिए उपयोगी है कि हम सब उसे पढे और चिन्तन करें, कि बदलते समाज में नारी की स्थिति कितनी बदलती है? बदली भी है या केवल चर्चा मात्र चीजे रूप बदल कर रहे गई है? चिन्तन आवश्यक है, क्योंकि समाधान तभी संभव होगा जब सुधीजन उस पर गंभीर विचार करना आरंभ करेंगे। इस प्रकार हम कह सकते है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के लेखिकाओं में चित्रा मुद्गल की रचनायें दिल को छूती हुई प्रकट होती है। चित्राजी की रचनाओं का  कथ्य अक्सर सामाजिक

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जीवन से सम्बन्धित है। उन्होंने उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में नारी के भावों, विचारों एवं उनकी समस्याओं को चित्रित कर हिन्दी जगत को एक नया आयाम देना ही नहीं गंभीरता पूर्वक लेखन किया है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

1   चित्रा मुद्गल, मेरे साक्षाकार (सबसे बडी कसोटी मेरे पाठक है) पृ.113

2   चित्रा मुद्गल मेरे साक्षाकार (सुषमा जुगरान ध्यानी से बाचतीत) पृ.67

3   चित्रा मुद्गल मेरे साक्षाकार (सबसे बडी कसोटी मेरे पाठक है) पृ.113

4   देवेश ठाकर के उपन्यासों में नारी – डाँठ माघवी बागी, पृ.46-47

5   चित्रा मुद्गल – आवाँ, पृ.302

6   वही, पृ.44

7   वही, पृ. 539

8   मृदुला गर्ग – कथादेश, अगस्त, 2000, पृ.62

9   चित्रा मुट्गल, आवां, पृ.302

10  मृदुला गर्ग, कथादेश, आगस्त, 2000, पृ.63

 

डॉ. लिट्टी योहन्नान,

हिन्दी विभाग अध्यक्षा,

असिस्टेंट प्रोफेसर,

मार थोमा कॉलेज तिरुवल्ला,

केरल |