May 5, 2023

17. समकालीन हिन्दी साहित्य और विमर्श – रंजना गुप्ता 

By Gina Journal

Page No.: 118-121

समकालीन हिन्दी साहित्य और विमर्श – रंजना गुप्ता 

उप विषय – नारी विमर्श

नारी विमर्श उस साहित्यिक आन्दोलन को कहा जाता है, जिसमे नारी अस्मिता को केन्द्र में रखकर संगठित रूप से स्त्री साहित्य की रचना की गई। हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श अन्य अस्मिता मूलक विमर्शो के भाँति ही मुख्य विमर्श रहा है। नारी विमर्श भारतीय स्थितियो मे और हिन्दी साहित्य में पहली बार मध्यकाल में मीरा बाई के काव्य और व्यक्तित्व में उभरता दिखाई पड़ता है। मीराबाई पंद्रहवी शताब्दी की एक ऐसी ही विद्रोहणी प्रतिभा थी। जिसने नारी अस्मिता का एक अभूतपूर्व इतिहास रचा था। यह पुर्नजागरण की लहर हमे राजा राम मोहन राय और  विद्यासागर के नारी मुक्ति के प्रयासों में व्यक्त हुयी। स्वतंत्रता के पहले १८५७ में इसका  प्रभाव हमे महारानी लक्ष्मीबाई के विद्रोह में परिलक्षित होता है। नारी स्वाधीनता की यह आकांक्षा २०वी सदी के तीसरे दशक में, महादेवी वर्मा व सुभद्रा कुमारी चौहान के लेखन में नारी वादी स्वर की गूंज होती है। अनुभव और अनुभूति में अंतर होता है। यदि एक लेखक नारी के विषय मे लिखता है तो वह अनुभव से अपने विचारों और भावो को व्यक्त करता है लेकिन यदि एक नारी लिखती है तो वह अनुभूति से लिखती है। ”नारी” पत्रिका जिसकी सम्पादक सुभद्रा कुमारी चौहान थी। “चाँद” पत्रिका जिसमे स्त्री द्वारा सृजित सामग्री को स्थान दिया गया।

फ्रेंचस्का आर्सीनी लिखती है- “चाँद” ने यह काम उन सीमाओं को तोड़ कर  दिखाया कि औरतो को क्या जानना चाहिये तथा औरतो को क्या बोलना चाहिये।

सुभद्राकुमारी चौहान आधुनिक काल मे ऐसी सशक्त महिला साहित्यकार थी।  जिनकी इस कविता को हर बच्चे की जुबान ने याद किया है  “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी” ।

डा. रमासिंह, किरण जैन, कान्ता, अमृता भारती, सुमन राजे, स्नेहमयी चौधरी, सुनीता जैन, मोना गुलाटी, ममता कालिया की साहित्यिक कृतियाँ स्वतंत्रोत्त्तर युग में आती है। नारी ने जिस पीड़ा को भोगा उसे शब्दों में पिरोकर साहित्य को सजाया अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बनाया। नारी चेतना, नारी मे आयी जागरूकता अपनी सदियों से चली आ रही छवि को तोड़ कर अपनी एक अलग पहचान साहित्य में महिला साहित्यकारो ने स्थापित की है।  उनका सशक्त लेखन अनवरत साहित्य को समृद्ध कर रहा है और आगे की समृद्ध करती रहेगी । समकालीन महिला साहित्यकारों ने आज के जीवन की परिवर्तनशीलता, जीवन मूल्यों, समकालीन परिवेश को अपनी साहित्यिक विधाओं में बुना है। सजाकर साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने सदियों से चली आ रही इस मान्यता का खंडन किया कि महिला घर परिवार तक ही सीमित है। कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग, मैत्रिय पुष्पा, सुधा अरोडा आदि की एक लम्बी सूची है।  जिन्होने हिन्दी कथा साहित्य को अपने अनुभव, अपने अभिवयक्ति, के माध्यम से साहित्य को पल्लवित किया है। वे अपनी आवाज को बेधडक वयक्त करती है। मैत्रिप पुष्पा समकालीन महिला लेखन की समर्थ कहानीकार और उपन्यासकार है। उनके कथा साहित्य में बदलते हुए समय के साथ, बदलती हुयी नारी के आख्यान है। नारी, जो घर से निकलकर अपने सपने देखती है, अपनी नियति  बनाने के लिये स्वयम् उपक्रम करती हैं। खुद स्वावलंबी बनने के लिये जद्दोजहद करती है। जिस तरह प्रेमचंद के बारे में कहा जाता था कि वे अपनी रचनाओं में गाँव की स्त्रियों लाये थे, उसी तरह मैत्रिय पुष्पा के बारे में कहा जाता है कि वे अपने लेखन में स्त्रियो का गाँव लेकर आई है। मैत्रिय पुष्पा की कहानी “फैसला” नारी के विद्रोही स्वर से पूर्ण है । अपने मतदान के अधिकार के प्रति जागरुकता तथा उसका प्रयोग से सम्बन्धित है। कृष्णा सोबती की कहानी ” सिक्का बदल गया”। भन्नू भण्डारी आज हमारे बीच नहीं है परन्तु उनका साहित्य आज भी हमारे विचारों को प्रभावित करता है। “हंस” पत्रिका में छपा उनका एक लेख “सीदियो पर बैठी लड़की” दिल को छूता है। “गोपाल को किसने मारा” कितने  ही प्रश्नो को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती है। वे  नारीमन की चितेरी है।

आज का समय चुनौतियो का है। आज के समकालीन परिस्थितियों को लेकर लेखको और लेखिकाओ का चिन्तन नारी विमर्श को जन्म देता है। नारी अपने सामाजिक, मानसिक, आर्थिक एंव व्यवहारिक परिस्थितियों  की सीमाओं से निकल कर नारी ने विमर्श को जन्म दिया  है। हर विमर्श का जन्म होता है जब व्यक्ति अपनी जकड़न, विवशता, रुढिवादिता के विरोध मे आवाज उठाता है, उसे समाप्त कर देना चाहता है। यहीं हुआ नारी  के साथ। उसने इन सामाजिक जकड़न, विवशताओं, रूढिवादिता के विरोध में आवाज उठाई। ईश्वर ने समाजिक व्यवस्था के लिये स्त्री  पुरुष को जन्म दिया, फिर स्त्री पुरुष मे भेद क्यों? एक नारी की यह मानसिक, शारिरिक व सामाजिक प्रक्रिया थी जो साहित्य मे व्यक्त हुयी ।

मन्नू जी के विषय मे हम कह सकते है कि वे नारी जीवन के तनाव, घुटन तथा नारी पुरुष के बदलते रिश्तो, उनकी बदलती सोच तथा पारिवारिक संर्घषो को यथार्थ के धरातल पर जाकर व्यक्त करती है।

हमारे देश में वैदिक काल से यह परम्परा चली आ रही थी कि “यत्र नार्यस्तु पूजयन्तेरमन्ते तत्र देवता” वैदिक काल में नारी  की सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक स्थित काफी हद तक ठीक थी । परन्तु मुगलों के आक्रमण, उनके शासन काल में पर्दा प्रथा,अंग्रेजों के शासन काल मे उत्पन्न अनेक सामाजिक, राजनैतिक और भी परिवर्तनों का प्रभाव, नारी की  स्थित पर पड़ा।  फिर भी उस समय की महिला क्रान्तिकारियों के योगदान को हम नही नकार सकते। आजादी के बाद समय बदला,  साथ साथ बहुत कुछ बदला शायद जितना  बदलना चाहिये था उतना नहीं हुआ। नारी की  स्थित में बदलाव आया। आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी नारी की अपनी अस्तित्व के प्रति संघर्ष जारी है। यह २१ वीं सदी का भारत है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में नारी की खोई अस्मिता को सम्मान मिले, नारी विमर्श जन्म लेता है । उसे अंग्रेजी में फैमिनिजम भी कहते हैं। फेमिनिनय शब्द: सबसे पहले १८८० के दशक में फ्रांस में आया। इसका तात्पर्य था नारी का अधिकार। बाद मे इसका तात्पर्य यह हुआ कि नारी से सम्बन्धित विषयों के बारे मे कहना फैमिनिजम  है। नारी के अधिकार, समाज मे उसकी स्थित, नारी के ऊपर हो रहे शोषण के विरुद्ध अवाज उठाना आदि नारी वाद के प्रमुख विषय है।  यह २१ वीं सदी का भारत है आज के समकालीन समय में नारी ने खुलकर अपनी शोषण के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया है। आज के समकालीन साहित्य में नारीवादी लेखक लेखिकाओं ने नारी से सम्बन्धित अनेक मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाई है। कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य के द्वारा हो रहे नारीवाद से बदलाव हो रहे है, बदलाव की गति धीमी हो सकती है परन्तु गतिमान होना आवश्यक है। सूरज के किरणों को भी घने अन्धकार के बाद ही आकाश को अपनी लालिया से आलोकित करने का, संसार में उजाला  फैलाने का अवसर मिलता है। किसी भी इमारत कीआधार शिला गहरे नीव खोदकर ही रखी जाती है। हमारे प्राचीन काल से नारी के शोषण के विरूद्ध आवाज उठाई गयी। उसे समय समय पर किसी न किसी ने जारी रखा । वह लेखनी द्वारा हो या किसी अन्य गति विधियों द्वारा हो। उसी का परिणाम है  कि हम आज इस स्थिति मे है। बेहतर ही होगा, बदतर नहीं होगा, क्योंकि जब हम नारी शिक्षित होगे तभी अपने अधिकारी के प्रति भी जागरूक होगें। यद्यपि रचनाओं के माध्यम से विमर्श चलता ही रहता है।

सन्दर्भ

  1. पुस्तक आलोचना का स्त्री पक्ष, सुजाता
  2. हंस पत्रिका
  3. वन माली पत्रिका

 

शोधार्थी- रंजना गुप्ता

जैन विश्वविद्यालय,

हिन्दी विभाग, बेगलूरू