May 5, 2023

15. समकालीन साहित्य में किन्नर विमर्श – क्षत्रिय दीपिका जितेन्द्र

By Gina Journal

Page No.: 105-112

समकालीन साहित्य में किन्नर विमर्श – क्षत्रिय दीपिका जितेन्द्र

                      हिन्दी कथा साहित्य में निचले पायदान पर उपस्थित उपेक्षित वर्गों को केन्द्र में रखकर चिंतन किया जा रहा है जिसमें नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किसान विमर्श, किन्नर विमर्श आदि प्रमुख है।यह विमर्श उपेक्षित वर्गों को अपने प्रति होनेवाले अत्याचारों एवं अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए थे किन्तु इनमें अधिकतर वर्गों को न्यूनाधिक रूप से समाज की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी थी।संवैधानिक दृष्टिकोण से भी इन्हें अधिकार प्राप्त हो चुके थे।यह विमर्श केवल इनमें जागरूकता लाने के लिए थे।

                      इन सब में केवल एक वर्ग ही ऐसा है जो आज तक अपनी अस्मितागत पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है और यह वर्ग है-‘किन्नर’।जी हाँ ‘किन्नर’ जिन्हें साधारण जन ‘छक्का’ या ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित करता है।‘हिजड़े’ शब्द को गाली के तौर पर प्रयुक्त करके संपूर्ण किन्नर समुदाय को अपमानित करता है।यह मात्र एक ऐसा समुदाय था जिसे न तो परिवार ने स्वीकार किया और न ही समाज ने।कानूनी तौर पर भी उन तमाम सुविधाओं से वंचित थे जिन पर इनका हक था।इनकी दयनीय स्थिति को देखकर हिन्दी साहित्य में चिंतन किया जाने लगा और यह चिंतन ही किन्नर विमर्श के रूप में आंदोलन बनकर उभरा।

                     साहित्यकारों ने इनकी समस्याओं को अपनी कृतियों के माध्यम से उजागर करने का सफल प्रयास किया है।हिन्दी साहित्य में किन्नर समुदाय पर केन्द्रित कई उपन्यासों की रचना की जा चुकी है और यह क्रम आज भी निरंतर जारी है।इन उपन्यासों में यमदीप, तीसरी ताली, गुलाममंडी, पोस्ट बॉक्स नं.203 नाला सोपारा, किन्नर कथा, मैं पायल, मेरे हिस्से की धूप, अस्तित्व की तलाश में सिमरन, श्रापित किन्नर आदि है।इन उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासकारों ने किन्नर समुदाय के जीवन की त्रासदी व संघर्ष को संवेदनात्मक स्तर पर बड़ी प्रमुखता के साथ उठाया है।

                      15 अप्रैल 2014 के दिन न्यायमूर्ति के.एस.राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए.के सीकरी ने इन्हें तृतीय लिंग के रूप में अपनी स्वीकृति देते हुए एक ऐतिहासिक कदम उठाया।हिजड़ों के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द ‘किन्नर’ को लेकर भी काफी विवाद हुआ।कुछ विद्वानों ने इसका विरोध किया।उनके मतानुसार ‘किन्नर’ शब्द से तात्पर्यकिन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नोर प्रदेश के पहाड़ी लोग जिनकी भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की है।किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है जिसके प्रधान केन्द्र हिमवत और हेमकूट थे।पुराणों और महाभारत की कथाओं एवं आख्यानों में तो उनकी चर्चाएं प्राप्त होती ही हैं, कादम्बरी जैसे कुछ साहित्य के ग्रंथों में भी उनके स्वरूप निवास क्षेत्र और क्रियाकलापों के बारे में वर्णन मिलते है।

                      हिन्दी साहित्य में किन्नर केन्द्रित कृतियों का विश्लेषण करने के उपरांत उनके जीवन की कुछ प्रमुख समस्याएँ स्पष्ट होती है।इन समस्याओं में सामाजिक एवं पारिवारिक अस्वीकृति, शिक्षा, रोजगार, निवास, वेश्यावृत्ति, यौन शोषण की समस्या आदि मुख्य है।यह समाज सदैव से ही पितृसत्तात्मक रहा है।समाज में नर और नारी को तो स्थान प्राप्त हुआ किन्तु किन्नरों को समाज का हिस्सा न मानकर उन्हें दरकिनार किया गया।जिस प्रकार शरीर के किसी अंग के खराब हो जाने पर उसे अलग कर दिया जाता है ठीक उसी प्रकार परिवार और समाज से इन्हें भी बहिष्कृत कर दिया जाता है।लैंगिक अक्षमता के कारण यह समुदाय उपहास का पात्र बन कर रह जाता है।परिवार, शिक्षा, रोजगार, निवास आदि सुविधाओं के अभाव में ये नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाते है।

                      एक संतान चाहे कैसी भी हो वह अपने माता-पिता के लिए सदैव ही प्रिय होती है।जब माता-पिता अपने शारीरिक विकलांग शिशु को स्वीकार कर लेते है तो फिर लैंगिक दृष्टिकोण से विकलांग अपनी किन्नर संतान का बहिष्कार क्यों करते है?समाज में अपनी झूठी शान और मर्यादा के लिए इनका त्याग कर दिया जाता है।जब जन्म देने वाले माता-पिता ही इनके साथ ऐसा व्यवहार करेंगे तो इस समाज से कैसी अपेक्षा रखी जा सकती है?इसी सामाजिक भय के कारण पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा के पात्र हरिंद्र शाह और बंदना अपने मझले पुत्र विनोद को किन्नरों को सौंपने के लिए विवश हो जाते है।मानव जीवन का सबसे खूबसूरत दौर बाल्यावस्था का होता है किन्तु किन्नरों को बालपन में ही अपने परिवार से अलग होना पड़ता है और अपनों से विलग होना इनके जीवन को दिशाहीन बना देता है।इनका बचपन भीख मांगकर सड़कों पर बीतता है।जवानी लोगों के द्वारा शोषित होकर गुजरती है।वृद्धावस्था में लाचारी मात्र शेष रह जाती है।

                      किसी परिवार में किन्नर संतान के रूप जन्म लेने पर उसे जीनविकृति से नहीं बल्कि उसके पिता के पुरुषत्व और परिवार की मर्यादा से जोड़कर देखा जाता है जिस कारण अधिकतर मामलों में ऐसे बच्चों को पिता की तरफ से बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।महेन्द्र भीष्म के उपन्यास ‘मैं पायल’ की पायल हो या ‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ उपन्यास की सिमरन दोनों को ही पिता की तरफ से अपमानित और प्रताड़ित होना पड़ता है।यह पुरुषप्रधान समाज पुरुषवादी दंभ के कारण अपनी किन्नर संतान को स्वीकार नहीं कर पाता और उसे अपने वंश के लिए कलंक मानता है।‘मैं पायल’ उपन्यास में पायल के पिता पायल के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैये जुगनी।हम क्षत्रिय वंश में कलंक हुई हैं,साली हिजड़ा है…।2

                      जन्म से ही किन्नरों के प्रति पारिवारिक और सामाजिक भेदभाव आरंभ हो जाता है और यह संपूर्ण जीवन जारी रहता है।एक किन्नर का प्रभाव केवल उसके जीवन पर ही नहीं बल्कि उसके परिजनों के जीवन पर भी पड़ता है।किसी भी किन्नर संतान को स्वीकार करने वाले परिवार को सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।नीना शर्मा जी द्वारा रचित उपन्यास ‘मेरे हिस्से की धूप’ में मोनी के कारण उसकी बहन के विवाह में रुकावट आती है, उसकी भाभी काव्या भी उसे स्वीकार नहीं करती और उसके भाई को लेकर अलग हो जाती है।काव्या मोनी को अपमानित करते हुए वह कहती हैये हिजड़ा मेरी ननद है…।छि…।3

                      हमारे समाज ने किन्नरों को मनोरंजन का साधन मात्र समझ लिया है जिनका कार्य किसी मांगलिक प्रसंग में आकर बधाई देना और नेग लेने तक सीमित कर दिया गया है।इन शुभ प्रसंगों पर भी इन्हें हिकारत भरी दृष्टि से ही देखा जाता है।शीघ्र अतिशीघ्र नेग देकर इनसे छुटकारा पाने का प्रयास किया जाता है।यह समाज इनके साये से भी दूर भागता है,इनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करता है।सामाजिक उपहास और पारिवारिक प्रताड़ना के कारण भी किन्नर अपने परिवार और संबंधों को त्यागने के लिए बाध्य हो जाते है।अपनों के द्वारा मिल रही प्रताड़ना से परेशान होकर घर छोड़ने का निर्णय ले लेते है और इसके अतिरिक्त इनके पास अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता।‘मैं पायल’ उपन्यास की पायल अपने पिता के दुर्व्यवहार से तंग आकर घर छोड़कर भाग जाती है।‘मेरे हिस्से की धूप’ उपन्यास में समाज के दोहरे चरित्र को स्पष्ट करते हुए लेखिका लिखती हैइस समाज में कपूत बेटे के लिए परिवार में जगह है नाकारा बेटी के लिए जगह है लेकिन हिजड़े के लिए कोई जगह नहीं है।4

                      मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है।समाज की स्वीकृति के बिना व्यक्ति की पहचान नहीं रह जाती।समाज ने सदैव ही लैंगिक दृष्टि से केवल दो वर्ग को ही अपनी मान्यता प्रदान की है-स्त्री और पुरुष।सामाजिक अस्वीकृति किन्नर समुदाय के जीवन की सबसे बड़ी समस्या है।किन्नर समुदाय की सामाजिक समस्या का वर्णन करते हुए डॉ.मोनिका शर्मा जी अपने उपन्यास ‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ में लिखती हैकिन्नर पैदा तो हो जाता है उसको रखना सबसे बड़ी समस्या है समाज की।इस समस्या को बड़ी बीमारी बनाने वाले कुछ तो रिश्तेदार और कुछ पड़ोसी ही होते है।5

                      किन्नर समुदाय के लोग सिर्फ समाज में नर-नारी के समान अपनी हिस्सेदारी चाहते है।समाज की अस्वीकृति के कारण ही ये अपने अस्तित्व के लिए आज तक संघर्ष कर रहे है।विस्थापन के पश्चात निवास की समस्या उपस्थित होती है।अधिकतर किन्नर अपने समुदाय में शामिल होकर गुरु की शरण में चले जाते है।कभी स्वेछानुसार तो कभी जबरन।मकान के किरायेदार जल्दी इन्हें मकान किराये पर देते नहीं है जिसके कारण इन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर गंदी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

                      किन्नर समुदाय के लोगों को 2014 के पूर्व तक विद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने के लिए स्त्री या पुरुष बनना पड़ता था क्योंकि तृतीय लिंग के लिए कोई कॉलम ही नहीं था।किन्नर बच्चे के माता-पिता सर्वप्रथम तो उन्हें विद्यालय भेजने से कतराते है क्योंकि उनका भेद खुलने पर वे समाज में उपहास के पात्र बन कर रह जाते है साथ ही उन्हें लोगों के अमानवीय व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है।किन्नर बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करना चाहते है किन्तु यह समाज इनके वास्तविक रूप को स्वीकार कर शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति प्रदान नहीं करता।सामाजिक अस्वीकृति के कारण प्रतिभाशाली होने के बावजूद ये अपने सपने पूरे नहीं कर पाते।

                     सामाजिक अस्वीकृति ने न केवल शिक्षा के अधिकार से वंचित किया अपितु रोजगार के मार्ग भी बंद कर दिये।सामाजिक अवहेलना ने इन्हें एक अलग समुदाय से जुड़ने के लिए विवश किया।भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहाँ न तो इन्हें सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी और न ही कानूनी मान्यता ऐसे में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना करना भी कठिन है।शिक्षा से वंचित एवं योग्य कौशल के अभाव के कारण रोजगार प्राप्त करने में इन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।रोजगार के अभाव के कारण इन्हें बधाई मांगने के पेशे को स्वीकार करना पड़ता है।ये लोगों के शुभ प्रसंग के अवसरों पर बधाई मांगने जाते है।कई बार अपनी पहचान गुप्त रखकर रोजगार पा तो लेते है लेकिन सहकर्मियों के द्वारा दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है।किन्नरों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है।आवश्यकता है तो विभिन्न संगठनों द्वारा इनके हित के लिए आगे आने की जिससे ये भी समाज में सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सके।

                      रोजगार के अन्य विकल्प न होने के कारण किन्नर वेश्यावृत्ति से जुड़ने के लिए मजबूर हो जाते है।वेश्यावृत्ति में सक्रिय होने के कारण संक्रामक यौन रोगों के शिकार भी हो जाते है।कई बार एड्स जैसी गंभीर बीमारी के कारण अपनी जान गवा बैठते है।इनकी इस दयनीय स्थिति के पीछे किसी हद तक हम भी जिम्मेदार है।‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नाला सोपारा’ की किन्नर सायरा और ‘मेरे हिस्से की धूप’ उपन्यास की बबली भी वेश्यावृत्ति में लिप्त रहती है।सामाजिक असुरक्षा के कारण इनका यौन शोषण भी सर्वाधिक होता है।कभी अपने पड़ोसी, कभी रिश्तेदार और कभी अपने सहकर्मी द्वारा यौन शोषण के शिकार होते है।अफ़सोस तो इस बात का है कि इनके साथ होते इस अपराध के विरोध में कोई आवाज तक नहीं उठाता।‘मैं पायल’ उपन्यास में पायल के साथ एक सिपाही ही यौन शोषण करने का प्रयास करता है।किन्नरों के साथ होते यौन शोषण का जिक्र ‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ उपन्यास में भी किया गया हैसबसे ज्यादा यौन शोषण हमारा (यानि किन्नरों का ही होता है।6

कैसी-कैसी मानसिकता के लोग हैं, धिक्कार है ऐसे समाज पर,जहाँ पर ऐसे इज्जतदार लोग रहते हैं जो एक हिजड़े को भी हवस मिटाने का साधन मात्र समझते हैं।7

                      किन्नर समुदाय की नेग वसूली की समस्या का भी जिक्र किया गया है।ऐसी कई घटनाएं सुनने और देखने में आती है जहां किन्नर नेग लेते वक्त सामने वाले व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को भी नजरअंदाज कर देते है।स्वेच्छानुसार नेग प्राप्त न होने पर मर्यादा की सीमा लांघ जाते है।प्राचीन मान्यता के कारण लोग इनके श्राप से भी डरते है और विवशतावश उनकी मांग की पूर्ति करते है।कई बार यह समस्या विवाद और लड़ाई-झगड़े का कारण बन जाती है।परिवार वाले या तो इनकी इच्छा की पूर्ति करते है या इनके द्वारा अपमानित होते है।कमाने का अच्छा और सरल माध्यम होने के कारण कई नकली किन्नर पैदा हो गए है।जिसके कारण इनके बीच झगड़े इतने अधिक बढ़ गए है कि बात हत्या तक पहुँच जाती है।अब बात करे कि क्या वास्तविक किन्नर ऐसा करते है?’दरमियाना’ उपन्यास में सुभाष अखिल जी लिखते है-तारा ने बनारसी पत्तों का रस चूस कर एक और थूका और घुटनों पर हाथ रख कर खड़ी हो गयी,अरी  ओ!मेरे खसम की दिल लगी सौत!देती है कि दिखाऊँ जलवा?8

                      किन्तु एक स्थान पर यहीं तारा अशुए की माँ की घर की आर्थिक स्थिति को भांपते हुए बच्चे को अपना आशीर्वाद देकर लौट जाती हैछोटे की बलैयाँ लीं और कहने लगी, सगन तो सगन होता है बहना! फ़िर एक क्या इक्यावन क्या?…जल्दी-से बड़ा आदमी बन जाये मेरा राजा बेटा…पढ़े-लिखे-कमाए, फिर चाँद-सी दुल्हनिया लाये, मेरी बहना के लिए।इसके बाद वह माँ को समझाते हुए कहती है-बस री बहना!अब और मत ना बनइओ, नहीं तो सुतरे पालने मुश्किल हो जाते है।9

                      किन्नरों का आर्थिक शोषण भी किया जाता है।लोग इनसे केवल अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु संबंध रखते है।‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ उपन्यास में किन्नर सिमरन को तब तक घर में रखा जाता है जब तक वह पैसे लाकर देती है जैसे ही उसकी नौकरी छूट जाती है उसे उसके पिता और भाई घर से बाहर निकाल देते है।सिमरन की माँ को जब भी धन की आवश्यकता होती उन्हें की याद आती है।सिमरन कहती हैमाँ का और मेरा सिर्फ पैसे का रिश्ता ही बचा था…जब उसको जरूरत पड़ती तो फोन कर दिया वर्ना कौन सिमरन, कोई नहीं जानता।10

                      वहीं दूसरी तरफ अपने समुदाय द्वारा भी किन्नरों का आर्थिक शोषण किया जाता है।सिमरन अपने गुरुओं के द्वारा आर्थिक शोषण का शिकार होती है।किन्नर समुदाय की इस समस्या को प्रस्तुत करते हुए डॉ.मोनिका शर्मा जी लिखती हैहम किन्नर पाई-पाई को तरसते हैं, आर्थिक रूप से भी शोषण होता है।जब तक पैसे पास होते हैं तब तक हर रिश्ता हमसे जुड़ना चाहता है।जब रुपया खत्म हो जाता है तब तक ज़िंदगी तमाशा बन जाती है कोई भी आकर  हमें गाली गलौच देकर निकल सकता है।11

                      किन्नर समुदाय के बीच परस्पर संघर्ष देखने को मिलता है।किन्नर समुदाय में शामिल होने के बाद किन्नरों को अपने किन्नर गुरु के मुताबिक जीवन का निर्वाह करना होता है।वे अपने गुरु की अनुमति के बिना कोई कार्य नहीं कर सकते।‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ में गुरु चंपा और बेला तथा ‘मैं पायल उपन्यास’ में किन्नर मोना के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष देखा जा सकता है।कई बार असली और नकली किन्नरों के मध्य संघर्ष की स्थिति बन जाती है।ये नकली किन्नर अपने लोभवश किसी किन्नर की हत्या करने से भी पीछे नहीं हटते है।

 

निष्कर्ष:-

किन्नरों को बालपन से ही परिवारिक और सामाजिक बहिष्कार, तिरस्कार यातनाओं को बर्दाश्त करना पड़ता है।दर-ब-दर की ठोकरे खाकर भीख मांगकर जीवन यापन करना पड़ता है।किन्नरों को तृतीय लिंग की श्रेणी में रख देने मात्र से उनके जीवन की समस्याओं अंत नहीं होगा।किन्नरों को समाज में समानता का अधिकार प्राप्त हो जिससे ये अन्य नागरिकों की तरह सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके।आज किन्नरों को अपने अधिकार प्राप्त होने लगे है किन्तु वे अपने संपूर्ण अधिकार से वंचित है।समकालीन साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से किन्नर समुदाय को समाज की मुख्यधारा में लाने का सराहनीय सफल प्रयास कर रहे है।

 

संदर्भ-ग्रंथ

1)किन्नर विकिपीडिया

2)मैं पायल-महेन्द्र भीष्म-पृ.24

3)मेरे हिस्से की धूप-नीना शर्मा हरेश-पृ.91

4)मेरे हिस्से की धूप-नीना शर्मा हरेश-पृ.28-29

5)अस्तित्व की तलाश में सिमरन-डॉ.मोनिका शर्मा-पृ.98

6) अस्तित्व की तलाश में सिमरन-डॉ.मोनिका शर्मा-पृ.22

7)अस्तित्व की तलाश में सिमरन-डॉ.मोनिका शर्मा-पृ.35

8)दरमियाना-सुभाष अखिल-पृ.15

9) दरमियाना-सुभाष अखिल-पृ.18

10) अस्तित्व की तलाश में सिमरन-डॉ.मोनिका शर्मा-पृ.93

11)अस्तित्व की तलाश में सिमरन-डॉ.मोनिका शर्मा-पृ.97

 

नाम-क्षत्रिय दीपिका जितेन्द

(पीएच.डी शोधार्थी)

श्री गोविंद गुरु यूनिवर्सिटी, गोधरा(गुजरात)