May 5, 2023

14. मीरा कांत व विभा रानी के नाटकों में स्त्री यौन शोषण की समस्या – सिमरन कुमारी

By Gina Journal

Page No.: 97-104

मीरा कांत व विभा रानी के नाटकों में स्त्री यौन शोषण की समस्या – सिमरन कुमारी

सारांश

मीरा कांत व विभा रानी 21वीं सदी की प्रमुख  महिला नाटककार हैं। इन्होंने कई विधाओं में साहित्य का सृजन किया हैं। परन्तु नाटककार के रूप में अधिक जानी जाती है। नाटकों में स्त्री के विविध स्वरूपों और पुरुष के कुत्सित मानसिकता को उजागर करने का प्रयास करती है। इनके नाटकों में वर्तमान समाज की समस्या देखने को मिलता है। जिनमें यौन शोषण जैसी प्रमुख समस्या जो विचारणीय है। अधिकतर पुरुषों ने स्त्रियों को हमेशा से अपने उपयोग की वस्तु माना और जब चाहा उनका शोषण किया व उनके अस्तित्व को नकारा। वर्तमान में कुछ पुरुष अपने ही बहु-बेटियों व बहनों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा दे रहें है। स्त्रियाँ सदियों से शोषित हुई और हो रही हैं। इस आलेख में इस यात्रा को समझने और प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है।

बीज शब्द: सदियों, शोषण, वर्तमान, यौन, विचारणीय, कुत्सित, मानसिक

विषय-प्रवेश

      वर्तमान समय अत्यधिक आधुनिकता का दौर होता जा रहा है। इस दौर में कई परिवर्तन हुए हैं और इस परिवर्तन के साथ कई समस्याएँ उभरकर आई है, जैसे- स्त्री समस्या, अल्पसंख्यक समस्या, पर्यावरण समस्या, बेरोजगारी की समस्या और यौन शोषण की समस्या आदि। वर्तमान में यौन शोषण की समस्या बहुत गंभीर समस्या है| यह समस्या कई वर्षों पहले  से चली आ रही लेकिन गहराई से विचार करने की कोशिश नहीं की गई थी| परन्तु यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती गई और लोगों ने विचार करना अनिवार्य समझा और वर्तमान में हमारे समक्ष रचनाओं के माध्यम से यौन शोषण जैसी गंभीर समस्या उभरकर आया| किसी स्त्री को गलत तरीके से देखना, गलत तरीके से छूना, जबरदस्ती किसी को अपनी प्रेमिका या पत्नी बनाना आदि यौन शोषण है| और यह शोषण संस्कारविहीन लोग, शिक्षा की कमी, अकेलेपन की त्रासदी, घर-परिवार से किसी कारणवश बेघर हुए लोग, दिमागी संतुलन सहीं न होना और कई कारण है जिसके चलते कुछ लोग स्त्रियों का यौन शोषण करते है|

       स्त्रियाँ हमेशा से घर-परिवार के साथ स्वयं को सुरक्षित महसूस करती हैं। परन्तु आज वहीं स्त्रियाँ अपने घर-परिवार में सुरक्षित नहीं है, जो उनका रक्षक है वहीं भक्षक बन बैठा हैं। अपने ही घर के सदस्यों से यौन शोषण का शिकार हो रहीं हैं। वर्तमान में स्त्रियाँ कहीं सुरक्षित नहीं हैं। लोग आखिर विश्वास करे तो किस पर जब अपने ही धोखे दे रहें है ऐसे में अन्य पर विश्वास कैसे किया जाएं। स्त्रियों के विश्वास, प्रेम, साहस, आशा व धैर्य को तोड़ा जा रहा हैं।   आधुनिकता के दौर में व्यक्ति इस कदर आगे बढ़ रहा है कि अपने नैतिक और मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को भूलता जा रहा है। मीरा कांत व विभा रानी 21वीं सदी की प्रमुख महिला नाटककार हैं। दोनों नाटककारों ने अपने नाटकों में समकालीन दौर की सच्ची घटना पर आधारित यौन शोषण जैसी समस्याओं को ‘अंत हाज़िर हो’ (मीरां कांत) व ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ (विभा रानी) नाटकों के माध्यम से पुरुषों के कुत्सित सोच व यौन शोषण जैसी गंभीर समस्या को प्रकाश में लाया गया है। इन दोनों नाटकों में यह चित्रित किया गया है कि किस प्रकार पिता और भाई द्वारा सगी बेटी और बहन शारीरिक व मानसिक रूप से यौन शोषण का शिकार हो रही है। समकालीन समय में कुछ स्त्रियाँ अपने ही परिवार वालों से असुरक्षित महसूस करती हैं। जिस कारण घर छोड़ने और आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती हैं।

       ‘अंत हाजिर हो’ नाटक में स्त्री समस्या को दिखाया गया है। स्त्रियों को जन्म से ही कई बंधनों, नियमों, रीति-रिवाजों से बाँध दिया जाता है, जिसे आगे चलकर अपने लिए वह आवाज नहीं उठा पाती और पुरुषों का शिकार किसी-न-किसी रूप में होती है। वर्तमान में घर-परिवार के सदस्यों से शोषित हो रही है। अपने ही भाई व पिता जो घर का मुखिया या रक्षक होता हैं, आज वही अपने ही बहन-बेटियों का यौन शोषण कर रहा हैं। इस नाटक में शिल्पा की बड़ी बहन अनु व छोटी बहन तनु अपने ही पिता से यौन शोषण का शिकार होती हैं। शिल्पा की माँ को लकवा मार देने से पूरा घर बिखर जाता है। पिता नशे के आदी हो जाते और अपनी बेटियों के प्रति गलत नजर रखते है। एक बार छोटी बेटी तनु को रेजर की जरूरत होती है जिसे रात को पापा के कमरे से ले लेती है और उसे रखना भूल जाती है। पिता रेजर ढूंढते हुए छोटी के कमरे तक पहुँच जाते हैं और वही रेजर छोटी के कमरे से लेते हैं। उसी समय छोटी बाथरूम से निकलती और पिता को अचानक देख बहुत असहज व निर्वस्त्र स्वयं को महसूस करती है, क्योंकि पिता बुरी नजर से देखते है। इस तरह पिता का देखना उसे बहुत आश्चर्य लगा और कहती है- स्लीबलेश ब्लाउज से बाहर निकली मेरी बाहों को उन्होंने देखा। अच्छी तरह। फिर मुस्कुराये। रेजर दिखाकर बोले, “ ये तुम लाई थीं?’’ फिर मेरे पास से होकर जाते हुए उसी रेजर को उन्होंने हल्के-से मेरी बाहँ पर मारा। और मुस्कुराते हुए निकल गये…। ढेर सारी छिपकलियाँ बाँहों से होती हुई मेरे पुरे शरीर पर रेंगने लगी थी। उस मुस्कान से जैसे मेरी देहही उघड़ गई थी ऐसा लगा कपड़े बदलते हुए कमरे का दरवाजा बंद करना भूल गई हूँ। मैं निर्वस्त्र हूँ और दरवाजे पर पापा खड़े हैं। वैसे ही मुस्कुराते हुए।”[i] इस तरह पिता का देखना समाज के लिए गंभीर समस्या है और अपने आप में यह एक यौन शोषण है। पिता की हरकत से बेटी की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता है। बेटी अपने ही घर के चार दीवारी में स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं करती। मानसिक रूप से परेशान रहती है, जिस कारण वह दसवीं की कक्षा में दो बार फेल हो जाती है। अपने मन की पीड़ा को किसी से कह नहीं पाती| एक डायरी में अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करती है| वह डायरी अनु दीदी को मिलती है, जिसमें छोटी व दीदी के साथ हुए शोषण के बारे पता चलता है। तभी वह निर्णय लेती है कि ऐसी समस्याओं को समाज के समक्ष पेश करना जरुरी हैं ताकि इस समस्या को सुधारा जा सकें। शिल्पा इस समस्या को अपने दोस्तों से किसी अन्य की समस्या बताते हुए एक नाटक करने को कहती है। समाज का हर व्यक्ति इस तरह की समस्या को जान पाएं। पिता कई बार बड़ी बेटी के साथ शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करते है। एक दिन छोटी ने स्वयं अपनी आँखों से देखा और समझ नहीं पाई ये क्या था, तभी बड़ी दीदी उसे कहती-‘‘चुपचुप… देख मैं तो ठीक हूँ। पापा..पापा तो बस…मुझे खाँसी आ रही थी ना…ज़ोर से…बहुत ज़ोर से…तो बस पापा मुझे विक्स लगा रहे थे रो मत….चुप…भूल जा इस बात को… तूने कुछ नहीं देखा…किसी से कुछ नहीं कहना…ठीक है? किसी से भी नहीं…कुछ नहीं…बिल्कुल नहीं….नहीं तो…नहीं तो भैस की तरह तेरे सर पर सींग निकल आएँगे…सींग…दो-दो सींग…’’[ii] हम स्त्रियों को समाज कई नियमों से बाँध रखा है|  जिस कारण अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाते। पुरुष कितना भी  गलती करे उसके पश्चात् भी वह सहीं माना जाता है। बेटियों को कहीं-न-कहीं डर होता इस कारण वह अपने ऊपर हुए शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाती। हम स्त्रियों को एकजुट होकर ऐसी समस्या पर आवाज उठानी होगी। तभी लोग स्त्रियों की अहमियत, उनका सम्मान करेंगें।

       परिवार में पिता की सबसे बड़ी भूमिका होती है। नाटक में शिल्पा के पिता नशे के इतने आदी हो जाते है कि उन्हें बेटियों की कोई चिंता नहीं होती उनके भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते। अपनी बेटियों के प्रति गलत निगाह रखते हैं। पिता अपने रिश्तों के सारे मायने भूल जाते और कहते है- ‘‘साली क्या जिन्दगी है हमारी भी यार बीज बोओ। उसे सींचते रहों सालों…पालो पोसो…जब लहलहाने लगे तो किसी और की नजर कर दो। साला…पालें हम फल खायें और !’’[iii] एक पिता अपनी ही बेटियों के बारे में ऐसा अपशब्द कैसे कह सकता। वह पिता कहलाने लायक नहीं है। वह अपने ही लगाए फल को अपने लिए उपयोग की वस्तु बनाना चाहता है। ऐसे पुरुषों के खिलाफ हमें आवाज उठाने की जरूरत हैं कि कोई पुरुष ऐसा करने के बारे में सोचे तो भी उसके रूह काँप जाएँ। स्त्री की यह समस्या कोई आम समस्या नहीं है बल्कि बहुत गहरी समस्या है। जिस पर विचार-विमर्श करना अनिवार्य पक्ष है।

       ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ नाटक मिथिला की एक सत्य लोककथा पर आधारित है। जिसको किसी भी हाल में लोगों के लिए पचा पाना मुश्किल है। एक राजकुमार (समीर) जो अपनी ही सगी बहन की सुंदरता पर आशक्त है। संसार का सबसे पवित्र रिश्ता भाई-बहन का होता है। समकालीन समय में इस रिश्ते को कुछ पुरुष अपवित्र बनाने लगे है। हर दिन सैकड़ों लड़कियाँ घर-परिवार, आस-पड़ोस, सगें संबंधियों से मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित हो रही है। घर का रक्षक ही भक्षक बनकर बहन-बेटियों का यौन शोषण कर रहा है। बेटियाँ तो घर की इज्जत होती है, उन्हें संभाल कर रखा जाता है। बचपन से ही अपनी बहन को भाई अपने सामने बड़ा होता देख उसके प्रति बुरी नजर रखता और अपनी मानसिकता ऐसी बना लेता है कि जब भी शादी करेगा अपनी बहन अंकिता से ही। एक भाई के लिए इस तरह की मानसिकता सही नहीं है। जब भी बहन भाई की कलाई पर राखी बांधती है वह राखी की इज्जत नहीं करता भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को नहीं मानता। बहन से शादी करना चाहता है। बहन भाई की इस व्यवहार से अनजान थी। राजकुमार बहन की सुन्दरता पर इस तरह मोहित था कि एक जगह राजकुमार (समीर) कहता है- “चंपाकली (अंकिता) बड़ी होने लगी और उसके साथ-साथ बढ़ने लगी उसे पाने की मेरी लालसा वह मुझे भैया कहती तो लगता, जैसे मेरे कानों में किसी ने पिघला सीसा डाल दिया हो। लोग-बाग जब उसे बहन कहते तो इच्छा होती कि मैं उन सबका गला पकड़कर दबा दूँ। उसके हाथों से बाँधी गई राखी! लगता, किसी ने तेलिया साँप मेरी कलाई में बाँध दिया हो और भाई दूज में उसके हाथों मेरे माथे पर लगाया तिलक। उफ़! मुझे लगता, कोई मुझे गरम लोहे से दाग रहा हो। मैं राखी तो बँधवा लेता, मगर दूसरे ही पल उसे नोच डालता। तिलक भी लगवा लेता पर तुरंत ही धो-पोंछ डालता।’’[iv] प्रस्तुत नाटक में भाई-बहन के रिश्ते को समीर अपवित्र कर देता है। उसे अपनी बहन मानता ही नहीं बहन की छवि उसके मन में एक पत्नी के रूप में बैठ गई है। ऐसे कुटिल सोच वाले लोगों को समाज से निकाल देना चाहिए। समीर के पिता भी अपने बेटे का साथ देते है। ये दोनों पुरुष बहुत ही बाहियात किस्म के है। जो स्त्रियों का इज्जत करना नहीं जानते पत्नी, बहन और बेटी को अपने लिए एक उपयोग की वस्तु मानते हैं।

       समीर घर का एकलौता और बड़ा बेटा है। बहन से शादी करने के लिए एक षड्यंत्र रचता है। जो इस प्रकार है- बहन मामा के घर गई होती है और भाई एक उसका मन पसंद भटकोएँ (जंगलीफल) को टेबल पर रख कर पिता से कहता है जो भी इस फल को खा लेगा मैं उसी से शादी करूंगा। बहन मामा के घर से लौटती है टेबुल पर मनपसंद भटकोएँ (जंगली फल)   खा लेती और अपने कमरे में चली जाती। भाई के इस षड्यंत्र के बारे में बहन को मालूम नहीं होता। बहन के फल खाने से भाई की उम्मीद और हौसला इस तरह बढ़ जाता है कि अपने ही माता-पिता से कहता है-‘‘लोग क्या कहेंगे? यह तो वचन की बात है। मैंने मुनादी करवाई थी। अब उसके अनुसार जिसने भी भटकोएँ खाए, मेरा विवाह तो उसी से होगा’’।[v] माता-पिता उसे समझाते हैं कि ऐसा करना घोर अन्याय है। पुत्र सोच लो ऐसा अनर्थ मत करो। धरती फट जाएगी, सूरज नीचे आकर सृष्टि में समा जाएगा। सदियों से हमारा नाम लेने में लोग कतराने लगेंगे। बेटा उनकी कोई बात नहीं सुनता| पिता बेटे के जिद्द में इतने अंधे हो गए है कि अपने ही बेटी को बेटे से शादी करने को कहते है। लेकिन माँ हमेशा से पति व बेटे का विरोध कर बेटी का साथ देती। माँ-पिता के बीच बच्चों को लेकर दिन-ब-दिन बहसे, झगड़ें होती है। इस तरह बेटी को भाई के षड्यंत्र के बारे में पता चलता है और वह अपने ही घर में असुरक्षित महसूस करने लगती। माँ अपने बेटे से नाराज होकर कहती है- ‘‘इससे तो अच्छा था कि मैं निपूती ही रह जाती।’’[vi] एक माँ के लिए इस तरह का शब्दों का प्रयोग करना कितना मुश्किलजनक हो सकता है, एक माँ ही समझ सकती है। घर से लेकर देश-दुनिया हर जगह स्त्रियाँ हर दिन शारीरिक व मानसिक रूप प्रताड़ित हो रही हैं। प्रस्तुत नाटक में राजकुमार के पिता अपनी ही पत्नी व बेटी को घर के चार दिवारी में बंदकर के रखते हैं, कि हमारे खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाएं। एक दिन अंकिता की खबर लेने के लिए उसके मित्र सुजीत और इशिता घर आते हैं। तभी भाई कहता है- अंकिता घर में नहीं है उसका इस तरह बोलना दोनों मित्र भाप लेते है कि कुछ तो समस्या है जो हम से छुपाया जा रहा है। कुछ दिन बाद दोनों मित्र किसी तरह अंकिता को चार-दिवारी से निकाल कर इशिता अपने घर ले जाती और सारी व्यथा उसे पूछती। अंकिता बहुत दुःखी होकर अपने दोस्त मित्र से कहती-‘‘I WAS SO SHOCKED. मैं…मैं ये सोच ही नहीं सकती कि  मेरा बाप, मेरा भाई जो मेरा अपना है, वो, मेरे साथ ऐसा कुछ…।’’[vii] मैं अपनों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाई। माँ बेटी के ऊपर हुए अन्याय के लिए आवाज उठाई और पति और बेटे को जेल का रास्ता दिखाया। उन्हें कड़ी-से-कड़ी सजा दिलवाई। और इधर दोस्तों और माँ का साथ मिलने के बाद अंकिता अमन से प्रेम विवाह करती और कुछ साल बाद एक बेटे का भी जन्म होता है। इस तरह अंकिता जिंदगी के कई पड़ावों को पार कर जीवन जीना नहीं छोड़ती बल्कि साहस के साथ एक नयी जिंदगी अमन के साथ शुरू करती है। इस तरह माँ-बेटी मिलकर खुशहाल जीवन जीती हैं। प्रस्तुत नाटक समकालीन समय में स्त्रियों-बच्चियों का घर-परिवार वाले के हाथों यौन शोषण का शिकार हो रही है। रचनाओं के माध्यम से यौन समस्याओं पर आवाज उठाने का प्रयास किया जा रहा है।  ताकि आने वाली पीढ़ी समाज का ऐसा घिनौना चित्र देखने से बचे। इस नाटक की महत्वपूर्ण कथन अंकिता द्वारा –

‘‘कईसे मैं लौटूँ हो भैया, कईसे सहूँ सारी बात

तुम्हीं मोरे स्वामी हो भइया,अम्मा होएँगी सास

बाबा मोरे होएँगे ससुर, डूब, धँस दूँगी परान।’’[viii]

जिस घर में वह सुरक्षित रहती थी वहीं घर उसे असुरक्षित लगने लगा ऐसे घर में कोई कैसे एक बार निकल जाने से लौट सकता है। मेरा भाई मेरा पति और मेरी माँ और पिता मेरे सास-ससुर कैसे हो सकते हैं। ऐसा सोचना भी हमारे लिए पाप है।

      निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत नाटक मुख्य रूप से समाज में हो रहे स्त्री जीवन की समस्याओं को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती हैं, स्त्री जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती है। जो सीधे हमारे मर्म को छूती है। हमें यह सोचने पर विवश कर देती है कि क्या वाकई वर्तमान समय में मानवीय संबंधों का मूल्य नष्ट हो चुका है। इसे नए सिरे से सोचने-विचारने की जरूरत है।

संदर्भ सूची –

  1. [i]मीरा कांत,अंत हाजिर हो,भारतीय ज्ञानपीठ,दिल्ली, 2012 पृ.सं. 57-58

[ii]वही पृ.सं.- 61

[iii]वही पृ.सं. 9 (भूमिका)

  1. [iv]विभा रानी, अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो,किताबघर प्रकाशन,दिल्ली, 2015 पृ.सं. 20

[v]वही पृ.सं.-31

[vi]वही पृ.सं.-35

[vii]वही पृ.सं.-61

[viii]वही पृ.सं. 54

  1. डॉ. संगीता, इक्कसवीं सदी के इक्कीस नाटक: एक दृष्टि, पराग प्रकाशन, कानपुर, सं. 2021
  2. आशा, हिन्दी महिला नाटककार, अदैत प्रकाशन, दिल्ली सं. 2021

सिमरन कुमारी

पी.एच डी हिंदी विभाग राजीव गाँधी विश्वविद्यालय ईटानगर (अरुणाचल प्रदेश)