May 5, 2023

21. समकालीन साहित्य में नारी विमर्श – रेखा गुप्ता

By Gina Journal

Page No.: 141-150

समकालीन साहित्य में नारी विमर्श – रेखा गुप्ता

सारांश –

समाज के दो पहलू स्त्री-पुरूष एक दूसरे के पूरक है। किसी एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। उसके बाद भी पुरूष समाज ने महिला समाज को अपने बराबर के समानता से वंचित रखा। यही पक्षपात दृष्टि ने शिक्षित नारियों को आंदोलन करने को मजबूर किया जो आज ज्वलंत मुद्दा नारी – विमर्श के रूप में दृष्टिगोचर है।

आदिकाल से ही नारियों की दशा दयनीय एवं सोचनीय थी। स्त्रियों की दशा को देखकर विवेकानंद कहते है – स्त्रियों की अवस्था को सुधारे बिना जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है। विवेकानंद जी महिला समाज की वास्तविक दशा से चिंचितदेश एवं समाज के भलाई महिला समाज के तरक्की के बगैर असंभव बताया है।

बीज शब्द-

नारी – विमर्श, आंदोलन, समानता, समस्याएँ, संघर्ष, विश्लेषण, आदि I

प्रस्तावना – 

 सृष्टि की सुंदर रचना में स्त्री का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। भारतीय जन जीवन में या यूं कहें कि  प्राचीन सभ्यताओं में स्त्री रूप में ही ईश्वर की कल्पना की गई। वैदिक अध्ययन से पता चलता है कि  भारतीयों के सभी आदर्श स्त्री रूप में मिलते हैं। विद्या का आदर्श सरस्वती, धन की लक्ष्मी,  शक्ति की दुर्गा,  सौंदर्य की रति, पवित्रता में गंगा तथा जगतजननी के नाम से स्त्री को पुकारा गया  हैI

 स्त्री विमर्श का अर्थ है मान्यताओं, प्रथाओं, संस्कृति, परंपरा एवं समाज के अंतर्गत मानवीय दृष्टि कोण रखते हुये स्त्री की  स्थिति पर विचार, चिंतन व मनन करना हिन्दी  साहित्य में स्त्री – विमर्श की शुरूआत छायावाद काल से माना जाता है। महादेवी वर्मा की कविताओं में वेदना का विभिन्न रूप देखने को मिलता है। उसकी श्रृंखला की कड़िया‘ स्त्री सशक्तिकरण का सुन्दर उदाहरण है। जिसमें नारी-जागरण एवं मुक्ति का सवाल  उठाया गया है। ऐसा साहित्य जिसमें स्त्री जीवन की अनेक समस्याओं का चित्रण हो स्त्री – विमर्श कहलाता है।

जितना पुराना इतिहास स्त्री का रहा है, उतना ही उसकी दासता और शोषण का भी है। स्त्री अपने त्रासद जीवन से मुक्ति के लिए प्रयास करती रही है। सबसे पहले (भारतीय संदर्भ) हम वेदों ‌की बात करें तो स्त्री अपने सशक्त रूप में दिखाई देती है। ऐतिहासिक दृष्टि से वैदिककाल स्त्री  जहां स्त्री पुरुष के समान जीवन व्यतीत करती थी। शिक्षा हो, गृहस्थ जीवन हो, चाहे युद्ध कला या धार्मिक क्षेत्र हो, सभी जगह स्त्री को समान अधिकार प्राप्त थे। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा तथा सती-प्रथा को निषेध माना गया था। पुनर्विवाह प्रचलन में था। स्त्री पहचान का जाग्रत उदाहरण ऋग्वेद के एक सौ छब्बीसवें सूक्त के सातवें मंत्र से स्पष्ट दिखाई देता है। जिसकी दृष्टा ‘रोमेश’ का पति से कहा गया कथन, “हे राजन! जैसे पृथ्वी राज्य धारण एवं रक्षा करनेवाली होती है, वैसे ही मैं प्रशंसित रोमोंवाली हूं। मेरे सभी गुणों को विचारों। मेरे कामों को अपने सामने छोटा न माने।” वह अपनी सृजनता को पहचानती है। उसे अपनी क्षमताओं का ज्ञान है। युद्ध क्षेत्र में विजयी होनेवाली ‘मुदगलपत्नी’ एवं ‘विशपला’ विरांगना रूप में अपनी अस्मिता दर्ज कराती हैं। ‘ममता; ‘अदिति; ‘विश्वारा; ‘आत्रेयी; ‘शाश्वती; ‘अपाला; ‘शिखंडिनी; ‘घोषा; ‘उर्वशी; ‘इंद्राणी इत्यादि की‌ उपस्थिति सूक्त दृष्टा के रूप में दृष्टव्य है। वेदों की बारह-पन्द्रह ऋचाओं की दृष्टा स्त्री रही है। इसे स्त्री लेखन का आरम्भिक प्रयास कहा जा सकता है।

वेदों के उपरांत संभवतः ‘थेरी गाथा’ स्त्री लेखन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। जिसे ‘सुमन राजे’ प्रथम भारतीय नवजागरण की संज्ञा देती हैं। ‘थेरी गाथा’ बौद्ध धर्म के ‘सुत्तपिटक’ के पांचवें निकाय में ‘खुद्दक निकाय’ के अंतर्गत ‘522’ गाथाओं का संकलन है। जिसमें ’73’ थेरीओं (बौद्ध धर्म में दीक्षित ऋषिकाएं) के उद्गार सोलह भागों में विभक्त हैं। ये गाथाएं स्त्री पीड़ा की गहनता से उबरने के लिए ‘निर्वाण’ का मार्ग प्रशस्त करती हैं। “थेर गाथाओं में भिक्षुओं के प्रवज्या ग्रहण करने के कोई विशेष कारण नहीं दिये गये हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बुद्ध वचनों से प्रेरित होकर ही वे इस मार्ग के पथिक बने। परंतु थेरीयों के संबंध में यह सच नहीं है। यहां कारण है और ठोस भौतिक कारण है और शत प्रतिशत स्त्रीत्व से संबंधित है।” जिसमें दरिद्र ब्राह्मण की कन्या ‘मुक्ता’ निर्वाण ग्रहण करने पर, अपनी मुक्ति की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार करती है-

“मैं सुमुक्त हो गयी! अच्छी विमुक्त हो गयी!

तीन टेढ़ी चीजों से मैं भली विमुक्त हो गयी।

ओखली से, मुसल से, और अपने कूबड़े स्वामी से,

मैं अच्छी मुक्त हो गयी।”

इसी तरह थेरी ‘सुमंगल माता’ पुरुषसत्ता से मुक्ति और अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार करती है-

“अहो! मैं मुक्त नारी, मेरी मुक्ति धन्य है।

पहले मैं मुसल लेकर धान टूटा करती थी।

आज उससे मुक्त हुई।

‘आम्रपाली’ (थेरी) की जीवन कहानी स्त्री विमर्श की दृष्टि से अनूठा उदाहरण है। ‘आम्रपाली’ अत्यधिक सुंदर होने के कारण इनका जीवन  सभी के लिए बना दिया गया, जो गणिका का जीवन जीने को मजबूर हुई। इनकी गाथाओं में सौंदर्य का ऐसा वर्णन किया गया है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। भले ही हमारे यहां साहित्य का पूरा एक कालखंड स्त्री सौंदर्य चित्रण तथा नख-शिख से भरा हो। ‘आम्रपाली’ कहती है-

“काले भौंरे के रंग के समान जिनके अग्रभाग घुंघराले हैं,

ऐसे किसी समय मेरे बाल थे।

आज वही जरावस्था में सन की छाल जैसे हो गये हैं।

चित्रकार के हाथ से कुशलता पूर्वक अंकित की हुई जैसी

मेरी दोनों भौंहें थीं।

आज वही जरावस्था में झुर्रियां पड़कर नीचे लटकी हुई हैं”

मीराबाई के संदर्भ में ‘सुमन राजे’ लिखती हैं कि, “मध्ययुगीन साहित्य में मीरा का जीवन और साहित्य नारी-विद्रोह का रचनात्मक आगाज है।” मीराबाई का ‘गीत गोविंद टीका, ‘नरसीजी का मायरा, ‘राग सोरठा, ‘सत्यभामा नु रूसण’ तथा ‘मीरा की गरीबी’ आदि ग्रन्थों का पता चलता है।   कारण, एक तो स्त्री लेखन होना दूसरा, इतिहासकारों का स्त्री उपेक्षित दृष्टिकोण। अंतिम समय में मीराबाई रणछोड़ जी के मंदिर में नृत्य करते हुए विलीन हो गईं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्त्री इसी तरह के धार्मिक दुशाले में बली चढ़ाई जाती रही है। ऐसे समय में स्त्री लेखन को सुरक्षित एवं संरक्षण देने का प्रश्न ही नहीं उठता।

जिस समाज में स्त्री को मौन रहने की शिक्षा दी जाए, वहां स्त्री का अपनी इच्छा से निर्णायक स्वर में अभिव्यक्ति करना ‘अब कोए कछु कहो दिल लागारे, जाकी प्रीत लालन से, कंचन मिला सुहागा रे’ स्वाधीन चेतना का परिचायक है1

आधुनिक युग के प्रारंभकर्ता के रूप में भारतेंदु का नाम अग्रणीय है, तो इनकी प्रेयसी मल्लिका जी को आधुनिककाल के स्त्री लेखन‌ की दृष्टि से अग्रणीय स्वीकार किया जा सकता है। इन्होंने ‘कुमुदिनी’, ‘कुलीनकन्या’ (चंद्रप्रभा/पूर्ण प्रकाश) तथा ‘पारस्य’ तीन उपन्यासों की रचना की। कुमुदिनी के संदर्भ में नीरजा माधव कहती हैं कि, “मल्लिका जी का उपन्यास ‘कुमुदिनी’ बंकिम जी के उपन्यास कृष्णकांत का वसीयतनामा से बहुत प्रभावित है और स्त्री विमर्श की महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।”‘चंद्रप्रभा’ बेमेल विवाह पर आधारित सामाजिक उपन्यास है, जिसे “आधुनिक युग के स्त्री विमर्श का प्रथम पाठ कहा जा सकता है।”

 ‘सीमंतनी उपदेश’ के प्रत्येक पन्ने से हिंदू स्त्री की गुलामी और पीड़ा की चीख सुनाई देती है, जिसका उद्देश्य आज़ादी की दूर-दूर तक गूंजनेवाली पुकार है। ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका के मन में पराधीनता की पीड़ा तथा आज़ादी की चाह कितनी गहरी थी, इस कथन द्वारा देखा जा सकता है कि “अगर इस दुनिया में कुछ खुशी है तो उन्हीं की है जो अपने तई आजादी रखते हैं हिंदुस्तानी औरतों को तो आजादी किसी हाल में नहीं हो सकती। बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार सभी हुकूमत रखते हैं।

महादेवी वर्मा कृत श्रृंखला की कड़ियाँ स्त्री विमर्श की दृष्टि से स्त्री जागरण का घोषणापत्र है। जिसमें स्त्री की पराधीनता की पहचान और उससे मुक्ति की राह की खोज की चिंता व्यक्त की गई है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि “भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण प्रवेश से जाग उठे उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं, उसके अधिकारों के संबंध में यह बात सत्य है कि भिक्षावृत्ति से न मिले और न मिलेगी क्योंकि स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तु से भिन्न है।” स्त्री विमर्श के स्वर इन लेखिकाओं का लेखन हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी गद्यकार एवं कवि रघुवीर सहायजी नारी जीवन की वास्तविक चित्र खिंचा हैंउन्होंने अपने काव्य में स्वतंत्रता के बाद स्त्री जीवन की अनेक समस्याओं को विषय बनाया है। जिस भारत में स्त्री वैदिक काल में ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र रमंते देवता‘‘ कहा जाता था आज वही अनेक शोषण का शिकार हो रही है। वह कहता है –

‘‘नारी बेचारी है

पुरूष की मारी

तन से क्षुदित है

लपक कर झपक कर

अंत में चित्त है।‘‘

 

प्रस्तुत पंक्ति में कविवर सहाय जी नारी को बेचारी कहकर उसकी दयनीय दशा का वर्णन किया है जो अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं पाती। लेकिन वर्तमान में यह स्थिति परिवर्तित नजर आती है। भारत सरकार ने सन् 2001 को महिलाओं के सशक्तिकरण वर्ष के रूप में घोषित किया। अब नारी अपनी हरेक अधिकार को लेकर रहेगी। यही लड़ाई स्त्री – विमर्श या नारी सशक्तिकरण के रूप में परिलक्षित होती है।

 भक्ति काल के निर्गुण संत कवियों ने नारी को मुक्ति मार्ग की बाधा बताया हैI कबीर का अभिमत है कि ”नारी की छाया परत अँधा होत भुजंग।”. अर्थात नारी की छाया पड़ते ही सांप भी अँधा हो जाता है। सुंदरदास के अनुसार,”नारी विष का अंकुर ,विष की बेल है।’ इन सबसे यही विदित होता है कि इन्होंने नारी के केवल कामिनी रूप को ही देखा है; उसके मातृत्व रूप एवं पतिपरायण रूप को नहीं। दूसरी और संत कवियों ने नारी के मातृत्व एवं पतिपरायण रूप को आदर की दृष्टि से देखा है। साथ ही तुलसीदास जैसे कवियों ने नारी को ताड़न का अधिकारी मानते हुए उसे पशुतुल्य स्वीकारा है, शायद ही ऐसा कोई कवि होगा जिसने स्त्रियों के प्रति इतने सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया हो। सूफियों के अनुसार नारी प्रेम एवं उपासना की वस्तु है। उसे योग, त्याग, तपस्या तथा उत्सर्ग द्वारा ही पाया जाता है। उसका प्रेम लौकिक-अलौकिक दोनों ही है। सूरदास जी ने अपने काव्य में विभिन्न रूपों, उनकी मान्यताओं और मूल्यों का सहज एवं यथार्थ चित्रण किया है। सूर ने नारी हृदय का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। सूरसागर के प्रथम खंड में कृष्ण कथा वर्णन के पूर्व कवि नारी को नागिन से अधिक भयंकर मानता है और लिखता है कि ‘नागिन का विष तो तभी व्याप्त होता है, जब वह काट लेती है, पर नारी अपनी दृष्टि विशेष मात्र से मानव मन को चेतनाहीन कर लेती है।
ऐसे समय में जहां नारी को नरक का द्वार, सर्पिणी, अध्यात्म में बाधक, पशुतुल्य जैसे उपमानों से अलंकृत किया जाता था। उस समय कृष्णभक्त मीराबाई का पितृसत्तात्मक समाज के विरुद्ध जाकर अपनी निजता के अनुरूप जीवन यापन करना बहुत आश्चर्य की बात  की थी। मीरा की भावना, नारीत्व की भावना थी, जो पूर्णत्व चाहती थी। ऐसे  काव्य में प्रेम-विरह है, विलास से अर्पित नारी का चित्र रुचिर तो लगता है किन्तु उससे नारी के स्वतंत्र व सक्षम अस्तित्व का बोध कदापि नहीं हो पाता और न उससे उसका समग्र व्यक्तित्व ही उभर पाता है।
भक्ति काल में कवियों की नारी विषयक दृष्टिकोण में उसे नागिन व नरक का द्वार कहा है तो दूसरी और अपनी-अपनी आत्मा को नारी रूप में अंकित किया है। एक और नारी को मुक्ति मार्ग की बाधा मानकर उसकी उपेक्षा की है और साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सामान्य नारी के प्रति इनका दृष्टिकोण उदार नहीं है। संत कवियों की ही भांति ही नीतिकाव्य के कवियों में भी नारी के सम्पर्क को त्याज्य बताया गया है। इन कवियों के लिए नारी पुरुष के समान स्वतंत्र न होकर एक मनोरंजन की सामग्री थी। रीतिकाल के कवियों ने तो नारी को सिर्फ एक प्रेमिका के रूप में ही वर्णित किया है। पत्नीत्व की गरिमा के दर्शन तो कहीं भी नहीं मिलते। इसी कारण रीतिकाल के कवियों की कविताएँ श्रृंगार रस पर ही आधारित थी। सेनापति, बिहारी, मतिराम आदि की दृष्टि तो नारी के नयन और उसके दैहिक सौंदर्य पर ही टिकी रही। इन कवियों की दृष्टि में यशोदा के मातृत्व की गरिमा का कहीं भी स्थान नहीं था। अतःस्पष्ट है कि इन कवियों की दृष्टि हर समय वासना एवं विलास में ही रही। कविगण अपने आश्रयदाताओं की मनस्तुष्टि साधना प्रमुख रूप से करते थे। रीतिकाल में तो नीतिकाव्य में भी नारी को कहीं भी आदर नहीं मिला।

 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री समाज को हमेशा अंधकारमय जीवन जीने को मजबूर किया है। लेकिन आज की नारी चेतनशील है जिसे अच्छे-बुरे का ज्ञान है। इसीलिए अब इस व्यवस्था का बहिष्कार कर स्वच्छंदात्मक जीवन जीने को आतुर दिखाई पड़ती है। नारी अस्तित्व को लेकर अपने-अपने समय पर कई विद्वानों ने चिन्ता व्यक्त किया है। तुलसीदास जी ने ‘‘ढ़ोल गवारशूद्रपशुनारी- सकल ताड़ना के अधिकारी‘‘ कहकर नारी को प्रताड़ना के पात्र समझा है तो मैथलीशरण गुप्त जी ने ‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानीआंचल में है दूध और आंखों में पानी‘‘ कहकर नारी के स्थिति पर चिन्ता व्यक्त किया है। प्रसाद ने ‘‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो‘‘ कहा है तो शेक्सपियर ने ‘‘दुर्बलता तुम्हारा नाम ही नारी है‘‘ आदि कहकर नारी अस्तित्व को संकीर्ण बताया है।

 

अब स्थिति कुछ बदली हुई नजर आती है। क्योंकि छठे शताब्दी के पहले तक सिर्फ पुरूष लेखकों का अधिकार थामहिला लेखन को काऊच लेखक कहकर हंसी उड़ाया जाता था। परन्तु अब स्त्री – विमर्श का डंका इसलिए बज रहा है क्योंकि आठवें दशक तक आते-आते महिला लेखिकाओं की बाढ़ सी आ गयी। उसके बाद भी प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउआर के उक्त कथन महिला समाज में परिलक्षित होती है – ‘‘स्त्री की स्थिति अधीनता की है। स्त्री सदियों से ठगी गई है और यदि उसने कुछ स्वतंत्रता हासिल की है तो बस उतनी ही जितनी पुरूष ने अपनी सुविधा के लिए उसे देनी चाही। यह त्रासदी उस आधे भाग की हैजिसे आधी आबादी कहा जाता है।‘‘

 

नारी मुक्ति से जुड़े अनेक प्रश्नउन प्रश्नों से जुड़ी सामाजिकपारिवारिक एवं आर्थिक बेबसी और उससे उत्पन्न स्त्री की मनः स्थिति का चित्रण अनेक स्तरों पर हुआ है। ‘‘साठ के दशक और उसके संघर्ष का अधिकांश इतिहास जागरूक होती हुई स्त्री का अपना रचा हुआ इतिहास है

 निष्कर्ष: इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के रूप में जो लेखन आज उपस्थित है उसका छुटपुट प्रयास वेदों में भी मिलता है। जो स्त्री की सशक्त स्थिति का परिचायक है। वेद मंत्रों की दृष्टा के रूप में उपस्थित स्त्री इसका साक्षात् प्रमाण है। इसके पश्चात् स्त्री लेखन की दृष्टि से कई लेखिकाओं के नाम तथा उनकी रचनाओं का पता चलता है। थेरियाँ, भक्त कवयित्रियाँ हो या आधुनिककाल की कवयित्रियों का लेखन, सभी ने स्त्री की पराधीनता, उसकी दुर्दशा की ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया है। पचास के दशक से पहले स्त्री लेखन के जो प्रमाण मिलते हैं, यकीनन वह आज के स्त्री विमर्श की आरंभिक कड़ियाँ हैं, इसे निःसंदेह स्वीकार किया जा सकता है। साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि, जिस प्रकार समाज स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर बना है, किसी एक के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार बिना स्त्री लेखन के साहित्य को पूर्ण साहित्य नहीं कहा जा सकता I


संदर्भ
 :

  1. सुमनराजे, ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’, ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण, 2015, पृष्ठ सं० 69 ।
  2. वही, पृष्ठ सं०91 ।
  3. विमल कुमारकीर्ति, ‘थेरीगाथा’, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ सं० 21
  4. नीरजामाधव, ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ (1857-1947), (नान्दी पाठ), सामयिक बुक्स नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ सं० 25 ।
  5. वही, पृष्ठ सं०55 ।
  6. डॉ धर्मवीर, ‘सीमंतनी उपदेश’, शेष प्रकाशन, पृष्ठ सं०75
  7. नीरजामाधव,  ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’, (1857-1947), (नान्दी पाठ), सामयिक बुक्स नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ सं० 79 ।
  8. महादेवीवर्मा, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, लोकभारती प्रकाशन गांधी मार्ग इलाहाबाद, तीसरा प्रकाशन, 2015, पृष्ठ सं० 9 ।
  9. स्त्री मुक्ति का सपना प्रभा खेतान पेज नंबर 103 ।
  10. हंस पत्रिका अर्चना वर्मा रचनात्मक सूत्रों की तलाश में पुनर यात्रा एक कथा मई 2007 पृष्ठ संख्या 81 ।

 

नाम        :      रेखा गुप्ता

कॉलेज    :      राम चमेली चढ़ा विश्वास गर्ल्स कॉलेज ,गाजियाबाद