May 4, 2023

5.अर्चना पैन्यूली की कहानियों में नारी विमर्श-किरण कटोच

By Gina Journal

Page No.: 37-43

अर्चना पैन्यूली  की कहानियों में नारी विमर्श-किरण कटोच

अर्चना पैन्यूली डेनमार्क में स्थित प्रवासी साहित्य की एक सशक्त व यथार्थवादी लेखिका के रूप में उभर कर सामने आर्इ है। इन्होंने डेनमार्क जैसे अपरिचित देश को अपने लेखन के माध्यम से परिचित बनाया है। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से भारत और डेनमार्क के मध्य सेतु का निर्माण किया है। अर्चना पैन्यूली का जन्म     15 मर्इ, सन् 1963 में उत्तरप्रदेश के कानपुर शहर में हुआ। इन्होंने एम.के.पी. पोस्टग्रेजुएट कालेज, देहरादून से बी.एससी, डी.ए.वी. पोस्टग्रेजुएट कालेज, देहरादून से ही एम.एससी. और गढ़वाल विश्वविद्यालय, परिसर टिहरी, के टिहरी गढ़वाल केम्पस से बी.एड. की उपाधि प्राप्त की। सन् 1997 से यह डेनमार्क में निवास कर रही हैं और लगभग 25 वर्षों से लेखन कार्य में संलग्न हैं। इनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें से ‘हार्इवे E47’, ‘कितनी माँएँ हैं मेरी’ और ‘दो अकेले इन्सान’ हैं।

          अर्चना पैन्यूली ने जहाँ एक ओर अपनी कहानियों में मानवीय मुद्दों को उठाती है और संवेदना के साथ उन पर हमारा ध्यान भी आकर्षित करती है। तो वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारतीय व पाश्चात्य परिवेश के विभिन्न वर्गों की महिलाओं के संघर्षों, चुनौतियों, मजबूरियों, उपलब्धियों और मानसिकता का चित्रण किया है। नारी चाहे समाज के किसी भी वर्ग की हो लेकिन उनकी नारीवादी इच्छाएँ, संतुलित जीवन जीने की लालसा लगभग सभी की एक समान ही होती हैं। “विश्व के हर समाज में महिलाओं की स्थिति और अधिकारों की चर्चाएँ अकसर होती हैं और यह एक सामूहिक मुद्दा होने के बावजूद कदाचित दो विपरीत परिवेश की महिलाओं की स्थितियों में जो एक विरोधाभास दर्शित होता है, उससे एक अपवाद भी पैदा करता है। एक तरफ तालिबान कुख्यात शासन में बुर्के में कैद महिलाएँ, दूसरी ओर अमेरिकन व यूरोपीय स्वच्छंद वातावरण में बिकनी व मिनीस्कर्ट पहने अर्धनग्न नारियाँ … और इन सबके बीच परम्पराओं व आधुनिकता की कड़ी में फँसी नाना प्रकार की विसंगतियों से जूझती भारतीय महिलाएँ।”1

          हार्इवे E47 कहानी संग्रह नारी-विमर्श पर आधारित संकलन है। यह कहानियां विविध नारी पात्रों को लेकर बुनी गर्इ हैं। जो एक तरफ समकालीन जीवन के जटिल और क्रूर यथार्थ को चित्रित करती है। तो दूसरी तरफ भारतीय समाज की स्त्री के जीवन के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करती है।

हार्इवे E47 कहानी की शुभ पति द्वारा विश्वासघात का शिकार हो जाती है। कहानी की शुभ के द्वारा लेखिका ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार भोली-भाली भारतीय नारी पति द्वारा छली जाती है। शुभ का पति अच्छे जीवनयापन के लिए विदेश जाता है। विदेश पहुँच कर वह अपने दायित्व और मर्यादा दोनों को भूल कर विदेशी चकाचौंध में खो जाता है। अपनी पत्नी के होते हुए भी विदेशी महिला से साथ अपने सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। शुभ भारत में अपने दो बच्चों के साथ पति के बुलावे की प्रतीक्षा कर रही होती है जो इस बात से बिल्कुल अनजान थी कि जिस पति पर वह इतना विश्वास कर है, वह उसे अपने पास बुलाने की अपेक्षा उससे तलाक चाहता है। “जब वह भारत में बैठी अपने पति के बुलावे का इंतजार कर रही थी तो उसका पति विदेश में एक गौरी औरत के आकर्षण में बंध रहा था।”2 शुभ मात्र 25 वर्ष की आयु में ही तलाकशुदा हो जाती है। इतनी छोटी सी आयु में वह अपनी सारी इच्छाओं का त्याग कर देती है। न तो वह दूसरे साथी की तलाश करती है और न ही वह कभी दोबारा शादी के बारे में सोचती है। वह अपना सारा जीवन बच्चों का    भारण-पोषण करने और उनको अच्छा जीवन देने में गुजार देती है। “मैने दूसरी शादी मयंक व राहुल की वजह से नहीं की। मैंने देखा कि तुम अपने दूसरे परिवार में इस कदर व्यस्त हो कि मयंक व राहुल के लिए तुम्हारे पास बिते भर का भी समय नहीं रहा। ऐना, विलाड व मीला ही तुम्हारी जिंदगी बन गए थे। तुम मयंक व राहुल से ऐसे मिलते थे, जैसे दूर के रिश्तेदार मिला करते हैं। अगर मैं भी तुम्हारी तरह एक दूसरा परिवार बसा लेती – एक नया पति, नए बच्चे … तो मयंक व राहुल पूरी तरह उपेक्षित हो जाते। मैं उनके साथ ऐसा नहीं होने देना चाहती थी।”3

इसी प्रकार की कहानी ‘अनुजा’ में अनुजा भी पति द्वारा छली जाती है। अनुजा मन में बहुत से सपनों को संजो कर देहरादून से डेनमार्क पति के पास प्रस्थान करती है। वह इस बात से बिल्कुल अनजान थी कि विदेश पहुँच कर उसे नये देश के     तौर-तरीकों सीखने के साथ-साथ पति से छल का भी सामना करना पड़ेगा। “एक नर्इ व अच्छी जिंदगी की चाहत में अनुजा देहरादून से डेनमार्क आर्इ थी। मगर उसे परदेश में आकर पता चला कि उसकी जिंदगी कितनी चुनौतियों से भरी है। नर्इ भाषा, नए    तौर-तरीक सीखने के अतिरिक्त उसे पति की बेवफार्इ झेलनी पड़ी। वह डेनिश औरत के आकर्षण व प्रभाव में अब भी बँधा था।”4 इतना ही नहीं उसका पति नरेंद्र मल्होत्रा अवैध कार्यों में लिप्त होता है। वह अवैध तरीके से लोगों को डेनमार्क में व्यवस्थित करता है और बदले में उनसे पैसे ऐंठता है। जब अचानक से उसकी मृत्यु हो जाती है तो मृत्यु के पश्चात् अपने पीछे वह कर्इ पैचीदा मामले छोड़ जाता है। जिसकी भरपार्इ उसकी विधवा अनुजा को करनी पड़ती है।

इसी श्रृंखला की अगली कहानी ‘मुख्यमंत्री की पत्नी’ की कल्पना भी अपने महामान्य पति का विश्वासघात झेलती है। देश की संभ्रांत व राज्य की प्रथम महिलाएं कहलार्इ जाने वाली मुख्यमंत्री की पत्नियों का जीवन समाज को कितना सरल व आकर्षित लगता है। किन्तु उनके उस सरल जीवन के पीछे उनके त्याग और बलिदान की कहानी को कोर्इ नहीं जानता है। हर प्रकार की सुख-सुविधा होने के बावजूद भी वे किस मानसिक यांत्रणा और विवशता से गुजरती हैं, उसका कदाचित् लोगों को भान तक नहीं हो पाता है। ‘मुख्यमंत्री की पत्नी’ कहानी में कल्पना का पति विभिन्न स्त्रियों से अपना सम्बन्ध स्थापित करता है। कल्पना को हर बार पति के एक नये अवैध सम्बन्ध का पता चलता है। वह चाह कर भी पति का साथ नहीं छोड़ पाती। इतना सब होने के बावजूद भी वह पति के पद और प्रतिष्ठता पर आँच तक नहीं आने देती। पति के बीमार होने पर वह उसकी पूरी निष्ठा के साथ उसकी देखभाल करते हुए अपने पत्नी धर्म को निभाती है। इतना सब होने के पश्चात् भी वह पति की अवैध सन्तान को स्वीकार कर अपनी महानता व परोपकरता का परिचय देती है। “एक लंबा उच्छ्वास भरते हुए कल्पना ने कुछ पलों के लिए अपनी आँखें मूँद लीं। मगर मन व्यथित नहीं हुआ, एक सुकून मिला। अब सच्चार्इ उसके सामने थी। उसे फैसला करना था कि वह क्या करे। कुछ सोचते हुए वह अपने पति से बोली, यदि वह आपका बेटा है तो उसे उसका हक दो।”5

इसी प्रकार पूर्वी भारत नागालैंड की पृष्ठभूमि  पर रचित कहानी ‘अगर वह उसे माफ कर दे?’ नारी सशक्तिकरण के दो पहलू उजागर होते हैं। रनिया और रेखा भले ही दो भिन्न परिवेश की महिलाएं हैं, किन्तु दोनों के संघर्ष, त्याग, बलिदान व साहस एक दूसरे से कम नहीं हैं। रेखा अपने संस्कारों और पारंपरिक पुरानी मान्यताओं के लिए एक ऐसी महिला है जो अपने बेवफा पति को क्षमा कर उसकी अवैध संतान को स्वीकार कर उसका पालन-पोषण करती है – “मैं तुम्हारे बच्चे की अच्छी परवरिश करूँगी रानिया।” उसका हाथ दबाते हुए रेखा ने उसे आश्वासन दिया। … रेखा ने अपने कालेज से लंबी छुट्टी तो ली। नर्इ परिस्थितियां जो उत्पन्न हो गर्इ थीं। घर में एक अबोध शिशु आ गया था। उसे बहुत ही व्यवस्थाएं करनी थीं। फिलहाल तो घर में बच्चे से संबंधित तमाम वस्तुएँ बिखर गर्इ हैं – पालना, पराम, बोतलें, टेडीबियर्स … सौम्या छोटे भार्इ की देख-रेख में रेखा का पूरा हाथ बँटा रही है। सहसा वह रेखा से बोली मम्मी आप बहुत हिम्मती व महान् हो। मुझे आपकी तरह बनना है।”6

अर्चना पैन्यूली ने जहाँ भारतीय नारियों के जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों को उजागर कर पाठक वर्ग  को अवगत कराया है। तो उसी प्रकार लेखिका ने ‘लक्ष्मी’ कहानी के माध्यम से बाल-विधवा जीवन की त्रासदी का चित्रण किया है। अल्प आयु में ही विधवा होना किसी अभिशाप से कम नहीं है। समाज की विडम्बना ही विधवा जीवन की विडम्बना बन जाती है। स्त्री के विधवा होने पर किस प्रकार उसे समाज और अपनों द्वारा घृणा मिलती है ,जिसका वर्णन लक्ष्मी के माध्यम से हुआ है – “क्या जल्दी रहनी मुझे उस घर में जाने की? मैं वहाँ सबकी नज़रों में खटकती रहती हूँ। सभी मुझे ऐसे नफरत से देखते हैं, जैसे विधवा होकर मैंने कोर्इ गुनाह कर लिया हो। कोर्इ मुझसे सीधे मुँह बात तक नहीं करता।”7 विधवा लक्ष्मी को जीवन भर न तो सम्मान मिलता और न ही अपनों से किसी भी प्रकार की सहानुभूति मिलती है। बल्कि उसे उसके ही अधिकारों से वंचित रखा जाता है। उसे न तो समाज से स्वीकृति मिलती और न ही परिवार से। लक्ष्मी को ही अपनी सारी इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है – “लक्ष्मी, तुम बीस साल की भी नहीं थी, जब विधवा हो गर्इ। पुनर्विवाह करके तुम नया घर बसाना चाहती थी। मगर सभी लोग तुम्हारे यौवन को यूं ढलते देखते रहे। तुम्हारा दर्द समझने के बजाय तुम्हारा चरित्र जानने की कोशिश करते रहे। तुम्हारे चरित्र पर जब-तब सरेआम फब्तियाँ कसते रहे।”8 विधवा जीवन की  त्रासदी तो सदियों पुरानी है। किन्तु आज के समय में स्त्री जीवन की एक नर्इ त्रासदी उभर कर सामने आर्इ है। वर्तमान समय में स्त्री अपनी शारीरिक संरचना के अस्तित्व की तलाश में है। ‘खुलकर कहूँगी कि मैं गे हूँ’, लेखिका ने बड़ी बेबाकी से स्त्री की लैंगिकता की विभिन्न परिस्थितियों का चित्रण किया है। भारतीय समाज की संकीर्णताओं में समलैंगिकता के लिए चुनौतियां होने के कारण समलैंगिक खुद की ही लैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पाते। ‘खुलकर कहूँगी कि मैं गे हूँ’ कहानी की नायिका सुकन्या को जब 14 वर्ष की आयु में पता चला कि वह समलैंगी है तो वह खुद को स्वीकार नहीं कर पाती। “छिह। सुकन्या, तू लेसबियन है। मैंने खुद को धिक्कारा था, जब मुझे अपनी भावनाओं का पूर्णतया आभास हुआ था।”9 अनेक प्रयत्न करने के बाद जब वह खुद को स्वीकार कर लेती है, तो उसे परिवार और समाज से स्वीकृति नहीं मिलती। भारतीय परिवार और समाज की विडम्बना रही है कि वह अपनी झूठी मान-मर्यादा को बनाये रखने के लिए  अपनी सन्तानों से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें रखते हैं। सुकन्या के माता-पिता भी उसकी लैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पाए। उसकी भावनाओं को समझने की अपेक्षा वह उसकी शादी कर देते हैं। यहीं से उसके जीवन की विकृत परिस्थितियाँ आरम्भ हो जाती हैं। लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि समलैंगिक सुन्दर, स्फूर्तिमान, मित्रवृत, मेहनती व ऊर्जा से भरे इन्सान हैं। उनकी लैंगिकता उन्हें एक सफल जीवन जीने में ज़रा भी बाधा उत्पन्न नहीं करती।

          “हम यौन अल्पसंख्यक हैं

          समर्थन या इनकार हम में मौजूद हैं।

          समलैंगिकों के अस्तित्व को पहचानो …।

          जिएँगे हम हर युग में, हर काल में

          हर परिस्थिति, हर समाज में।”10

‘गाडमदर’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने मुंबर्इ रेडलाइट के कमाठीपुरा नामक स्थान के एक ऐसे क्रूर सच को सामने लाया है। जो मानवता को शर्मसार करता है।  जिसमें वेश्याओं के साथ होने वाले शोषण और यौन उत्पीड़न के जीते-जगते चित्र कहानी में देखने को मिलते हैं – “हमें तो बस पैसे से मतलब है। कर्इ मर्द तो सेक्स करने के इरादे से भी नहीं आते। वे मनोविकृत होते हैं। हमसे कहते हैं कि हम नंगे होकर उन्हें डांस दिखाएँ। कोर्इ मर्द हमें पीटने लगते हैं। जलती सिगरेट हमारे बदन पर दागने लगते हैं।”11 कहानी में जब अंजु नामक वेश्या की मृत्यु हो जाती है तो छप्पन वर्षीय निस्संतान विधवा रेचल फर्नाडिस एक मसीहा बन कर उसकी दोनों बेटियों को कोठे के नारकीय जीवन से बाहर निकालकर एक नया संसार देती है। यह दृश्य मन को सुखद भावों से भर देता है – “मिसेज फर्नाडिस, नीरा और तारा की एक तरह से गॉडमदर बन गर्इ। उनसे बोली, “भगवान द्वारा भेजी मैं तुम्हारी गॉडमदर हूँ। तुम्हारी अपनी माँ नहीं रही। मैं तुम्हारी माँ हूँ। मुझे माँ पुकारो!”12

निष्कर्ष :- अर्चना पैन्यूली ने इन सभी स्त्री पात्रों के माध्यम से स्त्री मन के      भीतर-बाहर के संसार को उद्घाटित किया है। स्वयं लेखिका के शब्दों में – “मैं स्वयं एक नारी हूँ। नारी-मन की ईर्ष्या  व प्रतिद्वंद को कैसे न समझूँ।”13 यह सभी नारी पात्र जीवन में अकेलेपन, अहं, अन्याय, विमुखता, प्रतिरोध, यंत्रणा, वेदना, लाचारी तमाम अंतर्द्वंदों से जूझते रहने के बावजूद भी लक्ष्योन्मुख है। इनकी कहानियों में नारी निरन्तर संघर्ष करती नज़र आती है। जो जीवन में विषम परिस्थिति आने पर हार नहीं मानती बल्कि उस परिस्थिति का डट कर सामना करती है। इन सभी महिला पात्रों में साहस व स्फूर्ति है, जो मनुष्य को जीवन जीने की जिजीविषा के साथ पाठक वर्ग को एक अच्छी व गहरी सीख देती है।

सन्दर्भ

  • अर्चना पैन्यूली, हार्इवे E47, ज्ञान गंगा, दिल्ली, 2018, भूमिका से
  • वही, पृ. 54
  • वही, पृ. 48
  • वही, पृ. 16
  • वही, पृ. 177
  • वही, पृ. 87
  • वही, पृ. 119
  • वही, पृ. 133
  • वही, पृ. 155
  • वही, पृ. 164
  • वही, पृ. 184
  • वही, पृ. 186
  • वही, पृ. 126

किरण कटोच

पीएच.डी. शोधार्थी

हिन्दी विभाग,

कश्मीर विश्वविद्यालय

श्रीनगर – 190006