28. चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ में स्त्री-पात्रों का संघर्ष – नियति अग्रवाल
चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ में स्त्री-पात्रों का संघर्ष – नियति अग्रवाल
सारांश- ‘एक ज़मीन अपनी’ चित्रा मुद्गल का पहला उपन्यास है। विज्ञापनों की दिखावटी और भ्रष्ट दुनिया में अपनी स्वाधीनता और आधुनिकता खोजती मध्यवर्गीय स्त्री के अंतर्विरोधी संघर्षों को लेखिका ने संतुलित और सधेपन से इस उपन्यास में उठाया है। स्त्री चाहे जहाँ भी हो, वह शोषण का शिकार बनती है। कुछ स्त्रियाँ अपनी शक्ति को पहचानकर इनसे बच जाने की कोशिश करती हैं तो कुछ इस शोषण तंत्र को न पहचानकर इनके बाहरी आकर्षण में फँस जाती है। इस उपन्यास की प्रमुख पात्र अंकिता अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता से सर्वत्र व्याप्त नारी शोषण के निर्मम रूपों को पहचान लेती है, लेकिन उसकी मित्र नीता विज्ञापन जगत और जीवन की चकाचौंध में फँसकर अपने को बरबाद करती है। नीता अंकिता से कहती है- यह ग्लैमर की दुनिया है अंकू। यहाँ जीने की, जी पाने की पहली शर्त है- विशिष्ट दिखना, विशिष्ट करना, विशिष्ट होना, विशिष्ट बनना जो वास्तविकता नहीं है। अंकिता अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता से इस क्षेत्र में प्रवेश कर जीत हासिल करने को तैयार होती है और नीता मांसलता, शारीरिक प्रदर्शन के मार्ग को अपनाती है। लेखिका का इस विज्ञापन जगत का गहन परिचय और संबंध इस रचना की सबसे बड़ी खूबी है। इस क्षेत्र में परत दर परत खोलने के साथ स्त्री-स्वतंत्रय की नई व्याख्या दी गई है- यानी स्त्री द्वारा स्त्री की ज़मीन की तलाश है यह उपन्यास। अतः समकालीन हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में यह उपन्यास बहुआयामी जीवन संदर्भों के अन्वेषण का सही दस्तावेज़ बन जाता है।
नारीवाद एक विचारधारा और शैली है। स्त्री भी सोचना समझना जानती है इसलिए मानवाधिकार की विचारधारा और उससे प्रभावित आंदोलन स्त्री-जीवन के लिए परिवर्तनकामी हैं। हमारा समाज इक्कीसवीं सदी में भी पितृसत्तात्मक सिद्धांतों से संचालित है, जो स्त्री को घर की चौखट में कैद न कर पाने की विवशता के बावजूद उसके तन-मन पर पूरा अधिकार रखना चाहता है। जॉन स्टुआर्ट मिल ने ठीक ही कहा था-“ स्त्री की दशा गुलामों से बदतर है क्योंकि गुलाम से तो उसका मालिक सिर्फ शारीरिक गुलामी की अपेक्षा करता है किन्तु स्त्री पुरुष की ऐसी दासी है जिससे वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की गुलामी की अपेक्षा रखता है।”(1) ऐसे में स्त्री-जाति के लिए नैतिकता के प्रतिमान पुरुषों की अपेक्षा दोहरे और कठोर होते हैं। चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ विज्ञापन कंपनी से जुड़कर काम करने वाली दो नारियों की कथा है। बाज़ार की चकाचौंध में स्त्री स्वतन्त्रता का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष प्रतिबिम्बित है। इस ‘कंट्रास्ट’ और ‘द्वंद्व’ में लेखिका की अपनी सोच प्रायः अंकिता के ज़रिये व्यक्त हुई है।
सकारात्मक पक्ष की बात बिगड़े हुए माहौल में लोगों को चुभ सकती है, लेकिन इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि बाज़ार में आने वाले प्रत्येक नए उत्पादनों की सूचना सम्प्रेषण का माध्यम एकमात्र विज्ञापन ही है। सोडा रहित बेबी जॉनसन साबुन की सूचना उपभोक्ताओं को विज्ञापन ही देता है। किन्तु आज अश्लीलता की हदें पार करता विज्ञापन जगत का वर्तमान परिदृश्य प्रतिस्पर्धा की होड़ में अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सामाजिक हितों को दरकिनार कर रहा है। सच कहें तो सबसे बड़ा नुकसान आधी आबादी का किया है और कर रहा है। नीता अंकिता से कहती है- “अपने को कुछ लचीला बनाओ। व्यवस्था का भागी हुए बिना उससे नहीं लड़ा जा सकता। उसमें पहुँचकर उसका हिस्सा बनकर ही उसके तिलिस्म को भेदना होगा। ऐसी लड़ाई के कोई मायने नहीं है। तुम कगार पर खड़ी हुई पानी में उतरने से इसलिए नहीं कतरा रहीं कि पानी से भयाक्रांत हो, तुम मगरमच्छों से आशंकित हो… मगर कूदो पानी में! मगरमच्छों से बच सको तो अपने को बचाते हुए मंझाओ उसे… आखिर मछलियों और पानी के अन्य जीव-जन्तुओं ने उनके साथ रहने का साहस किस तरह जुटाया होगा?”(2) नीता ने स्वयं स्वीकारा था कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए वो किसी भी सीमा तक जा सकती है। स्वतंत्र सोच की नीता को अंकिता जवाब देती है- “तुम जिस लचीलेपन की बात कर रही हो उसमें से समझौते की बू आ रही है। न उसका कोई आदि है, न अंत…मैं इसे बुद्धिमत्ता नहीं समझती कि संघर्ष के नाम पर आप अपने आपको जान-बूझकर मगरमच्छों के हवाले कर दीजिये।”(3) अंकिता की उपलब्धि अंजुरी भर होते हुए भी उसकी अपनी है। वह अपने पावों के नीचे ‘ज़मीन’ महसूस करती है। इसके विपरीत आत्महत्या करने से पूर्व नीता की मानसिकता जानलेवा रिक्तता को महसूसने की है। शिखर से धरातल के मध्य एक फासला होता है। दीर्घ जो अकस्मात ख़त्म होते ही रीढ़ को साबुत नहीं रहने देता। बीच में सीढ़ियाँ नहीं होती ना। नीता के पैरों के नीचे ज़मीन यानि की सीढ़ियाँ नहीं थीं, इसलिए वह आखिरकर टूट जाती है। सफलता के लिए नीता अपने आपको पूरी तरह से स्वतंत्र करती है। सफलता का मन बड़ा नादान होता है। असहिष्णु। “शायद… सफलता का उद्धाम एक अवधि तक जी लेने के बाद उतरती बाढ़ में नग्न सत्य सा, मनुष्य अपनी तलछट की ओर दृष्टि टिका सकता है। तठस्थ हो, अनुभव कर सकता है चेहरे के छद्म। टटोल सकने में समर्थ हो सकता है उन मुखौटों को, जिन्हें वह अपनी पहचान की शोधयात्रा के दौरान असली, के भ्रम में, एक के बाद एक चढ़ाता चलता है।”(4)
देश की आधी आबादी की समता और सम्मान अर्जन का संघर्ष किसी सीमा तक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी निष्प्रभावी सिद्ध हो रहा है, विज्ञापन जगत बड़े कौशल से आधुनिकता बोध की आड़ में आधुनिक जीवन शैली के प्रलोभनों को परोस उसे शॉर्टकट के रास्ते सीखा ‘देह’ की सजा से मुक्ति देने की बजाय उसे पुनः देह की परिभाषा में ही कैद कर रहा है। उपयोग और उपभोग की सोची-समझी राजनीति से बेखबर आधी आबादी, अपने विरुद्ध रची जा रही इस चौंधियाहट-भरी साजिश में फँसती चली जा रही है। वस्तु का विज्ञापन करती हुई स्वयं वस्तु में तब्दील होती।चित्राजी कहती हैं- “स्त्री केवल अपनी देह भर नहीं है। उसके पास अपना समूचा व्यक्तित्व है जिसमें उसकी बुद्धि, उसकी संवेदना, उसकी तर्क शक्ति, उसकी निर्णय क्षमता, उसका विवेक, उसका मूल्यबोध सबकुछ अपना नीजी हो सकता है। बिना किसी अतिक्रमण के स्त्री इन सबका विकास करे और स्वयं को एक स्वतंत्र सत्ता में गिनवा सके, यही स्त्री-विमर्श का अभीष्ट हो सकता है।”(5)
पूंजीवादी मंदी और संक्रमण के दौरान अगर पितृसत्तात्मक संरचनाओं का विश्लेषण किया जाए तो स्त्री-पुरुष के श्रम-विभाजन और नियत कार्य के क्षेत्रों में परिवर्तन का संकेत मिलता है। अंकिता ने नीता से कहा था- तुम वर्जनाहीनता के तर्क से लैस होकर पुरुष की उसी पिपासा को संतुष्ट करने जा रही हो, जो स्त्री को भोग की वस्तु मानकर उसका इस्तेमाल करता आया है और कर रहा है।
“स्त्री-पुरुष का संबंध बड़ा नाज़ुक होता है। पुरुष उसके लचीलेपन को सुविधा बनाकर जिस तरह लाभ उठाना चाहता है- स्त्री के लिए वह उसकी भावना, इच्छा-अनिच्छा, छवि और आत्मसम्मान का प्रश्न है।”(6) पृ.89 एक ज़मीन अपनीनीता उसकी बात का विरोध करती है। यौन-स्वच्छंदता स्त्री को पुरुष की तरह बना देगी। उसे बंधन से मुक्त कर देगी। नीता कहती है- “ दृष्टि परिमार्जित करनी है- यानी सेक्स से पवित्र-अपवित्र होने कि भावना से स्वयं मुक्त होना है। तभी केवल तभी वह समाज में मनुष्य की तरह जीवित रह सकती है- बराबरी पर। आखिर इसी समाज में पुरुष तो वर्जनाहीन जीवन जीकर भी कभी बिसूरता नहीं कि वह नष्ट हो गया। किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहा- समाज में अब उसका कोई स्थान नहीं। स्त्री क्यों नहीं मुक्त होती इन फरेबी मर्यादाओं से? जिस दिन वह कुंठाओं से मुक्त होगी, उसके सारे कष्ट कट जाएंगे। वह नए आत्मविश्वास से परिपूर्ण होगी। निर्भीक विचरण कर सकेगी। यह हौवा जब उसके मन-मस्तिष्क से दूर हो जाएगा, पुरुष के हाथों से वे सारे कार्ड्स निकल जाएंगे, जिनके बूते पर वह स्त्री को घर, खेत, खलिहान, गली, मोहल्ले, स्कूल, दफ्तर अथवा समाज में दबोचने को उद्दत रहता है। जीवन के हर क्षेत्र में उसे दोयम दर्जे की मानसिकता में जिलाया है… बस इतना होने की भयंकर ज़रूरत है, तुम पाओगी, पुरुष अपनी औकात पर पहुँच गया है।”(6) आमतौर पर जब कोई स्त्री आर्थिक सामाजिक शोषण के साथ यौन-शोषण के संदर्भ में देहमुक्ति की बात करती है, तो इसका अर्थ फ्री-सेक्स के समर्थन के रूप में लिया जाता है और उसके विरुद्ध चरित्रहीनता का फतवा जारी कर दिया जाता है। बांग्लादेश की प्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन ने कहा था- “ मेरी देह मेरी अपनी है। मैं चाहे उसे कीचड़ में डुबो दूँ या सिर की शोभा बनाऊँ, इसका फैसला सिर्फ मैं करूंगी। किसी अन्य व्यक्ति को इससे कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए।”(7) देह-मुक्ति आत्मा की मुक्ति से संबन्धित है। आत्मा चूंकि एक भाव-वाचक बोध है और दिखाई भी नहीं देती। इसलिए आत्मा पर पड़ने वाला हर भार देह को उठाना पड़ता है। विश्व भर के सभी धर्मों में और विशेष रूप से भारत में जहाँ पितृसत्तात्मक प्रणाली का स्वरूप आज भी सामाजिक जीवन के प्रचलन में है स्त्री की देह को हमेशा पुरुषों के द्वारा अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास किया गया है। एक स्त्री जब वह बालिका के रूप में किसी परिवार में पैदा होती है, वह पिता के नियंत्रण में रहती है, बड़ी होने पर छोटा या बड़ा भाई उस पर नियंत्रण या निगरानी रखता है, विवाह होने पर पति और विधवा होने पर वह जवान बेटे या भतीजे के द्वारा नियंत्रित की जाती है। आश्चर्य की बात है कि किसी दूसरी स्त्री या लड़की से शारीरिक सम्बन्धों की कामना करने वाले या संबंध बना लेने वाले पुरुष अपनी बेटी, बहन या पत्नी को कभी यह छूट देने को तैयार नहीं होते। ऐसे लोग यह भी भूल जाते हैं कि जिस लड़की या स्त्री से वे अवैध संबंध बनाए हुए हैं , वह भी किसी ना किसी की बेटी, बहन, पत्नी या माँ होती है। आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में नीता ने शुद्ध रूप से नारी-पुरुष सम्बन्धों की गहराई और उदात्ता को जीने की अपनी गलती महसूस की है। नारी-मुक्ति को एक आयातित विचार के रूप में लेने को वह उचित नहीं मानती- “ सोचती हूँ- इस देश की स्त्री को यहीं का खुला हवा-पानी चाहिए… यहाँ की मिट्टी का पौधा यहीं के मौसम के अनुशासन में जी सकता है। बाहरी और उधार लिया हवा-पानी उसे पच नहीं सकता।”(8)
‘एक ज़मीन अपनी’ में नारी-मुक्ति संबंधी तमाम बहस विचारों के स्तर पर न होकर उपन्यास की संवेदना में रच-बसकर या उसका अनिवार्य हिस्सा बन कर आई है। चित्राजी कहती हैं- “ अंकिता चाहे कितनी ही अच्छी कॉपी लिख ले, लेकिन पुरुष की मानसिकता उसे अपने से नीचे ही मानेगी, उसे एक जिस्म के रूप में ही देखेगी और देखना चाहती है। अपने बराबर खड़े मस्तिष्क के रूप में स्त्री की क्षमता का स्वीकार्य अब तक उसके मन में जगह नहीं बना पाया है। पितृसत्ता उसे अपनी प्रतिस्पर्धी के रूप में पाकर स्वयं की महत्ता को डांवाडोल होता हुआ पाती है। इन अड़चनों को बेचारगी से लेने के बदले, निराश होने के बदले, मोर्चे की तरह अपनी चेतना के भीतर खोलना चाहिए, उससे लोहा लेना चाहिए, लड़ना चाहिए। चुनौती जटिल और कठिन तो है ही। जिसके मस्तिष्क को भैंस का दिमाग मानकर बैठा हुआ था पुरुष समाज, बल्कि स्त्री को अनुकूलित ही इसी रूप में किया गया है तो फिर कहती हूँ, खूबसूरत जिस्म के ऊपर एक अदद मस्तिष्क की क्षमता का बोध प्रतिष्ठित करने का धैर्य स्त्री को रखना ही होगा।”(9)
उपन्यास में नीता की भूमिका एक गिरी हुई युवती की है। तिलक की नज़र में ‘ उसकी एक रात की कीमत है ओबेरॉय का डिनर, स्टुडियो 210 की रंगीन शाम, तेजपाल का आखिरी शो, या खंडाला की आउटिंग, मि. गुहा, सक्सेना और न जाने कितनों से सम्बन्धों के प्रवाद ओढ़ती हुई नीता ने ‘मॉडल’ के रूप में अपनी जगह बनाई और सुधीर के रूप में उसे एक पुरुष मिला जिसके प्रति वह सचमुच समर्पित हुई है। लेकिन सुधीर उसे एक वस्तु समझ उसे ओढ़ता-बिछाता रहा। वह अपनी गलती महसूस करती है, लेकिन विवाह की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करती। सुधीर की उपेक्षा से हुआ मोहभंग उसके महत्वकांक्षी मन को गहरे पराजय-बोध से भर देता है और अंततः वह स्वयं को खत्म कर देती है। अपनी वसीयत में अपनी नन्ही बेटी मानसी को अंकिता की ममतामयी गोद में छोड़ने का उसका निर्णय भी असहज नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि वह अंततः अंकिता के विचारों और उसकी जीवन-पद्यति से सहमत हो गई है।
लेखिका ने अंकिता को गढ़ने में बहुत मेहनत की है। अंकिता के चरित्र का सबसे सबल पक्ष यह है कि उसे अपने आत्म-स्वाभिमान को ताक में रखना बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है। नशे में धुत्त सक्सेना के बहकने पर वह उसे चेतावनी दे डालती है- “ दिस शोल्डर बिलोंग्स टू मी… अपना हाथ अपनी जगह पर रखेंगे या मैं उसे जगह बताऊँ।”(10) हालांकि यह बेबाकी उसे अपने ‘कैरियर’ के रास्ते में कई जगह भारी पड़ती है। पर यही आत्मसम्मान उसे ‘माध्यम’ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी की पदवी भी देती है। नीता के आचरण से मर्माहित होती, तिलक को मुहतोड़ जवाब देती, माँ की चिंता करती, शहर के बेमुरव्वत होने से क्षुभ्ध होती, चौथे पेग के लिए हरीन्द्र को टोकती और सुधांशु को ‘औरत बोनसाई का पौधा नहीं है’- का पाठ पढ़ाती अंकिता कहीं भी अस्वाभाविक नहीं लगती।
‘एक ज़मीन अपनी’ उपन्यास में नवऔपनिवेशिक काल के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने के साथ कीचड़ भरे विज्ञापन जगत का पूर्णतः खुलासा हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में नारी जीवन संघर्षपूर्ण नज़र आता है। इन संघर्षों का सामना कर जीवन की पराजय को पार कर अपने को कामयाब सिद्ध करने वाली नायिका पात्र वाकई नारी समूह के लिए गर्व की बात है, साथ ही साथ अनुकरणीय भी। इसलिए नीता अपनी बेटी को अंकिता के हाथों में देकर चली जाती है। अंकिता की शृष्टि भारतीय नारी की परंपरा के लिए ही है। इस संदर्भ में सिमोन द बोउवार का यह वक्तव्य ध्यातव्य है- “ यदि इतिहास में बहुत कम स्त्रियाँ जीनियस हुई हैं तो इसका कारण उनका स्त्री होना नहीं है, बल्कि वह समाज है, जो स्त्री की सारी अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता रहता है। उसको प्रत्येक सुविधा से वंचित रखता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान स्त्री की भी सार्वजनिक हितों के लिए आहुती दे दी जाती है। यदि उन्हें विकास का पूरा अवसर मिले तो ऐसा कोई भी काम नहीं , जो वे न कर सकें। दमनकर्ता हमेशा दमित की जड़ों को काटता रहता है ताकि वह बौना ही रह जाए।”(11)
निस्कर्षतः हम कह सकते हैं कि इस उपन्यास में व्यक्तिपरक हो गए समाज में स्त्री को भोग्या न बन जाने की चेतावनी देती विषयवस्तु उभरकर सामने आई है। लेखिका ने इस उपन्यास में स्त्री-संघर्ष को निस्पेक्षता से उकेरते हुए इस बात का भी पूरा ध्यान रखा है कि वे सवाल भी अछूते न रह जाएँ, जो विज्ञापन जगत की अपेक्षाकृत नई संघर्ष भूमि में, नारी स्वतंत्रय को लेकर उठते हैं, उठ सकते हैं। नीता और अंकिता अपने स्वभाव के अनुरूप वो ज़मीन पाते हैं जो उन्होने खुद रोपी थी।
संदर्भ-ग्रंथ सूची-
- दीक्षित. प्रभा. स्त्री अस्मिता के सवाल. साहित्य निलय. कानपुर. 2011. पृ. 82
- मुद्गल. चित्रा. एक ज़मीन अपनी. सामयिक प्रकाशन. नई दिल्ली. 2016. पृ. 89
- वही, पृ. 89
- वही, पृ. 123
- चित्रा. मुद्गल. मेरे साक्षात्कार. किताबघर प्रकाशन. नई दिल्ली. 2010. पृ. 49
- मुद्गल. चित्रा. एक ज़मीन अपनी. सामयिक प्रकाशन. नई दिल्ली. 2016. पृ. 126
- दीक्षित. प्रभा. स्त्री अस्मिता के सवाल. साहित्य निलय. कानपुर. 2011. पृ. 86
- मुद्गल. चित्रा. एक ज़मीन अपनी. सामयिक प्रकाशन. नई दिल्ली. 2016. पृ. 272
- वही, पृ. 76
- वही, पृ. 40
- दीक्षित. प्रभा. स्त्री अस्मिता के सवाल. साहित्य निलय. कानपुर. 2011. पृ. 117
नियति अग्रवाल
शोधार्थी, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.)