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दलित साहित्यः संवेदना

भारतवर्ष विविधताओं का देश है जहां धर्म, जाति, संस्कृति, शिक्षा, साहित्य व कला के प्रत्येक क्षेत्र में विविधता देखने को मिलती है। इन विविधताओं के बावजूद भी ‘अनेकता में एकता’ , ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ तथा ‘वसुंधैव कुटुंबकम’ का मूल मंत्र लेकर भारतीय संस्कृति सभी भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने का अमूल्य कार्य करते हुए विश्वभर में विश्व गुरु होने का परचम लहरा रही है। इन विविधताओं के अंतर्गत यदि हम हिंदी साहित्य का अवलोकन करें तो हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य में समय-समय पर विभिन्न विचारधाराएं प्रचारित एवं प्रसारित रहीं यथा – राष्ट्रवाद, छायावाद,  प्रयोगवाद, प्रगतिवाद ,मार्क्सवाद, स्त्री विमर्श, नीग्रो विमर्श, आदिवासी विमर्श इत्यादि। इन्हीं वादों- विमर्शो के साथ ही आदिवासी विमर्श का भी अभ्युदय हुआ। दलित साहित्य अर्थात दलित लेखकों द्वारा दलित चेतना से दलितों के विषय में किया गया लेखन। दलित साहित्य का स्वरूप उसके अंतर्गत होने वाले दलित्व में हैं और उसका प्रयोजन स्पष्ट है। उसका लक्ष्य है दलित समाज को गुलामी से अवगत कराना, उसे इस गुलामी के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना और सवर्ण समाज के समक्ष अपनी व्यथा और वेदनाओं का बयान करना।

           दलित साहित्य की चर्चा होते ही सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि किसे दलित साहित्य कहा जाए।जिस साहित्य के अंतर्गत दलित चेतना की अभिव्यक्ति हुई है उसे या फिर दलित रचनाकार द्वारा लिखा गया साहित्य दलित साहित्य कहलाएगा ? इस संदर्भ में दलित लेखकों का कहना है कि जितनी मार्मिक वेदना के साथ एक दलित साहित्यकार अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा को अभिव्यक्त कर सकता है उतनी संवेदना के धरातल पर रहकर गैर दलित लेखक उसके दर्द को बयान नहीं कर सकता। अतः दलित साहित्यकारों का यह मानना है कि दलित लेखक द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आएगा।” दलित शब्द का अर्थ है जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि।”१

       डॉ0 श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं दलित वह है “जिसे भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है”२

इस संदर्भ में कमल भारती का मानना है कि “दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया और जिस पर सछूतो ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है और इसके अंतर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।”३

इस संदर्भ में दलित चिंतक कंवल भारती आगे अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि “दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटी में आता है।”४

दलित साहित्य के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि अपना मत देते हुए कहते हैं कि” दलित साहित्य जन साहित्य हैं यानी मास लिटरेचर,( Mass Literature)सिर्फ इतना ही नहीं, लिटरेचर ऑफ एक्शन(Literature of action)भी है जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामंती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोशजनित संघर्ष है। इसी संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य।”५ यदि हम दलित साहित्य के उद्भव और विकास की जांच करें तो हम पाते हैं कि दलित साहित्य का प्रारंभ सर्वप्रथम मराठी साहित्य से हुआ तत्पश्चात गुजराती, हिंदी, पंजाबी, उड़िया तथा अन्य भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य सर्जन होने लगी। मराठी दलित साहित्य का उद्भव १९६५ में बाबुराव बागुल द्वारा प्रकाशित मासिक- ‘फक्त’ से माना जाता है। जिसमें साहित्य की कविता विधा को सर्वाधिक स्थान दिया गया। बाबुराव बागुल के मतानुसार “दलित साहित्य मानव को देवों धर्म और राष्ट्र से भी अग्रिम स्थान पर विराजित करता है। जाति तथा वर्ग का कड़ा विरोध करता है, मानव मुक्ति को परिष्कृत करता है।जो मानव को प्रतिष्ठित करे वही सच्चा दलित साहित्य।”६ कविता, नाटक, एकांकी, कहानी, उपन्यास तथा आत्मकथा इन सभी विधाओं में मराठी दलित साहित्य देखने को मिलती है। किंतु मराठी दलित साहित्य को आत्मकथा से विशिष्ट पहचान मिली। जिसमें पुरुष साहित्यकारों द्वारा लिखा गया ‘अक्करमाशी’ शरण कुमार लिंबाले, ‘बलुंत’ दया पवार,’आल्या’ लक्ष्मण गायकवाड़, ‘उपरा’ लक्ष्मण माने, ‘तराल अंतराल’ शंकरराव खरात, ‘छोरा कोलहाती का’ किशोर शांताबाई काले,’राम नगरी रामनगर कर जैसी आत्मकथाओं ने साहित्य जगत में खलबली मचा दी और इसका श्रेय डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर की प्रेरणा एवं प्रभाव को जाता है।

              हिंदी दलित साहित्य के अंतर्गत हमें संत कबीर, रैदास और दादू दयाल की बानी भी मिलती है। तथापि दलित का नाम सर्वप्रथम ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित कविता ‘अछूत की शिकायत( हिरा डोम) द्वारा प्रस्तुत हुई है। जिसे दलित कविता का प्रारंभ माना जा सकता है। छायावादी कवि- निराला तथा जनवादी कवि- नागार्जुन ने दलित पीड़ित कुचले हुए को दृष्टि में रखकर कविताओं का सर्जन किया। हिंदी साहित्य की कालांतर में दलित और दलित कवि द्वारा सामाजिक विषमता, जाति में वर्ण व्यवस्था, शोषण, अपमान व अन्याय का सामना करते हुए क्रांति का स्वर व्यक्त किया गया। किंतु सन् १९७५ के बाद हिंदी साहित्य जगत में दलित साहित्य का विस्फोट हुआ। ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?‘ (कमल भारती), बस बहुत हो चुका (ओमप्रकाश वाल्मीकि),’ मु माटी की मुखरता‘ *डॉ0पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी)’ अब मुर्ख नहीं बनेंगे हम( रमणिका गुप्ता),’ यातना की आंखें‘ (दयानंद बटोही),’ सतह से उठते हुए (डॉ0 एन0 सिंह),’सिंधु घाटी बोल उठी(सोहनलाल सुमनाक्षर), ‘क्रौंच हूँ मैं’ (श्योराज सिंह बेचैन),’ व्यवस्था के विषध (डॉ0 कुसुम वियोगी) के अलावा कर्मशील भारतीय मोहनदास नैमिशराय, माता प्रसाद, जयप्रकाश कर्दम आदि दलित काव्य क्षेत्र में अपना अपना योगदान दे रहे हैं।

                गांधीजी के समय में कई कवि ऐसे आएं जिन्होंने दलितों की दीन- दशा पर अपनी सहानुभूति साहित्य के माध्यम से व्यक्त की। यथा कवि इकबाल कहते हैं उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो

 काखे उमरा के रो-दिवार हिला दो ।।“७

 अर्थात् उठो मेरी दुनिया की गरीबों को जागृत करो, इन महलों की कोट -दीवारों को हिला दो। इसी प्रकार कवि उमाशंकर कहते हैं “भूख्या जनोनो, जठराग्नि जागशे

 महेलोना खंडेरनी भस्मकड़णी लाशे।।”८

अर्थात भूखें आदमियों का जठराग्नि जब जागृत होगा तो महलों के खंडहरों की भस्म कण भी न उड़ेगी।

कुछ आलोचक दलित काव्य साहित्य की भाषा को गद्यात्मक कहते हैं। जिसमें नकार और विरोध का स्वर मुखरित होता है। दलितों की जीवन की विसंगतियांँ, उत्पीड़न, शोषण, दमन की अभिव्यक्ति के लिए यही भाषा ज्यादा सटीक प्रतीत होती है किंतु कुछ आलोचक के अनुसार यह सपाट बयानी है-

                 “ शब्द ही तो थे

                   जो मनुस्मृति में लिखे गए

                   रामराज चला गया

                   पर शंबूक की जीत अभी बाकी है

                   जैसे दलितों की पीठ पर

                   चोट के निशान

 शब्द सिसकते नहीं बोलते हैं

 चोट करते हैं

 जैसे दलित से हरिजन

और हरिजन से दलित“९

              मोहनदास नैमिशराय की पंक्तियां आलोचना शास्त्र के पारंपरिक मानदंडों पर हो सकता है कि किसी समीक्षा को संतुष्ट न कर पाए लेकिन अभिव्यक्ति के स्तर पर अपनी संवेदना से झकझोरती है। शब्द की मारक शक्ति से दलित अच्छी तरह परिचित हो चुका है। उसने’ शब्द’ के अर्थ को जान लिया है। नैमिशराय की इस कविता में व्यक्ति निष्ठा नहीं समूह निष्ठा है जो दलित रचनाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रतिष्ठित करती है।

         दलित कविता में जो आक्रोश और विद्रोह का स्वर है। उसकी अभिव्यंजना अर्थ पूर्ण है।जो समाज के ठेकेदारों पर सीधा चोट करती है। जो अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से समाज के अव्यवस्थित ढांचे को चित्रित करती है। डॉ. सी.बी.. भारती की कविता ‘चुनौती‘ में यह वेदना स्पष्ट रूप से उभरती है-

हमारी भागीदारी के लिए

 योग्यता की शर्त

कब तक फेंकोगे तुम

अपना मकड़जाल हम पर ?

घबराओ नहीं

समय आ रहा है

जब हम भी बदेंगे तुमसे

 दौड़ने की शर्त

जीतेंगे बाजी

तोड़ेंगे तुम्हारा दर्

सुनो ! परिवर्तन की सुगबुगाहट

 हवा का रुख

पहचानो! पहचानो! पहचानो!!! “१०

    “ जाति व्यवस्था ने समाज में जो ऊंच-नीच की खाई पैदा की है।भाईचारे को खत्म कर दिया है। संगठन को कमजोर कर दिया है। जाति व्यवस्था ने समाज में एक गंभीर समस्या को जन्म दिया है। जिसके कारण आज दलित समाज अपने को संगठित करने में मजबूर हुआ है।”११ आज के समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि जाति वर्ग भेद के ढांचे को समाप्त कर समता का साम्राज्य स्थापित किया जाए तभी एक स्वस्थ समाज का स्वरूप विकसित हो पाएगा।

संदर्भ सूची-

१- दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली ११०००२, पृष्ठ संख्या- १३

२-डॉ.शिवराज सिंह बेचैन, युद्धरत आम आदमी (अंक ४१-४२), १९९८ पृष्ठ संख्या- १४

३- कँवल भारती, युद्धरत आम आदमी (अंक ४१-४२),१९९८, पृष्ठ संख्या- ४१

४-वहीं,

५- दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली- ११०००२,पृष्ठ सं-१५

६- दलित साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, गुजरात के विशेष संदर्भ में, दलपत चौहाण, अनुवादक- डॉ. भावेश वी. जाधव, पृष्ठ सं-२७

७-वहीं,पृष्ठ सं -३८

८-वहीं, पृष्ठ सं- ३८

९- दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्णन प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं-८२

१०-वहीं, पृष्ठ सं-८३

११- जाति का उन्मूलन, डॉक्टर अंबेडकर ,पृष्ठ संख्या- २५