May 10, 2023

61. हिंदी उपन्यासों में किसान विमर्श  – गरिमा आर जोशी  

By Gina Journal

 हिंदी उपन्यासों में किसान विमर्श  – गरिमा आर जोशी                            

       हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में से उपन्यास विधा सशक्त विधा है। हिंदी साहित्य में अनेक विषयों पर आधारित उपन्यासों की रचना हुई है। ग्रामीण जीवन से संबंधित उपन्यासों में किसान जीवन का प्रत्यक्ष वर्णन कर भारतीय किसानों की दयनीय स्थिति, दरिद्रता, ऋणग्रस्त्त्ता एवं अनेक समस्याओं से ग्रसित किसान जीवन पर उपन्यासकारों ने प्रकाश डाला है |  किसानों की दशा और दिशा अकाल ,कृषि की पैदावार, ऋण आदि पर निर्भर होती थी | दिन प्रतिदिन व्यवस्था में बदलाव की स्थिति से किसानों को भारी संकटों का सामना करना पड़ा |  किसान की दशा और दिशा को हम विभिन्न उपन्यासों के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे | प्रेमचंद के पूर्व किसान जीवन को केंद्रित कर किसी भी उपन्यासकार ने अपनी रचना में किसान जीवन पर प्रकाश नहीं डाला | परंतु महावीर प्रसाद द्रिवेदी ने (1908)  में संपत्ति शास्त्र नामक पुस्तक में किसानों तथा फसल की बर्बादी के दृश्य को पहली बार निबंध रूप में दर्शाते हुए लिखा_”हिंदुस्तान की जमीन की मालिक रियाया नहीं अंग्रेजी गवर्नमेंट है वह रियाया से लगान वसूलती है।”(1)

       द्रिवेदी ‘देश की बात’ (1914) नामक पुस्तक में किसान तथा मजदूरों के लिए कहते है कि भारत देश किसानों का देश है जिसमे 70 फीसदी किसान है | वह किसान तथा मजदूरों को          एकत्रित कर शोषण का विरोध करने की सलाह देते हैं | द्रिवेदी युग के पश्चात् छायावादी युग में निराला द्वारा ‘भिक्षुक’ कविता में किसान की पीड़ा को दर्शाया है | प्रेमचंद ने (1936) में ‘महाजनी सभ्यता’ नामक लेख में समाज को दो भागों में विभक्त किया | बड़ा- हिस्सा शोषित और पीड़ा तथा अत्याचारों से मरने वालों का तथा दूसरा हिस्सा शक्ति तथा अपने प्रभाव से बड़े समुदाय को वश में करने वालों का प्रेमचंद ने कल्पना को महत्व न देकर यथार्थ को अपने उपन्यास में स्थान दिया | प्रेमचंद द्वारा ‘प्रेमाश्रय’ उपन्यास (1922) में प्रकाशित हुआ | प्रेमाश्रय में किसानों की दुर्दशा जमींदारों द्वारा शोषण, न्यायाधीशों का अंधापन, किसानों के घरों को जलाना, किसानों को बेदखल करना जैसी समस्याओं को दर्शाता है | यह उपन्यास किसानों की समस्या को दर्शाने के साथ-साथ समस्याओं के निराकरण को भी दर्शाता है।

     ‘कर्मभूमि’ उपन्यास की रचना मुंशी प्रेमचंद जी ने सन (1932) में की | यह उपन्यास तत्कालीन समाज की स्थिति तथा समस्याओं से अवगत कराता है | तथा आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठाने पर मजबूर करता है | किसानों पर हो रहे शोषण की समस्या, लगान की समस्या को प्रमुख रूप से दर्शाता है।

      ‘गोदान’ (1936) यथार्थवादी- द्रष्टिकोण, किसानों की दयनीय दशा को चित्रित करता हैं | उपन्यास में ‘होरी’ का यथार्थ चित्रण यथार्थता को दर्शाता है | उपन्यास का नायक होरी दिन-रात जी तोड़ मेहनत कर लू – धूप सहता हुआ खेती करता है|  गाय पालने की लालसा उसे किसान से मजदूर बना देती है | तपती धूप होरी पर हावी हो जाती है और वह इसी लालसा के साथ मृत्यु को गले लगा लेता है | ब्राह्मण धनिया को  गोदान के लिए कहता है परंतु धनिया सुतली बेचकर बीस आने होरी के मृत ठंडे हाथों पर रखकर दाता दिन से कहती है कि _ “महाराज घर में  न गाय  हैं, न बछिया, न पैसे हैं ,यही इनका गोदान है | और पछाड़ खाकर गिर पड़ी|”  (2) निरंतर दैन्य,  अधूरी इच्छा,  खून पसीने की मेहनत  यही किसान जीवन की व्यथा है| होरी हिम्मत नहीं हारता परंतु शायद प्रेमचंद होरी के पात्र से निराश हो गए थे तभी उन्होंने उपन्यास का अंत दुखद बनाया | होरी समस्त किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व है | जमींदारों के शोषण की गाथा को होरी के इस वाक्य से जान सकते हैं होरी धनिया से कहता है कि_”जब दूसरों के पांव तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पावों को सहलाने में ही कुशल है।”(3)                  प्रेमचंद ने किसान जीवन के हर एक पहलू को उपन्यास में यथार्थ रूप दिया है| कर्ज की समस्या का यथार्थ रूप होरी के पात्र में चित्रित होता है होरी कहता है कि_”कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।”(4)

     ‘विषाठ मठ’(1946) उपन्यास में 1943 के बंगाल के दुर्भिक्ष के चित्रण को दर्शाते हुए शहर हो या गाँव दोनों में किसानों की स्त्रियां तथा बच्चों का निर्मम चित्र उभर कर आता है | किसानों की स्त्रियां अपने बच्चों को सड़क पर ही छोड़ देती है और स्वयं कोलकाता की सड़कों पर अपनी भूख मिटाने निकल पड़ती है | किसान से मजदूर तथा मजदूर से भिखारी उन्हें जमींदारों ने बनाया | जमींदारो ने उनके घर खेत सब लगान  न चुका पाने पर हड़प लिये ।

     स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् किसान जीवन की समस्या अब जमींदार तथा किसानों के बीच का विद्रोह, संघर्ष था | आंचलिक उपन्यासों में जाति- पाति, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास जैसी समस्याओं ने अपना डेरा बना लिया था | ‘बलचनमा’ उपन्यास नागार्जुन द्वारा मजदूर से किसान बनने के स्वप्न को दिखलाता है | ‘बलचनमा’ उपन्यास खेत मजदूर से किसान,  किसान से  किसान नेता बनता है| तथा अनेक शोषण और अन्यायों को झेलता हुआ अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर विद्रोह करता है।

      फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आंचल’ (1954 )उपन्यास जमींदारों के शोषण तथा भूमि समस्या पर केंद्रित है | दो खंडों में विभाजित इस उपन्यास में आजादी के पूर्व तथा बाद के किसान जीवन तथा बदलती गाँव की स्थिति को दर्शाया गया है | ‘परती परीकथा’ (1957) मूलतः भूमि के पुनः विभाजन अर्थात (परती) परानपुर गाँव की कथा है| जिसमें वैज्ञानिक तरीके से खेती करना, नदियों पर बांध बांधना आदि हितकारी योजनाओं को  उपन्यास  में दर्शाया है।

     रामदरश मिश्र द्वारा लिखित ‘पानी के प्राचीर’ उपन्यास में बाढ़ ,ऋण की समस्या तथा सूखा को दर्शाया गया है| प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की फसल बच भी जाय तो चोरो से नहीं बच पाती |चोर उसे अपनी झोलियों में भर लेते हैं|  बाढ़ और सूखे की समस्या से किसान और भी कर्जदार होता जा रहा है | विवेकी राय के ‘बबूल’ उपन्यास में भी बाढ़ तथा सूखे से ग्रस्त किसानों की स्थिति को दर्शाते हुए किसान गाँव तथा  खेती छोड़ शहरों की ओर पलायन करते नजर आ रहे हैं |

     ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में किसान कर्ज से पीड़ित है तथा जमींदारों के  बंधक है | यह दलित भूमिहीन मजदूर किसान पर केंद्रित उपन्यास है | जगदीश चंद्र के इस उपन्यास में किसान सामाजिक तथा खेतिहर मजदूर बनकर संघर्ष करता रहता है | ‘कभी ना छोड़े खेत’ उपन्यास में सामंती प्रथा के ताने- बाने के बीच पिसता किसान तथा जमींदारों के शोषण की गाथा है| संबद्ध और संपन्न जाट किसानों तथा उनकी भूमि के साथ के संबंध को दर्शाता है । ‘मुट्ठी भर कांकर’ उपन्यास भी जगदीश चंद्र द्वारा रचित उपन्यास (1976) में प्रकाशित हुआ | स्वतंत्रता के बाद के किसान पर जमीन का अधिग्रहण, बेदखली की समस्या को लेकर लिखा गया है |

      विवेकी राय ने लोकऋण’ उपन्यास में आजादी के पश्चात् किसान तथा उनकी कृषि क्षेत्र में आये  बदलाव को दर्शाते हुए यह बताया है कि – जिस किसान के पास धन है, तो उस किसान की खेती ही अच्छी फसल दे पाएगी | आजादी के पश्चात् किसान जीवन  पर तथा उनकी समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले उपन्यासकार गाँव से कटने लगे तथा शहरों की ओर मुख करने लगे | खेती की जमीनों को अब उधोगपतियों तथा सरकारों द्वारा जबरदस्ती अधिग्रहण कर कौड़ियों के दाम पर बेची जा रही है | फसलों तथा परंपरागत खेती नष्ट हो गई थी |  किसान अब हाइब्रिड बीज का अधिक उत्पादन करने लगे |  इसके लिए पानी तथा रासायनिक खाद, कीटनाशक जैसी जरूरतों पर निर्भर होने लगा था | सरकार के लिए अब किसान तथा उनकी खेती नहीं बल्कि पूंजी वादियों का विकास महत्वपूर्ण हो गया था | किसान और उसकी खेती कहीं लुप्त सी होती नजर आ रही थी और आर्थिक उदारीकरण के चलते सन 1990 और 91 के पश्चात्  किसान आत्महत्या करने लगे | समय के साथ किसानों की समस्याओं में भी परिवर्तन आने लगा | अब उपन्यास की मूल समस्या जमीदारी उन्मूलन बाढ, गरीबी, चकबंदी, बेदखली ना होकर भूमि अधिग्रहण ,किसान विस्थापन ,खेती का विकास ना होकर शहरों का विकास,खेतिहर जमीन को नष्ट कर मल्टीकोपलेक्स में बदलना तथा जल ,जंगल इत्यादि को नष्ट कर पुनर्वास जैसी समस्या पर उपन्यास लिखे जा रहे हैं |

       विकास की यह कथा हमें वीरेंद्र जैन के ‘डूब’ उपन्यास में बेतवा नदी पर बांध बनाने की योजना में दिखाई पड़ती है | ऐसी ही समस्या हमें ‘पाहीघर’ तथा ‘बेदखल’  उपन्यास में भी दिखाई पड़ती है| जिसमें लगान, कानून तथा छोटी जोत और जमींदारों के अत्याचारों से किसानों की विवशता तथा उनके सामूहिक प्रतिवाद  जैसी समस्याओ को देखा जा सकता है | भूमिहीन खेतिहर मजदूर तथा उनके संघर्षों, विकृतियों का जीवंत रूप हमें कुमेदु शिशिर के ‘बहुत लंबी  राह’ (2003) उपन्यास में दिखाई पड़ता है |  इस समय जमीदारी प्रथा का अंत तो हुआ परंतु कहीं ना कहीं पूंजीपति किसानों का शोषण और अधिक करने लगे |  शोषण की यह गाथा आत्महत्या की ओर रुख करती है |  ‘हलफनामे’  उपन्यास में जल संकट की समस्या से किसान प्रताड़ित है| किसान आत्महत्या पर हिंदी में यह प्रथम उपन्यास है | जिसमें आंध्र प्रदेश के किसानों को जल संकट से जूझते हुए दिखाया गया है |

       सरकार और बिचौलियों का खेल हमें सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास ‘काली चार्ट’ ( 2015) में किसान कर्ज लेने और आत्महत्या करने पर किसान मजबूर होता दिखाई पड़ता है |  किसान आत्महत्या को उजागर करता संजीव का ‘फांस’ विदर्भ किसानों के संघर्षो को दर्शाता है |   किसानों की आत्महत्या उपन्यास का  केन्द्रित विषय है |  इस उपन्यास में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के बनगाँव के किसानों के साथ-साथ आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक के किसानों की भी याद दिलाता है| जिन्हें जी एम बीजो कि लालच देकर कर्ज के चक्रव्युह में फँसाया गया | उपन्यास के अंतर्गत प्राकृतिक आपदाएं ,सूखे की मार तथा खाद ,पानी, बिजली कर्ज की समस्या, फसलों का उचित दाम न मिलना तथा आत्महत्या जैसी गंभीर समस्या पर उपन्यासकार ने प्रकाश डाला | उपन्यासकार गाँव की स्थिति से पहले ही अवगत करा देते है – गांव में बसे लोगों की क्या हालत होगी ? बनगाँव का चित्र संजीव इस तरह से दर्शाते हैं – “भला कोई कह सकता है सुखाड़ के ठन -ठनाते यवतमाल जिले के इस पूर्वी छोर पर ‘बनगाँव’ जैसा कोई गाँव भी होगा जो आधा वन होगा,आधा गाँव,आधा गीला होगा आधा सूखा होगा स्कूल में लड़के के साथ लड़कियां भी,जुए में भैंस के साथ बैल भी |जो भी होगा आधा-आधा ।”(5)

        किसान भारत की आत्मा के नाम से जाना जाता है | शिबू जब समस्याओं से नहीं लड़ पाता तो वह आत्महत्या कर लेता है | सरकारी कर्मचारी अंत में घरवालों को मुआवजा तक भी नहीं देते | इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह व्यवस्था किसानों को भ्रमित कर रही है  | महंगाई आसमान छू रही है | पहले किसान फसल के लिए घर में ही बीज रखते थे परंतु नए- नए बीजों के प्रयोग से किसान कर्ज के लिए बैंकों तथा सूदखोरों से कर्ज लेता है | फसल अच्छी न होने पर वह दिन – प्रतिदिन कर्ज में डूबता चला जाता है और अंत में कर्ज न चुका पाने पर आत्महत्या कर लेता है।

       ‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास में पंकज सुबीर ने एक और सरकारी कर्मचारियों द्वारा मनाया जा रहा उत्सव को दर्शाया है तो दूसरी और ‘सूखापानी’ नामक गाँव के किसान आत्महत्या कर रहे हैं | कथा का प्रारंभ ‘सूखापानी’ नामक गाँव से होता है जो दो एकड़ जमीन को जोतने वाले छोटे किसान रामप्रसाद के आस-पास घूमती है | रामप्रसाद दिन- रात मेहनत कर फसल बोता है तभी महाजन कर्ज के रूप में खलिहान पर ही फसल उठा ले जाता है | रामप्रसाद बैंक कर्ज के फर्जीवाड़े का शिकार बनता है | प्रकृति भी उसकी फसल को नष्ट कर देती है | ऐसी स्थिति में रामप्रसाद आत्महत्या कर लेता है | फसलों के नष्ट होने पर सरकार की ओर से मुआवजा न मिलने पर किसानों की हालत को पंकज सुबीर बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करते हैं _”लेकिन सर किसान तो सरकार के ही भरोसे है न ? अगर सरकार उनको मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा ? खेतों में खड़ी फसल अगर बर्बाद हो गई , तो किसान क्या करें, क्या मर जाए।” (6)

          शिवमूर्ति स्वयं छोटे किसान परिवार से थे अतः ‘आखिरी छलांग’ उपन्यास में उनके निजी अनुभव होने से उन्होंने इस उपन्यास को और भी जीवंत रूप दिया है | उपन्यास में मुख्य दो समस्याओं को उजागर कर किसान जीवन की चिंताओं को दर्शाया है| बेटे को इंजीनियर बनाने का खर्च तथा बेटी की शादी में दहेज का प्रबंध जैसी समस्याओं से पहलवान साहस की छलांग लगाता है किसान की जिंदगी से बेहतर चपरासी की नौकरी को बेहतर मानता है और कहता है कि_”कभी-कभी पहलवान सोचते हैं कि काश उन्हें सही समय पर किसी ने आगाह कर दिया होता कि खेतीबाड़ी से पेट भरने का आस छोड़ कर पढ़ाई लिखाई का भरोसा करें मामूली चपरासी की जिंदगी औसत किसान की जिंदगी से बेहतर होती है – यह तब पता चल गया होता तो मिडिल, हाई स्कूल और इंटरमीडिएट तीनों प्रथम श्रेणी में पास करने के बावजूद भी इस खानदानी दलदल में क्यों फसतें?”(7)

       समकालीन उपन्यास कारों ने किसान जीवन के यथार्थ के साथ-साथ आत्महत्या करने पर विवश कर देने वाली समस्याओं को भी स्पष्ट किया है | किसान के लिए उनकी खेती कोई व्यवस्था नहीं बल्कि जीवन शैली है | किसान और मिट्टी का संबंध अटूट है | परंतु वर्तमान परिस्थितियों में यह संबंध कहीं-कहीं टूटता दिखाई दे रहा है | किसान अब किसानी नही करना  चाहते | नई युवा पीढ़ी गाँव तथा खेती छोड़ शहरों  की चकाचोंद में अपनी परंपरा को लुप्त करते नज़र आ रहे हैं | जो समस्त भारत के लिए एक चिंता का विषय है।

सन्दर्भ :-

1 .पांडेय मैनेजर, सम्पति शास्त्र (प्रस्तावना से) पृ. सं .14 केन्द्रीय हिंदी निर्देशालय , दिल्ली

  1. प्रेमचंद , गोदान ,पृ.सं. 309
  2. प्रेमचंद , गोदान , पृ. सं. 7
  3. प्रेमचंद , गोदान , पृ. सं. 138
  4. संजीव , फाँस , पृ. सं. 9

6.पंकज सुबीर ,अकाल में उत्सव ,पृ .सं.194

7.शिवमूर्ति , आखिरीछलांग , राजकमल प्रकाशन , पृ . सं. 94

गरिमा आर जोशी

पीएचडी रिसर्च स्कॉलर,  मार्गदर्शिका – अपर्णा अग्निहोत्री , श्री गोविंद गुरु युनिवर्सिटी गोधरा, गुजरात, भारत |