May 10, 2023

53. समकालीन हिंदी साहित्य और रूपांतरित परिदृश्य में वनिता विमर्श – ड़ॉ0 मीनू शर्मा

By Gina Journal

Page No.:369-376

समकालीन हिंदी साहित्य और रूपांतरित परिदृश्य में वनिता विमर्श – ड़ॉ0 मीनू शर्मा

सारांश

अपने समय की उत्कृष्ट चुनौतियों के साथ उतना ही समकालीन हिंदी साहित्य का गुण है. साहित्यकार का अविच्छिन्न संपर्क वर्तमान वेदना के साथ होता है और वह उस वेदना व्यथा को साहित्य माध्यम से स्पष्ट भाषी रूप में कह देने का पक्षधर है, यह कला कौशल समकालीन साहित्यकारों में परितश्चित होता है समकालीन कविता अपने समय के प्रति स्वर की गूंज है. यह हिंदी साहित्य जगत अपने विचलित समाज का साक्षी है, साहित्य का दुःख समाज का दुःख है, उसके प्रश्न संस्कृति और मूल्यों में आए परिवर्तन से जुड़े हुए हैं, कविता समाज से जुड़ी होती है और जब समाज में आपदा या संकट घिर आया हो तो कविता उससे अछूती नहीं रह सकती समकालीन हिंदी साहित्य ने अपने समय को पूरे परिवेश के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है लेखिकाओं ने नारीत्व की दृष्टि से अपने वर्ग की मानसिक कठिनाइयों को स्पष्ट कर उनका व्याख्यान किया है। पहले साहित्य कवच रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हुआ. आज शस्त्र रूप में विद्यमान है। समकालीन साहित्य में नारी विमर्श संपूर्ण दुनिया में संस्कृति संस्कार सम्मान को सुरक्षित रखने का अभियान है. नारी का मौन युगो युगो से निरंतर चला आ रहा है, इस समाज में नारी का शोषण आर्थिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टीकोण से हो रहा है. सभी रीति-रिवाज और परंपराएं नारी पर ही लागू होते हैं. समाज रूपी युद्ध क्षेत्र में स्वयं सामना करने वाली वनिता शिक्षा रूपी शस्त्र के साथ अवश्य अपनी जीत का परचम लहराएगी समकालीन महिला साहित्यकारों ने नगरीय परिवेश के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश से जुड़ी महिलाओं को भी जागृत किया है. उनकी सुप्त चेतना में प्राण डालने का प्रयास महिला रचनाकारों ने किया है, नारी विमर्श उपेक्षित महिलाओं में सशक्तिकरण की भावना जगाने की अलख है । जो रचनाकार या साहित्यकार जितना अधिक अपने समय के दबावों को महसूस करता है और परंपरागत चेतना शून्य पद्धति के विरुद्ध क्रांति की भावना रखता है, वह उतना ही समकालीन होगा। समकालीन हिंदी साहित्य वास्तव में अंत और संघर्षो कुंठित भावना, विपदा व्यथा की कथा है, समकालीन हिन्दी साहित्य आधुनिक साहित्य के विकास में नारी चेतना को जगाने का कार्य करता है, वनिता विमर्श जागरण और मुक्ति का शंखनाद है नारी से गुंजित सम्पूर्ण समकालीन साहित्य मुतिपक्ष से भरा हुआ है।

प्रस्तावना

समकालीन हिंदी साहित्य अपनी आकृति रूप में अत्यधिक विशद, जटिल, घना एवं चुनौतीपूर्ण है। समकालीनता अपनी देह में समसामयिकता और आधुनिकता को सजाए हुए हैं, यह एक ऐसा विशेष चरण है, जो सदैव निरंतर वर्तमान प्रक्रिया को अपने में आत्मसात किए रहता है, आधुनिक समाज संस्कृति तथा रचनात्मक दबाव जहां एकांकी हो जाएं वहां काल की गति वर्तमान के साथ समकालीन भी होती है, वास्तव में समकालीनता एक संपूर्ण मनोज्ञान है, जो सामयिक प्रसंगों, विवशता, बाध्यता के तहत विशेष स्वरूप व संरचना को धारण करती है, अपने समय की प्रमुख समस्याओं का सामना करना ही समकालीनता को प्रकट करता है। रघुवीर सहाय ने समकालीनता को बहुत ही विस्तृत ढंग से परिभाषित किया है,” मेरी दृष्टि में समकालीनता मानव भविष्य के प्रति पक्षधरता का दूसरा नाम है। “

समकालीनता की अवधारणा में अपने युग की चुनौतियां और केंद्रीय महत्व की समस्याओं का सामना करने की धारणा निहित होती है, समकालीन साहित्य के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए डॉ० उपाध्याय ने उसे वर्तमान के गत्यात्मक एवं क्रियाशील रूप से संबद्ध किया है, उनके शब्दों में “,समकालीन कविता में जो हो रहा है, (विकमिंग) का सीधा खुलासा है, इसे पढ़कर वर्तमान काल का बोध हो सकता है, क्योंकि उसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, बौखलाते तड़पते. गरजते तथा ठोकर खाकर गिरते, सोचते वास्तविक आदमी का परिदृश्य है। समकालीन साहित्य में असंतोष रोष एवं विद्रोह का विस्फोट है| इसमें से अनुपात अवयव संतुलन सामंजस्य क्लासिकपूर्णता परिष्कृति आदि नहीं है। उसमें मुक्तिबोधक चट्टाने अंधड़ सिंह गर्जन , उपहास, व्यंग, लताड़ और मारधाड़ है, उसमें “जीवन और मूल्यों की अमूर्त धारणाओं के स्थान पर सताए हुए लोगों का विवेचन और विद्रोह है।” इन्हीं सब समस्याओं में ज्वलंत समस्या का नाम है ‘नारी विमर्श’ यह वास्तव में विचारणीय प्रश्न है, जिसका उचित समाधान होना आज के युग की प्राथमिकता है।

हिंदी काव्य और गद्य पक्ष वनिता से गुंजित

आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा छायावादी युग की आधार स्तंभ महादेवी वर्मा नारी चेतना की भारतीय परंपरा पर विचार करने वाली अद्वितीय विचारक रही है, उनके विचार रेखाचित्र से होकर श्रंखला की कड़ियां भारतीय नारी की समस्याओं का जीवंत विवेचन है, आपने नारी मुक्ति के विषय में विचार किया ,कि भारत की स्त्री तो भारत मां का प्रतीक है महादेवी संकुचित सोच पर दृष्टि पर स्वतंत्र रूप से वार करती हैं. आधुनिक नारी उसकी स्थिति पर एक दृष्टि लेख में वे कहती हैं, कि एक ओर परंपरागत संस्कार ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया कि पुरुष विचार बुद्धि और शक्ति में उससे श्रेष्ठ है, और दूसरी और उसके भीतर की नारी प्रवृत्ति भी उसे स्थिर नहीं करने देती ‘ स्त्री विमर्श स्त्री को पुरुष के समान अधिकार दिलाने का संघर्ष है, जन समाज उस दिन सभ्यता के शिखर पर पहुंचे पहुंचने में समय नहीं लगाएगा जिस दिन वह स्वेच्छा से दोनों के पूर्ण तम अधिकारों को स्वीकार कर लेगा निराला का स्त्री विमर्श हमें इस दिशा में जाने की प्रेरणा देता है, निराला जी का स्त्री विमर्श अपने समय की सोच की सीमाओं के बावजूद स्त्री पुरुष की समानता एवं समान अधिकार की बात करता है, निराला का स्त्री चिंतन पक्ष व्यापक और विस्तृत है, स्त्री विमर्श में स्त्री शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है, स्त्री शिक्षा. स्त्री मुक्ति का मार्ग है, निराला जी का मानना था कि “महान विप्लव ही हर एक सुधार का मूल है।” आग और आंसू के कवि निराला जी समानता के हिमायती और पक्षधर थे, ऐसा साहित्य जिसमें वास्तव में वनिता जीवन की समस्याओं का चित्रण हो स्त्री विमर्श कहलाता है. परनिर्भरता, अशिक्षा स्त्रियों के दुःखों का कारण है, अशिक्षा, पुरुषों की संकीर्ण सोच उन्हें इस सम्मान से वंचित रख रही है, जिसकी वह वास्तव में पात्र हैं, आज नारी अपने अस्तित्व और वजूद के लिए सजग और सतर्क हुई है, अपने अधिकारों के लिए बोलना चाहती है, इसके लिए नारी सम्मान की पात्र है, वह पूजनीय है, सम्माननीय है, वह तो जीवन की आधारशिला है, इसके बिना संसार की कल्पना करना असंभव है, अपने अधिकारों की लड़ाई अपनों से, अपनों के द्वारा निरंतर उपेक्षित नारी संघर्ष में जीवन जी रही है और निरंतर अपने अस्तित्व को विलुप्त होता देख रही है, आज वनिता विमर्श के अर्थ को समझकर इसके अस्तित्व को बचाना समाज में समानता व्याप्त करना सभी का कर्तव्य और दायित्व है, इस विमर्श का समाधान स्वस्थ समाज को दर्शाता है, जो अभी कहीं ना कहीं अस्वस्थ सा प्रतित होता है।

वनिता विमर्श जागरण और मुक्ति का शंखनाद

महिला लेखिकाओं ने नारी का वास्तविक चित्रण साहित्य जगत में प्रस्तुत कर उनकी व्यथा और पीड़ा वैचारिक बंधनों से मुक्ति को चित्रित किया है, नारी हृदय की गहराइयों का उनकी पीड़ा दर्द का कुंठा का उनमें उत्पन्न अंतर्द्वद तथा नारी समस्याओं को बड़ी संजीदगी, शिष्टता से महिला रचनाकारों ने प्रस्तुत किया है, स्त्री की दशाओं में अनेक सुधार आए परिवर्तन हुए, लेकिन जो सम्मान उसे मिलना था, उसकी कमी आज भी दूर-दूर तक परलक्षित है, नारी अपने अधिकारों से वंचित है , वनिता विमर्श स्वाधीनता के बाद की संकल्पना है, स्त्री के प्रति होने वाले शोषण के विरुद्ध संघर्ष है, समकालीन हिंदी साहित्य में संघर्षों सपनों की टूटन पीड़ा, दर्द, व्यथा सब को चित्रित किया गया है, इस विषय ने हृदय पक्ष को विचलित कर दिया, वनिता विमर्श ऐसा वार्तालाप और तर्क वितर्क है, जिसको नारी अपनी शक्ति अपने अधिकारों को अपनों से ही मांग रही है, यह कैसी स्थिति है? यह वास्तव में अस्तित्व, मान अधिकार को अर्जित करने का शंखनाद है, द्विवेदी युग में मैथिली शरण गुप्त जी ने उपेक्षित नारी को सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया यशोधरा, उर्मिला और विष्णु प्रिया जैसी नारियों को सभी ने अनदेखा किया था. पूरी गरिमा के साथ गुप्त जी ने नारी को अपने साहित्य में स्थान दिया इसी श्रंखला में छायावाद युग का नाम आता है, जिसमें श्रंखला की कड़ियाँ स्त्री के सशक्तिकरण का सुंदर उदाहरण है, जिसमें नारी जागरण वह मुक्ति का प्रश्न खड़ा किया है, इस युग में नारी का महिमामंडित रूप ही अधिक दिखाई पड़ता है, नारी मुक्ति का प्रखर स्वर्ग निराला की कविताओं में उपलब्ध है, नारी यथार्थ रूप के केंद्र में पहचानी गई कर्मशील महिला के दर्शन कवि ने साहित्य में कराए मानवता की मुक्ति का स्वर कवि द्वारा प्रस्तुत किया गया है, संपूर्ण व्यवस्था को ललकारती हुई यह कविता शब्दों के बाहर भी एक गूंज को जन्म देती है प्रगतिवादी युग में नारी मुक्ति का स्वर सुनाई पड़ता है, आर्थिक पक्ष के अभाव में नारी पुरुष की बराबरी नहीं कर सकती बाबा नागार्जुन ने वनिता को एक शक्ति रूप में देखा उनके साहित्य का स्त्री रूप कर्म से युक्त नारी है, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को दर्शाने वाले उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद से लेकर राजेंद्र यादव तथा अनेक विद्वानों साहित्यकारों ने नारी समस्या के चित्रों को उकेरा है, नारी रूप की वास्तविक सच्चाई को महिला लेखिकाओं ने दर्शाया है, जो साहित्य पटल पर अनेकों प्रकार से परिलक्षित होता है। जिसमें मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, शिवानी आदि महिला लेखिकाओं ने नारी मनोस्थिति को पहचानकर उसकी दिशा और दशा, कुंठा, निराशा, अंधकारमय जीवन की समीक्षा की है, आज’ वनिता विमर्श’ नारी सशक्तिकरण रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जिससे हम सभी भली-भांति परिचित हैं।

शैक्षिक दृष्टिकोण का पक्षधर वनिता विमर्श

नव चेतना, नव संवेदना समन्वय दृष्टिकोण साहित्य पटल पर दिखाई पड़ता है, अज्ञेय, धर्मवीर भारती भारत भूषण, रघुवीर सहाय आदि नारी पक्षधरो ने अपनी लेखनी के बल पर स्त्री जागरण दृष्टिकोण विनिता का रूप दिखाकर उसके भावपक्ष को दर्शाया है, वह देवी स्वरूपा सरल सहज है, जो आज अपने अधिकारों को समाज के धरातल पर रख कर दिखा रही है. कुछ साहित्यकारों ने भारतीय नारी के कोमल पक्ष को दर्शाया है, नारी मुक्ति की आशावादिता उनमें परिलक्षित है, नारी गुणों को दर्शाया है, कि वह अत्यधिक भावुक है. भारत भूषण जी की अग्नि लीक नारी के अपराजिता रूप को प्रस्तुत करती है. पुरुष की महत्वाकांक्षा की रक्षा के लिए जीने वाली स्त्री के यह दर्दनाक कहानी है, उसमें सीता स्वाभिमानी स्त्री के रूप में परिकल्पित है, अग्रवाल जी ने स्त्री मुक्ति पर बल दिया है, अग्नि लीक की सीता का हर शब्द सटीक है, जो पुरुष प्रधान समाज पर कठोर प्रहार करता हुआ दिखाई पड़ता है, यह सीता आज की नारी की स्पष्ट पथ प्रदर्शक है, दिशा वाहक है आज नारी अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्वीकृति चाहती है, पुरुष समाज की मान्यता का आगे बढ़कर सामना किया है. रघुवीर सहाय भी स्त्री जागरण के पक्षपाती रहे स्त्री विमर्श का स्वर्ग समकालीन साहित्य में पूर्ण ढंग से प्रकाशित हुआ समकालीन साहित्य में स्त्री कविता अपनी मौजूदगी का सही-सही परिचय दे रही है, समाज के परिवेश में सारे मानवीय संबंध अमानवीय बनते जा रहे हैं, स्त्री और उससे जुड़े प्रसंग तथ्य समकालीन कविता के विषय बनने लगे हैं, समकालीन कवियों ने साहित्यकारों के नारे मुक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया है, स्त्री विमर्श के प्रति संकीर्ण विचारों ने एकांगी दृष्टिकोण के कारण वनिता विमर्श नारी मुक्ति अभियान गंभीर समस्या के रूप में निरंतर हमारे समक्ष उपस्थित होता रहा है. स्त्रियों के हाथ में कलम का आना वनिता शिक्षा के लिए लंबे समय तक चले आ रहे विमर्श का ही परिणाम है, तुलसी के ‘रामचरितमानस’ का समन्वय आत्मक रूप आज के समय की आवश्यकता है, जो वनिता विमर्श का सुझाव है, वनिता विमर्श का आकार समाज को नव गति नव परिवर्तन, नव दिशा में परिवर्तित कर सकता है.

               ‘’, स्त्री समानता की धारणा स्त्री शिक्षा के बगैर निर्मित नहीं हो सकती उसी तरह स्त्री की पहचान एवं आत्मीयता छवि भी स्त्री शिक्षा के विकास की दूरी है, इससे समाज सुधारकों ने सही रेखांकित किया था आज हम गौर से देखें तो पाएंगे कि स्त्री शिक्षा के बगैर संविधान प्रदत्त समस्त स्त्री अधिकार बेमानी है।”- डॉ0- जगदीश्वर चतुर्वेदी

नारी सदैव पारिवारिक संरचना की यथास्थिति से समझौता कर दी रही है, और आज भी कर ही रही है, नारी सामाजिक पारिवारिक, आर्थिक पक्ष सभी स्तरों पर उपेक्षित जीवन व्यतीत करती है; शिक्षा तो वास्तव में सफलता की कुंजी है बिन शिक्षा के जीवन की कल्पना अभावग्रस्तता को दर्शाती है।, जीवन के प्रत्येक पहलुओं को समझने की शक्ति शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त होती है, आज नारी वर्ग शिक्षित होकर अपनी अलग पहचान बना रही है। अशिक्षित स्त्री शिक्षा के अभाव में आज मूक रहकर अपना जीवन व्यतीत कर रही है. उनकी खुशियां उनकी सपने उनकी आशाएं सब किसी कोने में छुप कर बैठ गए हैं. आज आवश्यकता है. उन्हें उस कोने से निकालकर उनकी खुशियों को उनके समक्ष प्रस्तुत करने की जो शिक्षा द्वारा ही संभव प्रतीत होती है, अशिक्षा के कारण वह अपने अधिकारों से विमुख है. नारी परावलंबी और दूसरों पर निर्भर बनी हुई, विकास से वंचित शिक्षा से रहित मूक होकर जीवन व्यतीत कर रही है यह बड़ी ही दयनीय स्थिति है। इस पर विचार विमर्श आवश्यक है।

निष्कर्ष

    पिछले कुछ समय से नारी विमर्श ने स्त्री जीवन की समस्या लुप्त जीवन की बातों की अपार साहस से दिखाने का प्रयास किया है, नारी को उसी की दृष्टि से देखना समझना और विचार करना वनिता विमर्श की सबसे बड़ी आवश्यकता है। स्त्री संघर्ष स्त्रियों को उपेक्षित से सशक्तिकरण की तरफ ले जाने का प्रयास कर रहा है, वनिता विमर्श के प्रश्नों ने समाज को नव विचारधारा से सोचने का विचारने का मार्ग दिया है. जिससे समाज में नई ऊर्जा का जन्म हो जो समानता पर आधारित हो इस वनिता विमर्श में समय के साथ नए प्रश्नों को जोड़ने का एक सांचा तैयार कर दिया है, जिसको हल करना समाज का कर्तव्य है, वनिता विमर्श वास्तव में बहस लड़ाई का विषय नहीं है यह जागृति का रास्ता है यहां यह आधुनिकता का यहां आधुनिकता संतुलित है, स्त्री से जुड़ी कुंठा परेशानी उसका समाधान का मार्ग स्पष्ट करें यह सब नारी विमर्श के अंतर्गत है. स्त्री और पुरुष एक सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों का साथ दोनों के पक्ष की मजबूती को दर्शाता है, वनिता समानता के लिए विमर्श सामाजिक आंदोलन आवश्यक लगने लगा है।  आज के दौर में वनिता की प्रगति को पुरुष प्रभुत्व समाज ने स्वीकार भले ही कर लिया हो, लेकिन वह अपनी संकीर्ण सोच से उसके अस्तित्व को धूमिल करने में लगा हुआ है, किंतु समस्याएं कई नए रूप रंगों में परिवर्तित होकर सामने प्रत्यक्ष खड़ी हैं, जिन पर विचार करना आज के समय की आवश्यकता है। नारी सम्मान और श्रद्धा की पात्र है और वह उससे ही विमुख है इस पर प्रश्न करना अनिवार्य है वनिता सशक्तिकरण एवं स्त्री विमर्श में आज भी सर्वाधिक जोर पकड़ स्त्री शिक्षा पर ही है क्योंकि आज भी स्त्री सशक्तिकरण की कल्पना निरर्थक सिद्ध हो रही है, शिक्षा एवं रोजगार ने वनिता की स्थिति में बदलाव हेतु अनुकूल परिस्थितियों को जन्म दिया है, वनिता के बदलते नजरिए ने नारी को सामाजिक समस्या के स्थान पर अर्थशास्त्रीय मनोवैज्ञानिक मानवीय शास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन के केंद्र में आयी उनके द्वारा उठाए गए प्रश्नों पर विचार किया गया, जो वास्तव में सटीक प्रश्न रहे। आशावादी जीवन देने वाली स्वयं नारी आज एक निराशावादी जीवन को जी रही है, देखिए यह कैसी दयनीय स्थिति है। वनिता विमर्श वास्तव में आज के समय की ज्वलंत समस्या है, इसका उचित समाधान स्वस्थ समाज को जन्म देगा सकारात्मक सोच का विस्तार करेगा। सुदृढ़ समाज और राष्ट्र की कल्पना बिना शिक्षित नारीशक्ति के पूर्ण नहीं हो सकती, यह विचारणीय विषय है इस पर विमर्श परमावश्यक है। यह विमर्श आज के युग की अनिवार्य आवश्यकता है।

सर्न्दभ

  1. समकालीन साहित्य और सिधांत- ड़ॉ0 विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
  2. समकालीन कविता की भुमिका- ड़ॉ0 विश्वम्भरनाथ उपाध्याय (मैक मिलन प्रकाशन दिल्ली)
  3. समकालीन लेखन और आधुनिक समवेदन- समपा0-कल्पना वर्मा ( लोक भारती)
  4. स्त्री चितंन की चुनौतिया- रेखा कस्तवार (राजकमल प्रकाशन)
  5. अग्निलीक- भारत भूषण अग्रवाल
  6. उपनिवेश में स्त्री –प्रभा खेतान( राजकमल प्रकाशन)
  7. श्रृंखला की कड़ियाँ- महादेवी वर्मा –
  8. समकालीन विमर्श- कल्पना वर्मा

नाम- ड़ॉ0 मीनू शर्मा

पद- सहायक प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)

श्री माधव कॉलेज ऑफ एजूकेशन एण्ड टैक्नोलॉजी हापुड़