54. समकालीन हिन्दी कविता में किन्नर विमर्श – Dr. Seena Kurian
Page No.: 377-387
समकालीन हिन्दी कविता में किन्नर विमर्श
Dr. Seena Kurian
समकालीन हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत है। उपेक्षित जनसमुदायों को वाणी देना समकालीन साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषता है। पिछले कुछ वर्षों में स्त्री, दलित, आदिवासी, प्रवासी ,वृद्ध, विकलांग, किसान,किन्नर जैसे अल्पसंख्यकों पर साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। अल्पसंख्यक वर्ग की मनोदशा, असुरक्षा की भावना, उसकी राष्ट्रीयता पर संदेह , उसके खान- पान, रहन सहन पर रोक टोक एवं उसके दोयम दर्जे की स्थिति का रेखांकन करना साहित्य का मुख्य विषय बन गया है। ऐसा ही उपेक्षित जन समुदाय है किन्नर लोग।किन्नरों को कई नाम से पुकारते है। इन्में प्रमुख है हिजडा। वह तो उर्दू शब्द है जो अरबी के हिज्र शब्द से लिया गया है। बंगला में इन्हें हिजरा, हिजला, हिजरी से संबोधित किया जाता है। तेलुगु में उन्हें नपुंसुकुडू, कोज्जा अथवा मादा, तमिल में अली, अरावनी, अरवन्नी, अरूवनी। पंजाबी में खुसरा, जंखा, सिंधी में खदरा, गुजराती में पवैया, मराठी में जिजडा, छक्का आदि नामों से जाना जाता है। महात्मागाँधी ने अछूतों केलिए एक सम्मान सूचक शब्द हरिजन का उपयोग किया है ठीक उसी प्रकार हिजडों को सम्मान देकर किन्नर कहा जाने लगा।
हिन्दू, जैन, बौद्ध धर्मग्रन्थों और आमतौर पर भारतीय संस्कृत और यहाँ तक की कामसूत्र में भी ट्रांसजेंडर के बारे में कई जगह उल्लेख किया गया है। महाभारत में शिखंडी नामक पात्र का उल्लेख मिलता है। अर्जुन ने अपने अज्ञातवास का एक साल किन्नर का रूप धारण कर बृहन्नला के नाम से किया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में किन्नरों का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार हिन्दू और मुस्लिम शासकों द्वारा किन्नरों का इस्तेमाल खासतौर पर अंत:पुर और हरम में रानियों की पहरेदारी केलिए किया जाना था। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किन्नर वरिष्ठ अधिकारी रहे है। इस प्रकार देखें तो पुराण में किन्नरों को सम्मान दिया गया है| लेकिन आधुनिक युग में इन्हें जीने केलिए मजबूर किया जा रहा है|
वास्तव में हिजडे या किन्नर इंसान की वह अवस्था है। जब भी गर्भ में शरीर के विकास क्रम में किसी एक लिंग का निर्धारण होते या तो विकास की प्रक्रिया रुक जाती है या कुछ समय बाद दूसरे लिंग का विकास होने लगता है। इस प्रकार हिजडे या किन्नर के अंग पुरुषों के अंग या महिला के अंग या तो अविकसित अवस्था में होते है, या फिर पुरुषों के अंग या महिला के अंग का मिलावटी स्वरूप हो जाता है। उसे हम हिजडा या किन्नर कहते है। पारिवारिक उत्सवों एवं पर्वों पर इनकी उपस्थिति को प्राय: ही संदिग्ध दृष्टि ये देखा जा सकता है। ट्रेनों, बसों और बाज़ारों में बडे गहनों, चमकीले कपडे व चेहरे पर बहुत सारा मेकअप से सजा हुआ लोगों को देखा जा सकता है। जिनका मुख्य धंधा एक तरह की वसूली है। कुछ लोग बच्चों के जन्म पर, विवाह आयोजन जैसे अन्य कार्यक्रमों में नाच- गाकर पैसा कमाते है। अगर उसको मुँहमाँगी रकम न दिए तो गालियाँ करने में हिचकते नहीं है।
किन्नरों की सबसे बड़ी समस्या समाज द्वारा उन्हें अस्वीकार किया जाना है| समाज उसे घृणा की दृष्टि से देखते है। किन्नर भी हमारे जैसे इंसान है यह स्वीकार करने केलिए हम तो तैयार नहीं है। सामाजिक उपेक्षा और आर्थिक साधनों की कमी के कारण दूसरों से पैसा वसूल करना इनका मुख्य धंधा बन गया। शास्त्रों में उनकी उपस्थिति भले ही शुभ शकुन के रूप में उल्लिखित होता है। समाज में उनके प्रति मानवीयता, सहिष्णुता, नैतिकता और सह्र्दयता जैसे मूल्यों का घोर अभाव है। जिस प्रकार बलात्कृत स्त्री अपने किसी अपराध के बिना दोहरा दण्ड भुगती है, अपने अपमान एवं यातना के साथ परिवार और समाज की उपेक्षा का दंड भोगना पडता है। ठीक उसी प्रकार है किन्नरों की स्थिति। किन्नरों के साथ बलात्कार, उत्पीडन, शारीरिक शोषण और छेडखानी जैसे अपराध निरंतर होते रहते है। हमारे समाज में बलात्कृत स्त्रियों को घर से नहीं निकालते। लेकिन किन्नरों को माँ- बाप समाज से डरकर घर से निकाल देते है। यही उनकी नियति है। उनके जीवन को लेकर अनेक साहित्य लिखे गए है| हिन्दी साहित्य में उपन्यास, कहानी, कविता और आत्मकथा के माध्यम से किन्नरों के संवेदनाओं को पेश किया जा चुके हैं | इसके द्वारा उनके जीवन को समझना और उसकी समस्याओं से अवगत होकर उसे सुलझाने का कार्य करना संभव होता है|
पारिवारिक उत्सवों एवं पर्वों पर हिजड़ों को बुलाते है| पुराण में इसको शुभ अवसर पर घर बुलाना और देखना बहुत अच्छे कार्य मानते थे| इनका आशीर्वाद और दुआओं पाना शुभ कार्य मानते है| इसलिए वहां उन्हें बुलाया जाता है| यही उनकी आजीविका है रोज़ी रोटी है| रवि रश्मि अनुभूति की ‘हिजड़े’ कविता में कवि कहते हैं-
“हिजड़े समाज का हिस्सा है, उनको भी प्यार करो
कुछ हो जो घर में शुभ तो, उनको भी याद करो
उनकी दुआओं से होते है शुभ,कई कार्य भी
आशीर्वाद और दुआओं केली, उनकी भी पुकार करो”
लोगों के मन में ऐसा विश्वास है उनके आशीर्वाद से सब ठीक हो जाएगा | ये लोग दूसरों के जन्म से खुशी मानते समय खुद के जन्म पर अकेले आंसू बहाने में विवश है| यह हम लोग समझते नहीं |
सत्या शर्मा कीर्ति के ‘सुनो न माँ’ कविता में एक हिजड़े बालक की मानसिक स्थिति को चित्रित किया है| वह भी हर मानव के तरह अपने माँ के कोख से जन्म लेते है| हिजड़े के रूप में जन्म लेने से उसका कोई कसूर नहीं है|
“दिया तो था तुमने ही जन्म मुझे
फिर दोष लोग मुझमें क्यों ढूंढ रहे माँ ”
हम तो सुना है एक माँ ही अपने बच्चे की ह्रदय वेदना को अच्छी तरह समझती है| एक हिजड़े बालक को समाज तिरस्कार पूर्ण भाव से देखते हैं | यह एक माँ तो जानती है| लेकिन समाज की डर के कारण वो अपने बच्चे के साथ नहीं होते | फिर भी में तुम्हारी नमन करती हूँ क्योंकि तूने ही मुझे जन्म दिया है| ऐसा विचार है एक किन्नर बच्चे के मन में|
पूजा बंसल ने ‘किन्नर व्यथा’ कविता में एक किन्नर बालक की व्यथा को यों चित्रित किया है-
“ईश्वर की लीला ने जाने, क्यूं पक्षपात किया
नारी नर से अलग जात का क्यूं निर्माण किया
गुनाह बताओ उस बच्चे का ,उसने क्या अपराध किया”
जिस परिवार में उनका जन्म होता है वहां से लेकर समाज के अन्य हिस्सों में थर्ड जेन्डर लोगों को सिर्फ उपेक्षा और तिरस्कार के अतिरिक्त कुछ ओर नसीब नहीं होता
चंद्रधर शुक्ल की ‘किन्नर एक : रूप अनेक’ कविता में किन्नरों के जीवन संघर्ष का चित्रण है|
“उसका क्या दोष
विधाता ने
उसे किन्नर बनाया”
हिजड़े स्वयं अपने आपको अर्धनारीश्वर भगवान शिव के अवतार मानते है| सत्या शर्मा कीर्ति की ‘अर्धनारीश्वर’ कविता में दृष्टव्य है –
“कौन हूं मैं
क्या अस्तित्व है मेरा
हूं ईश्वर की भूल या
रहस्यमयी प्रकृति का प्रतिफल …. “
जब कोई विकलांग को किसी एक अंग की कमी के कारण अपने घर से या समाज से दूर रखते नहीं | अपने ही घर में चिकित्सा देते हैं, उनकी देखभाल करते है| तब लैंगिक विकलांगता से ग्रस्त व्यक्ति को क्यों उपेक्षित किया जाता है? इन्हें भी अन्य विकलांगों की तरह समाज में सामान्य रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए| उन्हें भी आरक्षण देना चाहिए|
मानव समाज तथा कथित चरम विकास के युग में प्रवेश कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है, किन्तु किन्नर वर्ग अब भी मुख्य धारा के लोगों के साथ नहीं जुड़ा सका है, इसका कारण तो अनेक है| डॉ शैलेष गुप्त वीर के ‘दस क्षणिकाएं’ कविता में व्यक्त किया है|
“लैंगिक- विकृतियों का
उपहास मत उड़ाओ,
उन्हें मुख्यधारा में लाओ”
किन्नर समुदाय को भारत में ‘तृतीय लिंग’ या ‘थेड़ जेंडर’ के रूप में हाल ही में मान्यता प्राप्त हुए थे| लेकिन अभी भी समाज में थेड़ जेंडरों के दशा में कोई परिवर्तन नहीं आया है| वे आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर पिछड़े हुए हैं| इन्हें अब भी हीन और तिरस्कृत नजर से देखा जा रहा है| डॉ विष्णुकांत अशोक ने ‘तृतीय लिंग’ कविता में इसका उल्लेख किया है|
“यूं तो वे हमारे ही समाज अनचाहे अंग हैं,
हर खुशी में शामिल वे हमारे संग संग हैं
प्रकृति की अजीब विडंबना देखो यारों,
छोड़ दिया जिनको अपनों ने, समाज ने,
हिजड़े नहीं हैं वो,अब तृतीय लिंग हैं”|
किसी व्यक्ति को पुरुष या स्त्री के रूप में पहचानने या परिभाषित कीजाने केलिए
स्पष्ट यौनांगों होना आवश्यक है| इसकेलिए जननांग की अनिमियतता महत्वपूर्ण है,ऐसे मानव
हिजड़े कहे जाते हैं, जो लैंगिक रूप से न नर होते हैं न मादा| आम तौर पर न तो पुरुष और न
ही महिला इसे तृतीय लिंग कहा जाता है|
एक हिजड़े के रूप में जन्म लेने से एक बच्चे का कोई कसूर नहीं है| समाज उसे नफरत की दृष्टि से देखता है| समाज में जीने केलिए उसे बहुत ही यातनाएं सहनी पड़ती है|डॉ कर्मानंद आर्य ‘हिजड़ा होने की धुन’ कविता में उन लोगों की मानसिक संघर्ष अत्यंत मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है|
“मैं दो लिंगों के बीच
उभयलिंगी अमीबा
कोई हम सा
जाने क्यों नहीं होना चाहता खूबसूरत दुनिया में”
सभ्य समाज के लोग पहले इन्हें हिजड़ा कहते थे| हिजड़ों को न तो एक पुरुष और न ही एक स्त्री के रूप में स्वीकारते है| वे दो आत्माओं के बीच उभयलिंगी अमीबा के रूप में है| हिजड़ों को स्त्री – पुरुष से अलग श्रेणी में रखे जाने का विरोध करती है | क्योंकि इस प्रकार की श्रेणी में रखे जाए तो वे अहसास करते है वे समाज से अलग है ,असामान्य हैं|डॉ विजेंद्र प्रताप सिंह की ‘अस्तित्व की पहचान’ कविता में
“अस्तित्व को तरसते रहे,
लड़ते रहे, लड़ते रहे,
तब जाकर खुली इंसाफ की जुबान,
अब मिली हमें भी पहचान
अंकीधान में हम भी है
हैं अब हम नागरिक देश के”
भारतीय समाज के मूल संरचना में दो ही वर्ग है स्त्री और पुरुष| यहां जन्म से ही इस वर्ग का निर्धारण हो जाता है| इसी वर्ग के साथ समाज में एक ओर वर्ग है जिसे समाज थेड़ जेंडर के अंतर्गत रखकर जानता और पहचानता है| यह वर्ग समाज में हमेशा विद्यमान रहा है| लेकिन हमेशा इनकी उपेक्षा की जाती है, इसे हिकारत से देखा गया है| ये लोग न तो स्त्री है , न पुरुष वे इन दोनों के मिश्रण है या द्विलिंगी है| पुरोबी ए भंडारी की कविता ‘मैं द्विलिंगी हूं’ कविता में इनकी पीड़ाओं को चित्रित किया है-
“मैं द्विलिंगी, समाज पृथक
प्रताड़ित, शोषित,तिरस्कृत|
सुविधाओं से वंचित हूँ |
अपमानों से सिंचित हूं |
जनमानस का हंसी पात्र
बिन गिनती, बस जीव मात्र |
आधी मादा, आधा नर”|
हिजड़े की उपस्थिति नाच गाने व ताली बजाने तक ही सुशोभित होता है| जब कोई हिजड़े की मृत्यु हो जाए तो उस शव को रात में श्मशान ले जाता है| फिर इस लाश को जूतों से मारते हैं | ये लोग अपने सामाजिक अधिकार , समानता , सम्मान, सामाजिक न्याय से विचित रहते हैं | सपना मांगलिक की कविता ‘हिजड़े की व्यथा’ कविता में हिजड़े की दुरवस्था का चित्रण किया है-
“है तन अधूरा मन अधूरा, ना कुछ मुझमें पूरा
ताली गाली लगती फिर भी, जलता इससे चूल्हा
जितना श्रापित मेरा जीवन, दुखद अधिक मर जाना
जूते चप्पल मार लाश को, कहते लौट न आना”
क्योंकि इसी शरीर के कारण ही उन्हें अभिशप्त और नरकीय जीवन गुजरना पड़ा| मृत्यु के साथ ही उन्हें अपमानित जीवन से मुक्ति मिलती है|
समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, प्रवासी विमर्श आदि नई-नई विचारधाराओं के साथ साहित्यकार तीसरी सत्ता पर कलम उठाने केलिए बाध्य हो गया है| इसलिए ज्योति शर्मा ने अपनी कविता ‘व्यथा – कथा’ में इस प्रकार कहा है-
“आज आधुनिक समाज में
मेरे विमर्श की बहुत मांग है
ये बात नहीं दुर्लभ हूं मैं
परंतु समाज से ठुकराया
एक अभिव्यक्त प्राणी रहा हूं मैं”|
शिक्षा के अभाव में किसी भी व्यक्ति और समाज का सशक्तीकरण संभव नहीं है| संगीता सिंह भावन की ‘मेरे हमदम’ कविता में इस प्रकार बताती है-
“पढ़ लिखकर भी बना हुआ हूँ बेब्स और लाचार
लैंगिक विकलांगता,
क्यों बना इतना बड़ा अभिशाप॥
हूँ हुनरमंद में भी आम जन की तरह पर
सामाजिक- आर्थिक असुरक्षा से,
बन बैठा हूँ बेब्स और बेरोजगार”
हिजड़ों की बेरोजगारी में उनका अशिक्षित होना भी एक कारण है| हिजड़ों की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है समाज में और अंत में हिजड़ों को अपने स्तर पर ही काम देखकर जिंदा रहना पड़ता है|
समाज में हिजड़ा समुदाय की स्थिति अत्यंत दयनीय है| वे लोग समाज और सरकार द्वारा उपेक्षित है| आगे कवि विजेंद्र प्रताप सिंह कहते है-
“थेड़ जेंडर
यही होगा अब हमारा
वोटर कार्ड, राशन कार्ड और नेम प्लेट पर
स्थायी अस्तित्व और नाम,
अब तृतीय लिंगी है हमारी पहचान,
अब मिली है हमको भी पहचान”
थेड़ जेंडर को समाज में स्थान नहीं मिल रहा है| वे हमेशा केलिए हाशीयाकृत और तिरस्कृत है | समाज और सरकार से यह समुदाय उपेक्षित है| आधार कार्ड में उनकी उपस्थिति दर्ज करने का निर्णय भारत सरकार ने हाल ही में किया है| अभी तक उनका अस्तित्व स्थापित नहीं हुआ है|
अविनाश मिश्र की ‘किन्नर भी इंसान हैं ‘ कविता में इस प्रकार कहते हैं
“किन्नर भी इंसान है
हम सबको समान हैं
हीन भावना क्यों रखते हो,
ऊंच – नीच क्यों कहते हो,
अपने से अलग क्यों करते हो
अत्याचार क्यों करते हो,
हम जैसी ही पहचान है
किन्नर नहीं इंसान है”
यहां किन्नरों की मानसिकता को व्यक्त किया है|
इक्कीसवीं सदी में हमारा देश विकास की ओर जा रहा है वहीं दलितों, आदिवासियों और किन्नरों को समाज में आज भी त्रासदीपूर्ण जीवन जीने केलिए विवश है| इन विवशताओं के बीच हमारे देश में शबनम मौसी नामक किन्नर ने विधायक बनी| यह बहुत महत्वपूर्ण बात है| उसी प्रकार जोइला मंडल ने पहली ट्रांसजेंडर जज बनी| इस प्रकार पिछले कुछ वर्षों में किन्नर समाज के मुख्यधारा में लाने कलिए कुछ प्रयास किए जा रहे हैं| पहली बार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविधालय, नई दिल्ली ने किन्नर विधयार्थियों को प्रवेश की व्यवस्था की है| आज कल हमारे कॉलेजों और विश्वविध्यालयों में प्रवेश फॉमोम में स्त्री और पुरुष के अलावा एक तीसरा कॉलम थेड़ जेंडरों केलिए बनाया है| इसी प्रकार केरल के कोच्ची मेट्रो में 23 ट्रंसजेंडरों को नियुक्ति मिली है| यह देश की पहली मेट्रो सेवा है जिसमें ट्रंसजेंडरों को रोजगार दिया गया है| इस प्रकार हिजड़ों के प्रति समाज का दृष्टिकोण जल्द ही बदल जाएगी | उन्हें समाज के मुख्यधारा में स्थान एवं प्रतिष्टा मिल जाएंगे|
तीसरे जेंडर की उपस्थिति यदि धरती पर है तो उसके जीवन को भी हमें जानना- पढ़ना चाहिए| उसकेलिए समाज में जगह होनी चाहिए| उसके पास बुद्दि है, सोच समझ है दया, मोह, ममता, मैत्री, करुणा, सौहार्द जैसे उत्तम मानवीय गुण है| यदि हम इन गुणों को पहचान सकें तो बहुत संभव है कि उनके व्यवहार में जो असंतुलन दिखाई देता है हाव – भाव, बोल- चाल में जैसी हास्यास्पद चेष्टायएं दिखाई देती हैं वे ना मिलें| भारत के विभिन्न प्रांतों में किन्नरों की स्थिति, संस्कृति और उनसे जुड़ी परम्पराएं अलग – अलग है| उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना और उनके प्रति समाज में सद्भावना लाना वर्तमान समय की बहुत बड़ी चुनौती है|
Dr. Seena Kurian
Assistant Professor
St. Michael`s College, Cherthala
Kerala