37. समकालीन साहित्य में नारी विमर्श – अनीता कुमारी
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समकालीन साहित्य में नारी विमर्श – अनीता कुमारी
समय-समय पर स्त्री-पुरूष सम्बधों और उनकी सामाजिक भूमिकाओं में परिवर्तन आता रहा है। मध्यकाल की नारी के अधिकार विहीन जीवन में ब्रिटिश राज्य के प्रभाव के साथ व्यापक स्तर पर तेजी से परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ था और आधुनिक काल या नवजागरण में नर-नारी के संबंधों और भूमिकाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन की सूचनाएँ मिलने लगी थी। स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशव चन्द्र सेन, एनी बेसेन्ट, महात्मा गाँधी जैसे समाजसुधारकों तथा थियोसांफिकल सोसाइटी एवं प्रार्थना समाज जैसी संस्थाओं के माध्यम से नारी के प्रति शोषण, अन्याय असमानता और अनेक कुप्रथाओं को समाप्त करने की उल्लेखनीय कोशिशे हुई। नारी के सामाजिक, आर्थिक, स्तर में आये अनेक परिवर्तनों के मूल में राजनीतिक घटनाओं का भी योगदान रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में प्रत्येक स्तर पर नवीन उन्मेष की संभावनाएँ देखने के कारण नारी के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तनों की सुखद शुरूआत का अपना अलग महत्व है।
आधुनिक नारी को वर्तमान स्थितियों तक पहुँचाने में एक तरफ जहाँ शिक्षा के प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण योगदान रहा, वहीं दूसरी ओर संविधान द्वारा दिए अधिकारो और संस्कारों के द्वारा निर्मित विधि कानूनी उपलब्धों की भी विशेष भूमिका रही। शिक्षा के प्रसार के कारण आधुनिक नारी को आत्म निर्भर और स्वतंत्र जीवन जीने योग्य हो सकने में मदद मिली, आजादी से पहले भी यद्यपि नारी को समान अधिकारों के प्रति सजग और आश्वस्त करने के अनेक प्रयत्न हुए, किन्तु आजाद भारत में सरकार द्वारा गए संवैद्यानिक कदमों के कारण नारी की स्थितियों में अपेक्षाकृत अधिक तीव्रता व्यापकता और साचकिता के साथ बदलाव आता दिखाई दिया। समय-समय पर नारी के जीवन स्तर को सुधारने, उसे आत्मसम्मान के साथ स्वावलम्बी जीवन जीने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए अचित और आवश्यक कदम उठाकर सरकारों ने नारी की दशा सुधारने में पर्याप्त योग दिया।
नारी जागृति के लिए अनेक संगठनों ने कार्य किया। उनमें केन्द्रिय समाज कल्याण राज्य के सामुदायिक विकास विभागों में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। शहरी और ग्रामीण स्त्रियों की स्थितियों में सुधार लाने के लिए भारतीय ग्रामीण विकास संघ, कस्तुरबा स्मारक निधि, राष्ट्रीय बाल कल्याण परिषद्, अखिल भारतीय प्रौढ़ शिक्षा समिति ने प्रमुख भूमिका निभायी।
आजादी के बाद पुरूषों की समानता करने की दौड़ में नारी ने अपने कदम घर के चारदिवारी से बाहर निकलने का साहसिक और उल्लेखनीय प्रयत्न किया। शिक्षा के प्रसार, वैज्ञानिक प्रगति, नगरीकरण और औद्योगिकरण के फलस्वरूप स्त्रियों की अथजिनि की दिशाएँ दिखाई दी। इसी कारण आजादी के बाद नारी अपनी अस्मिता के प्रति अधिक सर्तक दोहरी भूमिका निभाने के लिए प्रस्तुत दिखाई दी। दूसरी और परिवार के आर्थिक सामाजिक स्तर को उठाने के लिए निरन्तर संघर्ष के साथ पथ पर बढ़ती दिखाई दी। अपने परिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए श्रम को माध्यम बनाकर अथाजिनि में लगी नारियों का यह वर्ग कामकाजी महिलाओं के लिए पुकारा गया। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि घर तथा घर के साथ बाहर का काम करने मात्र से नारी काम-काजी नही हो जाती, कामकाजी होने के लिए यह आवश्यक है कि उसका कार्य पति अथवा परिवारों के सदस्यों से पृथक और मान्यता प्राप्त तथा उसे अपने श्रम का स्वतंत्र रूप से प्रतिदान मिले।
सर्वप्रथम, शिक्षा का प्रसाद के कारण तथा आर्थिक दबाब और फिर विवाह में विलम्ब जैसी व्यवहारिक परिस्थितियों में उदार हो जाने के मिले-जुले प्रभाव से 1990 तक आते-जाते सारी वर्जनाएँ टूट चुकी थी। समकालीन हिन्दी साहित्य के रचनाओं में नारी के जीवन में आये इस बदलाव को भली-भाँति देखा, समझा और कामकाजी महिलाओं की जिन्दगी एवं उनकी समस्याओं को अपनी रचनात्मकता का आधार बनाया।
आपका बंटी, एक इंच मुस्कान, सीपी भर प्यास, डाक बंगला, पीली आँधी, आवां आदि रचनाओं में शिक्षित बुद्धिजीवी महिलाओं के कामकाजी जीवन का अध्ययन और विश्लेषण किया है। इन रचनाओं में श्रमजीवी महिलाओं की समस्याओं से किंचित भिन्न स्तर पर बुद्धिजीवी एवं कामकाजी महिलाओं के सम्मुख जहाँ अर्थभाव, उच्च शिक्षा, कार्यालय का परिवेश, घर और दफ्तर के बीच की परेशानियाँ तथा यौन शोषण का आतंक जैसी वाहृय समस्याएँ एक चुनौती बनकर प्रस्तुत हुई है। वहीं आंतरिक स्तर पर कामकाजी एवं बुद्धिजीवि महिलाएँ पुरूष प्रधान मानसिकता, दाम्पत्य और माहत्व से जुड़ी उलझनों और अविवाहित जीवन के कटु तत्वों से आतंरिक समस्याओं के रूप में जुझती दिखाई गयी हैं।
संसार भर में भारत में भी, नारी विमर्श का प्रादुभवि स्त्रियों से जुड़ी चिन्ताओं और समस्याओं की अभिव्यक्ति के प्रयासों की देन है। इसे स्वीकार कर लेने में कोई असुविधा नही कि विश्वभर में नारियों की संवेदनाएँ समान्तर ही है। इसका कारण है कि किसी एक काल या समय में अधिकतर विचार और विषय लगभग वही होते है। क्योंकि विचार, सोच और अनुभव किसी विशेष व्यक्ति पर नही होते। सदियों से हो रहे शोषण और दमन के प्रति संवेदनाओं ने ही नारी विमर्श को जन्म दिया। नारी के व्यक्तित्व और अस्मिता की पहचान ने नारी संघर्ष के आन्दोलन का रूप लिया, जिसे नारी का निष्पक्ष न्याय मिल सके तथा समाज में व्याप्त लिंग-भेद को समाप्त करने के लिए एक स्वस्थ्य दृष्टिकोण का विकास हो सके। इसके साथ ही नारी अपने आसपास के परिवेश, संस्कारों, मूल्यों, और मानसिकता को बदलने में भी सफल हो सके। नारी विमर्श में नारी की आत्म-चेतना, आत्म सम्मान, आत्म गौरव, समानधिकारों की पहल को प्राथमिकता दी जाती है। नर और नारी की मानसिकता उसकी शारीरिक संरचना विशेष के कारण ही नर भिन्न नहीं है। सामाजिक परिवेश, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत परिस्थितियाँ संस्कार और मूल्य सब मिलकर नारी मानसिकता की निहित करते हैं।
डॉ. करुणा उमरे के अनुसार -’’स्त्री का सारा अस्तित्व एक रथचक्र के समान है। इसके व्यवहारिक जीवन में वे सारी स्थितियाँ अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है, जो समाज के लिए आवश्यक बन गयी है।’’
स्त्री-विमर्श का मूल स्वर प्रतिगोधात्मक नही, यह नारी की मुक्ति, समानता, न्याय, स्वावलम्बन और अस्मिता का ही स्वर है। स्त्री-विमर्श उन पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरोध का दर्शन है जो नारी शोषण के हिमायत है। आज के स्त्री के बारे में प्रभा खेतान लिखती है – ’’आज स्त्री ने सदियों की खामोशी तोड़ी है। उसकी नियति में बदलाव आया है, उसके व्यक्तिगत जीवन का उद्देश्य, दग्नि उसका मन-मिजाज सभी तो बदल रहा है।’’ मानवता के विकास क्रम में नारी अधिक मानवीय है। और मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास क्रम में उसका पुरूष से ऊँचा कहा गया है। पुरूष से प्रकृति ने शारीरिक बल अधिक दिया है तो स्त्री को दृढ़ता और शारीरिक सौदर्य अधिक। पुरूष संसार में जोश और साहस भरने के लिए बना है तो स्त्री, धैर्य और चरित्र सिखाने के लिए करूणा और प्रेम दर्शाने के लिए। दानों की भिन्न प्रकृति से ही परस्पर पुरकता और जीवन की पूर्णता सम्भव है। पुरूष विकास क्रम में नारी से पिछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास तक पहुचेगा वह स्त्री हो जाएगा। स्त्रीयोचित गुणों तथा वात्सल्य, स्नेह, दया, कोमलता पर सारी सृष्टि टिकी है।
महादेवी वर्मा ने लिखा है – ’’पुरूष समाज का न्याय है, स्त्री दया, पुरूष प्रतिशोधात्मक क्रोध है, स्त्री क्षमा, पुरूष शुष्क कर्तव्य है तो स्त्री सरस सहानुभूति और पुरूष बल है तो स्त्री हृदय की प्रेरणा।’’
स्त्री-विमर्श के संदर्भ में समग्रता से विचार करने पर अनेक समस्याएँ सामने आती है, जैसे – बाल विवाह, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, अस्मिता, स्वतंत्रता, समानता, मुक्ति और अधिकारों के संदर्भ में एकजुटता दिखाई देती है। साहित्य के क्षेत्र में महिलाओं का पदार्पण एक अलग उद्देश्य से हुआ। लेखन के माध्यम से नारी अस्मिता की खोज उनका मुख्य ध्येय रहा है। नवजागरण एवं स्वाधीनता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली नारी अब लेखन में अपनी अस्मिता खोजने लगी। इतना सब कुछ परिवर्तन नारी विमर्श के कारण हुई है।
20 वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध नारी-उत्थान का प्रतीत रहा है। जहाँ पर राजनीतिक क्षेत्र में तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में स्त्री समाज को आगे बढ़ता देखा गया है। साहित्यकारों ने स्त्रियों की सामाजिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया है। उन्नीसवी शताब्दी से ही नारी विमर्श का प्रयास प्रारम्भ हुए। इस नए दौर में आधुनिकता की नई लहर समुचे देश में आई। इस नए सामाजिक वातावरण में भारतीय स्त्रियाँ आशा के साथ सामने आई। स्त्रियों के प्रति उपेक्षा से ओत-प्रोत भारतीय समाज की असंगतियों को तत्कालीन हिन्दी साहित्य में नई दृष्टि से परखा जाने लगा। भारतेन्दु ने इसी कारण स्त्री शिक्षा का समर्थन किया और बाल-विवाह का विरोध किया। इन नए विचारों के अधीन भारतेन्दु ने ’नीलदेवी’ नाटक की प्रस्तवना में लिखा है -जब मुझे अंग्रेजी रमणी लोग भेदसिंचित केशराशी, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्या रत्नाभरण और विविध वर्ण से क्षीण कटिदेश के जिन-जिन पटिगण के साथ प्रसन्न बदन इधर से उधर फरफर कल की पुतली की भांति फिरती दिखलाई पड़ती है, तब इस देश की सीधी-सीधी स्त्रियों को हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होता है।’’
इन्हीं पंक्तियों द्वारा भारतेन्द्र हरिशचन्द्र ने ’मातृ भंगिनी रखी तुल्या आर्य ललनागण’ को सम्बोधित किया था। यह सम्बोधन अपने समय की स्त्रियों के बारे में उनकी जागरूकता और संकल्पना की सूचना देता है। जब देश में नारी-विमर्श का विजारोपण भी नही हुआ था, तब ’नीलदेवी नाटक’ की यह प्रस्तावना हिन्दी में आधुनिक साहित्य और चिन्तन क ेजनक भारतेन्दु हरिशचन्द्र की नारी सम्बन्धी नई सोच की सूचना देती है। विधवा-विवाह, अनमेल विवाह, बहुविवाह का खुलकर विरोध किया। इन कुप्रयोओं के खिलाफ उन्होने बार-बार आवाज उठायी है। भारतेन्दु देश की समाज की उन्नति के लिए स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे।
डॉ. रामविलाष शर्मा के अनुसार – ’’हर क्षेत्र में पुरूषों की तरह स्त्रियांे के भाग लेने पर उन्हें आपत्ति न थी। स्त्रियों के पिछड़ेपन और निरक्षरता से आधा समाज ही पिछड़ा हुआ है और निरक्षर रहता है। इसलिए पुरे समाज के विकास के लिए भारतेन्दु शिक्षा और समान्ता का दावा करते थे।’’ साहित्य के क्षेत्र में महिलाओं का पदार्पण एक अलग उद्देश्य से हुआ है- लेखन के माध्यम से नारी-अस्मिता की खोज उनका मुख्य ध्येय रहा है। नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिा अदा करने वाली नारी अब लेखन में अपनी अस्मिता को खोजने लगी। इतना सब कुछ परिवर्तन नारी-विमर्श के कारण हुआ।
बीसवीं शताब्दी के पूवद्धि में नारी-उत्थान का प्रतीक रहा है। जहाँ पर राजनीतिक क्षेत्र में तथा सामाजिक क्षेत्र एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में स्त्री समाज को आगे बढ़ता देखा गया है। साहित्यकारों ने स्त्रियों की सामाजिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया है। इनमें प्रेमचन्द्र ने अपनी लेखनी द्वारा स्त्री-स्वातन्त्र्य की बात की। जयशंकर प्रसाद ने नारी को श्रद्धा के शिखर पर आसीन करते हुए कहा – ’’नारी तुम केवल श्रद्धा हो।’’ आजादी के बाद सामाजिक एवं आर्थिक रूप से स्वतंत्र तथा शिक्षा का सम्बल पाकर भारतीय नारी अपने पैरों पर खड़ी हुई। पुराने रूढ़ियों को उसने दूर फेंक दिया किन्तु स्वतंत्र रूप से अभी उसके नारी देह से जुड़े अभिशाप के सिलसिले थामे नहीं है। इस दौरान हिन्दी साहित्य में विभिन्न विधाओं में नारी की उपस्थिति और हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं को नारियों के अवदान पर पयप्ति अनुसंधान हुए है। लेकिन हिन्दी में विकसित नारी-विमर्श की विचारधारा और तत्संबंधी साहित्य सृजन का समुचित अनुशीलन अब तक नही हुआ है। स्त्री सरोकार (आशा रानी व्होरा), स्त्री का समय (क्षमा शर्मा) उपनिवेश में स्त्री (प्रभा खेतान) अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य (राजेन्द्र यादव) औरत होवे की सजा (अरविंद जैन), ओ उम्बी री (मृणाल पाण्डे), आदमी की निगाह में औरत (राजेन्द्र यादव) अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं में नारी विशेषाकों में नारी-विमर्श फैला हुआ है। नारी कलाकारों की आत्मकथाओं, आत्मकाव्यों, साक्षात्कारों से भी नारी-विमर्श को विस्तार मिला है।
हम आश्वस्त हो सकते है कि एक ऐसी पीढ़ी का उदय हो रहा है जो पूर्व धारणाओं को उखाड़ फेंकना चाहती है। टूटते जीवन-मूल्यों एवं बिखरती नैतिकता के बीच वे आत्मनिर्भर एवं आत्मसम्मान से रहकर अपने अस्तित्व को बनाये रखना चाहता है। ऐसा नारी-विमर्श की सैद्धान्तिक और सर्जनात्मक उपलब्धियों के कारण हुआ हैं।
सन्दर्भ ग्रंथ की सूची
1. डॉ. प्रतिमा पाठक, समकालीन हिन्दी उपन्यास की आधुनिकता, पृ0सं0 – 50.
2. हंस, जनवरी 2005 पृ0सं0 – 14
3. प्रभा खेतान, उपनिवेश में स्त्री, पू0सं0 – 53
4. महादेवी वर्मा, श्रंखला की कड़िया, पृ0सं0 – 15.
5. डॉ. करूणा उमरे, स्त्री विमर्श-साहित्य और अवहारिक विमर्श, पृ0सं0 – 86.
6. डॉ. कुमुद शर्मा, स्त्री घोष, पृ0सं0 – 135.
7. हेमंत शर्मा, (सं.) भारतेन्दु समग्र, पृ0सं0 – 478.
8. रामविलाश शर्मा, पृ0सं0 – 46.
9. जयशंकर प्रसाद, कामायनी, पृ0सं0 – 18.
अनीता कुमारी
शोधार्थी (जे.आर.एफ)
राँची विश्वविद्यालय राँची।