May 10, 2023

114. डॉ शंकर शेष के नाटकों में मुखरित स्त्री स्वर – डॉं नादिया सी राज

By Gina Journal

Page No.: 797-807

डॉ शंकर शेष के नाटकों में मुखरित स्त्री स्वर

डॉं नादिया सी राज

  शोध-सार

         डॉ शंकर शेष के साहित्य में हमारे सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का चित्रण अपननी संपूर्ण ऊष्मा के साथ हुआ है၊ एक सफल नाटककार के रूप में हिंदी साहित्य में उन्होंने अपना पहचान बनाया है ၊ समकालीन जीवन सत्यों का उद्घाटन उनके रचनाओं की विशेषता है၊ अपने नाटकों में उन्होंने नारी जीवन को नया मोड़ देने की कोशिश की है ၊ पुरुष सत्तात्मक परिवार के घुटन से  खुद संघर्ष करके आगे बढ़ती कई नारी पात्र उनके नाटक में दिखाई देती है ၊ उन्होंने नारी पात्रों के चरित्रांकन में नारी के व्यक्तित्व के विविध आयामों का स्पर्श किया है၊ ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों में उनके नारी पात्र तद्युगीन भाव सत्य को रूपायित करते हुए भी आधुनिक युग बोध से अनायास ही जुड़ जाते हैं ၊ उनके अधिकांश नाटकों में पुरुष पात्रों की अपेक्षा नारी पात्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण लक्षित होते हैं ၊ प्रस्तुत शोध पत्र में विशेष रूप से इस तथ्य को रेखांकित किया गया है कि डॉ शंकर शेष ने अपने नाटकों के नारी पात्रों द्वारा जनमानस में स्त्री के प्रति जागरूकता लाने का अथक प्रयास किया है और वे चाहते हैं कि भारतीय नारी अपनी शक्ति को पहचान कर अपनी स्थिति को ऊंचा उठाने का प्रयास करे और युगानुसार संस्कारों में परिवर्तन करे ၊

मूल आलेख

युगो युगो से महिलाएं उत्पीड़न और शोषण के शिकार होती आ रही है ၊आज महिलाएं आबादी का आधा हिस्सा है फिर भी वह समाज में सबसे ज्यादा पीड़ित  है၊ आजकल स्त्री शाक्तीकरण के लिए ढेर सारे कार्यक्रमों का आयोजन हो रहे हैं फिर भी बताना पड़ेगा कि महिलाओं की दयनीय स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है၊ नारी शिक्षा का महत्व मानकर उसे उच्च शिक्षा करने के लिए अवसर दिया गया၊ 80% से भी अधिक लड़कियां उच्च शिक्षा पा रही है फिर भी इस तथ्य को मानना पड़ता है कि स्वरोजगार से अपनी जिंदगी चलाने वाली औरतें बहुत कम ही है ၊ आज भी अधिकांश महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे सार्वजनिक स्थल हो या कार्यस्थल या फिर परिवार हो  असुरक्षित जीवन जी रही है ၊ उनकी स्थिति में अभी काफी सुधार की जरूरत है၊ इसलिए नारी और उनके जीवन के बारे में चर्चा करना हमेशा महत्वपूर्ण दीख पड़ता है၊

साहित्य हमेशा मानव जीवन से जुड़ा रहता है और साहित्य के आईने में मानव जीवन का ही प्रतिबिंब पड़ता है၊ निश्चय ही हिंदी साहित्य पर भी नारी जीवन का प्रतिबिंब पड़ा है၊ इसलिए नारी जीवन का विश्लेषण साहित्य के जरिए और भी आसान हो जाता है၊ चूँकि नाटक मनुष्य की हृदयगत अभिव्यक्ति के सशक्त और प्रभावपूर्ण माध्यम है उसके जरिए साहित्यकार सामाजिक पुनरुत्थान की चेतना को जगाता रहता है၊ डॉ शंकर शेष के नाटकों के अध्ययन से पता चलता है कि उनकी सामाजिक दृष्टि अत्यंत व्यापक, सजग और सतर्क रही है၊ अतः वे निश्चय ही समकालीन हिंदी नाटककारों र्में शीर्षस्थ स्थान के अधिकारी है၊ समाज में व्याप्त विषमता, किसानों, मजदूरों, नारियों, निम्न-मध्यवर्ग और निम्न जातियों के लोगों के प्रति भयावह दमन और शोषण डॉ. शंकर शेष संघर्ष के नाटकों के मूल विषय रहा है၊ उनका उद्देश्य केवल इन जीवन सत्य का उद्घाटन करना ही नहीं रहा बल्कि उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से समस्याओं का समाधान करने का सफल प्रयास भी किया၊l

नियति से लडनेवाली चैती

पोस्टर के प्रमुख पात्र चैती द्वारा शंकर शेष ने मज़दूरों के विडंबनापूर्ण जिंदगी का परिचय दिया है। अशिक्षित चेती द्वारा उसके मैके से गलती से क्रांतिकारी शक्तियों का आह्वान पत्र लाया था। वह अत्याचारों को सहते-सहते धीरे-धीरे परिवर्तन और क्रांति को समझी है । वह अशिक्षित आदिवासियों को भी पोस्टर की शक्ति का अहसास कराती है । चैती सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन की अनिवार्यता का विचार करता है। उसका विश्वास है कि गाँव के मज़दूरों के लिए एक नयी व्यवस्था उपेक्षित है जिसमें वे खुले आसमान के नीचे आ जाये। डॉ. शंकर शेष ने परोक्ष रूप से व्यवस्था से लड़ने वाली चेती का चित्रण किया है ।

संघर्षशील गृहिणी ललिता

‘मूर्तिकार’ नाटक की नायिका ललिता दयाशील, क्षमाशील और संघर्षशील गृहिणी है। मध्यवर्गीय संघर्ष भरित परिवार का विसंगत यथार्थ ललिता नामकः पात्र के द्वारा अभिव्यक्त होता है। वह बड़ी कुशलता और सहनशीलता के साथ आदर्शवादी शेखर की गृहस्थी चलाती है। शेखर एक आत्मकेंद्रित और अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त पति का प्रतिरूप दिखाई देता है। लेकिन यह उदासीनता एक कलाकार को मिली निरंतर सामाजिक उपेक्षा और अभाव से उपजी हुई है। उसकी इस विवशता ललिता भी महसूस करती है၊लेकिन वह शेखर का ध्यान संस्कार की आवश्यक वस्तुओं की ओर आकर्षित करती है।

“ललिताः अमर बनने के लिए क्या कुछ दिन जीना जरूरी नहीं है। घर में तो दाना नहीं है। क्या मिच्ठी के ढेले खाकर मूर्तियाँ बनाओगे ?

ललिता ; मूर्तिकार, ..फिर तुम केवल चित्रकार या मूर्तिकार ही नहीं हो, तुम एक गृहस्थ भी तो हो, तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारी जवान अविवाहित बहन है, इसके साथ रोज-रोज की ज़रूरतें है. 1

ललिता वह प्रतिमा है जो त्याग की मिट्टी और आँसुओं के पानी से बनी हो। लेकिन वह संघर्षशील भी है। वह अपने पति को समझाती है कि झूठे आदर्शों से पेट की पूजा नहीं होती। उससे अपने पति की तकलीफों को नहीं देखी जाती । वह अपने लिए नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए अपने पति की उदासीनता पर आवाज़ उठाती है। शेखर के जीवन में जंगली चिडिया की तरह ललिता बैठी है ।

जब मुंशीजी किराया वसूल करने के लिए आता है तब ललिता से अश्लील बाते करता है तो वह पूरा हाथ उठाकर उसके गाल पर जोरों का एक चांटा मारती है। जमाने की पापी आँखों से खिद को बताने में भी उसको खुद संघर्ष करना पड़ता है । ललिता में आदर्श भारतीय पत्नी का सशक्त रूप दिखाई देता है ।

“ललिता :……नीच ! तू मुझे पैसे से खरीदना चाहता है। तू हमारी गरीबी का फायदा उठाना चाहता है……तो जा अपने मालिक से कह दे, ..कि दुनिया भर का पूरा सोना इक्ट्ठा करके भी ललिता के नख को नहीं छुआ जा सकता၊

जा, अपने सेठ को भेज दो ।उसके गालों पर भी पाँचों उंगलियों के नश्न बनाकर उसके पापों का इतिहास न लिख दिया, तो मेरा नाम ललिता नहीं 2

ललिता में समाज की स्वच्छन्द एवं उच्छृंखल काम वासना के प्रति आक्रोश की भावना विद्यमान है ।

त्याग की प्रतिमूर्ति इला

डॉ. शंकर शेष ने ‘रत्नगर्भा’ नाटक की इला का अंकन समग्र भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से किया है । वह अपने पति और परिवार के लिए अपनी जीवन अर्पित करती दिखायी देती है ।

इला और सुनील एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार की पति-पत्नी है । इला अत्यंत रूपसी और शिक्षित नारी है। उसमें प्रेम, सौदर्य, आस्था विश्वास, त्याग जैसे शाश्वत मानवीय गुणों का विविधतापूर्व चित्र देख सकते हैं। इला की बहन माया भी बिलकुल वैसी ही है। माया वास्तव में नारी की शाक्तिक रूप है। वह स्पष्ट वक्ता, निडर और संकटों से लड़नेवाली युवति है । वह जीवन से लड लड़कर ही आगे चलती है। अपनी भोली-भाली बहन इला को धोखेबाज और कामाध पति सुनील से वह रक्षा करती है। माया ही सुनील को नैतिकता का पाठ पढाता है । “सुनील उसकी संकल्प शक्ति के सामने बैनो बो जाता है । सुनील को सूचीभेद्य अंधकार पथ से जगमगाते प्रकाश पथ पर लाने के लिए ही डॉ शेष ने इस चरित्र की सृष्टि की है ।”3 गौण पात्र होते हुए भी माया का चरित्र अत्यंत मूल्यवान है ।

इला त्याग की प्रतिमूर्ति है। वह अपने पति के लिए यह जानते हुए भी प्राण त्याग करे के लिए तैयार हो जाती है कि वह उसके साथ धोखा किया है। वह संस्कार और स्वभाव से भारतीय नारी साबित हुई है। जहाँ सुनील समाज के सामने निहत्थी साबित होता है। उसके सामने धन ही सबकुछ है। वह विलास जीवन तत्परता और नाम कमाने की आसक्ति से वह अपनी सती, साध्वी और पतिव्रता पत्नी इला को विष देने के लिए तैयार हो जाता है। इस षड्यंत्र के पीछे उसके स्वार्थी मित्र वकील जगदीश का ही हाथ था। जगदीश ने ही सुनील को बुरे रस्ते पर लेकर बर्बाद किया था। सुनील कुछ बोलता नहीं। सिर झुकाये खड़ा रहता है । उसके चेहरे पर आत्मग्लानी का भाव है…इला उसके मौन का अर्थ समझ लेती है ।’ 4पति को परमेश्वर माननेवाली आधुनिक सती सावित्री इला अपने झूठे पति को माफ करती है।

इला समर्पण और त्याग की साक्षात् प्रतिमा है और सुनीन के अंधकारपूर्ण हृदय में समर्पण की भावना जागृत कर उसके लिये सच्चे सुख की प्राप्ति का पथ प्रशस्त करती है । वह पति को छल छद्मों से दूर कर सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा से अनुप्राणित करती दिखायी देता है ।

बहुमुखी प्रतिभाशाली भारतीय नारी विशाखा

विशाखा बहुमुखी प्रतिभाशाली लेकिन दृष्टिहीन उपन्यास लेखिका है । उसकी शादी तीसरी दर्जे की मंचीय कवि शिवराज के साथ होता है। शिवराज अपनी अंधी पत्नी विशाखा के उपन्यास अपने नाम से छपवाकर यश और अर्थ- पिपासा पूरी करता है । लेकिन विशाखा पति द्वारा उपेक्षित और अपमानित होकर भी पति में ही पूर्ण विश्वास करती है। जो भी हो जाय पति की उपेक्षा न करना मध्य वर्गीय स्त्री का एक गुण है ।

ससुराल के अलावा मध्यवर्गीय स्त्री का और कोई जगह नहीं होता है । विशाखा की भी यही सोच है इसलिए वह शिवराज के सारे करतूतों को जानकर भी वह उसकी घृणा नहीं करती है । वह शिवराज का अस्तित्व अपना ही अस्तित्व समझती है ।

“विशाखा :………….अब तक संसार को मैं ने जिस दृष्टिकोण से देखा, जैसा लगता है वह गलत था । सचमुच इस घटना ने मुझमें नये साहित्यकार की सृष्टि की है। अब मैं जीवन को अधिक असली रूप में अंकित कर सकूँगी। पर केवल तुम्हारे सहारे । मैं सब कुछ भूल गयी हूँ, शिव! तु मुझ अधी से प्यार कर सके तो क्या मैं तुम्हारा एक अपराध भी क्षमा नहीं कर सकती ? शिव अब मेरा नया साहित्यकार तुम्हारे ही माध्यम से इस संसार तक पहुंचेगा।” 5

अंधत्व की विवश स्थिति में भी विशाखा अपने पति के अरपाध को स्वीकार कर लेती है । जाधवजी की राय में “विशाखा के चरित्र की अमूल्य निधि है-अपने पति के प्रति कृतज्ञता का भाव। आज के आधुनिक युग की मूल्यधारणा के अनुसार देखा जाए तो विशाखा पारिवारिक भारतीय नारी के रूप में ही हमारे सामने आती है ।’6 डॉ. शंकर शेष ने परंपराओं में जकड़ी मध्यवर्गीय नारी का  यथार्थ दर्शन ही विशाखा के द्वारा प्रस्तुत किया है ।

जीवन की विसंगतियों से लड़ने वाली यथार्थवादी नारी छाया

छाया इस घरौंदा नाटक का सबसे जीवंत पात्र है। नाटक के आरंभ से अंत तक जीवन की विसंगतियों से लड़ती हुई वह दिखाई देती है। वह मध्यवर्ग के परिवार का पात्र है । माँ-बाप, दो भाई, भाभी आदि के होते हुए भी अकेली छाया को परिवार और अपनी जिंदगी को संवारने के लिए परिश्रम करनी पडती है। गरीबी की अवस्था में भी वह अपने आदर्शों और नैतकिता बोध को नहीं छोडती है ।

मध्यवर्ग के पात्रों की विशेषता यह होता है कि वे अपने अरमान और सपनों के लिए कोई सीमा निर्धारण नहीं कर लेताहै । वे कभी साकार नहीं होनेवाले हैं ये जानते हुए भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। छाया की भी ऐसी विशेषता है, उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा है कि उसका अपना मकान हो । सुदीप उसे यह समझाने की कोशिश करता है कि वह सपना कभी साकार न होगा । छाया की निराशा भरी वार्तालाप से स्पष्ट होता है कि उसको भी इस बात का विश्वास नही है कि वह मकान खरीद सकती है ।

“छाया : साल भर हो गया। कहीं ठिकाना नहीं। क्या अपना कभी कोई घर नहीं होगा सुदीप ।’7 फिर भी वह बचा- बचाकर घर के लिए कोशिश करती  रहती है। वह न ही चाल में रहना पसंद करती है और न ही किसी सस्ते होटल में सुदीप के साथ रहना पसंद करती है । वह दृढ़ता के साथ कहती है कि- “नहीं रहना है मुझे चाल में तीन पीढ़ियाँ कट गयी उस सड़ी सी चाल में। उस भीड़  में। उस नरक मेंi “8 चाल की ज़िंदगी उसे नरकतुल्य प्रतीत हुआ था। छ स्वभाव से दृढ़ निश्चयी और स्वाभिमानी है ।

छाया के चरित्र की दूसरी विशेषता यह है कि वह नैतिकता को अपने जीवन की आदर्श मानती है । विवाह पूर्व संबंधों का वह कल्पना भी नहीं कर सकती है ।

“छाया : नहीं सुदीप, हम लोग यह रास्ता नहीं अपनाएँगे। शादी से पहले. मैं सोच भी नहीं सकती । मुझे दब्बू कहो चाहे बैकवर्ड ।’9

छाया की इस वार्तालाप से भारतीय संस्कृति का परिचय मिलता है ।

मकान के लिए रुपए बचाने के वास्ते छाया चाय पीना तक छोड़ने के लिए

तैयार हो जाती है ।

“छाया: ..यह हमारी आखिरी चाय होगा। अगली हम अपने मकान

में पिएँगे “10

अपने अरमानों की पूर्ति के लिए कितने ही कष्ठ उठाने में मध्यवर्ग के लोग कोई कसर नहीं छोड़ता है । छाया की इन शब्दों से पता चलता है कि वह मकान को पाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। उसके चरित्र की दृढ़ निश्चयता और घर को पाने की असीम इच्छा का भी परिचय यहाँ मिलता है। इस प्रकार एक-एक रूपए जमाकर वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है । लेकिन तब उसका भाई अमरिका जाने के लिए उसके पास से रूपए लेने आता है तो वह पूरे के पूरे रुपए अपने भाई गोविंद को देता है । यहाँ छाया ममतामयी बहन दिखाई देता है। चार दीवारों के लिए वह परिवार के गुण से आँखें नहीं मूँद सकती ।

जब मोदी उसकी गरीबी की फायदा उठाकर उससे शादी का प्रस्ताव करता है तो वह नैकरी छोड़ने के लिए निश्चय करती है। यह छाया की प्रेम के प्रति लगाव और सच्चाई का परिचय कराता है । लेकिन सुदीप उसे बेईमानी का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर करता है तो छाया कहती है :

लेकिन मैं तुम्हारे अलावा किसी के बारे में सोच भी नहीं सकती। और यह ….”11

छाया और मोदी का विवाह होने के बाद वह बिलकुल भारतीय नारी के समान सोचती है । जैसे विवाह के बाद पत्नी के ऊपर केवल पति का ही अधिकार होता है। इसलिए सुदीप का स्पर्श वह संस्कार विरुद्ध मान जाती है । वह जी भरकर एकनिष्ठ होकर मोदी की सेवा करती है। जीवन और वर्तमान को सुखद बनाने के लिए उसका दर्शन मूल्यवान है। संघर्षशीलता हमेशा छाया को आशावान बनाए रखती है । वह हमेशा मुसीबतों से लड़ती-लड़ती रही । उसका फल विधाता ने मोदी के साथ की सुखद, सुरक्षित, सुविधाजनक जिदगी के रूप में प्रदान किया ।

सुविधा और सुरक्षा की प्रेमिकाएँ कृपी और लीला

‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक में अरविंद की पत्नी लीला और द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी दोनों का समान विचार है। अन्न और वस्त्र की समस्याओं से दोनों पीड़ित हैं। इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए दोनों अपने पति को सुखभोगी बनने की प्रेरणा देती है ।

“लीला : (उत्तेजित) कभी सोचा, इस घर में अकेले कौन जिया है ? तुम, केवल तुम ! हम लोगों को कभी अपने अस्तित्व की जानकारी ही नहीं हुई। (विराम) तुम तय करते रहे कि हम लोग कैसे जिएँ और हम लोग उसी तरह जीते रहे । लेकिन अब यह नहीं होगा “12 ।

सुख सुविधा की चाह से दोनों अपने पति को गलत रास्ते पर ले चलती है। अन्याय का विरोध कारने के बदले दोनों ने समझोते की आड़ में खड़ी हो गयी ।

साहसी स्त्री

‘राक्षस’ नाटक की नायिका श्वेतादेवी सरल, सहदय तथा साहसी है । उससे दूसरों का कष्ट देखा नहीं जाता। वह सहृदय से गाँववालों की सेवा करती है । वह समझौता के मुद्दे पर राक्षस के प्रस्ताव का विरोध करती है । इसलिए गाँववालों ने उसे पंचायत समिति की अध्याक्षा बनाया। गाँव की नई पीढ़ी को वह राक्षस से बताना चाहती है। वह बच्चों को साहसी और निडर बनाती है । वह बड़े साहस और उत्साह से राक्षस के प्रतिनिधि रणछोडदास को खत्म कर देती है । विनाश में भी सृजन शक्ति का निर्माण करने की साहस स्त्री ने दिखाया।

स्त्री पूरी तरह से कवि को समझ सकती है। स्वार्थ की, जोड़-तोड़ की राजनीति करने वाले पंचायत सदस्यों को भी वे पहचान लेती है। वह गाँव के सब बच्चों में संगठन निर्माण करती है । वह कवि की इस बात को समझ सकती है कि वर्तमान तो हमेशा अतीत की अपाहिज और भविष्य को संदिग्ध मानता है । और वर्तमान हमेशा अपना अस्तित्व के लिए अतीत के साथ व्यभिचार और भविष्य के साथ षड्यंत्र रचता है। स्त्री षड़यंत्रों से बच्चों की रक्षा करती है ।

 शोषण और दमन का शिकार गांधारी

बचपन से ही शंकरशेष का झुकाव महाभारत की ओर अधिक रहा है । महाभारत के सशक्त पात्रों के प्रति वे ज्यादा आकृष्ट हुए थे। गांधारी में पायी गई असाधारण दृढ़ता ने शंकर शेष को मोह लिया, उसकी पीड़ा देखकर वे बेचैन हो गये। कोमल गांधार उनके इस मोह क्षण की ही निर्मिति है ।

गांधारी उस नारी का प्रतिनिधित्व करती है जो सदियों से देह और व्यक्तित्व के अंतः संबंध में झुलसती हुई शोषण और दमन का शिकार होती आ रही है। कभी गांधारी की चरित्र जीवंतता को खोकर कठपुतली मात्र बनकर रह गई है ।

घिनोनी राजनीति के मूर्त उदाहरण के रूप में धृतराष्ट्र का चरित्र प्रस्तुत किया है और अवसर तथा आवश्यकता के अनुसार उसके रूप और मुखोटे परिवर्तित देखा जा सकता है । इस तरह के व्यक्तित्व के समस्त रूपों को झेलनेवाली गांधारी की पीड़ा और असहायता एक साधारण नारी के जीवन से बिलकुल भिन्न नहीं हैं।

डॉ शंकर शेष ने वैवाहिक संबंधों तथा नारी शोषण की परंपरा के विरुद्ध विद्रोह का यथार्थ भाव कोमल गांधार की गांधारी के माध्यम से ठोस अभिव्यक्ति प्रदान की है

निष्कर्ष

उपर्युक्त अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शंकर शेष के नाटकों में चरित्र सृष्टि जीवन यथार्थों से सुसंपन्न पात्रों से हुआ है। नारी मन की अटल गहराइयों में उतरकर उसका सूक्ष्म चित्रण करने का उनकी प्रतिभा और क्षमता अत्यंत सराहनीय है၊ डॉ शंकर शेष के नारी पात्र सामाजिक जागरूकता तथा गंभीर और विलक्षण चिंतन की प्रवृत्ति को आवाज देती है၊ वस्तुतः उनके रचे हुए पात्र अपनी सारी मानसिकता में समाज सापेक्ष है၊ उन्होंने गरिमा सुप्त कई नारी पात्रों को समाज के निम्न वर्ग से उठाया है और उनकी अस्मिता को जगाकर उनके चरित्र को एक नई दिशा प्रदान करने का प्रयास किया है၊

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संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. डॉ शंकर शेष- मूर्तिकार शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 31
  2. डॉ शंकर शेष- मूर्तिकार शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 43
  3. डाॅ. रमाकांत दीक्षित (2001)- शंकर शेष के नाटकों का रंगमंचीय अनुशीलन , अमन प्रकाशन, कानपुर 1- पृ सं 88
  4. डॉ शंकर शेष- रत्नगर्भा शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 87
  5. डॉ शंकर शेष- विन बाती के दीप, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 140 – 141
  6. डॉ. प्रकाश यादव,( 1988 )डॉ. शंकर शेष का नाटक साहित्य साहित्य रत्नालय, कानपुर 1. पृ सं 131
  7. डॉ शंकर शेष- घरौंदा, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 18
  8. डॉ शंकर शेष- घरौंदा, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 18
  9. डॉ शंकर शेष- घरौंदा, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 19
  10. डॉ शंकर शेष- घरौंदा, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 20
  11. डॉ शंकर शेष- घरौंदा, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं44
  12. डॉ शंकर शेष- एक और. द्रोणाचार्य, शंकर शेष सामग्र नाटक सं-हेमंत कुकरेती खंड 3(2010 ) किताब घर प्रकाशन ,दिल्ली- पृ सं 14

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डॉं नादिया सी राज

श्री नारायणा आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज, कुमरकम,

कोट्टयम, केरल