May 10, 2023

45. दलित विमर्श की अवधारणा और हिंदी साहित्य – शैलेन्द्र कुमार

By Gina Journal

Page No.:313-320

दलित विमर्श की अवधारणा और हिंदी साहित्य – शैलेन्द्र कुमार

    दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, शोषित, उत्पीड़ित, सताया हुआ, उपेक्षित, घृणित, हतोत्साहित आदि। आधुनिक हिंदी साहित्य में विभिन्न नवीन विमर्शों ने अपना आकार ग्रहण किया है, उनमें दलित विमर्श सर्वप्रमुख है। दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है। इसके केंद्र में दलित जाति के अंतर्गत Aशामिल मनुष्यों के अनुभवों, कष्टों और संघर्षों को स्वर देने की संगठित कोशिश की गई है। जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है यही कारण है कि जाति आधारित इस विमर्श ने हिंदी सहित भारत की अनेक भाषाओं में दलित साहित्य को जन्म दिया है।

    डॉक्टर शिवराज सिंह ‘बेचैन’ दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं “दलित वह है जिसे भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया है।”

    कवंल भारती के अनुसार “दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया और जिस पर सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की गई, वही और वही दलित है और उसके अंतर्गत वही जातियां थी जिन्हें अनुसूचित जातियां कहा जाता है।”¹

     राजेंद्र यादव दलित शब्द की विस्तृत परिदृश्य में व्याख्या करते हैं और स्त्रियों को भी इसके दायरे में रखते हैं। उनके विचार में यह व्यापकता इसलिए भी है क्योंकि भारतीय समाज में वह चाहे जिस वर्ण या वर्ग की स्त्रियां रही हों, उनके साथ भी दमन की नीति, शोषण, सामाजिक, शैक्षणिक समेत अनेक सामाजिक संरचनाएं मिलती हैं। इसलिए “वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं। पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं।”²

      इस प्रकार देखे तो दलित शब्द व्यापक है इसमें वे सभी व्यक्ति आते हैं जो समाज में सबसे निचले पायदान पर माने जाते हैं तथा जिन्हें हासिये पर डाल दिया गया है। वर्ण व्यवस्था ने जिसे अछूत की श्रेणी में रखा हुआ है। पहाड़ों– वनों के बीच रहने वाली जनजातियां, आदिवासी, जरायम पेशा घोषित जातियां, सभी वर्गों की स्त्रियां, बहुत कम मजदूरी पर चौबीस घंटे काम करने वाले मजदूर, बंधुआ मजदूर आदि सभी इस श्रेणी में आते हैं।

 दलित विमर्श का वैचारिक आधार

  इसी दलित वर्ग की पीड़ा और संघर्ष को वाणी देने वाले स्वरों को आधुनिक हिंदी साहित्य में एक अलग पहचान मिली। समकालीन हिंदी साहित्य में इस प्रकार रचे गए साहित्य को दलित साहित्य कहा गया है। इस प्रकार के साहित्य का वैचारिक आधार डॉ. अंबेडकर का जीवन-संघर्ष, ज्योतिबा फुले और  महात्मा बुद्ध के विचार और दर्शन का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। सभी दलित रचनाकार ज्योतिबा फुले के स्वयं क्रियाशील रहने सामंती मूल्यों से टकराने और सामाजिक गुलामी के विरोध करने को आदर्श की तरह अपनाते हैं।

      इसी प्रकार आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना व दलित वर्गों के उत्थान के प्रति प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम लिया जाता हैं। अम्बेडकर सामाजिक न्याय के उत्कट सेनानी थे। उन्होंने दलित वर्गों के उत्थान और उनके लिए जीवन की न्याय-सम्मत और सम्मानजनक दशाएँ सुनिश्चित करने के अभियान के प्रति अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने वैचारिक स्तर पर ही सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की आवश्यकता का प्रतिपादन नहीं किया, अपितु भारतीय समाज में विद्यमान अन्याय के निराकरण के लिए संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया।³

     यही कारण है कि दलित रचनाकार मानते हैं कि महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फुले, डाक्टर भीमराव अंबेडकर ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व के विरोध में खड़े हुए। वे जहाँ ज्योतिबा फुले को अपना विशिष्ट विचारक मानते हैं, वहीं डॉ. भीमराव अंबेडकर को अपना शक्तिपुंज स्वीकार करते हैं। अंबेडकर जी का जीवन-संघर्ष उनमें शक्ति भरता है और उनमें प्रेरणा देता है। इसके अतिरिक्त रामास्वामी पेरियार, स्वामी अछूतानंद, आदि क्रांतिकारी विचारक तथा दलितों के सामाजिक उत्थान लिए चलाए गए वे सभी सामाजिक आंदोलनों का भी इस साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

      इस अतिरिक्त बाद में विशेषकर समकालीन परिप्रेक्ष्य में कुछ राजनीतिक आंदोलनों से भी इसे ऊर्जा मिली है जिनमें दलितों के सशक्तिकरण की भावना शामिल रही हैं।

   दलित विमर्श के केंद्र में वे सारे सवाल हैं, जिनका संबंध भेदभाव से है, चाहे ये भेदभाव जाति के आधार पर हो, रंग के आधार पर हो, नस्ल के आधार पर हों, लिंग के आधार पर हो।

 दलित विमर्श और हिंदी साहित्य

      दलित विमर्श समकालीन दौर का एक ज्वलंत मुद्दा है। हिंदी तथा अन्य भारतीय  साहित्य में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हो रही है। आज यह एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा है। हिंदी साहित्य की एक धारा बन चुका है। स्वाभाविक रूप से साहित्य, समाज और राजनीति पर इसका व्यापक असर पड़ रहा है। दलित साहित्य वर्तमान का ऐसा विमर्श बन चुका है जिसके अध्ययन के अभाव में हिन्दी साहित्य को समझना अधूरा ही रहेगा।

दलित साहित्य और दलित रचनाकार संबंधी विवाद

    दलित साहित्य’ के लेखन में स्वानुभूति और सहानुभुति के आधार पर लिखे गए साहित्य का विभाजन सा हो गया है। दलित साहित्य संबंधी लेखन में  किस–किस को शामिल किया जाए यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। दलित साहित्यकारों का मानना है कि दलित की पीड़ाओं को वही समझ सकता है जिसने इसको भोगा है, अर्थात अनुभूति के आधार पर, जबकि दूसरा गुट दलितों से इतर लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य को, जो दलित जीवन पर आधारित है उसे भी उसमें शामिल करने की बात कर रहा है।

      दलित चिंतक कंवल भारती का कहना है- “दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिनमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है, अपने जीवन-संघर्ष में जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला का नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है।”⁴

       दलित साहित्यकारों में प्रमुख मोहनदास नैमिशराय ने लिखा है, “शोषक वर्ग के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए समाज में समता, बंधुता तथा मैत्री की स्थापना करना ही दलित साहित्य का उद्देश्य है।”⁵

    इस प्रकार हम पाते हैं कि दलित लेखकों ने स्वानुभूति के आधार पर लिखे गए साहित्य को सच्चा दलित साहित्य माना है। इसके विपरीत नामवर सिंह, रामदरश मिश्र, काशीनाथ सिंह  आदि गैर दलित लेखकों ने इसका विरोध करते हुए सहानुभूति के आधार पर लिखे गए साहित्य को भी दलित साहित्य में बराबर का स्थान देते हैं।

कविता में दलित विमर्श

  कविता के क्षेत्र में हिंदी साहित्य के आदिकाल में ही दलित चेतना के स्वर सुनाई देते हैं यद्यपि उस समय ऐसा कोई आंदोलन या विमर्श नहीं चल रहा था तथापि सिद्धों की रचनाओं में जातिगत भेदभाव के प्रति विक्षोभ ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह स्पष्ट शब्दों में दिखाई देता है। यह परंपरा नाथों और भक्तिकालीन संत कवियों में और अधिक स्पष्ट होती है। विशेषकर कबीर का स्वर सबसे ऊंचा सुनाई पड़ता हैं। रीतिकाल में यह धारा क्षीण दिखाई देती है।

       आधुनिक युग में 1914 में ’सरस्वती’ पत्रिका में हीरा डोम द्वारा लिखित ’अछूत की शिकायत’ को पहली दलित कविता माना जाता है। इस कविता में दलित समाज के जीवन-व्यथा, शोषण तथा अन्याय का चित्रण करते हुए कवि ने ईश्वर को महिमा और उसकी सत्ता पर ही  प्रश्न-चिह्न लगा देता है,

‘हमनी के राति दिन दुःखवा भोगत बानी,

हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब,

हमनी के दुख भगवनओं न देखता जे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।

    मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ सीधे–सीधे संवादात्मक शैली में अपनी पूरी ऊर्जा के साथ दलित चेतना को बेबाकी से प्रस्तुत करती है।

   सुनो ब्राह्मण ! हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है /और इसका अंत भी / तुम्हारे अंत के साथ होगा।⁶

     इसके अतिरिक्त बिहारीलाल हरित की रचना ‘अछूतों का पैगम्बर’।  ओमप्रकाश प्रकाश वाल्मीकि के काव्य में ‘सदियों का संताप’, ‘बस बहुत हो चुका’, ‘अब और नहीं’ आदि। कंवल भारती की कविता ‘जब तुम्हारी निष्ठा क्या होती’, श्योराज सिंह बेचैन की कविताएं  ‘नयी फसल’ और ‘चमार की चाय’ जयप्रकाश कर्दम की ‘गूँगा नहीं था मैं’  और ‘तिनका-तिनकाआग’,  सुशीला टाकभौरे की कविता ‘हमारे हिस्से का सूरज’ और ‘यह तुम भी जानों’ आदि प्रमुख दलित संवेदना से युक्त रचनाएं हैं।

कहानी में दलित विमर्श

  दलित विमर्श की कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं, शोषण और अन्याय अपने तार्किक रूप में अभिव्यक्त हुआ है। प्रारंभ में प्रेमचंद की कहानियों में जातिगत शोषण को दिखाया गया हैं किंतु आज के दलित साहित्यकार प्रेमचंद सहित अनेक साहित्यकारों की कहानियों को इस श्रेणी में रखने से इंकार करते हैं।

   मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘अपना गाँव’ में दलित मुक्ति-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को द्रवित कर देती है। इस कहानी में दलितों के हज़ारों साल के उत्पीड़न के प्रति जो आक्रोश जगा है, वह इस कहानी में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त हुआ है।

  जयप्रकाश कर्दम की कहानी ‘नो बार’ अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर लिखा होता है जाति-बंधन नहीं (नो बार) लेकिन इसमें भी एक छिपा एजेंडा होता है। एक दलित के लिए यह शर्त लागू नहीं यानी दलित स्वीकार्य नहीं। यह कहानी इसी समस्या को केंद्र में रख कर सामाजिक जीवन में रची बसी जाति वैमनस्य की भावना को अभिव्यक्त करती है।⁷

      इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध दलित कहानियों में ओमप्रकाश बाल्मिकी की बैल की खाल, अम्मा, बंधुआ, लोकतंत्र, पिटर मिश्रा, शवयात्रा, छतरी, घुसपैठिये, परमोशन, बयतिस्मा। जयप्रकाश कर्दम की कहानी तलाश। सुसीला टकभौरे के कहानी संग्रह अनुभूति के घेरे, संघर्ष, जरा समझो। सूरजपाल चौहान के कहानी संग्रह हैरी कब आएगा, नया ब्राह्मन, धोखा आदि प्रमुख हैं जिनका कथानक दलित उत्पीड़न तथा उनके संघर्ष को विभिन्न कोणों से देखने का प्रयास करता है।

आत्मकथा में दलित विमर्श

    दलित विमर्श सबसे प्रखर रूप में दलित आत्मकथाओं के रूप में सामने आया। दलित साहित्यकारों ने अपनी ही कहानी और अपने अनुभव के माध्यम से दलित उत्पीड़न और दलित संघर्ष को रेखांकित किया।

      ओमप्रकाश बाल्मिकी की ‘जूठन’ पहली दलित आत्मकथा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, ‘जूठन’ इसे गंभीरता से उठाती है। इसमें चित्रित दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते हैं।⁸

   तुलसी राम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ एवं ‘मणिकर्णिका’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

  कौशल्या वैसन्त्री अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में जीवन की एक–एक पर्त को जिस तरह उघाड़ कर पाठकों के सामने रख देती हैं वह हिम्मत का काम है। इस आत्मकथा की भाषा विशिष्ट  है  जो जीवन की गंभीर और कड़वी अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करती है।

      इसके अतिरिक्त श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ तथा सुशीला टकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ भी दलित आत्मकथाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

आलोचना में दलित विमर्श

 आलोचना के क्षेत्र में सर्वप्रमुख नाम डॉक्टर धर्मवीर का है उन्होंने कई मान्यताओं का खण्डन किया। उन्होंने प्रेमचंद को सामंतो का मुंशी कहा तथा ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ लिखकर गैर दलित साहित्यकारों के निशाने पर आ गए। नामवर सिंह ने इसका विमोचन करने से मना कर दिया था। उनकी रचनाओं ने एक अलग तरह की बहस छेड़ दी। उनकी अन्य आलोचनाओं में ‘कबीर के आलोचक’,  ‘कबीर के अन्य आलोचक’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिंतन’ आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’, ‘दलित साहित्य: अनुभव संघर्ष और यथार्थ’ जयप्रकाश कर्दम की ‘वर्तमान दलित आन्दोलन’ आदि आलोचनाएं महत्वपूर्ण हैं।

 

उपन्यास तथा अन्य विधाओं में दलित विमर्श

   कहानी को ही भांति उपन्यासों में भी दलित चेतना के स्वर स्पष्ट और तीखे हैं। पीड़ा और संघर्ष की कथा यहाँ भी है।

     मोहनदास नैमिशराय के उपन्यास क्या मुझे खरीदोगे, मुक्तिपर्व, वीरांगना झलकारी बाई, आज बाजार बंद है। रूपनारायण सोनकर के के उपन्यास – डंक, सूअरदान, गटर का आदमी। शरण कुमार लिंबाले के उपन्यास – नर वानर, हिंदू,  बहुजन, झुंड, गर्व से कहो। सुशीला टकभौरे के उपन्यास – नीला आकाश, तुम्हे बदलना ही होगा आदि प्रमुख उपन्यास हैं जिनमें दलित जीवन की अनेक गाथाएं अंकित हैं।

   इसके अतिरिक्त नाटक, पत्र साहित्य, जीवनी आदि विधाओं में भी दलित चेतना की दस्तक साफ सुनाई देती है।

संदर्भ

  1. ओमप्रकाश वाल्मीकि – दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 13
  2. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ संख्या 15

      3.डॉ. मन्दाकिनी मीना- अस्मितामूलक विमर्श और साहित्य,नटराज प्रकाशन,2017, पृष्ठ संख्या 14

  1. दलित साहित्य की भूमिका: कंवल भारती, पृष्ठ 67
  2. डॉ. सिमा रानी – अस्मितामूलक विमर्श और साहित्य,अक्षर पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स,2017, पृष्ठ संख्या. 22
  3. 6.bbc.com बी.बी.सी. न्यूज 12 सितंबर 2016
  1. वही
  2. वही

शैलेन्द्र कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर-  हिन्दी

राजकीय महिला महाविद्यालय बांगर, कन्नौज।

पता ग्राम व पोस्ट– राही, जिला–रायबरेली