May 10, 2023

46. समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श – डॉ. नंदिनी चौबे

By Gina Journal

Page No.:321-327

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श – डॉ. नंदिनी चौबे

 

सार – “समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श” आलेख में बतलाने की कोशीश की गई है कि समकालीन दौर की लेखिकाओं ने स्त्री की अस्मिता, स्वतंत्रता और समानता के प्रश्न को प्रभावशाली ढंग से साहित्य में प्रस्तुत किया है । इस आलेख में यह भी बतलाया गया है कि साहित्य में स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र स्त्री या पुरुष द्वारा स्त्री के ही विषय में स्त्री विषयक मुद्दों में लिखा गया साहित्य नहीं है, बल्कि स्त्री जीवन की सामाजिक, पारिवारिक समस्याओं, विडंबनाओं को अभिव्यक्त करना और उस पर विचार स्त्री विमर्श है । साथ ही यह भी चर्चा की गई है कि आज साहित्य में लेखिकाएँ समाज में घटित होने वाली विभिन्न प्रकार की विडम्बनाओं को अपने उपन्यास, कहानी और कविता में पिरौती जा रही हैं । इस आलेख में यह भी दिखलाने की कोशीश की गई है कि स्त्रियां मात्र वस्तु या कठपुतली नहीं हैं । वह भी हाड़ – माँस की असली इंसान है, जिनकी अपनी इच्छाएं हैं । इसके साथ ही इस आलेख में समकालीन स्त्री विमर्श के विभिन्न मुद्दों को भी विस्तार पूर्वक दिखलाने की कोशीश की गई है ।

बीज शब्द – समकालीन, साहित्य, स्त्री, समस्याओं इत्यादि ।

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श पर विचार करने से पहले समकालीन की अवधारणा स्पष्ट होना आवश्यक है । समकालीन था अंग्रेजी के “Contemporary” का हिंदी पर्याय है जिसका अर्थ है – “State of being Contemporary” अर्थात् समकाल या एक ही काल या अपने समय का, या समवयस्क या सामयिक या एक समय आदि से है । डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय का विचार है कि – “समकाल शब्द यह बताता है कि काल के इस प्रचलित खण्ड या प्रवाह में मनुष्य की स्थिति क्या है ? इससे उलटकर कहें तो कह सकते हैं कि मनुष्य की वास्तविक स्थिति को देखकर उसे अंकित चित्रित करके है हम समकालीनता की अवधारणा को समझ सकते हैं ।”1

वास्तव में समकालीनता एक संपूर्ण चेतना है, जो सामयिक संदर्भों, दबावों के तहत विशिष्ट स्वरूप व संरचना धारण करती है । अपने समय की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के साथ मुठभेड़ ही समकालीनता है । समकालीनता विविध समयों में घटी – घटनाओं के बीच अंतर्संबंध को भी व्याख्यायित करती है । इसका अर्थ यह भी नहीं लगाना चाहिए कि समकालीन कथा लेखन के दौर के लेखक समकालीन ही हैं, जबकि पूर्ववर्ती लेखक गैर समकालीन रघुवीर सहाय ने समकालीनता को बहुत ही व्यापक ढंग से परिभाषित किया है –  “मेरी दृष्टि में समकालीनता मानव भविष्य के प्रति पक्षधरता का दूसरा नाम है ।”2

समकालीनता एक ऐसा विशिष्ट पद है जो सतत् वर्तमान प्रक्रिया को अपने में समाहित किए रहता है । वर्तमान समाज और संस्कृति तथा रचनात्मक दबाव जहां एकमेव हो जाए, वहां काल की गति वर्तमानता के साथ समकालीन भी होती है । यह कालक्रम के साथ ही साथ एक विचार भी है । हर समय समाज की समस्याएं एक जैसी नहीं होती हैं । वह समय के साथ परिवर्तित होती रहती हैं ।

आज हम 21वीं सदी के शैशवावस्था से गुजर रहे हैं । शिक्षा का काफी प्रचार-प्रसार हो रहा है । हम भूमंडलीकरण के दौर से गुजर रहे हैं । इस कारण जीवन की स्थिति – परिस्थिति में युगांतकारी बदलाव आ चुका है । नैतिक – अनैतिक, पाप – पुण्य का मानदंड बदलने लगा है । स्त्री जीवन पर भी इसका गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है ।

भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति और नियति की व्याख्या करना आज के दौर में और कठिन हो गया है । स्त्री विमर्श उत्तर आधुनिक युग में एक सशक्त विमर्श के रूप में सामने आया है , जिसने सदियों से शोषित हो रही स्त्री को चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया है । स्त्री विमर्श की गहराई से पड़ताल करें तो नारी मुक्ति के साथ-साथ इसमें नारी अस्मिता, चेतना व स्वाभिमान आदि भी शामिल हैं । साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर अनेक लेखक, लेखिकाओं और आलोचकों ने अलग-अलग तरह से अपने विचारों को स्त्री विमर्श के रूप में अपनी पुस्तकों में अभिव्यक्त किया है । साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर विवाद भी रहा है । इस संदर्भ में सभी विद्वानों और विचारकों का मत एक समान नहीं है ।

साहित्य में स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र स्त्री या पुरुष द्वारा स्त्री के ही विषय में स्त्री विषयक मुद्दों में लिखा गया साहित्य नहीं है, बल्कि स्त्री जीवन की सामाजिक, पारिवारिक समस्याओं,  विडंबनाओं को अभिव्यक्त करना और उस पर विचार स्त्री विमर्श है ।

प्रसिद्ध लेखिका चित्रा मुद्गल कहती हैं – ” स्त्री विमर्श संपूर्ण अभिव्यक्ति का दायित्व है । वह बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श है तो हमें मंजूर है । मैं नहीं मानती कि जो महिलाएं लिखेंगी, वही स्त्री विमर्श का हिस्सा होगा । लेकिन इसके साथ मेरी कुछ शर्त भी है । मेरा स्पष्ट मानना है कि कुछ पुरुष स्त्री विमर्श को गलत दिशा दे रहे हैं । वे स्वच्छंदता को स्त्री विमर्श का नाम देना चाहते हैं । विडंबना यह है कि कुछ लेखिकाएँ भी उनके बहकावे में आ रही हैं । ‘स्त्री विमर्श’ की दिशा हम लेखिकाएँ तय करेंगी ।”3

समकालीन दौर की लेखिकाओं ने स्त्री की अस्मिता, स्वतंत्रता और समानता के प्रश्न को प्रभावशाली ढंग से साहित्य में प्रस्तुत किया है । महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियां’ में परिवार से लेकर राष्ट्र निर्माण तक स्त्री के अर्थ, स्वातंत्र्य, सामाजिक समानता और शिक्षा आदि को सर्वोपरि माना है और इसी आधार पर प्रश्न भी उठाएं हैं । स्त्री विमर्श की भारतीय दृष्टि साहित्य में प्रेमचंद  जैनेंद्र, यशपाल, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा से लेकर मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, प्रभा खेतान, अनामिका, मृदुला गर्ग आदि लेखिकाओं की रचनाओं में देखने को मिलता है ।

19वीं शताब्दी से 20 वीं और 21वीं सदी में आते-आते यदि नज़र डालें तो पूरे हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, स्त्री अस्मिता, पुरुष वर्चस्ववादी समाज और पितृसत्तात्मक व्यवस्था आदि शब्दों और इनसे जुड़े साहित्य की भरमार दिखाई देती है । पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों को दबाने, कुचलने, मारने, अत्याचार, घृणा, उपेक्षा, शोषण आदि को झेलती हुई स्त्री ने आज परम्परा से चली आ रही समस्याओं को कथा – कहानी, कविता और अन्य गद्य विधाओं के माध्यम से लिखा है ।

समकालीन हिंदी कथा साहित्य में लेखिकाओं ने अनुभवों और आस-पास की परिस्थितियों को केंद्र में रखकर प्रत्येक वर्ग (निम्न, मध्य, उच्च वर्ग ) समुदाय, ब्राह्मण – क्षत्रिय, पूंजीपति वर्ग, अमीर – गरीब, गोरे – काले रंग, ग्रामीण – शहरी – महानगरी, पाश्चात्य जीवन शैली, दलित – आदिवासी, अनपढ़ – शिक्षित, नौकरीपेशा – गृहिणी, विवाह की समस्या, कुंवारी मां की समस्या, विधवाओं की समस्या, अनमेल विवाह , तलाक, प्रेम – विवाह, विवाहेतर संबंध, आदि समस्याओं और विडम्बनाओं को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया है ।

आज साहित्य में लेखिकाएँ समाज में घटित होने वाली विभिन्न प्रकार की विडम्बनाओं को अपने उपन्यास, कहानी और कविता में पिरौती जा रही हैं । आज समाज के भीतर जिस परिवार में आपसी संबंधों में विषमता आ गई है, जहां संबंध वर्चस्व और अधीनता पर आधारित होते दिखाई देते हैं, वहीं विद्रोह और बगावत की स्थिति पैदा होती है ।

हिंदी साहित्य में आधुनिक महिला कथाकारों में मन्नू भंडारी, उषा प्रियम्वदा, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, गीतांजलि श्री, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, चित्रा मुद्गल, मैत्रेई पुष्पा, सूर्यबाला, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अल्पना मिश्र आदि अनेक लेखिकाओं की रचनाओं में उनके जीवनानुभवों से उभरे स्वर साहित्य में दिखाई देते हैं । आज स्त्री विमर्श साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में किया जाने लगा है, जिससे आत्मकथा, कहानी और कविता भी अछूती नहीं है । स्त्री विमर्श मुख्य धारा के साहित्य से लेकर दलित स्त्री विमर्श, आदिवासी स्त्री विमर्श, मुस्लिम स्त्री विमर्श आदि के रूप में अनेक तरह से साहित्य में पढ़ा और समझा जा रहा है ।

समकालीन महिला लेखिकाओं ने अपने पूर्व महिला लेखन की सीमाओं और संकीर्ण दायरे को अनुभूत किया है । वे यह समझ गई हैं कि उनमें आदर्श उनमें आदर्श और भावुकता का ही अधिक सम्मिश्रण है और यह कोरी भावुकता युग की मांग पूरा करने में अक्षम है । अब जीवन तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे हैं । केवल मात्र प्रेम, विवाह, बच्चे, परिवार ही जीवन की आवश्यकता नहीं है । उसे कुछ और भी चाहिए क्योंकि नारी केवल शरीर नहीं, केवल स्थूल काया गठरी नहीं । उसकी आत्मा में रहने के लिए भी कुछ चाहिए ।

समकालीन महिला लेखन ने निश्चित रूप से कुछ ऐसे तीखे ज्वलंत अंतर्विरोधी प्रश्नों को सामने रखा है, जिससे महिला लेखन की एक अलग पहचान बननी शुरू हुई है । कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मैत्रेई पुष्पा, चित्रा मुद्गल, जया जादवानी आदि लेखिकाओं के उपन्यासों में महिला लेखन की एक अलग पहचान सामने आई है, क्योंकि इनके लेखन में स्त्री – अधिकारों के प्रति सजगता, आक्रामकता, तीखापन तथा पितृक समाज की कड़ी आलोचना हुई है । इस प्रकार के तेवर पहले की लेखिकाओं में दिखाई नहीं देते हैं । डॉ. रोहिणी अग्रवाल के अनुसार – “महिला लेखन अर्थात् महिलाओं की समस्याओं को आधार बनाकर महिलाओं द्वारा सर्जित साहित्य । समकालीन हिंदी साहित्य में महिला लेखन एक विशिष्ट एवं पृथक प्रवृत्ति के रूप में दृष्टिगत होता है ।”

तस्लीमा नसरीन स्त्री अधिकारों की जोरदार आवाज़ उठाते हुए कहती हैं – “मर्दों के साथ सामाजिक सम्पर्क भले हो, लेकिन हमारा परिचय मर्दों की माँ, बहन, बेटी या दादी, नानी, जेठी काकी न होकर मेरा पृथक अस्तित्व है । हम औरतें, मर्द या मर्द शासित समाज की सम्पत्ति नहीं हैं, हम इंसान हैं ।”4

समकालीन लेखिकाओं ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्रियां मात्र वस्तु या कठपुतली नहीं हैं । वह भी हाड़ – माँस की असली इंसान है, जिनकी अपनी इच्छाएं हैं । अपने अज्ञात्व और गोपनीय कोने हैं । लेखिकाओं के इन उपन्यासों ने नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत किया है । ‘इदन्नमम’ उपन्यास में कुसुमा को जुझारू रूप प्रदान किया है । उपन्यास में कुसुमा हर समस्या को एक नए दृष्टिकोण से परखती है । पति यशपाल द्वारा छोड़ दिए जाने पर वह अविवाहित ससुर दाऊजी के साथ जुड़ती है और यशपाल की नाक के नीचे ही उसके बच्चे की मां भी बनती है । जब उनसे होने वाले बच्चे के बाप का नाम पूछा जाता है, तो वही सभी के सवालों का मुँहतोड़ जवाब देती हुई स्वयं अपनी कोख की मालिक बनती है । वह कहती है – “औ नुकीले खैर मना कि बच्चा दो दाऊ जी का है, नहीं तो यह किसी का भी होता, जात का आन जाता का, गैल चलते आदमी का तुम होते कौन हो हमारी नोकेबंदी करने वाले ।”5

आज स्त्री विमर्श पहले की तरह नहीं रहा, बल्कि आज या भूमंडलीकरण और संचार क्रांति से उत्पन्न हुई नई नई समस्याओं को लेकर चलता है । स्त्रीवादी लेखन का अर्थ केवल स्त्री के संबंध में या स्त्री द्वारा लिखा गया लेखन तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह उन तमाम मुद्दों पर भी बहस करती है जिन पर स्त्री अपनी बातों को प्रकट करती है । स्त्री की भावना, इच्छा, आकांक्षा जो पुरुषों द्वारा दबाई जा रही हैं । उन स्थितियों के खिलाफ स्त्रियों द्वारा संघर्ष भी स्त्रीवादी लेखन के अंतर्गत आता है ।

अंत में यही कहा जा सकता है कि समकालीन स्त्री विमर्श का मुद्दा केवल स्त्री जीवन और उस जीवन की समस्याएं हैं । स्त्री विमर्श का मूल उद्देश्य, स्त्री की मुक्ति से है । स्त्री, पुरुष से मुक्ति नहीं चाहती है । वह तो केवल उस व्याख्या और मानसिकता से मुक्ति चाहती है, जो उसे प्रताड़ित करती है ।

संदर्भ ‌:

1) डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय : समकालीन कहानी की भूमिक, पृ. सं. – 2

2)  समकालीन काव्य यात्रा, नंदकिशोर नवल, पृ. – 8

3) हिंदुस्तान पत्र, 8 मार्च 2016 के साक्षात्कार से )

4) तसलीमा नसरीन : औरत को कोई देश नहीं, पृ.- 44

5) मैत्रेयी पुष्पा : इदन्नम्म, पृ. – 124

 

डॉ. नंदिनी चौबे

सहायक प्राध्यापक, हिंदी

रेवा विश्वविद्यालय, बेंगलुरू