May 10, 2023

47. रामदरश मिश्र के उपन्यासों में स्त्री प्रतिरोध के स्वर – शिवांकत्रिपाठी

By Gina Journal

Page No.:328-335

रामदरश मिश्र के उपन्यासों में स्त्री प्रतिरोध के स्वर – शिवांकत्रिपाठी

शोध सारांश

   वर्तमान समय में हिंदी के वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक रामदरश मिश्र ने  साहित्य की लगभग सभी विधाओं को अपनी लेखनी से संवृद्ध किया है | वे कवि और कहानीकार के रूप में विशेष रूप से चर्चित रहे हैं | मिश्र जी अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठक का भारतीय ग्रामीण जीवन की वास्तविकताओं से साक्षात्कार कराने का सफल प्रयास करते हैं | सामाजिक ढांचा, समाज में स्त्री – पुरुष की स्थिति, परिवार में स्त्री का स्थान और भूमिका, स्त्री के विभिन्न रूप मिश्र जी के उपन्यासों में देखने को मिलता है | प्रस्तुत शोध आलेख में मिश्र जी के उपन्यासों का विश्लेषण कर समाज और परिवार में स्त्रियों के प्रतिरोध के स्वरूप और स्तर को समझाने का प्रयास किया गया है |

बीज शब्द – प्रतिरोध, सरकश, दबैल, घरेलू हिंसा, जीविकोपार्जन, चरित्रहीन, लांछन

मुख्य आलेख –

  रामदरश मिश्र के पहले उपन्यास ‘पानी के प्राचीर’ में ‘रूपा, ‘बिंदिया, ‘गुलाबी’ प्रमुख स्त्री पात्र हैं जो समय-समय पर समाज और परिवार में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती हैं | नीरू की माँ ‘रूपा’ का प्रतिरोध सबसे पहले तब दिखाई पड़ता है जब नीरू के पिता गाँव के मुखिया के उलाहने पर नीरू को पीटते हैं जबकि नीरू की कोई गलती नहीं रहती है; नीरू की माँ कहती है – “नही तो क्या ? मुखिया बड़े सरकश हैं उजाड़ देंगे ? तुम्हे डरना हो तो डरो मै किसी की दबैल नहीं मेरे जीते जी किसी की मजाल नहीं जो मेरे लड़के को आंख दिखाए सब पहले अपने बहेतू और लफंगे लड़कों को सुधारें |”1

  ‘बिंदिया’ इस उपन्यास की दूसरी प्रमुख स्त्री पात्र है जिसे दलित होने के कारण गाँव में बेइज्जती झेलनी पड़ती है | गांव के उच्च जाति के लड़कों को बरगलाने का आरोप लगाकर गांव का मुखिया जब उसका घर उजाड़ने आता है तो बिंदिया विरोध करते हुए प्रश्न करती है – “आप लोग बड़े इज्जतदार बने हैं बाबा लोगों ! और छोकरों से क्यों नहीं पूछते जो मेरे कारण चमार बनने पर उतारू हो गये हैं ?”2 यह प्रश्न करके बिंदिया गाँव के लड़कों का एक एक कर कच्चा चिट्ठा लोगों के सामने खोलने लगती है कि बनते तो लोग बड़े आदमी हैं लेकिन मौका मिलते ही बिंदिया को पाने का प्रयास सभी लोग करते हैं सब धूर्त हैं जब किसी को सफलता नहीं मिलती तो लोग बिंदिया से बदला लेने का प्रयास करते हैं और मुखिया उसका घर उजाड़ देता है | इसी उपन्यास में जब बैजू ‘गुलाबी’ से पैदा हुए अपने बेटे के जन्म के बाद लोगों को भोज देने के लिए निमंत्रण देता है तो टिसुन और मुखिया के नेतृत्व में पट्टीदारों की मीटिंग बुलाई जाती है और बैजू का विरोध किया जाता है | बैजू को लोग पापी, अन्यायी और न जाने क्या-क्या कहते हैं | नीरू जब गाँव वालों पर वासना का लांछन लगाता है तो मुखिया द्वारा पूछने पर कि कौन गुलाबी के पीछे पड़ा है उसका नाम बताओ तो इस पर गुलाबी पंचायत में हिम्मत से कहती है “अब जब मैं इतनी दूर निकल आयी हूँ या आप लोगों ने निकलने पर मजबूर कर दिया है तो सारा लेखा जोखा देने में क्या हर्ज ?…मैं तुम लोगों के इशारों पर लट्टू की तरह नाचते रहने के बजाय एक मरद करके बैठ गयी हूँ तो तुम लोगों की छाती पर साँप क्यों लोटता है ? बड़ा धरम-धरम चिल्ला रहे हैं आप लोग | चाची की बांह पकड़कर खींचना कहाँ का धरम है, टिसुन से पूँछिये और…”3 | इस उपन्यास की पृष्ठभूमि आजादी के तुरंत बाद के भारत की है जहाँ समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषवादी सोच के कारण भारतीय गावों में स्त्री का हस्तक्षेप परिवार और समाज में स्वीकार्य नहीं रहा है | इसी कारण इस उपन्यास में स्त्री को कहीं भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और समाज में होने वाले अन्याय के खिलाफ सशक्त आवाज उठाने वाले पात्र के रूप में चित्रित करने में उपन्यासकार असफल हुआ है |  

   ‘जल टूटता हुआ’ की ‘बदामी’ कुंजू तिवारी से अपने ऊपर हुई अत्याचार के बारे में बताती है- “पहले तो मै खूब रोई, लेकिन बाद में गुस्सा आ गया तिवारी | मैंने उसे ललकारा, जबान बंद कर अपनी | जैसा खुद है वैसा सबको जनता है ! क्या नहीं जानती कि तू कहाँ-कहाँ आशनाई करता फिरता था ! कई बार तो पीटा गया था | खुद वैसा है, तभी औरों को वैसा समझता है | गाँव के लोगों ने तुमसे सब झूठ फूस जोड़ा है | किसी दहिजरे की हिम्मत हो तो मेरे सामने आकर कहे |”4

  ‘बदामी’ जब कुंजू के बच्चे की माँ बनने वाली होती है तो बदामी का भाई मुरतिया उसे बहुत मारता पिटता है | गांव वाले भी बदामी को बहुत भला बुरा कहते हैं और उसे बच्चा गिराने की सलाह देते हैं | इस पर बदामी तमतमाकर खड़ी हो जाती है और लोगों को प्रति उत्तर देते हुए कहती है – “ख़बरदार रघुनाथ बाबा, सभापति हो कर येई बात बोलते हैं | यह गिरने-गिराने का काम आप लोगों के घरों की बभनियां कराती हैं | मुझसे किसी के घर का कुछ छिपा नहीं है | औरों के घर का तमाशा देखने सभी जुट जाते हैं, अपने घरों की ओर नहीं देखते | मैं पेट क्यों गिरवाती ? क्या यह कोई पाप का बच्चा | यह अपने बाप का बच्चा है |”5

   ‘दूसरा घर’ में जब राजू सिंह ‘असरफी’ से घर खाली करने के लिए दबाव डालता है तो मोहल्ले के लोग तमाशबीन बनकर मजा लेते हैं कोई इसका विरोध नहीं करता तब ‘चंदा’ राजू पहलवान का विरोध करती है – “नहीं खाली करेगी, जो करना हो कर लो यह कोई इंसानियत हुई |…वाह! यह भी कोई बात हुई | लड़ती हैं हम दोनों, छाती फटती है औरों की | कौन नहीं लड़ता है ? सभी लड़ते हैं अपने घरों में, कोई किसी को निकाल देता है ?…आप लोगों को बड़ा अच्छा लगा कि मोहल्ले की एक औरत को एक बहार का आदमी इस तरह बे-इज्जत कर रहा है और तब, जब की उसका मरद घर पर नहीं है |”6

   इसी उपन्यास में ‘रामकली’ नाम की स्त्री पात्र घरेलू हिंसा की शिकार रहती है | उसका पति बहादुर रोज रात दारू पीकर आता है और रामकली को पिटता है | एक दिन शाम को जब बहादुर रामकली को पिटता है तो गाँव के कुछ लोग उसका विरोध करते हैं  | लोगों की सह पाकर रामकली कहती है – “मारो हरामी को, मारो इस शराबी के पिल्ले को, इस नरक के कीड़े को | अब तक तो मैं इसके लिए लड़ती रही, अब नहीं सहा जाता | कहती हुई रामकली एक डंडा उठा ली और धुंआधार पीटने लगी बहादुर को व् चिल्लाती रही – पकडे रहो पंचो, इस हरामी को छोड़ना मत |”7

   बिना दरवाजे का मकान की प्रमुख स्त्री पात्र ‘दीपा’ का प्रतिरोध सबसे पहले परिवार में अपनी ननद और सास के सामने दिखाई देता है; जब दोनों दीपा  को बिना वजह परेशान करती हैं | दीपा के इसी प्रतिरोध के कारण उसका पति बहादुर उसे लेकर दिल्ली के उत्तम नगर इलाके में आकर रहने लगता है और वहीँ रिक्शा चलाकर अपनी जीविकोपार्जन करता है | बहादुर के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद दीपा को जीविका चलाने के लिए नौकरानी का काम करना पड़ता है और इसी दौरान दीपा का समाज में पहली बार प्रतिरोध दिखाई पड़ता है | एक दिन जब वह खुराना के यहाँ काम करने चार दिन बाद जाती है, खुराना और उसकी बीवी दीपा को बहुत भला बुरा कहते हैं | दीपा उन्हें समझाती रह जाती है कि बहादुर की तबियत ज्यादा ख़राब हो जाने के कारण वह काम पर नहीं आ पायी लेकिन खुराना दंपति उसकी एक भी दलील नहीं सुनते और उसे गलियां बकते हैं | इससे आज़िज आकर दीपा कहती है “देखिये गाली मत दीजिये हरामखोर होती तो मेरी भी कोठी बन गयी होती | बड़े बड़े लोगों का हठी निगलना कोई नहीं देखता, गरीब लोगों के पांव तले चींटी भी मर जाती है तो लोग उन्हें हत्यारा कहते हैं | बीबी जी, हम अगर झूठ बोलते हैं तो अपने पेट के लिए, बड़े लोग झूठ बोलते हैं दूसरों की बरबादी के लिए |”8 इसी उपन्यास में एक और स्त्री पात्र ‘राधा’ है जो अपनी ससुराल में उपेक्षित और प्रताड़ित रहती है | राधा इसलिए प्रताड़ित की जाती है कि वह गरीब परिवार से आती थी | राधा को ससुराल में भरपेट भोजन नहीं मिलता था और उसे घर के के बहार गराज में रहना पड़ता था | राधा का प्रतिरोध उसके ससुराल वालों के सामने तब दिखाई पडता है जब वह अपने मायके से ससुराल आती है ओ उसे भला बुरा कहा जाता है तो वह अपनी सास को जबाव देती है “इसमें सरम काहे की माता जी ! अपने घर ही तो आयी हूँ | अपने घर आने के लिए कोई किसी से पूंछता है क्या ? मायके वालों ने शादी करके आप के यहाँ भेज दिया है तो वहां क्यों रहूँ ?”9

  राधा और दीपा दोनों का प्रतिरोध ससुराल में हो रहे अत्याचारों के प्रति रहता है परन्तु दोनों के प्रतिरोध में मूलभूत  अंतर यह है कि जहाँ दीपा का प्रतिरोध एक ग्रामीण परिवेश में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ है और इसमें उसे अपने पति और श्वसुर दोनों का साथ मिलाता है वहीँ राधा का साथ देने वाला कोई नहीं होता है | वह एक शहरी परिवार की बहू रहती है जहाँ उसकी सास और ननद के खिलाफ साथ देने वाला कोई नहीं होता बल्कि पूरा परिवार ही उसके खिलाफ खड़ा रहता है जिसके कारण राधा का प्रतिरोध कमजोर होता जाता है और अंततः राधा आत्महत्या करने को विवश ओ जाती है; वहीँ इसके बरक्स दीपा को पति का साथ मिलने के कारण वह समाज में समस्याओं से जूझते हुए आगे बढाती है |

   दीपा जब चौधरी के यहाँ काम करने से माना करती है तब चौधरी की बीबी दीपा के ऊपर चरित्रहीनता का लांछन लगती है तो दीपा उसका प्रतिकार करते हुए कहती है “मै आप लोगों के घरों में काम करती हूँ और जानती हूँ कौन कितने पानी में है |सबके घरों की इज्जत आबरू बेपर्द होते देखी है लेकिन मै कुछ बोलती नहीं …हमारी जाति की औरतें अगर बिकेंगी तो गरीबी की मार से बिकेंगी और आप के यहाँ की औरतें बिकती हैं खाली शौक पूरा करने के लिए |”10

  दीपा का प्रतिरोध वहां पर अधिक आक्रामक रूप से देखने को मिलता है जहाँ उसके ऊपर व्यक्तिगत रूप से लांछन लगाया जाता है चाहे वह उसकी अपनी सास या ननद के द्वारा होता हो या जिसके यहाँ वह काम करती है जैसे – मांजी, इंस्पेक्टर की बीबी, चौधराइन, पंडिताइन या पियारी के द्वारा उसके ऊपर लगाया जाता है | जहाँ समाज में विद्रोह करने की बारी आती है वहां वह चुप रह जाती है चाहे वह राधा के परिवार वालों के सामने हो या इंस्पेक्टर और उसकी बीवी के सामने हो | दोनों जगह वह पैसों की लालच में आकर वह समाज की कुरीतियों और अत्याचारों के खिलाफ़ कुछ भी नहीं कर पाती यही दीपा के व्यक्तित्व की कमजोरी है | इन सबके पीछे उसकी गरीबी, अपना घर बनाने की लालसा, पति का अपाहिज होना आदि कारण दिखाया गया है परन्तु ये सभी कारण दीपा के व्यक्तित्व को कमजोर ही करते हैं; यही दोहरा व्यक्तित्व आजा के समाज में निचले तबके का यथार्थ बना हुआ है जिसका अपवाद शायद ही दिखे |

  बीस बरस उपन्यास में ‘वन्दना’ एक पढ़ी लिखी स्त्री पात्र है जो सेना में नौकरी करने वाले शिवरामा से शादी करती है | वन्दना को पहले अपनी ससुराल में सास को प्रसन्न करना पड़ता है क्यों की उसके आने से शिवरामा के घर को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है | वन्दना स्वाभाव, हिम्मत और परिश्रम से अपने सास का दिल जीत लेती है | इसके बाद वह गाँव में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाली, लोगों की मदद करने वाली औरत के रूप में लोकप्रिय होती है | वन्दना के विधवा होने पर जब औरतें बाल कटवाने के लिए उसपर दबाव डालती हैं तो वह चीख पड़ती है “नहीं माँ जी नहीं! इन बालों ने क्या किया है कि इन्हें कटवाऊँ | जिंदगी है तो जीनी पड़ेगी और जीऊँगी तो अपने को कुरूप और घिनौनी बनाकर नहीं |”11 अंततः उसके बाल नहीं कटे जाते हैं |

  वहीँ वह दुसरे जगह समाज में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ लड़ती है | जब सुखदेव की बीवी को ससुराल में जला दिया जाता है और गाँव का कोई भी सदस्य इसका प्रतिकार नहीं करता तो वन्दना ही आगे आती है | पुलिस को बुलाती है | जब थानेदार वन्दना से जलाये जाने का सबूत मांगता है तो वह निडरता से कहती है कि “इसका सबूत मैं हूँ | मै दरवाजा खुलावती रही, इन लोगों ने नहीं खोला, और बहू ने अन्दर से ही चीख कर कहा कि दीदी इन तीनों पापियों ने मुझे जला दिया है मैं मर रही हूँ |”12 इसके बाद बहू के मायके वालों को आश्वस्त करती है कि वह हर जगह उन लोगों के साथ है | अच्छा वकील करिए, केस चलेगा, मैं गवाही दूंगी और पैरवी भी करुँगी |

निष्कर्ष –

   रूपा, बिंदिया, गुलाबी, बदामी, चंदा, रामकली, दीपा, राधा, बन्दना, मिश्र जी के उपन्यासों की प्रमुख स्त्री पात्र हैं | मिश्र जी के उपन्यासों की स्त्री पात्रों की प्रमुख विशेषता यह है कि अधिकतर वे समाज के निचले तबके की कामकाजी महिलाएं हैं; जिन्हें पहली नज़र में स्वछंद प्रवृति का समझने की भूल अधिकतर पाठक कर सकते हैं | लेकिन ‘पानी के प्राचीर’ की बिंदिया और गुलाबी, ‘जल टूटता हुआ’ की बदामी, ‘दूसरा घर’ की चंदा, ‘बिना दरवाजे का मकान’ की रूपा आदि की स्वछंदता परिस्थितिजन्य है जो इन सभी पात्रों को एक ही धरातल पर लाकर खड़ा कर देती है | यह इन सभी पात्रों के व्यक्तित्व की प्रमुख कमजोरी के रूप में मिश्र जी के उपन्यासों में आयी है जिसके जाल में सभी प्रमुख स्त्री पात्र उलझ कर रह जाती हैं और उससे मुक्त नहीं हो पाती | इन उपन्यासों में शिक्षित स्त्री पात्रों की संख्या बहुत ही सीमित है जो समाज या परिवार में किसी भी सकारात्मक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हों | इस श्रेणी के पात्रों में ‘बीस बरस’ की वन्दना प्रमुख है | वन्दना परिवार और समाज दोनों स्तरों पर संघर्ष करती है और दोनों ही स्तरों पर काफ़ी हद तक सफल भी होती है | वन्दना के रूप में मिश्र जी ने स्त्रियों की विभिन्न परिस्थितियों एवं मुद्दों को एक ही पात्र में संकलित करने का प्रयास किया है परन्तु इस पात्र का चारित्रिक विस्तार उपन्यास में बहुत ही सीमित है | वन्दना की परिस्थितियों को देखें तो वह ग्रेजुएट है, बंगाल की है फिर भी मैट्रिक पास शिवराम से जो फ़ौज में सिपाही रहता है से शादी करती है | इस शादी के कारण शिवराम के परिवार को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है जिसके कारण शिवराम के छोटे भाई की शादी नहीं हो पाती | ससुराल में लोगों का व्यवहार ठीक नहीं रहता है | कुछ समय बाद विधवा हो जाती है | दोबारा शिवराम के छोटे भाई से शादी करती है और इन सब के साथ समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती है और असहायों की सहायता भी करती है | मिश्र जी वन्दना के रूप में अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह आदि समस्याओं से पार पाती हुई समाज में एक सकारात्मक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध पढ़ी लिखी महिला का किरदार गढ़ने में सफल हुए हैं | ‘रूपा’, ‘बिंदिया’ से लेकर ‘वन्दना’ तक का सफर तय करने में मिश्र जी को 1961 ई. से लेकर 1996 ई. तक का लम्बा वक्त लग गया |

सन्दर्भ –

  • रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, तृतीय संस्करण 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 36
  • रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, तृतीय संस्करण 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 73
  • रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, तृतीय संस्करण 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 203
  • रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, संस्करण 2004, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 49
  • रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, संस्करण 2004, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 190
  • रामदरश मिश्र, दूसरा घर, संस्करण 2018, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 126
  • रामदरश मिश्र, दूसरा घर, संस्करण 2018, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 190
  • रामदरश मिश्र, बिना दरवाजे का मकान, संस्करण 2012, विद्यार्थी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 20
  • रामदरश मिश्र, बिना दरवाजे का मकान, संस्करण 2012, विद्यार्थी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 35
  • रामदरश मिश्र, बिना दरवाजे का मकान, संस्करण 2012, विद्यार्थी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 81
  • रामदरश मिश्र, बीस बरस, संस्करण 1996, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 95
  • रामदरश मिश्र, बीस बरस, संस्करण 1996, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 102

शिवांकत्रिपाठी,

शोध अध्येत

डॉ सुनील विक्रम सिंह

एसो. प्रोफेसर,

हिंदएवं आधुनिक भारतीय भाषा विभा,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज