42. इक्कीसवीं सदी के हिंदी उपन्यासों में किसान विमर्श – रघुवीर दान चारण
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इक्कीसवीं सदी के हिंदी उपन्यासों में किसान विमर्श – रघुवीर दान चारण
उपन्यास साहित्य हिन्दी की सशक्त विधा है। उपन्यास में किसी घटना की विस्तृत जानकारी तथ्य वर्णित होते हैं। हिन्दी के उपन्यासकारों ने विभिन्न विषयों को आधार बनाकर उपन्यासों की रचना की। हिन्दी कथा साहित्य में ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, जीवनीपरक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि अनेक विषयों से सम्बन्धित उपन्यासों की रचना हुई है। हिन्दी में ग्रामीण जनजीवन से सम्बन्धित उपन्यास भी लिखे गए जिनमें किसान जीवन का बखूबी वर्णन किया गया है। भारतीय किसान का जीवन बहुत ही दरिद्रता, ऋणग्रस्तता एवं असहनीय कष्टों से भरा हुआ है। महाजनी सभ्यता का जाल अंग्रेजों ने भारत में फैलाया था। अकाल, कृषि की पैदावार का कम मूल्य कर का बोझ आदि के कारण किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही थी। नई व्यवस्था से किसानों को भारी संकटों का सामना करना पड़ा। शिवपूजन सहाय, मुंशी प्रेमचन्द, फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, भैरवप्रसाद गुप्त, डॉ बाबूराम, संजीव, सुनील चतुर्वेदी, पंकज सुबीर आदि उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से किसान आन्दोलन का यथार्थ चित्रण किया है।
वर्तमान दौर में साहित्यिक रचनाएँ तो बहुत लिखी जा रही हैं लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसी होती हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद पाठक समाज की उन सच्चाईयों से अवगत हो पाता है, जिन सच्चाईयों को जानते हुए भी वो अंजान बना रहता है। वाकई में रचना वही जिसे पढ़ कर पाठक सामाजिक यथार्थ से रुबरु हो साथ ही मन में कुछ यथार्थ प्रश्न आए और उन प्रश्नों के कुछ हद तक उत्तर भी। कुछ रचनाएँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद पाठक के मस्तिष्क में अनेक सवाल उथल-पुथल करने लगते हैं और उन सवालों का उत्तर खुद से ढूँढने की कोशिश भी करने लगता है। साहित्य सिर्फ पाठक का मनोरंजन ही नहीं करता है बल्कि समाज के यथार्थ से भी रूबरू कराता है
वर्तमान बदलते गाँवों की सूरत में यह तो कतई संभव नहीं है कि सिर्फ किसानी कर्म करके पूरे परिवार के सपनों को पूर्ण किया जा सके। कारण आज के समय में हल-बैल, बछड़े गायब हो चुके हैं। आज 21वीं सदी के दिन हैं। इनकी जगह पर आज ट्रैक्टर, थ्रेसर ने अपनी जगह बना ली है। जिनकी कीमत आज आसमान छू रही है। फलस्वरूप छोटे किसानों के लिए खेती करना और भी दूभर होता जा रहा है। आज पैंतालिस मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। भारत की साठ प्रतिशत आबादी किसानों की है और आज किसानों के माथे पर किसी का हाथ नहीं है ।
कालीचाट उपन्यास मालवा के सिन्द्रानी गाँव की कथा पर आधारित है। इसमें भीमा महाजन द्वारा किए जाने वाले शोषण को दर्शाया गया है। किसान महाजन से कर्ज ले लेते हैं तथा यही कर्ज उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है। वर्तमान समय में किस प्रकार से किसान अपनी जमीन से बेदखल हो रहा है। बैंक, बिचौलिये और नेता किस प्रकार भोले-भाले किसानों को अपने चंगुल में फंसा लेते हैं, कॉरपोरेट और फंडिंग ऐजेन्सियों के एनजीओ द्वारा लाभ का लालच देकर किसान को खेत छोड़ने पर मजबूर करना इत्यादि सभी समस्याओं को सुनील चतुर्वेदी ने इस उपन्यास में दर्शाया है।
जमीन : इस उपन्यास की रचना भीमसेन त्यागी ने 2004 में गरीब किसानों एवं मजदूरों के जीवन को आधार बनाकर की है। उपन्यास की शुरुआत आजादी से प्रारंभ होकर पं. जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु पर समाप्त होता है। किसान एवं खेतिहर मजदूर जमींदारों के शोषण एवं अत्याचार से दबे हुए हैं। गाँव के जमींदार किसानों से बेगार करवाने के साथ-साथ उनके घर की खियों का शारीरिक शोषण भी करते हैं।
उपन्यास में ‘जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर ‘भूदान आंदोलन का उल्लेख भी मिलता है। किसान जमींदारों के शोषण एवं कर्ज से इस तरह बेहाल हैं कि वे जमींदारों को अपनी भूमि देने पर मजबूर हो जाते हैं। इस तरह से यह उपन्यास किसानों के भूमिहीन होने की प्रक्रिया को भी दर्शाता है।
सल्तनत को सुनो गाँव वालों : इस उपन्यास की रचना जयनंदन 2005 में खेती किसानी की समस्या को आधार बनाकर किया है। मंडी की समस्या को उपन्यास के प्रारंभ में ही दिखाया गया है। गाँव के किसानों ने ईख की खेती करना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया कि सरकार द्वारा चीनी की मिल को बंद कर दिया गया है। गाँव की जमीन धान की पैदावार के लिए अनुकूल होते हुए भी पानी की कमी से किसानों के खेत सूख जाते हैं किंतु यह उपन्यास जमींदारी शोषण पर न आधारित होकर, कृषि के व्यवसायीकरण एवं युवाओं का कृषि में रोजगार के अवसरों दिलाने की कहानी पर आधारित हैं। सल्तनत और भैरव मिलकर गाँव के युवाओं में खेती के प्रति रूचि पैदा करने का काम कर रहे हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार उपन्यास में बखूबी निखारा गया है।
हलफनामे : यह उपन्यास किसान जीवन की त्रासदी पर आधारित है, जिसकी रचना ‘राजू शर्मा’ ने वर्ष 2007 में किया । उपन्यास की मूल समस्या पानी की कमी है। पानी की कमी के कारण ही उपन्यास का मुख्य पात्र स्वामीराम आत्महत्या कर लेता है। स्वामीराम की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र मकई मुआवजे की राशि के लिए कोर्ट के चक्कर लगाता है, तभी मकई को शासन तंत्र की सच्चाई का पता चलता है। उपन्यास में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारी किस तरह से किसानों का शोषण करते हैं।
शिवमूर्ति का ‘आख़िरी छलांग’ किसान जीवन पर केन्द्रित उपन्यास है। जो प्रेमचंद की परंपरा की ही एक कड़ी दिखती है। ‘आख़िरी छलांग’ उपन्यास का कथानक परस्पर उलझी हुई किसान जीवन की अनेक समस्याओं का जंजाल है। कथानक का आधार पूर्वी उत्तर प्रदेश का ग्रामांचल है। इसका नायक पहलवान एक किसान है। उसके सामने विरासत में मिली तथा नयी विकास नीतियों के कारण निर्मित अनेक समस्याएँ हैं। वह अपनी सायानी बेटी के लिए दो साल से वर खोज रहा है, बेटे की इंजीनियरिंग की फीस का जुगाड़ नहीं हो रहा है, तीन साल से गन्ने का बकाया नहीं मिल रहा है, सोसायटी से खाद के लिए लिया गया कर्ज चुकता नहीं हुआ है। हर दूसरे महीने में ट्यूबवेल के बिल की तलवार सिर पर लटक जाती है। ऐसी कई समस्याओं को पहलवान किसान के माध्यम से कथाकार ने अपने उपन्यास में उठाया है। शिवमूर्ति ग्रामीण रचनाकार हैं। उन्होंने किसानों की समस्याओं को समझा तथा उनकी समस्याओं को महसूस किया है। पहलवान महसूस करता है कि जैसे नहर के पेट भीतर सिल्ट भर जाती है उसी तरह किसान की तकदीर में भी साल दर साल सिल्ट भरती जा रही है।
किसान जीवन को ही केंद्र में रखकर पंकज सुबीर ने ‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास की रचना की है। इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन और विशेषत: किसानों की जिंदगी पर बहुत करीने से रोशनी डाली गई है। किसान की सारी आर्थिक गतिविधियाँ कैसे उसकी छोटी जोत की फसल के चारों ओर केन्द्रित रहती हैं और किन उम्मीदों के सहारे वे अपने आप को जीवित रखते हैं, यह उपन्यास का कथानक है। ‘रामप्रसाद’ के माध्यम से पंकज सुबीर बताते हैं कि आम किसान आज भी मौसम की मेहरबानी पर किस हद तक निर्भर है। मौसम के उतार- चढाव के साथ ही किसानों की उम्मीदों का ग्राफ भी ऊपर-निचे होता रहता है। किसान इन उतार-चढ़ाव के बीच अपने आप को कोसता रहता है। मैंने नहीं जाना जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है। इस देह को चीर कर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ। उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किये, कभी तू छांह में बैठा। उस पर यह अपमान और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अँधा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।
‘आदिग्राम उपाख्यान’ उपन्यास की मूल समस्या भूमि अधिग्रहण की है, जिसकी रचना कुणाल सिंह ने की है। किसानों की भूमि छीनने के लिए उनको तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं। आदिग्राम की भूमि पर सरकार की तरफ से एक केमिकल फैक्ट्री लगाने का आदेश दिया जाता है अपनी भूमि बचाने के लिए किसान आंदोलन करते हैं। उपन्यास में ईस्ट इंडिया कंपनी के अत्याचार को भी दिखाया गया है। आदिग्राम के किसान भूखों मर रहे होते हैं फिर भी कंपनी उनसे लगान वसूलती है।
‘तेरा संगी कोई नहीं’ उपन्यास में मिथिलेश्वेर के द्वारा बलेसर नाम के किसान को केंद्र में रखकर किसानों की समस्याओं से हमें अवगत कराया गया है। बलेसर के माध्यम से किसानों के भूमि प्रेम को भी दिखाया गया है। किसान गाँव में हजारों समस्याओं को झेलते हुए भी अपनी भूमि को छोड़ना नहीं चाहते हैं। बलेसर के बेटे उन्हें खेती छोड़ने के लिए तरह-तरह से विवश करते हैं किंतु बलेसर अपने फैसले पर अडिग रहते हैं। उनकी खेती उनकी मृत्यु के पश्चात ही छूटती है। उपन्यास में किसान आंदोलन पर भी प्रकाश डाला गया है । खेतिहर मजदूर के गाँव से शहर की तरफ पलायन के कारण को भी उपन्यास में दिखाया गया है।
यह गाँव बिकाऊ है की रचना एम. एम. चंद्रा ने की। इस उपन्यास में किसान एवं खेतिहर मजदूरों के जीवन के विविध पहलुओं से हमें अवगत कराया हैं। खेतिहर मजदूर काम की तलाश में गाँव से शहर जाता है और वहां भी काम न मिलने पर पुनः गाँव का ही रास्ता देखता है । यही स्थिति फतह की है वह गाँव से शहर काम की तलाश में गया था किंतु वहाँ भी फैक्ट्री बंद होने के कारण उसे पुनः गाँव लौटना पड़ता है। बल्ली के माध्यम से बड़े किसानों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है।
‘बहुत लंबी राह’ उपन्यास की रचना कर्मेंदु शिशिर ने बिहार की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर की। इस उपन्यास की मूल समस्या गैर-मजरूआ भूमि की है। गैरमजरूआ ऐसी भूमि होती है जिस पर सरकार का अधिकार होता है। किंतु जमींदारों ने अपने पैसे और रुतबे के दम पर उस पर कब्जा कर लिया है । महतो ऐसे ही गैर- मजरूआ भूमि पर बसा है उसके बदले उसे गाँव के जमींदार मिसिर के यहाँ बेगार करनी पड़ती है, क्योंकि मिसिर ने ही महतो को उस जमीन पर बसाया है। महतो अपने पिता के जमाने से ही मिसिर के घर बेगार करता आ रहा है। महतो के बेटे विभूति ने मिसिर के तालाब से मछली क्या पकड़ ली. मिसिर ने उसकी पूरी जिंदगी ही बदल दी। महतो का पूरा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। जमींदारी शोषण की पराकाष्ठा उपन्यास में दिखाई देती है।
‘हिडिम्ब’ उपन्यास की रचना 2011 में पहाड़ी किसान को आधार बनाकर एस.आर.हरनोट ने की। शावणू नाम का एक किसान जो अपने परिवार की मदद से खेती करता है, उस पर शासन तंत्र की ऐसी कुदृष्टि पड़ती है. कि उसका पूरा परिवार बिखर जाता है। मंत्री को शावण की भूमि पसंद आ जाती है, वह उसे हथियाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है किंतु शावणू किसी भी कीमत पर अपनी जमीन मंत्री को देने को तैयार नहीं होता है। यहीं से शावण के परिवार पर मंत्री द्वारा तरह-तरह के अत्याचार शुरू हो जाते हैं, यह अत्याचार तब तक चलता रहता है जब तक कि शावण का पूरा परिवार समाप्त नहीं हो जाता।
संजीव जी ने फाँस उपन्यास की रचना की जिसका केन्द्र बिन्दू भी किसान को रखा गया है। जो 21 वीं शताब्दी के किसान जीवन का बड़ा सटीक वर्णन करता है। उन्होंने दिखया दिखया है किसान किस प्रकार अपने परिवार की आधार भूल जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पता देश व संसार का भरण- पोषण करने वाले किसान के लिए खेती हमेशा से ही धारे का सौदा रही है वर्तमान समय में तो यह फाँस बन गई है, जो धीरे- धीरे उसे मौत की तरफ धकेल रही है। किसान कर्ज लेकर अपने परिवार को भरण- पोषण करता है। बड़ी कठिनाई से अपने परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर पाता है। वहीं दूसरी तरफ उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर ने तो किसान को अपंग बना दिया है। किसान कर्ज लेकर फसल उगाता है और जब वह अपनी फसल बाजार में लेकर जाता है, तो वहाँ भी उसकी दुर्दशा ही होती है। किसान कर्ज लेता है फिर भी कड़ी मेहनत करता है परन्तु उसका पुरा जीवन अभावों में चला जाता है और अन्त में अपने उत्तराधिकारी के लिए वह कर्ज हो छोड़ कर जाता है। फ़ांस उपन्यास में कर्ज में डूबे किसान के अभावग्रस्त जीवन का एक संजीव चित्रण किया है। कर्ज व अभाव के कारण गरीब किसान मरने के लिए मजबूर है। भर पेट खाना भी उसे नसीब नहीं होता स्वास्थ और शिक्षा प्राप्त करना उसके लिए दूर की कौड़ी है। इसके साथ ही दहेज की चिंता किसान को जीते जी मार देती है वह अपने उताराधिकारी को उतराधिकार में देता है उस वही कर्ज ओर अभावों से भरा जीवन।
इस प्रकार हिन्दी उपन्यासों में किसान-विमर्श के तीन चित्रण प्रमुख रूप से देखे जा सकते हैं। इन चित्रणों में आर्थिक स्तर, सामाजिक स्तर तथा राजनीतिक स्तर तीनों में ही किसान की स्थिति दयनीय है। किसान दिन रात खेतों में मेहनत करता है। कभी तो प्राकृतिक आपदाएं जैसे- अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, अकाल, सूखा इत्यादि उसकी फसलों को नष्ट कर देती हैं, तो कभी किसान की पकी पकाई फसल को साहूकार ले जाते हैं। किसान की इसी स्थिति के कारण निरंतर किसान आत्महत्याएं बढ़ रही है।
रघुवीर दान चारण
केन्द्रीय विश्वविद्यालय मिजोरम, आइज़ोल