41. गिलिगडु उपन्यास में वृद्धों की समस्या – मनुजा
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गिलिगडु उपन्यास में वृद्धों की समस्या – मनुजा
वृद्ध जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति चित्रा मुद्गल जी की कृति ‘गिलिगडु ‘में मिलती है। वृद्धों की समस्या हमारे समाज में बढती ही जा रही है। इसके कारण उनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता का होना है। हमारी दृष्टि संवेदनहीन हो गयी है। हमारे मन में उनके प्रति आत्मीयता एवं सम्मान की भावना का ह्रास हो गया है। हम उन्हें अपने काम के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हमारी नज़र उनकी धन -सम्पत्ति पर है। हम उन्हें अपने काम के लिए प्रयुक्त करते है, किंतु जब उनकी निर्भरशीलता हमारे ऊपर ज्यादा हो जाती है तब वे हमें बोझ लगने लगते है। ऐसे ही विषय -वस्तु को आधार बनाकर लेखिका ने इस कृति का प्रणयन किया है। गिलिगडु में दिल दहला देने वाली पीड़ा की अनुभूति होती है। इसमें दो बुजुर्गों के अकेलेपन, दुःख -गदर्द ,मानसिक, दबाव तथा शारीरिक पीड़ा की अभिव्यक्ति मिलती है।
‘ गिलिगडु ‘का साधारण अर्थ होता है –‘चिडिया ‘।इसमें निहित चिडियों तथा अर्थात अबोध बालिकाओं को बुजुर्गों का सहारा मिलता है। इसमें जीवन के बहुरंगी रूपों का सहारा लेकर उसे उभारा गया है। जसवंत सिंह इस उपन्यास के मुख्य पात्र है, जो अवकाश प्राप्त इंजीनियर थे। इनके साथ ही विष्णु नारायण स्वामी, जो ‘-कर्नल स्वामी ‘कहलाने लगे थे। इन दोनों पात्रों के इर्द -गिर्द पूरी कथा घूमती रहती है। जसवंत सिंह कानपुर निवासी थे। अपनी पत्नी एवं मित्र के निधन के बाद वे अकेले पड़ जाते हैं।उसपर उनकी बवासीर की बीमारी परेशान की हुई थी। वे अपने कानपुर के जायदाद की देखभाल की जिम्मेदारी सुनगुनियां को सौंप देते है। सुनगुनियां उनकी काफी कदर किया करती थी, यही कारण है कि मालिक के कहने पर अपनी बेटियों का नाम रामवती-सोमवती से बदलकर कात्यायनी और कुमुदनी आसरे कर देती है। डॉक्टर के कहने पर वे कानपुर से दिल्ली में आते है। उनके मानसिक तनाव तथा अवसाद की कहानी यहाँ आते ही शुरू होती है। वे घर आकर जिम्मेदारी मिलने से तो खुश होते है परंतु उन्हें जिम्मेदारी मिलती भी तो है टोमी को सैर कराना। टोमी को रोज़ सुबह सैर लाने के क्रम में एक दिन वे गिर पडते है तभी उनकी भेंट कर्नल स्वामी से होती है। कर्नल स्वामी उन्हें घर तक पहुंचाते है परंतु इस अवसर में वे अपने घर बुलाकर चाय पिलाना चाहते है, किंतु यहाँ उनकी परवशता आडे आ जाती है। उनके जूतें घीस -घीसकर पुराने पड़ चुके थे, परंतु बेटे नरेंद्र को इतनी फुर्सत ही नहीं थी की उसकी नज़र उनके फटे जूतों पर जाती। यदि नज़र जाती भी तो जूते पर खर्च किए गए पैसों को वह फिजूल -खर्ची करार कर देता। उनके फटे जूते को देखकर कर्नल स्वामी उन्हें एक जोडी जूतें भेंट स्वरूप देते है। यहां जसवंत सिंह अत्यंत अंतर्मुखी व्यक्तित्व के थे वहीं कर्नल स्वामी उनके विपरीत बहिर्मुखी व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपनी विचारधारा से उन्मुक्त तथा खुले विचारों वाले थे। वे अपने पुत्र, बहू तथा पोते -पोतियों के साथ सम्मानपूर्वक रहा करते थे। उनकी बहू उनका ख्याल रखती थी तथा उनकी स्थिति भांप कर उनके अनुरूप ही भोजन बनाया करती थी। वे अपने बेटे -बहू तथा पोते -पोतियों के साथ खुले विचारों के साथ रह रहें थे, परंतु जसवंत सिंह को यह सुख प्राप्त न हो सकता था।
कर्नल के पुत्रों उनके पैसों के लालची थे। उनके तीन बेटे थे, जिनमें से दो बेटे उनके ही पैसे से फ्लैट लेते हैं किंतु वहाँ उनके पिता के लिए जगह मिल पाना असम्भव -सा प्रतीत होता है। बड़ा बेटा पैसे के लालच में उन्हें अपने पास रखता है। उसकी पत्नी अपनी पुत्रियों -कात्यायनी और कुमुदिनी को छोड़कर अपने नृत्य गुरु के साथ भाग जाती है। दोनों पोतियों की जिम्मेदारी कर्नल के ऊपर आ जाती है और वे अपने पेंशन का आधा हिस्सा उनकी पढ़ाई के लिए दे देते हैं और आधे हिस्से को बस्ती के गरीब बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते हैं। उनका बड़ा बेटा पैसे की लालच में उन्हें गला दबाकर मार डालता है। कर्नल के जीवन की इस वास्तविकता से परिचित होकर जसवंत सिंह के पैरों तले जमीन खिसक जाती है। पडोसी श्रीवास्तव का यह कहना कि “ऐसी कसाई औलादों से तो आदमी निपूता भला। हमें इस बात का कोई गम नहीं कि हमारी कोई अपनी औलाद नहीं “।यह कथन औलाद वालों को एक तीर की भांति चुभती है तथा जीवन की वास्तविकताओं से हमारा परिचय करवाती है। जसवंत सिंह का स्थिति अत्यंत दारुण एवं मार्मिक बन जाती है जब वे यह सोचते या कहते हैं कि इस घर में एक नहीं दो कुत्ते हैं –“एक टोमी, दूसरा अवकाश प्राप्त सिविल इंजीनियर जसवंत सिंह। टोमी की स्थिति निस्संदेह उनकी बनिसबत मजबूत है। उसकी इच्छा -अनिच्छा की परवाह में बिछा रहता है पूरा घर। उनके लिए किसी को बिछे रहना जरुरी नहीं लगता “।यह बात कहानी को उसके मर्म तक पहूंचा देती है और हमें सोचने के लिए मजबूर भी करती है कि हम अपने बुजुर्गों को आदमी नहीं जानवर से भी बत्तर जीवन जीने के लिए बाध्य कर रहे हैं। हमारे समाज में बुजुर्गों की तीन श्रेणियाँ है, एक वे है, जिनका कोई परिवार नहीं है, इसलिए अकेले रहने को अभिशप्त है, दूसरा वर्ग जो है जो भरा -पूरा परिवार होते हुए भी अकेले रहने को बाध्य है और तीसरे वे है जो परिवार में रहकर भी अकेले हैं। इस उपन्यास में तीनों तरह के पात्र मौजूद है। जसवंत सिंह, कर्नल स्वामी, मिस्टर श्रीवास्तव ये तीनों वर्गों के मर्मस्पर्शी चित्रण उपन्यास में मिलता है।
उद्देश्य
यह गिलिगडु उपन्यास वृद्ध जीवन के तमाम अंधेरे कोनों को अनावृत करता चलता है। यह वृद्ध जीवन की पीड़ा की नयी अभिव्यक्ति है। बाजारवाद, भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण के दौर में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच मानवीय रिश्तों का अभाव हो गया है जिस कारण वृद्धों के प्रवास की समस्या मुँह खोले खड़ी दीखती है। बुढ़ापा जीवन की अंतिम अवस्था है आज के नौजवान पीढ़ी के लोग कल बुढ़ापा बन जाएंगे। तो हमारी आचरण उनके लिए बदलना पड़ेगा।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- गिलिगडु-चित्रा मुद्गल, सामायिक प्रकाशन -2010
- नव विमर्श नव चिंतन -डा़. नीता दौलतकर, डा. राजेन्द्र पाँवर, शुभम प्रकाशन, कानपुर- 2017
- हिंदी साहित्य विविध विमर्श -डा. प्रभातकुमार, शुभम प्रकाशन, कानपुर -2020
- हिंदी में समकालीन विमर्श -प्रो. प्रदीप श्रीधर, विनय प्रकाशन, कानपुर -2014
- 21वीं सदी के साहित्यिक विमर्श -डा. नीताश्री दौलतकर, विनय प्रकाशन, कानपुर -2021
- समकालीन हिंदी उपन्यास समय और संवेदना -डा. वी. के. अब्दुल जलील, वाणी प्रकाशन
मनुजा के मणि
शोध छात्र
हिंदी स्नातकोत्तर एवं शोध विभाग,
एन. एस. एस. हिंदू कॉलेज, चंगनाशेरी