May 5, 2023

13. स्त्री विमर्श के आईने में गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘माई’ : एक अध्ययन – अमला थॉमस

By Gina Journal

Page No.: 89-96

स्त्री विमर्श के आईने में गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘माई’ : एक अध्ययन – अमला थॉमस

सारांश

समाज में शोषितों के दर्जे में रखे जानेवाले कई वर्गों में एक प्रमुख वर्ग है – स्त्री।जन्म से लेकर स्त्री शोषण का शिकार है और स्वतंत्रता एवं समानता से वंचित भी है।स्त्री की मुक्ति का मार्ग बहुत जटिल है । आधुनिक स्त्री का जीवन इसका दृष्टांत है।स्त्री विमर्श में स्त्री मुक्ति और सह अस्तित्व की भावना आती है।स्त्री विमर्श को किसी एक सिद्धांत की सीमा में नहीं रखा जा सकता ।आज हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को केंद्र में रखकर कई स्त्री लेखिकाओं ने साहित्य सृजन करने में प्रयत्नरत है खासकर गीतांजलि श्री ने।प्रस्तुत शोध पत्र में गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘माई’ में चित्रित स्त्री विमर्श पर विचार किया गया है।

स्त्री की अस्मिता को लेकर जहाँ-जहाँ स्त्री शब्द गूँज उठता है उसी को स्त्री विमर्श का दर्जा दिया जा सकता  है।“ ‘स्त्री-विमर्श’ स्त्री के जीवन के अनछुए अनजाने पीड़ा जगत के उद्घाटन के अवसर उपलब्ध कराता है परन्तु उसका उद्देश्य साहित्य एवं जीवन में स्त्री के दोयम दर्जे की स्थिति पर आँसू बहाने और यथास्थिति बनाए रखने के स्थान पर उन कारकों की खोज से है जो स्त्री की इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं । वह स्त्री के प्रति होनेवाले शोषण के खिलाफ संघर्ष है। स्त्री के शोषण के सूत्र जहाँ बच्चों को बेटे और बेटी की तरह अलग-अलग ढंग से बड़ा करने और गलत ढंग से सामाजीकरण से जुड़ते हैं वहीं प्रजनन व यौन सम्बन्धी शोषण से भी।” 1

पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा निर्धारित ज़िन्दगी जीने केलिए समाज स्त्रियों को मजबूर करते हैं।इस अवस्था से बाहर निकलना स्त्रियों केलिए बेहद ज़रूरी है।सदियों से स्त्री पुरुष वर्चस्व समाज के अत्याचारों का शिकार बनती रही है। हमारे समाज में पुरुष का अपना पहचान है, स्थान है और सम्मान भी।स्त्री समाज में अपनी अस्मिता,स्थान और सम्मान कायम रखना चाहती है।

गीतांजलि श्री अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली भारतीय लेखिका है ।हिंदी कथा साहित्य में उन्होंने अपनी एक खास पहचान बना रखी है ।सिद्धहस्त कथा साहित्यकार गीतांजलि श्री ने विभिन्न विमर्शों पर लेखनी चलाती रही हैं जैसे स्त्री विमर्श, किन्नर विमर्श,वृद्ध विमर्श,पर्यावरण विमर्श आदि । गीतांजलि श्री द्वारा लिखित पहला उपन्यास है ‘माई’।स्त्री विमर्श की दृष्टि से यह उपन्यास उल्लेखनीय हैं। गीतांजलि श्री ने ‘माई’ उपन्यास के ज़रिये स्त्री विमर्श को नये ढंग से अंकित किया है।लेखिका ने परंपरा एवं रीति-रिवाज़ों के आड़ में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार, शोषण आदि का चित्रण इस उपन्यास में की है।

भारतीय स्त्री का जीवन यथार्थ क्या है इसका शब्दांकन लेखिका ने इस उपन्यास में की है।‘माई’ में स्त्री जीवन की दैनिक परेशानियों का खूब चित्रण किया गया है। स्त्री के जीवन संघर्ष की सच्चाई को इस उपन्यास के ज़रिये दिखाया गया है।इस उपन्यास में गीतांजलि श्री ने स्त्री विमर्श से जुड़े ज़रूरी बिंदुओं को व्यक्त किया है।इसमें एक परिवार के तीन पीढ़ियों की स्त्रियों की स्थिति को दर्शाया है।

`माई´ उपन्यास का मुख्य पात्र है `माई´।उसका असली नाम है रज्जो।उत्तर प्रदेश के किसी छोटे शहर की बड़ी – सी ड्योढ़ी में बसे एक भारतीय संस्कृति को लेकर चलनेवाली बहू है माई।माई एक मौन,झुकी हुई साया थी, इधर से उधर फिरती, सबकी जरूरतों को पूरा करने में जुटी। माई एक संस्कारी एवं आज्ञाकारी बहु है । वह कम बोलती है और अपने ऊपर हो रहे शोषण को चुपचाप सहती भी है।वह पढ़ी लिखी है फिर भी उसका पति उसको अनपढ़ मानते है।उसके पति, सास और ससुर उसकी इज़्ज़त नहीं करते हैं। पढ़ी लिखी होते हुए भी माई अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाती नहीं है। संस्कारी और आज्ञाकारी बहू होना ही उसका अभिशाप है। अधिकांश भारतीय स्त्रियों की तरह माई में सहनशीलता कूट-कूट कर भरा है।माई भारतीय समाज के हरेक स्त्री का प्रतिनिधि है जो अपने परिवारवालों केलिए अपनी पूरी ज़िन्दगी न्योछावर करने केलिए राज़ी है।माई का यह स्वभाव उसकी बेटी सुनैना और बेटा सुबोध को बिलकुल पसंद नहीं है और उनकी नज़र में माई बेचारी है। सामाजिक व्यवस्था में स्त्री पर हो रहे साज़िश की वास्तविकता से सुनैना अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी।

“असल में अपने देखे और समझे के प्रति शक को लेकर माई की शुरुआत होती है । माई को मुक्त कराने की धुन में बहन और भाई उसको उसके रूप और सन्दर्भ में देख ही नहीं पाते । उनके लिए – उनकी नई पीढ़ी के सोच के मुताबिक – माई एक बेचारी भर है । वे उसके अन्दर की रज्जो को, उसकी शक्ति को, उसके आदर्शों को – उसकी ‘आग’ को देख ही नहीं पाते ।” 2

बाबू `माई´ का पति है।वह विवाहेतर संबंध रखता है, फिर भी माई बाबू से लडती नहीं है। इस अन्याय के खिलाफ ज़रा आवाज़ भी नहीं उठाती है ।दादी `माई´ की सास है और वह माई पर रौब जमाती है। नशे में दादी का पति उसको मारता है। दादा `माई´ का ससुर है जो एक हेड-मिस्ट्रेस के साथ विवाहेतर संबंध रखते है। औरतों का घर के सामने की तरफ दिख जाना भी उन्हें पसंद नहीं था । मगर हेड-मिस्ट्रेस की बात कुछ और थी।माई की तरह दादी भी अपने ऊपर हो रहे शोषण को चुपचाप सहती रहती है।माई और दादी द्वारा नारी शोषण का असली रूप लेखिका ने उपन्यास में दिखाया है। ये दोनों नारियाँ अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को सहती है।उनकी ओर से ऐसा कोई प्रतिरोध या विरोध नहीं जो स्वाभाविक रूप से होना ही है।

सुबोध जो माई का बेटा है अपने स्कूल में गिटार क्लास जाना शुरू कर दिया मगर सुनैना के स्कूल में ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। पढ़ाई के अलावा एक विषय था, होम साइंस – पकाना, सिलना, बुनना – जिसमें सुनैना को कोई रुचि नहीं थी। यहाँ समाज में होने वाले लड़का और लड़की के भेदभाव को समझाया गया है। लड़का हो तो वह होम साइंस के अलावा कोई भी विषय पढ़ सकता है। मगर लड़कियों के लिए मात्र होम साइंस ही है। यहाँ समाज लड़का और लड़की दोनों की अभिरुचि निर्धारित करते हैं। समाज बच्चों के मन में छोटी उम्र में ही लड़का-लड़की भेदभाव डालते हैं।अपनी मनपसंद कपड़े पहनने की स्वतंत्रता सुनैना को उस घर में नहीं थी ।सुनैना जिस विषय पढ़ना चाहती थी उस विषय को पढ़ने का मौका भी उसे नहीं मिला। उसे डॉक्टर बनने की इच्छा थी मगर वह नहीं बन पायी – स्त्री होने के कारण ।

दादा चाहते थे कि सुनैना अंग्रेज़ी सीख जायें पर बोले नहीं। अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में बातचीत करने का अधिकार उसे नहीं थी । सिर्फ अंग्रेज़ी सीखने की इजाज़त है। उसे कुछ भी बोलने की इजाज़त नहीं है क्योंकि वह एक लड़की है।जब सुबोध पैदा हुआ तो घर में बाबू, दादी और दादा बहुत खुश थे क्योंकि लड़का पैदा हुआ है। दादी ने उसे बहुत लाड़ प्यार देकर पाला। माई को अपने बेटे को  डाँटने तक की इजाज़त नहीं थी। जब सुबोध रोयेगा तब उसे संभालने की ज़िम्मेदारी माई के ऊपर थी। यानी कि रोते बच्चे को देखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ माँ के ऊपर। सुनैना और सुबोध के परवरिश को लेकर दादी हमेशा माई पर बरस पड़ती थी। उसका मानना है कि बच्चों को पालने का सारा दायित्व सिर्फ माँ पर है।

सुबोध और सुनैना दोनों की एक ही धुन थी कि माई को यहाँ से निकाल ले जाएंगे। एक लड़की होने की वजह से घर में सुनैना के लिए कई रोक-टोक दादा और बाबू लगाते हैं।अगर सुनैना को घर से चुपके से निकलना है तो माई उसकी मदद करती थी । सुनैना के `बायलौजी´ के `फॉर्म´ पर दस्तखत माई ने किया। दादी को सुनैना का उछलना-कूदना बुरा लगता है। एक लड़की होने की वजह से सुनैना की ज़िन्दगी में कई पाबंदियाँ थी।

हमारे पुरुषसत्तात्मक समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग नियम बनाया गया है। एक लड़की को कैसे हंसना है, बैठना है, बर्ताव करना है आदि हमारे समाज तय करके रखा है। स्त्री के कंधों पर नैतिकता की ज़िम्मेदारी क्यों है? सदियों से यही चलते आ रहे है कि सिर्फ स्त्रियों पर ही नैतिकता लागू है।

माई एक कठपुतली बनकर उस घर में जी रही थी। सुबोध और सुनैना माई को हमेशा बचाती रही और उनके अलावा माई को और कोई सहारा नहीं था।बाबू का अन्य स्त्री के साथ विवाहेतर संबंध है किंतु माई इसके खिलाफ़ कुछ भी नहीं कर पाई। वह अपने बच्चों को छोड़कर नहीं जाना चाहती थी इसलिए वह सब कुछ सहती है और उस घर में ही रहती है । पुरुषसत्तात्मक समाज के साज़िश का परिणाम है कि स्त्रियाँ अपने ऊपर हो रहे शोषण को झेलने की मानसिकता रखती हैं। स्त्रियाँ तभी सफल हो जायेंगी जब वे इस पुरानी एवं घिसीपिटी सोच को तोड़कर अपनी ज़िन्दगी में आगे बढ़ने को तैयार हो जायेंगे और आगे चलकर शोषण को न सहने की आदत को स्वीकार करेंगे।

माई कष्ट सहकर त्याग करती रही और उसके त्याग का फल दूसरे लोग भोगते रहे। वह कई तरह के व्रत लेती थी, अपने पति के लिए, पुत्र के लिए, संतानों के लिए। भारत में स्त्रियाँ अपने पति की मंगलकामना को लेकर व्रत करती थी । मगर पुरुष अपनी पत्नी की मंगलकामना के लिए कोई भी व्रत नहीं लेते थे।यह हमारे समाज की सदियों पुरानी व्यवस्था है।

जब माई सुबोध और सुनैना के साथ कहीं निकलती हैं तो बाबू माई से नज़र मिलाते हैं,तब वह लौट आती है।बाबू के डर से माई कहीं जाने के लिए तैयार भी नहीं होती । यह सब देख कर तो सुबोध को बहुत गुस्सा आता था और वह कहता था कि ज़बरदस्ती कोई क्या ही कर सकता है।माई बाबू के हाथों का एक कठपुतली थी। बाबू के आगे माई कुछ नहीं कर सकती थी । सुबोध कहता है,“उसने खुद को इतना दुर्बल बना रखा है। असल अपराध उसी का है। जुल्म सहनेवाला ज़ुल्मी बनाता है। जाए, लड़े खुद अब अपनी लडाई।” 3 पुरुषसत्तात्मक समाज स्त्री को शादी के बंधन में कैद कर रखते हैं।उसे कठपुतली की तरह उपयोग करते हैं। स्त्री अपने पति के खिलाफ या उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकती । वह पिंजरे में कैद पंछी की तरह है जिसे कोई स्वतंत्रता नहीं है।

माई घर से बाहर निकलने को,खुद को बदलने को तैयार ही नहीं होती थी। बार-बार सुनैना और सुबोध उसके लिए लड़ते हैं लेकिन माई ही उसके संग दगा करती है। बाप से माई को बचाने की कोशिश ये दोनों बच्चे करते है लेकिन माई पति के सामने झुक जाती है।

सुबोध बाबू के दकियानूसी सिद्धांतों पर सवाल उठाता है। माई बीमार है फिर भी घर में मेहमानों की कोई कमी नहीं है और सबके लिए खाना माई ही बनाती हैं तो सुबोध को इस बात पर गुस्सा आता है और वह बाबू से बहस करता है। तब माई कहती है कि तुम क्यों ज़बरदस्ती हमें बदलना चाहते हो। बाबू माई को अज्ञानी कह दिया तो सुबोध को और भी गुस्सा आता है और वह बाबू से कहता हैं कि आप तो पढ़-लिखकर अज्ञानी हैं,अंधविश्वासी हैं और वह अंग्रेज़ी में यह कह कर ठोक दिया कि यू टॉक लाइक ए फूलिश इलिट्रेट। तब माई ने उसे डाँट दिया कि अंग्रेज़ी में अटर-पटर कुछ भी कहने की छूट मिल गई है क्या और अपने पिता की इज़्ज़त  नहीं कर सकते तो यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं है। तब सुनैना सोचती है “ जब कोई अपनी बेड़ियों से खुद ही बंधे रहना चाहे तो हम कैसे छुड़ाएं ?” 4 अगर कोई स्त्री अपने ऊपर हो रहे शोषण को रोकना चाहती है तो सबसे पहले उसे खुद अपने लिए खडे होना चाहिए। यहाँ माई खुद अपने ऊपर शोषण होने पर भी प्रतिरोध नहीं करती है।माई हरेक भारतीय स्त्री का प्रतिनिधि है जो अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती है।

माई बाबू के लिए व्रत रखती, रातोरात उठकर उनके मेहमानों के लिए भोजन बनाती है,उनके हर सहूलियत का ख्याल रखती हैं। यह सब देखकर सुनैना और सुबोध माई के पक्ष में खड़े होकर लड़ाई करना चाहते है किंतु माई उनके खिलाफ़ खड़ी होकर पति का पक्ष लेती है।इसलिए बच्चे हैरान हो जाते हैं ।सुनैना और सुबोध दोनों अपने घर को जेल मानते थे।

बुआ सुनैना की शादी के बारे में पूछताछ कर उसे परेशान करती थीं। तब भी माई उसका समर्थन करके बोलती थी कि सबसे बड़ी बात है अपने पैरों पर खड़े होना और आज के ज़माने में लड़की स्वावलंबी है तो बाकी सब अच्छा ही होगा।माई अपने बच्चों की भलाई के बारे में हमेशा सोचती थी, मगर वह अपने बारे में एक बार भी नहीं सोचती थी।

माई सुनैना का मार्गदर्शक थी। माई को ड्योढ़ी के चंगुल में छोड़कर नहीं जा सकती थी। सुनैना वहीं रह गई। माई का असर सुनैना पर थी।लेकिन सुनैना कभी भी माई नहीं बनना चाहती है।“मुझे माई नहीं बनना, मैं माई वैसे भी नहीं बनूँगी, माई खुद मुझे माई नहीं बनाती, मैं चाहूँ भी तो माई नहीं बन सकती, वह सिफ़त नहीं मुझमें, मैं माई को झकझोड़के झटक देती हूँ, अलग, मुझे त्याग बुरा लगता है क्योंकि वही माई का बोझिल इतिहास है, मुझे उसकी तरह दे देके देने को ही लेना नहीं बनाना है, मुझे उसकी तरह शहादत में मक़सद नहीं पाना है, मुझे उसकी तरह नम्रता और उदारता को अपराध नहीं बना देना है, उसके इतिहास से लड़ना है, उसे नकारना है, और इसीलिए लेना है, लेके पाना है, उसके बाद दूँगी, लेने के साथ दूँगी, पर तब तक लडूंगी, उसी से लडूंगी, माई जो शाश्वत है, जो मुझमें है, जो आग में, राख में, हमेशा रहेगी, जिसके आगे मैं शीष नवाती हूँ, उससे लडूंगी ।” 5

परंपरागत पुरुषसत्तात्मक समाज का प्रतिनिधि माई – अंत तक उसी परंपरा का अनुसरण कर जीती है।माई की मृत्यु के बाद बच्चों को ऐसा लगा कि माई के जाने के बाद खाने का स्वाद बदल गया है।ड्योढ़ी की महक बदल गई है। सुबोध और सुनैना तो कब से माई को ही पकड़ रखे थे और अब जब एकदम ही देर हो गई थी,लगने लगा कि उनकी चाभी उस ताले की है ही नहीं जिसे वे खोलना चाहते थे और जहाँ माई थी। खाली हैं हाथ तो उनके । सुनैना के अंदर माई तड़पने लगी थी। सुबोध और सुनैना को ड्योढ़ी में घुटन होती थी। वे वहाँ से निकल जाना चाहते थे, माई को निकाल ले जाना चाहते थे। सुबोध निकल गया। माई चली गई। मगर सुनैना कहीं बीच में अटकी रह गई। सुनैना विलायत न जाने का फैसला करती है और सुबोध उसे बहुत समझाने की कोशिश करता है मगर नाकामयाब हुआ।

माई पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के दबाव के बीच फँसी स्त्री है।सुनैना और सुबोध अपनी माँ को ड्योढ़ी से मुक्त करने में असफल होते है और सुनैना खुद उसमें जकड़ जाती है।सुनैना का चरित्र बहुत अंतर्द्वंद्व से गुज़रा हुआ है क्योंकि वह माई नहीं बनना चाहती थी मगर धीरे-धीरे उसके चरित्र में माई के चरित्र की विशेषताएँ नज़र आने लगती है।

निष्कर्षतः हम कह सकते है कि हिंदी की स्त्री लेखिकाओं में गीतांजलि श्री का स्थान अनन्यसाधारण है। लेखिका ने ‘माई’ उपन्यास द्वारा पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री की दयनीय स्थिति का चित्रण पाठकों के सामने रखने का प्रयास किया हैं। इस उपन्यास में स्त्रियों के जीवन संघर्ष और मनःस्थिति को दिखाया गया है। आधुनिक युग में भी स्त्री पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है। वह आज भी आज़ादी के लिए तरसती रहती है।स्त्रियों को अपने ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाना चाहिए और अपनी अस्मिता का सही पहचान भी उसे होना चाहिए ।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

  • ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’, रेखा कस्तवार, पृ.25
  • ‘माई’ उपन्यास, गीतांजलि श्री, फ्लैप से
  • ‘माई’ उपन्यास, गीतांजलि श्री , पृ.128
  • वही, पृ.103
  • वही, पृ.167

अमला थॉमस

शोधार्थी,हिंदी विभाग,महाराजास कॉलेज,एर्णाकुलम,केरल