May 5, 2023

10. पर्यावरणीय चेतना एवं जागरूकता से ओत-प्रोत हमारा समकालीन हिन्दी साहित्य – रीतिका पाण्डेय (पी-एच.डी.शोधार्थी)

By Gina Journal

Page No.: 68-76

पर्यावरणीय चेतना एवं जागरूकता से ओत-प्रोत हमारा समकालीन हिन्दी साहित्य – रीतिका पाण्डेय (पी-एच.डी.शोधार्थी)

 

सारांश –                                      

समकालीन कवि एवं लेखक अपनी रचनाओं द्वारा हमें जागरूक कर रहे हैं, हमें बता रहे हैं कि पर्यावरण को असंतुलित कर हम विकास की ओर उन्मुख नहीं हो सकते । प्रोद्योगिकी के विकास से प्रकृति असंतुलित हो गयी है । मानव जीवन अपने चारों ओर के पंचभूत तत्वों पर आश्रित है । मिट्टी, जल, अग्नि, गगन और वायु इन पांच तत्वों का अस्तित्व में रहना नितांत आवश्यक है पर आज के दुस्समय में मानव अपने भौतिकता और विलासिता की चकाचौंध में स्वार्थी होकर प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन कर रहा है । इन सभी के बढ़ते संकट पर समकालीन साहित्यकारों ने अपनी अपनी दृष्टि से अपने रचनाओं में वर्णन किया है । समकालीन दौर में कविता और कहानियों में प्रकृति का मात्र चित्रण नहीं हुआ बल्कि प्रकृति स्वयं उपस्थित है ।

 

बीज-शब्द –

पर्यावरण-विमर्श, पर्यावरण- असंतुलन, जागरूकता, गंगास्नान, सांस्कृतिक, विषाक्त, नदियाँ, चिंता, स्वच्छता एवं पवित्रता, पोलिथिन, औद्योगीकरण, दधिची-वृक्ष

विषय-प्रवेश –

 हमारा शरीर पंचतत्व -पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से बना है । यह पंचतत्व पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं । हमारी भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से पर्यावरण की शुद्धता पर बहुत विचार किया जा रहा है । वेद और उपनिषद भी पर्यावरण की बात करते हैं । प्रकृति में वायु, जल, मिट्टी, पेड़- पौधों, जीव जंतुओं का जो संतुलन विद्यमान है, उसे ही हम पर्यावरण कहते हैं । पर्यावरण  दो शब्दों के मेल से बना हैं -परि+आवरण। जिसमे परि का अर्थ है चारों तरफ तथा आवरण का अर्थ है ढके हुए । अर्थात हमारे आसपास जो कुछ भी हमें दिखाई देता है वह सब कुछ हमारे पर्यावरण है और इस पर्यावरण के बारे में जानना, समझना, इसके लिए क्या उचित है क्या अनुचित इसका ज्ञान रखना ये सभी बातें पर्यावरणीय जागरूकता का विषय है। इन सब के अभाव में हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । इस तरह  हमारा जीवन पर्यावरण पर आश्रित है । प्राचीन काल से ही साहित्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण, प्राकृतिक दृश्य का चित्रण दिखाया गया है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक प्रकृति का भिन्न-भिन्न रूप साहित्य में दृष्टिगोचर होता है । विद्यापति की पदावली में प्रकृति वर्णन है तो संत साहित्य के प्रवर्तक कबीर तथा जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई  स्थलों पर रहस्यात्मक वर्णन हुआ है । तुलसी की रामचरितमानस का अशोक वाटिका हो या चित्रकूट प्रसंग सब में प्रकृति की महिमा बताई गई है । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम सीता को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है जो  वृक्ष के महत्व को दर्शाता है इस संबंध में एक पंक्ति है-“तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुं,कहुं सीया कहुं लखन लगाएं ।”आधुनिककाल में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘कुटज’में लिखा है- “यह धरती मेरी माता है और मै इसका पुत्र हूँ । इसीलिए मै सदैव इसका सम्मान करता हूँ और मेरी धरती माता के प्रति नतमस्तक हूँ ।”[1] इस तरह आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक में पर्यावरण दृश्य हमें कविता और कहानियों में दिखाई पड़ते हैं। समकालीन दौर में आए पर्यावरणीय विचार से यह अलग है; अलग इस मायने में है कि आधुनिक काल तक जो पर्यावरण के संबंध में हमारे साहित्य में लिखा गया वह पर्यावरण-विमर्श के तहत नहीं लिखा गया वहाँ मात्र उद्दीपन या आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण हुआ है । समकालीन दौर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें पर्यावरण विमर्श सम्मिलित है। पर्यावरण में आए असंतुलन ने पर्यावरण -विमर्श को जन्म दिया ऐसा कहना गलत नहीं होगा ।

                                        समकालीन दौर में पर्यावरण विमर्श एक महत्वपूर्ण विमर्श के रूप में हमारे समक्ष आता है। समकालीन भारत में उत्तर आधुनिकता के साथ कई प्रकार के विमर्श जन्म लेते हैं जैसे-दलित विमर्श, किन्नर विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पर्यावरण विमर्श, दिव्यांग विमर्श इत्यादि। पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ही हम प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। वन विभाग के सभी पदाधिकारी, कर्मचारी सहित शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य विभिन्न संस्थाएं इस दिवस को हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। कुछ लोग इस दिन पर्यावरण-दिवस के सुअवसर पर पौधारोपण का कार्य करते हैं। ये सभी कार्य हमारे पर्यावरण को सुरक्षित व संरक्षित करने में किया गया एक कार्य है। यह प्रकृति के प्रति हमारे दायित्व को बताता है।

                                                   इस संकट काल मे हिन्दी के अनेक कवियों ने चिंता व्यक्त की है । आज के बढ़ते तकनीकी एवं औद्योगीकरण के जीवन में त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, अशोक पजपेयी, शिशुपाल सिंह जैसे कवियों ने अपनी कविताओं में इस तथ्य को बखूबी उभारने की कोशिश की है । ये कवि पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को एक गंभीर विषय के रूप में अपनाकर, आज की ज्वलंत समस्या पर्यावरण –प्रदूषण का चित्रण अपनी रचनाओं मे करके हमारे बीच जागरूकता फैलाते हैं । हिन्दी के वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति ने भी अपनी अनेक कविताओं में पर्यावरण प्रदूषण के बढ़ते आतंक का चित्रण किया है। इनकी कविता विशेष अर्थ में सामाजिक एवं सांस्कृतिक विमर्श की कविता है। पर्यावरण विमर्श से सम्बन्धित उनकी कई कविताएँ हैं। ”गंगास्नान”, “गंगातट” काव्य संग्रह की एक कविता है । इसमें कवि ने एक बूढी, जर्जर स्त्री की गंगास्नान की आखिरी इच्छा को चित्रित किया है । इस जर्जर स्त्री के मन में गंगा आस्था की ज्योति है । लेकिन कवि का मन मानने को तैयार नहीं है क्योंकि आज गंगा मलिन है।

“गंगा मे स्नान कर रही

वह बूढी मैया…

अपने प्राणों तक को प्रक्षालित कर रही है, पवित्र कर रही है

महाप्रस्थान-प्रस्तुत, डगमग पांवों वाली वह बूढी मैया

तुम क्या जानों, क्योंकि तुम्हारे लिए नहीं बची है कोई पवित्र नदी

तुम्हारी सारी नदियाँ अपवित्र हो गई हैं-विषाक्त

तुम्हारे हत्पिंड की गंगोत्री सूख ही गई है

पीछे और पीछे खिसकती,आख़िरकार”[2]

इसके अलावा पर्यावरण विमर्श के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण कविता है –“नदी और साबुन” जो “गंगातट” काव्य संग्रह की ही महत्वपूर्ण कविता है। नादियों को प्रदूषित होता देख ज्ञानेंद्रपति ने इस कविता में नदी को लेकर चिंता जताई है । वे इस कविता में नदी से पूछते हुए कहते हैं-

“नदी!

तू इतनी दुबली क्यों है?

और मैली कुचली …

मरी हुई इच्छाओं की तरह मछलियाँ क्यों उतराई हैं?

तुम्हारे दुर्दिन के दुर्जल में ,

किसने तुम्हारा नीर हरा,

कलकल में कलुष भरा।

बाघों के जुठारने से तो

कभी दूषित नहीं हुआ तुम्हारा जल …

आह! लेकिन

स्वार्थी कारखानों का तेजी पेशाब झेलते

बैगनी हो गई तुम्हारी शुभ्र त्वचा

हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने

हथेली भर की एक साबुन की टिकिया से

हार गई तुम युद्ध ”[3]

                        कवि ने इस कविता के माध्यम से दिखाया है कि नदियों की स्वच्छता एवं पवित्रता नष्ट हो गई है । नदी जो पहले स्वच्छ हुआ करती थी अब वह मैली कुचैली एवं क्षीण हो गई है। नदी के बुरे दिनों के गंदे जल में मरी मछलियाँ उतर रही है। कवि की रुष्टता भी इस कविता मे दिखाई देती है । वह नाराज होकर पूछता है कि किसने नदी के पवित्र जल को मलिन किया? बाघों के पानी पीने से नदी का जल कभी दूषित नहीं हुआ। कछुओं के दृढ़ पीठों से उलीचा जाने पर भी नदी का जल कम नहीं हुआ। स्वार्थी लोगों ने अपने क्षुद्र स्वार्थों एवं आर्थिक दृष्टीकोण से कारखानों की भरमार कर दी है । इन कारखानों से रिसते तेजाब से नदी का शुभ्र जल अपनी शुभ्रता खोकर बैंगनी हो गया है। हिमालय नदी के सिरहाने में है। वह पर्वताधिराज हिमालय की पुत्री है। किन्तु वह आज एक साबुन के टिकिया से अपने अस्तित्व का युद्ध हारने में अभिशप्त है। पोलिथिन जिसका प्रयोग हम आज सभी प्रचुर मात्रा में करते हैं चाहें बाजार से सब्जियां लानी हो या फिर कोई अन्य घरेलू सामग्री । इसके प्रयोग ने जल, वायु और भूमि सभीको दूषित कर दिया है। जल, वायु और भूमि के दूषित होने से अनेक रोगों तथा विकारों का जन्म होता है । निरंतर बढ़ते जा रहे पोलिथिन का उपयोग मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहा है । पोलिथिन के बेहद उपयोग व उनसे होने वाली समस्याओं को लीलाधर मंडलोई ने ‘पोलिथिन की थैलियाँ’ शीर्षक कविता मे कवि ने पोलिथिन से उत्पन्न भयावह त्रासदी की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इस समस्या का चित्रण कुछ इस तरह किया है –

“करोड़ों या अरबो

कितनी हो सकती हैं

पालिथिन की थैलियाँ

कितनी नदियों का दम घुट सकता है

इन थैलियों में

पालिथिन ! पालिथिन !

तंग हूँ मैं इस पालिथिन से ।”[4]

                                           कथा साहित्य की बात करें तो मेहता नगेंद्र सिंह समकालीन हिन्दी कथा के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। वे समकालीन हिन्दी कविता के एक ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने हिन्दी कविता को नयी दिशा एवं नूतन दृष्टि प्रदान की है । उनकी कहानियां अंतर्मन को कुरेदने को विवश करती हैं । पर्यावरण चेतना और जागरूकता से संबंधित इनकी एक लघु कथा है-‘वृक्ष ने कहा ‘ जिसमें यह बताया गया है कि एक बरगद के वृक्ष ने  किस प्रकार लोगों को यह सीख दी कि हरे-भरे कोमल वृक्षों को काटा जाना किसी भी प्रकार उचित नहीं है चाहे उसकी लकड़ियां पूजा-अर्चना के कार्य में ही क्यों ना लाई गई हो। बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर किस प्रकार हम उसमें वृक्षारोपण कर अपनी आर्थिक स्थिति को अच्छी कर सकते हैं तथा दूसरे की भी मदद कर सकते हैं इसको भी इस लघु कथा में बताया गया है। परोपकार की भावना के साथ एक वृक्ष किस प्रकार दधिचि वृक्ष बन गया इसका विवेचन भी एक उनकी लघु कहानी जिसका शीर्षक है  ‘वृक्ष-दधीचि’ में किया गया है। जिसमें दिखाया गया है कि कैसे एक बालक रोजाना एक विशालकाय वृक्ष के नीचे अपने सहपाठियों के साथ खेलने के लिए आता है, अचानक एक दिन उस बालक का आना, खेलना बंद हो गया। वृक्ष को उसका इंतजार था वह चिंतित रहने लगा। काफी दिनों के बाद वह बच्चा वृक्ष के पास आया वृक्ष कारण जानना चाह रहा था वह बच्चा भी उसकी भाषा समझ कर कहा-“मैं बीमार था मेरे पिता भी बीमार हैं बैलून खरीदने के लिए मुझे पैसा चाहिए था। उसकी बात को सुनकर वृक्ष ने कहा-“प्यारे बच्चे मैं पैसा तो नहीं दे सकता पर अपना फूल फल अवश्य दे सकता हूं। तुम उन्हें बेचकर पैसा पा सकते हो। इतना कह कर वृक्ष ने अपना सिर हिला दिया उसके फूल फल धरती पर बिछ गए वह बच्चा उस वृक्ष के फूल फल लेकर चला गया फिर उसका आना बंद हो गया। इसी बीच बच्चा बड़ा हो गया, तरुण हो गया अब उसका विवाह भी हो गया था कुछ सालों बाद वह पुनः उसी वृक्ष के पास आया और बोला-“हे वृक्ष बाबा मुझे अपने परिवार के लिए एक घर चाहिए।”वृक्ष ने प्यार जताते हुए कहा-“मैं तुझे घर तो नहीं दे सकता यदि चाहो तो मेरी शाखाएं काट कर अपना घर बना लो।” बालक उसकी शाखाएं लेकर चला गया उससे अपना घर बनवाया और घर बनाने के कुछ दिन बाद वह पुनः वृक्ष के पास आया और बोला-“बृक्ष बाबा मुझे व्यापार के लिए एक नाव चाहिए।” इस पर वृक्ष बोला-” मेरे धड़ के ऊपर वाला तना ले लो नाव बन जाएगी।” उस जवान नवयुवक ने वैसा ही किया। फिर वह नवयुवक धीरे धीरे प्रौढ़ हो गया। एक दिन वह अपनी प्रौढ़ावस्था में वृक्ष के पास आया शायद धन्यवाद देने के लिए। अबकी बार उसके कुछ मांगने के पहले ही वृक्ष अपनी कॉपती स्वर में बोला-“अब तो मै ठूंठ बन गया हूं। मेरे पास देने को कुछ बचा नहीं है यदि चाहो तो यह ठूंठ भी ले जा सकते हो। “इस पर वह लालची प्रौढ़ घर एवं व्यापार के लिए उस ठूंठ पेड़ को भी लेता गया।“[5] इस तरह इस कथा के माध्यम से हमें वृक्ष की परोपकारिता के बारे में बताया गया है कि किस तरह से वृक्ष निस्वार्थ व नि:शुल्क, परार्थ की भावना से हमें अपना सबकुछ समर्पित कर देते हैं। शिर्षक की दृष्टि से इस कथा को ‘वृक्ष दधिचि ‘नाम उचित ही दिया गया है। जिस प्रकार महर्षि दधीचि ने बिना अपनी परवाह के देवताओं को अपनी हड्डी समर्पित कर दी थी उसी प्रकार वृक्ष भी हमें अपना सब कुछ दे देते हैं। हमारे लिए ऑक्सीजन (जीवनदायिनी हवा) से लेकर लकड़ियां, घर, फल फूल सभी। वास्तव में यह दधीचि की तरह महादानी होते हैं।

                                         मेहता नरेंद्र सिंह ने अपने लघु कथाओं में वृक्ष को कहीं दधीचि के समान महादानी बताया है तो कहीं किसी व्यक्ति के सुखी संपन्न होने में वृक्ष  कितना महत्व रखता है इसका विवेचन किया है कहीं पानी की महत्ता, उसके विस्तार पर चर्चा है तो कहीं पानी के बढ़ते संकट पर, तो कहीं स्वयं हमारी धरती मां पत्र लिखकर सामान्य जन से अपनी पीड़ा को बताती हैं एक पत्र में धरती माँ  कहती हैं -“तुम लोग खुश हो या नही, चैन से हो या बेचैन हो, पता नहीं। मैं तो वैश्विक ताप से तप रही हूं। असह्य वेदना से तड़प रही हूं। यह कह कर तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट देने की मेरी मनसा नहीं है। मैं माँ  हूं, अपने बच्चों को कष्ट नहीं दे सकती। कष्ट देना तो दूर, मैं तुम्हें कष्ट में देख भी नहीं सकती। तुम सभी ने मुझे अपने अपने ढंग से कष्ट दिए, तपिश दी। मुझसे मेरी हरीतिमा छीनी। मेरे सुहाग -श्रींगार को नष्ट किया।”[6]इसी तरह पानी की प्रकृति को एक लघु कथा पानी में कुछ इस तरह वर्णित किया गया है-” पानी हूं। प्रकृति प्रदत्त, अमृत धन, जीवन तत्व। गरीब-अमीर एवं अन्य सभी जीवधारियों के लिए  बना हूं, नि:शुल्क वितरण की प्राकृतिक सामग्री। यही कारण है कि धरती पर जीवधारियों के उद्भव के पूर्व सृष्टिकर्ता के द्वारा मेरा सृजन किया गया , ताकि प्रत्येक जीवधारी मुझे ग्रहण कर अपने को गतिशील बनाते हुए विकसित करता रहे। तरल हूं, रंगहीन हूं एवं गंधहीन हूं। धरती की चट्टानी कोख से प्रस्फुटित होकर झरनों एवं नदियों के माध्यम से आप तक पहुंचता रहा हूं। आकाश से भी बरसता रहा हूं धरती पर लगभग तीन- चौथाई भाग में आच्छादित हूं। कूप, तालाब और जलाशय में संग्रहीत हूं। सागर मेरा सबसे बड़ा संग्रहालय है। परन्तु, वहां खारा हूं। सिर्फ समुद्र और बादल बनने के काम आता हूं।”[7] समकालीन दौर का पर्यावरण साहित्य बताता है कि किस प्रकार प्रकृति के अतीत गाथा गौरवमई रही और धीरे-धीरे नील गगन, मलयज पवन, पावन निर्मल जल और हरियाली से युक्त प्रकृति किस प्रकार मानवी अत्याचार से क्षत-विक्षत हो गयी। कुल्हाड़ियों  के भय से जंगल कराहने लगा। हमारी अन्नपूर्णा मिट्टी जहरीली हो गई। जैव विविधता चरमरा गयी; देखते-देखते सुंदर श्रृंगारित पृथवी विधवा हो गई।

 

निष्कर्ष-

पर्यावरण के प्रति हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम विकास के हर कदम पर पर्यावरण की सुरक्षा का दाइत्व भी उठाएं। प्रदूषण को रोकने का हमें एक अटूट संकल्प करना होगा ।समग्रत: कहा जा सकता है कि समकालीन जीवन की सच्चाइयों को संवेदना के स्तर पर उजागर करने की सार्थक कोशिश हुई है जिसमें पर्यावरण जागरूकता का एक प्रमुख स्थान है । पर्यावरण पर विमर्श (बात-चित )ने यह विचार दिया है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी और हमारी आने वाली पीढ़ी को यह पता चले कि नदी के सौन्दर्य को किस प्रकार देखना है, पेड़ों के बीच चलती मंद हवाओं की आहटों को हम उसके संगीत को किस प्रकार सुने, पक्षियों की कलरव को किस प्रकार से सुने इत्यादि इत्यादि। समकालीन दौर के साहित्य में पर्यावरण के बारे में जागरूकता काफी बढ़ी है-विशेषकर भारत जैसे आबादी बहुल देश के लिए जहां कृषि और उद्योग के कारण धरती पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है और इस दबाव के दुष्प्रभाव खतरनाक होते हैं ऐसी स्थिति में पर्यावरण के मुद्दे को गंभीरता से लेने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए हम अपने इस सबसे सुंदर ग्रह पृथ्वी को सुरक्षित रख सके।

[1] हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुटज(निबंध ) ,पृ.सं.-32

[2] समकालीन हिन्दी साहित्य में पर्यावरण विमर्श , सम्पादक-डॉ.ए.ऐस.सुमेष, पृष्ठ सं.-28

[3] समकालीन हिन्दी साहित्य में पर्यावरण विमर्श , सम्पादक-डॉ.ए.ऐस.सुमेष, पृष्ठ सं.-21

[4] पत्रिका-प्रगतिशील वसुधा, अप्रैल जून-2008 ,पृ.सं.-104

[5]  ‘वृक्ष ने कहा’, मेहता नगेन्द्र सिंह ,पृ.सं.-7

[6] . धरती की पाती , वही,पृ.सं.-28

[7] पानी, वही ,पृ.सं.-48

रीतिका पाण्डेय (पी-एच.डी.शोधार्थी)

राजीव गाँधी विश्वविद्यालय (अरुणाचल-प्रदेश )