May 5, 2023

9. दोहरा अभिशाप :दलित स्त्री चेतना का सशक्त हस्ताक्षर – हिना

By Gina Journal

Page No.: 60-67

दोहरा अभिशाप :दलित स्त्री चेतना का सशक्त हस्ताक्षर – हिना

दोहरा अभिशाप कौशल्या बैसंत्री जी द्वारा लिखित हिंदी की पहली दलित महिला आत्मकथा मानी जाती है। जो दलित महिलाओं के संघर्ष को उजागर करती है।यह दलित चेतना का उदय, विशेषकर दलित महिला चेतना के उदय को प्रदर्शित करती है।अन्य आत्मकथाओं के विपरीत उनकी आत्मकथा न केवल अत्यधिक दर्द ,जातिगत आधार पर की जाने वाली घृणा को व्यक्त करती है बल्कि स्वयं के संघर्ष के साथ-साथ अपने माता-पिता के संघर्ष को भी अभिव्यक्त करती है। यह आत्मकथा दलित समाज के गुण दोषों का ईमानदारी से विवेचन करती है

                     बैसंत्री जी अंबेडकरवादी कार्यकर्ता और ‘भारतीय महिला जागृति परिषद’ की संस्थापक सदस्य है और ‘मैं ‘की अपेक्षा ‘हम’ की उनकी आवाज एक सामूहिक चेतना को उजागर करती है।दोहरा अभिशाप आत्मकथा एक तरफ स्त्री होने का तथा दूसरी तरफ दलित होने का अभिशाप भोगने वाले स्त्री जीवन की त्रासदी को उजागर करती है।यह आत्मकथा दलित महिलाओं की तीन पीढ़ियों के संघर्ष, विशेष रूप से स्वयं के निर्माण की कहानी से संबंधित है।साथ ही यह दलित महिलाओं को परिवार के भीतर और बाहर मिलने वाले शारीरिक दर्द और मनोवैज्ञानिक पीड़ा को भी रेखांकित करती है।बैसंत्री जी की आत्मकथा समाज में दलित महिलाओं की दयनीय स्थिति को उजागर करती है। दलित और स्त्री होने की पीड़ा और वेदना क्या होती है इसका चित्रण आत्मकथा में है।दलित समाज में अशिक्षा, बेरोजगारी, अंधश्रद्धा, निम्न आर्थिक स्थिति एवं रीति-रिवाजों के कारण स्त्रियों का शोषण होता है और उन्हें संपूर्ण जीवन अभावों में जीना पड़ता है तो दूसरी तरफ स्त्री होने का दर्द है।स्त्री के प्रति पुरुष की निर्ममता, असंवेदनशीलता ,वासनांधता, और पुरुष  अहंकार से उपजी दासतावृति आदि के कारण एक दलित स्त्री दोहरे अभिशाप में जीती है।इसी दोहरे शोषण और अभिशाप के आधार पर लेखिका ने ‘दोहरा अभिशाप ‘नामक शीर्षक अपनी आत्मकथा को दिया है। कौशल्या बैसंत्री जी ने आत्मकथा में दलित समाज में व्याप्त रीति रिवाज, खानपान छुआछूत, अंधश्रद्धा, सामाजिक मान्यताओं, आचार विचार आदि को चित्रित किया है।

                      बैसंत्री जी ना तो लेखिका थी और ना ही साहित्यकार लेकिन एक दलित समुदाय में पैदा होने के कारण उन्हें भारतीय समाज में भेदभावपूर्ण जाति व्यवस्था और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के कारण शारीरिक और मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ा जिसकी अभिव्यक्ति ने लेखिका के रूप में उनकी प्रतिष्ठा स्थापित की। एक पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को हमेशा एक अधीनस्थ भूमिका निभानी होती है और समाज महिलाओं को चरित्र प्रमाण पत्र प्रदान करने के लिए उत्सुक रहता है। वे भूमिका में लिखती हैं,”पुत्र ,भाई और पति सब मुझे पर नाराज हो सकते हैं परंतु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूं ‌।मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं को आए होंगे परंतु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती और जीवन भर घुटन में जीती है समाज की आंखें खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने लाने की जरूरत है। दलित महिलाओं के बारे में बात करना और दलित विमर्श में उनका स्थान प्रासंगिक होने के साथ-साथ चुनौतीपूर्ण भी है ऐसा इसलिए है क्योंकि इस वर्ग को न तो मुख्यधारा के नारीवाद और न ही दलित विमर्श में अभिव्यक्ति मिली यद्यपि वर्तमान समय में महिलाओं के लिए अधिक उत्कृष्ट अवसर है फिर भी बहुसंख्यक दलित महिलाएं अभी भी शिक्षा और व्यवसाय से दूर है।ऐसे में यह रचना दलित महिलाओं की आत्मकथा ,उसके सामाजिक सांस्कृतिक संस्कारों पर केंद्रित होकर अब तक अपने मौलिक अधिकारों और सामाजिक अस्तित्व से वंचित रही दलित महिलाओं के प्रश्नों को मजबूती से उठाती है।

लेखिका दलित समुदाय में मौजूद पारंपरिक भेदभावपूर्ण प्रथाओं पर प्रकाश डालती है और दलित समुदाय के भीतर कई पूर्वाग्रहों और सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह और बहु विवाह आदि को उजागर करते हुए कहती है कि,”वैसे एक दो औरतों से शादी करना उस वक्त कोई बुरा नहीं मानता था। यह आम बात थी”1 बैसत्री जी की आजी( नानी)की शादी तब हो जाती है जब वह केवल आठ वर्ष की थी और वह कम उम्र में ही विधवा हो गई थी। उच्च वर्गीय समाज की अपेक्षा विधवा और तलाकशुदा पुनर्विवाह दलित समुदाय में कष्टकर नहीं था। दलित समाज में पुनर्विवाह करने की अलग-अलग पद्धतियां थी जिसे ‘पाट’ कहा जाता था जो सामान्य विवाह से अलग है लेखक की आजी (नानी)  का भी पाट हुआ था उनकी आजी का तेरह साल की उम्र में ऐसे व्यक्ति के साथ पाट  किया गया जिसकी पहले से ही एक पत्नी थी उनके आजोबा (नाना) क्रूर और धूर्त व्यक्ति थे।वह उनकी आजी के साथ गाली गलौज और मारपीट करते थे और उनकी आजी सब सहती रही। लेखिका लिखती है कि,” आजी ऐसे जीवन से तंग आ गई थी, परंतु क्या करती? कहां जाती?एक दिन आजी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया आजी ने पक्का निश्चय कर लिया कि वह अब इस घर में नहीं रहेगी ।भाइयों के पास भी नहीं जाएगी, खुद अपने पांव पर खड़े रहकर अपने बच्चों को पालेगी।”2 उनकी आजी एक स्वाभिमानी महिला थी।वह अपने बच्चों के साथ उनके पति से अलग रहने लगी ।वह अपने पति के पास वापिस नहीं गई और स्वाभिमान से अपना जीवन जीने का फैसला किया। दोनों महिला पात्र (लेखिका की आजी और मां )शक्तिशाली महिलाओं के रूप में उभरी, उन्होंने अपने पति से स्वतंत्र पहचान बनाई  और उनकी अपनी निर्णय लेने की शक्ति है उनकी आजी स्वाभिमानी और आत्म स्वतंत्र व्यक्तित्व की मिसाल है।

              लेखिका बचपन से ही भयानक गरीबी का सामना करती है ।वे पांच बहनें और एक भाई है। लेखिका महार समुदाय से संबंधित है और उनके पिता अंग्रेजों के क्लब में काम करते थे।बाद में उन्होंने एक पारसी बेकरी में काम करना शुरू किया यहां उन्होंने 20 वर्षों तक काम किया लेकिन उनका वेतन कभी नहीं बढ़ा।अंततः उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी ।लेखिका की स्वाभिमानी मां को अपने पति को इस तरह काम करते देखना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उस काम को छोड़ने का दृढ़ निश्चय कर लिया।बेगार और आर्थिक शोषण के प्रति उनके प्रतिरोध और चेतना को व्यक्त करने के लिए लेखिका लिखती है कि,”तब मां ने उसी के सामने बाबा का हाथ पकड़कर बेकरी के बाहर उनको खींचा और बेकरी वाली से कहा:तुम मेरे पति से इतना काम करवाती हो और उसकी कद्र भी नहीं करती। कई वर्षों से एक पैसा भी नहीं बढ़ाया, अब मैं यहां नौकरी नहीं करने दूंगी चाहे हम भूखे ही रहे ,परंतु यहां काम नहीं करने दूंगी।”3 लेखिका के परिवार को  अक्सर उनके दलित होने का एहसास कराया जाता था। चूड़ी बेचने के दौरान उनकी मां को बार-बार अस्पृश्य होने का दंश झेलना पड़ा। सवर्ण महिलाएं लेखिका की मां से चूड़ी पहन कर स्नान करती थी क्योंकि वह अछूत थी। हालांकि अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें यह अपमान झेलना पड़ता था।बार-बार उसी अनुभव से गुजरते हुए वह अपने धैर्य को खो देती हैं और उच्च जाति के मोहल्ले में अपना समान बेचना बंद कर देती है उन्हें डांटते हुए कहती है कि,”जब आपको काम पड़ता है तब जाति का ख्याल नहीं रहता है?”4

               जाई बाई एक अछूत महिला दलित महिलाओं की मुफ्त शिक्षा के लिए अपने घर में स्कूल चलाती थी जहां लेखिका और उनकी बहनों ने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की ।लेखिका लिखती है कि,” जाई बाई कभी कभी हमारे घर भी आया करती थी, मां उनका आदर करती थी मां ने हम सब बहनों को पढ़ाने का निश्चय कर रखा था”5   गोंड समुदाय की एक आदिवासी महिला ने आदिवासी महिलाओं के लिए भी एक स्कूल खोला। लेखिका की मां पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के संदेश ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का बहुत अधिक प्रभाव था बाबा साहब के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण थी यही वह दलित समुदाय को उपदेश देते थे।इसीलिए लेखिका की मां ने घोर गरीबी में भी अपने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया ।उसने अपनी लड़कियों के विवाह की चिंता भी छोड़ दी और उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए कृत संकल्प हो गई।

                              लेखिका ने जाई बाई का स्कूल छोड़ने के बाद

भिड़े कन्याशाला में प्रवेश लिया जहां वह अकेली दलित छात्रा थी और दो कुनबी जाति की लड़कियां थी। उन्हें कई बार जाति आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा। लेखिका दलित होने के कारण उदास और हीन महसूस करती थी और हमेशा अपने दलित होने के कारण डरी रहती थी साथ ही अपने पिता के ‘कबाड़ी’के व्यवसाय के कारण अपमानित महसूस करती थी।एक बार उन कुनबी लड़कियों ने उनसे उनकी जाति के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया,” मैंने डर के मारे कह दिया कि मैं भी कुनबी जाति की हूं।”6  भारतीय समाज के सबसे निचले तबके से आने के कारण लेखिका को स्कूल में चोरी के आरोप का मानसिक आघात सहना पड़ा। उनके माता-पिता स्कूल की फीस का भुगतान करने में असमर्थ थे ,स्कूल की हेड मिस्ट्रेस से फीस माफी के लिए अपने पिता को गिडगिडाते हुए देखकर लेखिका को बहुत अपमान महसूस हुआ लेखिका लिखती है कि,”बाबा ने हेडमिस्ट्रेस के चरणों के पास अपना सिर झुकाया दूर से क्योंकि वह अछूत थे, स्पर्श नहीं कर सकते थे, बाबा का चेहरा कितना मायूस लग रहा था उस वक्त, मेरी आंखें भर आई।”7 इतना सब कुछ होने के बावजूद बैसंत्री जी अपनी बस्ती की पहली मैट्रिक पास लड़की थी हालांकि अपने स्कूल के दिनों में उच्च जाति के लड़कों और महिलाओं से अपमानजनक ताने और घृणा का सामना करना पड़ा वे ताने देते हुए कहते थे कि,”ये हरिजन बाई जा रही है ,दिमाग तो देखो, इसका बाप तो भिखमंगा है,  यह साइकिल पर जाती है ।”8  उच्च जाति के लोग यह नहीं चाहते थे कि दलित शिक्षा प्राप्त करें तथा इस बात से भी परेशान थे कि एक गरीब मजदूर के बच्चे कैसे पढ़ रहे हैं?लेखिका एक अभिनेत्री और सुरीली आवाज वाली गायिका बनना चाहती थी लेकिन संसाधनों के अभाव के कारण सफल नहीं हो सकी । बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने हमेशा प्रत्येक भाषण और बैठक में शिक्षा प्राप्ति पर महिलाओं के लिए एक प्रेरक भाषण दिया।बाबा साहब से प्रेरित होकर लेखिका जनजागृति के कार्यक्रमों तथा नुक्कड़ नाटकों में भी भाग लेती थी। जुलाई 1942 में अखिल भारतीय दलित वर्ग महिला सम्मेलन की एक बैठक हुई,आमतौर पर महिलाएं सामाजिक कार्यों में भाग नहीं लेती थी फिर भी इस बैठक में लगभग 30,000 महिलाएं आई और इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं की उपस्थिति देखकर बाबा साहब बहुत प्रसन्न हुए। इस सम्मेलन में बाबा साहब कच और देवयानी की एक पौराणिक कथा सुनाते हैं जिन्होंने बड़ी कठिनाई से शिक्षा अर्जित की।बाबा साहब अंबेडकर चाहते थे कि दलित किसी भी कीमत पर ज्ञान प्राप्त करें, क्योंकि शिक्षा ही सभी प्रकार के बंधनों से बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता है। लेखिका ने भी संगठन को मजबूत करने के लिए उन महिलाओं से बातचीत की जिनकी समाजिक कार्यों में रुचि थी।

                       विवाह के पश्चात भी जाति के कलंक ने उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति के बावजूद हर जगह उनका पीछा किया। लेखिका के पति बिहार में उच्च पद पर आसीन हो गए थे और उनके वहां पहुंचने से पहले ही उनकी जाति वहां पहुंच गई थी। उनके  कार्यालय का  चपरासी बिहार का भूमिहार था और क्लर्क कायस्थ था।यह चपरासी दलित अधिकारी के अधीन काम नहीं करना चाहता था इसके विपरीत वह लेखिका से सभी खाद्य पदार्थ और बर्तन उधार लेता था तथा जातिगत अहं के कारण खाना स्वयं पकाता था और इसी मानसिकता के प्रभाव में आकर लेखिका के बच्चों से दूरी बनाए रखता था इसीलिए लेखिका ने उसे डांटते हुए कहा कि,”हम से सामान लेकर हमारे ही बर्तन में खाना बनाते तुम्हें छूत नहीं लगती क्या ?तब वह बेशर्म की तरह हंसने लगा।”9 दूसरी जगह तबादला होने के बाद भी वहां पर कलर्क जो जाति से ब्राह्मण था, देवेंद्र (लेखिका के पति) के पत्रों को छुपा कर रख देता था जिस कारण  देवेंद्र के कार्य में विघ्न पडने लगा जिससे देवेंद्र को बहुत परेशानी होती थी। बाद में जब उसकी साजिशों का पता लगा तो देवेंद्र ने उसे निलंबित कर दिया। निलंबित किए जाने के बाद वह फूट-फूट कर रोने लगा और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। यह ब्राह्मणों के दोहरे मानको को दर्शाता है ।लेखिका कहती है कि,”मतलब होने पर ब्राह्मण जरूर पांव पकड़ता है तब उसकी श्रेष्ठता गायब हो जाती है।”10 इसके अलावा जब उच्च जाति की महिलाएं जो चिटफंड डालती थी लेखिका को जाति की पहचान छिपाने के लिए दोषी ठहराती है तो लेखिका पत्र लिखकर अपना प्रतिरोध प्रदर्शित करते हुए लिखती है कि ,”आपने मुझसे मेरी जाति  पूछी ही नहीं ,क्या मैं अपनी जाति का पोस्टर अपनी पीठ पर चिपका कर रखूं?”11

                                                लेखिका दलित महिलाओं के लिए सामाजिक कार्य की एक नई यात्रा पर निकली।उन्होंने एक दलित महिला संगठन ‘महिला समता समाज’ का गठन किया तथा दलित  पुरुषों और महिलाओं के साथ अपनी आवाज उठाने तथा  चेतना फैलाने के लिए हुई बातचीत के दौरान उन्होंने दलित  पुरुषों के पाखंडी रवैया के बारे में कुछ आश्चर्यजनक तथ्य जाने। दलित पुरुष कार्यकर्ता सामाजिक कार्यों में महिलाओं की भागीदारी के लिए भाषण देने के शौकीन है लेकिन जब दलित महिला कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि वे अपनी पत्नियों को इन कार्यों में भाग लेने दे तो उन्होंने अपनी पत्नियों को आने से मना कर दिया। इसके अलावा वह मुख्यधारा के महिला संगठनों और भारतीय नारीवाद पर प्रकाश डालती है यह दलित महिला मुद्दों के प्रति उदासीनता और उपेक्षा पूर्ण रवैया है जो दलित महिलाओं के मुद्दों को रेखांकित करने में विफलता का सूचक है। मुख्यधारा के भारतीय नारीवाद ने सभी महिलाओं को समान रूप से देखा लेकिन भारत में दलित नारीवाद के उद्भव ने सभी महिलाओं के मुद्दों में एकरूपता के इस विचार को चुनौती दी।संक्षिप्त में दलित नारीवाद का तर्क है कि जाति और लिंग श्रेणियों को अलग-अलग रूप  में देखने की बजाय एक साथ देखना चाहिए।लेखिका के अनुभवों से पता चलता है कि दलितों को सर्वना महिला संगठन से अलग होकर लड़ना होगा अन्यथा एक दलित आवाज खो जाएगी।दलित समुदाय के कटु अनुभवों से गुजरते हुए लेखिका कहती है कि उसके समुदाय के लोग अपनी बेहतरी के लिए परिवर्तन के जुनून से रहित है साथ ही उसके समुदाय के पुरुष खुद ही अपनी महिलाओं को समाज के लिए काम करने से रोकते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार यह आत्मकथा निरंतर ऊपर की और गतिशीलता की दिशा में दलित महिलाओं की अधीनता और गैर मुखर भूमिका से मुखर और स्वायत्त पहचान की यात्रा को प्रदर्शित करती है।बैसंत्री जी की संघर्ष और सिद्धि की यात्रा सभी बाधाओं से भरी है ।उन्हें भारतीय समाज का हिस्सा बनने के लिए सभी बाधाओं को पार करना पड़ा। इसके अलावा लेखिका अपने लेखन के माध्यम से अपनी नई पहचान बनाने में सफल हुई।बहरहाल महिलाओं की कथा उनकी दुर्दशा और समान अधिकारों के साथ-साथ उनके सामाजिक राजनीतिक दावे और प्रतिरोध के माध्यम से महिलाएं स्वयं के निर्माण के लिए समाज के सबसे उत्पीड़ित वर्ग का चित्रण करती है। दलित महिलाओं को अपना अधिकार पाने के लिए समाज में बहुत संघर्ष करना पड़ा और यह संघर्ष आज भी जारी है। दलित महिलाएं दोहरा या तिहरा अभिशापपूर्ण जीवन जीने को बाध्य है लेकिन वर्तमान में स्थिति में थोड़ा ही सही परंतु सुधार हुआ है।महिलाएं शिक्षा ग्रहण करके अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुई है तथा उन्होंने समाज में फैले जातिवाद तथा लैंगिक भेदभाव से लड़ने में अपनी सशक्त भूमिका अदा की है।

संदर्भ सूची:

1, दोहरा अभिशाप कौशल्या बैसंत्री पृष्ठ  18

2, वही  पृ  19

3, वही  पृ 44

4, वही  पृ  85

5, वही  पृ 38

6 वही  पृ  41

7,वही  पृ 47

8, वही पृ 60

9 ,वही पृ 103

10 वही  पृ 103

11 वही  पृ 116

नाम    –  हिना

वर्तमान में विद्यार्थी

शैक्षणिक योग्यता  – स्नातकोत्तर हिंदी , जे. आर.एफ.