May 25, 2023

76. स्त्री विमर्श: कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न – पूनम सिंह

By Gina Journal

स्त्री विमर्श: कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न

पूनम सिंह

सारांश
स्त्री मुक्ति से जुड़ी देह मुक्ति की धारणा ने आज भारतीय समाज में हलचल मचा रखी है। परिवार, विवाह, न्याय तथा धर्म जैसी संस्थाएँ पुरुष के निजी हितों की रक्षा करने के साथ ही स्त्री को हीन साबित करती आई हैं। पुरुष सत्ता द्वारा मातृत्व को स्त्री की दुर्बलता, योनि को कलंक एवं यौन उन्मुक्तता को अनैतिक बनाकर इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि स्त्री स्वयं अपने प्रतिरोधों को भूलकर इन मानदण्डों को ही अपनी कसौटी बना बैठती है। जब स्त्री अपनी देह पर अपने अधिकार की बात करती है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह उन्मुक्त स्वेच्छाचार की माँग कर रही है, इसका अर्थ अपनी रागात्मक अनुभूतियों और सम्बन्धों का स्वीकार ही नहीं बल्कि इसमें अपनी देह पर किसी पुरुष के अनचाहे आधिपत्य के प्रति नकार भी है। चूंकि प्रारम्भ से ही स्त्रियों का मनोबल तोड़ने के लिए उनकी देह को हथियार बनाया गया है इसलिए दोयम दर्जे की नागरिक मानी जाने वाली स्त्री जो सदियों से पुरुष श्रेष्ठता के दंभ को झेलती आ रही है कहीं देह मुक्ति का संबल न प्राप्त कर ले इसलिए पुरुष सत्ता इस माँग को स्वेच्छाचार कह कर खारिज करती आई है। कहीं सुन्नत तो कहीं मर्यादा के नाम पर पुरुषों द्वारा स्त्री की यौनिकता को कब्जे में किया गया तथा कला एवं साहित्य के माध्यम से उसे वस्तु रूप में दैहिक अस्तित्व का पर्याय बनाया गया है।
इस सम्बन्ध में वजिर्निया वुल्फ लिखती हैं- “अगर मर्दों द्वारा लिखे कथा साहित्य के अतिरिक्त औरतों का कहीं और अस्तित्व न होता तो उनकी कल्पना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्राणी के रूप में की जाती, अत्यन्त विविधतापूर्ण; बहादुर और अधम; अद्भुत और घिनौनी; अनंत रूपवती और चरम विकराल….. काल्पनिक रूप से उसका महत्व सर्वोच्च है; व्यवहारिक रूप से वह पूर्णतया महत्त्वहीन है। कविता में पृष्ठ-दर-पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास में वह अनुपस्थित है।“  पुरुषों द्वारा लिखित इतिहासों, पुराणों एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है- काली चिड़िया, गिद्ध, नेवला, कुत्ते की हत्या करने पर जो प्रायश्चित किया जाता है वही प्रायश्चित नारी हत्या या शूद्र हत्या करने पर भी किया जाएगा। जहाँ स्त्री को अनाज के खेत की संज्ञा दी गई हो वहाँ उसके यौन शोषण का प्रश्न ही बेमानी हो जाता है।
स्त्रियाँ अपनी लेखनी के द्वारा पुरुष द्वारा रचित साहित्य जिसमें यौन शोषणों को परोपकार की संज्ञा देकर स्वयं को दाता एवं देवत्व के पद पर आसीन किया गया है, के पुनर्पाठ की माँग करती है। साथ ही यह प्रश्न भी उठाती है कि यौन शोषण स्त्री को गुलाम बनाए रखने का षड़यंत्र है या पुरुषों की मानसिक विकृति। परिवार एवं समाज के सन्दर्भ में अपने जीवन की सार्थकता के सवाल को उठाते हुए परम्परा के नाम पर चली आ रही कुरीतियों, धर्म के नाम पर होने वाले आडम्बरों एवं स्त्रियों के प्रति कूटनीतिक साजिशों को बेनकाब करने का प्रयास समकालीन लेखिकाओं द्वारा किया जा रहा है।
प्रभा खेतान का आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया ‘छिन्नमस्ता’ पहला ऐसा सशक्त उपन्यास है जो नायिका प्रिया के द्वारा मारवाड़ी परिवार के पारिवारिक सम्बन्धों की कथा कहते हुए स्त्री के उत्पीड़न एवं शोषण को अभिव्यक्त करता है। बचपन से ही प्रिया भावनात्मक एवं शारीरिक शोषण की शिकार है जिसकी शुरूआत उसके अपने परिवार से, अपने भाई द्वारा ही होती है। प्रिया जैसी न जाने कितनी ही बच्चियाँ हमारे समाज मंे हैं जिन्हें अपने अन्तर्मुखी, मूक स्वभाव के कारण रक्त सम्बन्धियों तथा परिचितों की हवस का शिकार होना पड़ता है। किन्तु प्रभा खेतान की नायिका ‘सुशील कुवारी कन्या’ या ‘पतिव्रता पत्नी’ की भूमिका का अभियन नहीं करना चाहती वह प्यार, समर्पण तथा स्त्रियोचित गुणों व मूल्यों में छिपे पाखण्ड को पहचान चुकी है। उसकी विश्लेषण क्षमता शोषण का प्रतिकार करने के लिए उसे प्रोत्साहित करती है।
भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘बाबुल तेरे देश में’ परिवार में होने वाले स्त्री के शोषण को खुलकर सामने रखा गया है। यह आख्यान है उन स्त्रीयों के दुःखों का जो अपने ही घर रूपी दुर्भेद्य किले में कैद तथा असुरक्षित हैं। रक्षक पिता की सर्वभक्षी कामुकता पारो को घर-गाँव एवं धर्म त्यागकर भागने के लिए विवश कर देती हैं किन्तु पुत्रवधु जो कुलवधू की मर्यादा, सामाजिक तिरस्कार एवं पति के भय से शोषण सहने को मजबूर है- “चाँद बीबी, हिम्मत करके अगर मैं भी भाग के तेरे भइया से जा लिपटती और सारी बात बता देती तो ई तेरी भाभी अपने पिता समान ससुर की लौंडिया न बनी फिरती। पतो न, जा बखत हमारे पिता समान ससुर की आँखन में कैसो खोप हो जा ने मेरी जुबान ही कील दी। जब बताई तो बहोत अमेर होगी। उलटी तेरे भइया ने तोहमत और लगा दी के तू तो बस मेरे नाम की ब्याहता है, लुगाई तो तू मेरे बाप की है।“  यह उपन्यास जैतूनी दादी जैसे रुग्ण समझ वाली मर्दवादी स्त्री से भी परिचित कराता है जो ‘इज्जत’ को ही ‘स्त्री’ का पर्याय मानती हैं तथा अनाचार के सामने झुकने वाली स्त्री को खानदानी व अपने स्वाभिमान के लिए लड़ने वाली स्त्री को दुष्चरित्रा का तमगा देती है।
शरद सिंह अपने उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ मंे बेड़िया समाज की स्त्रियों के यौन शोषण तथा इस प्रश्न को उठाती है कि क्यों धर्म कुछ वर्ग की स्त्रियों के लिए देह व्यापार की प्रथा को उचित ठहराता है। शरद सिंह की ही भाँति किशोर शांताबाई काले ‘छोरा कोल्हाटी का’ में कोल्हाटी समाज की स्त्रियों के यौन शोषण एवं ‘चिरा’ रस्म का वर्णन करती हैं- “चिरा उतारने की रस्म शादी-ब्याह जैसी होती है। नाचने वाली के जीवन में जो भी पहला आदमी आता है, उसे नाचने वाली के परिवार द्वारा माँगी गई रकम अदा करनी पड़ती है।…. पहली रात नाचने वाली को सुहागन की तरह सजाया जाता है।….. जब तक वह व्यक्ति उसकी देखभाल करता है, नाचने वाली किसी और से यौन सम्बन्ध नहीं रखती।“  हिन्दु धर्म की ही भाँति इस्लाम धर्म में भी पीर-मौलवियों की कार्यशैली कुछ इसी प्रकार की है। पॉलां रीगे द्वारा रचित ‘ओ की कहानी’ में धर्मग्रन्थों द्वारा पोषित यौन-शुचिता की अवधारणा को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। जहाँ स्त्री को पुरुष की नजर में एक वस्तु मात्र बना दिया गया है जिसकी यौनिकता के साथ वह मनचाहा खिलवाड़ करने को स्वतंत्र है। खिलवाड़ के इसी क्रम में धर्म एवं सत्ता के मद में चूर पीर द्वारा ‘पीर की ऊँटनी’ जैसी प्रथाएँ हमें देखने को मिलती हैं जिसका चित्रण तहमीना दुर्रानी ने ‘कुफ्र’ में किया है। ‘पीर की ऊँटनी को गाँव में’ घुमने को खुले छोड़ दिया जाता है। वह एक मकान चुन लेती और उसके सामने बैठ जाती है। यह एक इशारा था कि उस घर की बिन ब्याही लड़की को दुल्हन की तरह सजाकर पीर को पेश किया जाना है। जब पीर की तबीयत भर जाती, लड़की घर वापस भेज दी जाती जहाँ वह जब तक जिंदा रहती, उसे कोई और छू नहीं सकता था।“  इस बात में कोई संदेह नहीं है कि धर्मशास्त्र पुरुषों की हर वासनायुक्त हरकत को वैध बताते हैं तथा स्त्रियों को ही इसके लिए दोषी ठहराया जाता है। तस्लीमा नसरीन लिखती हैं- “यह मेरा सौभाग्य है कि अभी तक किसी ने एसिड फेंक कर मेरा चेहरा नहीं झुलसाया, मेरी आँखें नहीं फोड़ीं। मेरा नसीब अच्छा है जो रास्ता-घाट में मर्दों ने झुण्ड में मेरा बलात्कार नहीं किया।….. अपने जिस गुनाह की वजह से मैं इतने सब अत्याचार बर्दाश्त कर रही हूँ वह है- मैं औरत हूँ। मेरी शिक्षा-दीक्षा, मेरी रुचि, मेरी बुद्धि मुझे इंसान नहीं बना सकी, मुझे औरत बनाकर ही छोड़ दिया है। इस देश में औरत की कोई भी योग्यता उसे इंसान में तब्दील नहीं कर सकती।“
पुरुषों द्वारा जो चीज स्त्रियों के लिए अश्लील, अशोभनीय तथा उत्पीड़न का कारण है क्यों न इस स्थिति को उलट कर देखा जाए? शायद ऐसा करने पर मूल्यों, परम्पराओं, आदर्शों की दुहाई देने वाला पुरुष सत्ता प्रधान समाज स्त्रियों की स्थिति को समझ पाए। यदि आज देह को हथयार बनाकर पुरुषों को छलती व रौंदती स्त्री दिखाई दे रही हैं तो वह इसी उपक्रम का परिणाम है। आज भी स्त्रियाँ यौन शोषण एवं व्यभिचारों का शिकार हैं किन्तु अब वे न तो स्वयं को अपराधी महसूस करती हैं और न ही अपने भविष्य को बर्बाद करती हैं। वे देह एवं नैतिकता के खोल से निकलकर, स्वयं को पाप-पुण्य, मर्यादा, शील जैसी संरचनाओं से मुक्त कर एक मनुष्य के रूप में देखते हुए अपने सभी भावों को खुलकर समाज के समक्ष प्रस्तुत करती है।
स्त्री द्वारा अपने अस्तित्व को पूरे अहसास के साथ एवं स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करने का पहला प्रयास इस्मत चुगताई की उर्दू कहानी ‘लिहाफ’ में हुआ है। इसमें लेखिका स्त्री को अपनी कामनाओं के साथ जीने एवं अपनी स्वतंत्रता को पूरी तरह हासिल करने की हसरत के साथ प्रस्तुत करती हैं। स्त्री की स्वातंत्र्य यात्रा का दूसरा प्रस्थान बिन्दु है ‘मित्रो मरजानी’ जिसमें कृष्णा सोवती ने मित्रों को अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीने का स्वाद दिया है। मित्रो के द्वारा लेखिका ने युगों से नारी के लिए निश्चित नैतिकता के मानदण्डों एवं उस मर्यादा को चुनौती दी है जिसका पूरा दायित्व सिर्फ स्त्रियों पर डाल दिया गया था। इसी क्रम में मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘चित्तकोबारा’ है, जिसमें लेखिका ने स्त्री के लिए बनाई वर्जनाओं को तोड़ते हुए बिना किसी निषेध एवं वर्जना के साथ मनु एवं रिचर्ड के मध्य घटे रति क्षणों का वर्णन किया है। वहीं मैत्रेयी पुष्पा की नायिकाएँ नैतिक वर्जनाओं एवं यौन शुचिता की अवधारणा को ही सिरे से खारिज करती हैं। वे एक कुटनीतिज्ञ स्त्री के रूप में सामने आती हैं जो नैतिकता के खोल में छिपना नहीं चाहती।
जब भी स्त्रियाँ अपनी दैहिक आवश्यकताओं को अपनी भाषा में अपने साहित्य द्वारा पाठकों के सामने रखती हैं तो उसे निर्लज्जता की श्रेणी में रख दिया जाता है। पुरुषों द्वारा रचित साहित्य में अप्सराओं, नायिकाओं, देवियों आदि का जो वर्णन व चित्रण मिलता है उसे पाठक तथा आलोचक कलात्मकता की दृष्टि से देखते हैं न कि अश्लीलता की किन्तु मित्रों की स्वीकारोक्ति या किसी भी अन्य स्त्री पात्र की स्वीकारोक्ति को उसकी दुष्कर्म की बानगी बनाकर पेश किया जाता है। पुरुष मानसिकता से संचालित समाज स्त्री की स्वतंत्रता को उसकी उच्छृंखलता का नाम देता है। तसलीमा का कहना है कि- “औरत अगर अपनी यौनेच्छा जाहिर करे तो समाज के सभी लोग उसके प्रति नफरत से छिः छिः करते हैं। औरत में सेक्स इच्छा नहीं होनी चाहिए। अगर वह कामेच्छा जाहिर करती है तो वह निर्लज्ज है, भ्रष्ट है वैश्या है, नारी अपनी देह का अंग-अंग सजाए पुरुषों के लिए, अपने लिए नहीं, औरत जिन्दा रहे मर्दों के लिए अपने लिए नहीं।“  जैसे ही स्त्री अपनी जैनुइन समस्याओं को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक प्रश्न के रूप में खड़ा करती है वैसे ही पुरुष उसका मुँह बंद करने का उपक्रम प्रारम्भ कर देते, कभी मृदुला गर्ग को गिरफ्त में लेकर उनकी रचना ‘चितकोबरा’ को अश्लील साबित कर तो कभी तसलीमा नसरीन को फांसी की सजा सुनाकर। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कहीं स्त्री देह मुक्ति, नैतिक वर्जनाओं की धज्जियाँ उड़ाकर सदियों से चले आ रहे पुरुष वर्चस्व को तोड़ न दे तथा यौनिकता पर स्त्री का निजी स्वामित्व पुरुषों द्वारा रचित समाज के स्वरूप को ही न बदल डाले। समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि वर्तमान स्त्री, लेखन में निजी मुक्ति का आख्यान नहीं रचना चाहती, न ही देह सुख या देह प्रदर्शन की इच्छा रखती है बल्कि स्त्री लेखन उसके सामाजिक सरोकारों का लेखा-जोखा है। जिसके अनुसार स्त्री को आवश्यकता है देह को पुरुष के स्वामित्व से मुक्त करके अपने अधिकार में लेने की क्योंकि पतिव्रत, सतीत्व तथा शुचिता इत्यादि मूल्य जिन्हें स्त्री के सम्मान का सूचक माना जाता है, वास्तव में वे पुरुष अहंकार के पैमाने तथा स्त्री की बेड़ियाँ हैं। लेखिकाओं द्वारा गढ़ी गई नई स्त्री छवि लाज के बोझ से मुक्त अवश्य हुई है लेकिन अनैतिक नहीं।
मौलिकता प्रमाण पत्र
प्रस्तुत शोध-पत्र अपने समय की प्रतिनिधि लेखिकाओं तथा उनके प्रतिनिधि उपन्यासों के अध्ययनोपरांत लिखा गया मेरा मौलिक कार्य है। आशा है भविष्य में उपर्युक्त विषय पर शोध कार्य करने का अवसर प्राप्त होगा।
पूनम सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)
करामत हुसैन मुस्लिम गर्ल्स पी0जी0 कॉलेज