74. समकालीन कथा साहित्य में किन्नरों का उत्थान और पहचान एक संघर्ष – नीतू कुमारी
समकालीन कथा साहित्य में किन्नरों का उत्थान और पहचान एक संघर्ष
नीतू कुमारी
साहित्य आलोचना का एक सशक्त माध्यम है। इसलिए समय के साथ चलने वाले साहित्य अपने अतीत वर्तमान तथा भविष्य को रेखांकित करते हुए उनके खूबियों और खामियों को पाठक के समक्ष रखने वालों का मूल्यांकन करने में सक्षम होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो समकालीन साहित्य का केंद्रीय प्रमुख मुद्दा किन्नर समाज है, जिसे हिजड़ा किन्नर कीव, छक्का, थर्ड जेन्डर, शिखण्डी, ट्रांसजेंडर आदि नाम से भी जाना जाता है। लेकिन विश्व के लगभग सभी समाज में स्त्री और पुरुष 2 लिंगों को हीं मान्यता दी गई है, इन दो विपरीत लिंगों को ही सृष्टि का आधार स्तंभ माना जाता है। दोनों का काम एक दूसरे के सहयोग से बच्चे पैदा करना मानव प्रजाति को आगे बढ़ाना है, लेकिन यह तृतीय लिंग ना तो गर्भधारण कर सकता और ना ही हमारा समाज इसे स्त्री या पुरुष की श्रेणी में रखता है। इसलिए यह वर्ग आज भी हमारे समाज में उपेक्षित ही समझा जाता है। महाभारत काल से लेकर मुगलकाल तक इनका राजमहलों में विशिष्ट स्थान हुआ करता था और यौन अक्षम होने के कारण मध्यकाल में हरमों क़ी सुरक्षा हेतु सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। सन 1871 तक किन्नरों को समाज में स्वीकार्यता प्राप्त थी, लेकिन समय 1871 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट जयराम पैसा अपराध अधिनियम लागू कर दिया जिसके तहत इनके ऊपर कई प्रतिबंध लगाये गये और सन 1897 में इसमें संशोधन करते हुए, इन्हें अपराधियों की कोटि में रखते हुए इनकी गतिविधियों पर नजर रखने हेतु एक अलग रजिस्टर तैयार किया गया। धारा 377 के अंतर्गत इनके कृत्यो को गैर जमानती अपराध घोषित किया गया। आजादी मिलने पर इन्हें क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट या जयरामपेशा जातियों की सूची से हटा दिया गया, लेकिन धारा 377 की तलवार तब भी इनकी गर्दन पर बनी हुई थी नवंबर 2009 में भारत सरकार ने इनकी स्त्री एवं पुरुषों से अलग पहचान को स्वीकृति प्रदान करते हुए निर्वाचन सूची एवं मतदाता पहचान पत्र पर इनका अन्य के तौर पर उल्लेख किया स 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों से हाशिए पर पड़े इस समुदाय को तीसरे लिंग का दर्जा तो दे दिया, परंतु उनके प्रति समाज का रवैया ज्यों का त्यों है।
व्यक्ति में किसी भी प्रकार के जैविक दोष के प्रति परिवार समाज के दृष्टि सहानुभूति करुणा और संवेदनशीलता से परिपूर्ण हो सामान्यतः इसकी उपेक्षा की जाती है। समाज के अलिखित नियमों से संबद्ध परिवार इतना संवेदनहीन हो जाए कि अपने ही परिवार के सदस्य रक्त संबंधी को इस दोष के कारण परिवार से अलग करने को उद्यत हो जाए, यह सरासर अन्याय है, जो सतत जारी है। प्रत्येक तरह के पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक संवैधानिक बल्कि मानव अधिकारों से वंचित तृतीय लिंग समुदाय लंबे समय से इसकी अवहेलना का शिकार है। इससे वंचित उपेक्षित वर्ग की एक इकाई विनोद के रूप में चित्रा मुद्गल का उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा एक ऐसे चरित्र को सम्मुख लाता है, जिसकी न केवल मनोवैज्ञानिक पारिवारिक सामाजिक राजनीतिक शैक्षणिक स्थिति पर गहरी संवेदनशीलता के साथ प्रकाश डाला गया है, बल्कि उसके मनोजगत के प्रत्येक कारूणिक उद्वेलन उसक़ी प्रश्ननानूकुलता छटपटाहत, बैचेनी को अत्यंत सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत किया गया है। विनोद उर्फ़ बिन्नी बीमली 14 वर्ष तक एक पुरुष बालक के रूप में अपने परिवार की छत्रछाया में पला बढ़ा, 8वीं तक शिक्षा प्राप्त की समाज परिवार द्वारा सहज स्नेह व संरक्षण प्राप्त किया। एक मेधावी छात्र जिसका मां के प्रति अगाध स्नेह है, जो पड़ोसी बाला ज्योत्सना के प्रति आकर्षण अनुभूत करता है। लोक समाज मान मर्यादा प्रतिष्ठा की आड़ में इन जैविक दोष युक्त इकाइयों को उनकी मां परिवार से जबरन अलग किया जाता है। लोक लज्जा के कारण एक मां अपने मातृत्व का गला घोंटती है, यह कथा इसका बयान करती है। किन्नर विमर्श को परिभाषित करना उतना ही कठिन है, जितना कि हम स्त्री और पुरुष के साथ एक तृतीय लिंग की कल्पना करने में समर्थ है। कथा पुरुष तन में में फंसा मेरा नारी मन में रचनाकार ने ट्रांसजेंडर शब्द को एक सरल परिभाषा में व्यक्त किया है, उनके अनुसार- ’’जो लोग पूरी गंभीरता से दूसरे लिंग के कपड़े पहनते हैं और अपना सेक्स बदलवाने की इच्छा रखते हैं उन्हें ट्रांसजेंडर कह सकते हैं।‘‘
सामान्यतः समाज में मानव को दो ही वर्गों को मान्यता दी गई है, स्त्री और पुरुष को जिस कारण उन्हें शुरू से मानव नहीं समझा जाता वे समाज द्वारा पूर्व निर्धारित मान्यताओं के चंगुल में पड़ जाते हैं, और धीरे-धीरे उनका अस्तित्व गायब होने लगता है उन्हें घर में छुपा कर रखा जाता जैसे उनके घर छोड़ने की वजह कभी स्त्री होती है तो कभी पुरुष इनके हिस्से में मां की लोरियां नहीं समाज के लांछन आते हैं। पारिवारिक सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सभी दृष्टियों से इनका जीवन कस्टपूर्ण होता है। वर्तमान समय में उनके आर्थिक पक्ष पर अधिक विचार करने की आवश्यकता है, जो काफी कमजोर और दुर्बल है, इसी कमजोरी के कारण वे वेश्यावृत्ति को अपनाने में विवश हुए सर्वप्रथम वे समाज और घर परिवार में उपेक्षित जीवन व्यतीत करते हैं। सदियों से मानसिक अत्याचार और शारीरिक उत्पीड़न से त्रस्त होकर उसने खुद अपने पहचान को खो दिया।
हिंदी साहित्य में किन्नर समाज पर साहित्यकारों ने अपनी लेखनी चलाई है। इसकी शुरुआत कथा साहित्य से मानी जाए तो ’यमदीप उपन्यास‘ निरजा माधव द्वारा 2009 में लिखा गया। तब से हीं साहित्यकारों की दृष्टि किन्नर लेखन की तरफ गया। ’मनमीत‘ में पत्रिका में किन्नर विशेषांक निकाला जो किन्नरों के यथार्थ जीवन से जुड़ा हुआ है। हिंदी साहित्य में नीरजा माधव, महेंद्र भीष्म, प्रदीप, सौरभ, चित्रा मुद्गल, अनसूया त्यागी, निर्मला भूराड़िया आदि का साहित्य इस उपेक्षित और हाशियेकृत समाज की जीवन शैली उनकी समस्याओं पीड़ा आक्रोश और संघर्ष कि अकथ कथा को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। भारतीय समाज एवं साहित्य में तृतीय लिंगी विमर्श किन्नर समाज के बारे में ना केवल जानकारी होती है, बल्कि उनके उत्थान की दिशा में महत्वपूर्ण विमर्श सूझती है। इनके आजीवन संघर्षरत रहने की कथा चित्रण करने वाले कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास है, जिनके माध्यम से साहित्यकारों ने जो विषय अब तक शर्म का विषय था उसको पाठकों के समक्ष लाने का साहसिक कदम उठाया है।
निर्मला भूराड़िया अपने उपन्यास ’गुलाम मंडी‘ में गहनतम संवेदना के स्वर पर गुलामी की दंष को बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त करती हैं। इस एक ज्वलंत विषय के बहाने उन्होंने कोशिश की है, कि इस समुदाय के आसपास की जो भी समस्याएं हैं, उन्हें भी समेटने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में हिजड़ों की एकाधिक समस्याओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया बस, रेल में भीख मांगना इसमें समाज में सर्वाधिक तिरस्कृत वर्ग किन्नर से लेकर जिस्मफरोशी और मानव तस्करी की निर्माेही और भयावह दुनिया को चित्रित किया गया है।
मैं पायल महेंद्र भीष्म के आत्मकथात्मक उपन्यास है, प्रत्येक किन्नर का अपना जीवन होता है, उसका स्वयं का झेला संघर्ष होता है। इस उपन्यास में किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन संघर्ष की गाथा है, जिसमें प्रत्येक किन्नर के अतीत के संघर्ष की झलक परिलक्षित होती है विस्थापन का दंश कष्टकारी होता है, फिर वह चाहे परिवार से, समाज से, अपनी मिट्टी से मिला हो। प्रत्येक किन्नर को सर्वप्रथम यह दंश अपने परिवार से ही भुगतना होता है।
उपन्यास क्षेत्र के साथ-साथ कहानी और आत्मकथा में भी इस विषय पर अनेक साहित्य लिखे गए है। जिनमें इनकी समस्याओं और उनके साथ भेदभाव को चित्रित किया गया है। कहानियों में बिंदा महाराज खलीक, अहमद बुवा, ई मुर्दान के गाँव, सांझा हिजड़ा, संकल्प कौन तार से बीनी चदरिया, रतियावन क़ी चेली इत्यादि। बिन्दा महाराज इस संग्रह के प्रथम कहानी संग्रह बिंदा महाराज कहानी शिवप्रसाद सिंह द्वारा रचित एक ऐसे किन्नर की कहानी जिसके जन्म के बाद उसके माता-पिता चल बसते हैं, और जिसके कारण बिन्दा महाराज का जीवन अनेक कठिनाइयों से भर जाता है। किन्नर शरीर से भले अपूर्ण हो, किंतु उसके मन की भावनाएं संवेदनाएं तथा अपनों के प्रति प्रेम की भावना किसी आम व्यक्ति की ही भांति विद्यमान रहती है। बिंदा महाराज अपना संपूर्ण प्रेम अपने चचेरे भाई के बेटे करीमा पर निछावर कर देते हैं, किंतु अंततः उसके ममत्व के बदले उसके चचेरे भाई साहब से अपमान ही मिलता है। यहां तक कि उसका चचेरा भाई उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर से निकाल देता है। यथा- यथा हीं कौन उसका अपना जो पैरों से रेशमी बेरियां डालकर रोक रखता स मां-बाप एक प्राणहीन शरीर उपजा कर चल गए। मर्द होता तो बीवी बच्चे होते पुरुषत्व का शासन होता, स्त्री भी होता तो किसी पुरुष का सहारा मिलता बच्चों की किलकारीयों से आत्मा के कन कन तृप्त हो जाते। बिन्दा महाराज अपनी नई जिंदगी की तलाश में निकल पड़ते है, ऐसे में जिस गांव में वे नाच-गाकर अपना गुजर-बसर करते थे, उसी गांव के दीपू मिश्रा जी का बेटा उन्हें बुआ कह कर बुलाता है जिसे बिंदा महाराज का मन अपार स्नेह से भर जाता हैस किंतु अचानक दीपू मिसिर के बेटे की मृत्यु हो जाती है और बिंदा महाराज ओछी मानसिकता एवं अंधविश्वास से ग्रसित गांव वालों की आंखो का कांटा बन जाता है।
खालिक अहमद बुवा राही मासूम रजा द्वारा रचित कहानी में भी एक किन्नर के प्रेम अपनत्व के बदले में उसे मात्र धोखा और अकेलापन ही मिलता है। खलीक अहमद बुआ जिस रुस्तम खां पर अपना सब कुछ लुटा देती है, वह उसे धोखा देता है अंत में वह उस धोखे के बदले के रूप में रुस्तम खां को मार स्वयं फाँसी पर चढ़ जाता है।
हिजड़ा कादंबरी मेहरा द्वारा रचित कहानी रागिनी श्रीवास्तव जब 15 वर्ष की थी तभी उसकी मां चेचक की बीमारी के कारण चल बसती है, पिता दूसरा विवाह कर लेता है। और अंततः रागिनी अपनी बहन और जीजा के रहमोंकरम पर जीने के लिए विवश होती है, रागिनी के जीजा को लोग बहुत भला आदमी मानते हैं, किंतु जीजा की हकीकत सिर्फ रागिनी ही जानती है पढ़ाई के खर्च के बदले जीजा उसका शारीरिक शोषण करता है, अपनी बेबसी के कारण ही रागिनी सब कुछ सहती है। वह कहती है- ’’मेरा क्या है मुझसे कोई शादी तो करेगा नहीं ऐसे ही ठीक है, बस पढ़ाई खत्म कर लूं फिर कहीं दूर भाग जाऊंगी किसी गांव में टीचर या सोशल वर्कर बन जाऊंगी 100-200 कुछ तो मिलेगा ही।‘‘ जो पीड़ा उसे अपने पिता सौतेली मां जीजा से मिलती है, कदाचित उस पीड़ा का हीं परिणाम था कि एक स्त्री होकर भी वह किन्नर हिजरा बनने पर विवश होती है। किन्नर समाज को लेकर सदियों से चली आ रही हमारी समाज में फैलाई गई भ्रांतियों के कारण उनकी सहज स्वीकृति को लेकर कठिनाइयां पैदा हो रही हैं। महेंद्रभीष्म, प्रदीप सौरभ जैसे लेखकों के अतिरिक्त इस समुदाय से जुड़े लोग भी अपने आत्मकथाओं के माध्यम से समाज के समक्ष अपनी बात को रख रहे हैं। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी और मनोबी बंधोपाध्याय की प्रकाशित आत्मकथा पुरुष तन में फँसता मेरा नारी मन इसी क्रम में एक साहसिक कदम है, इन दोनों आत्मकथाओं की विशिष्ट बात यह है, कि इनमें बड़ी बेबाकी के साथ अपने जीवन की सच्चाई को व्यक्त किया गया है। मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी के पात्र की कथा जहां एक और इस परिव्यक्त समुदाय को जीवन संघर्षों से हमें रूबरू कराती है, वहीं दूसरी ओर एक विजयी सेनानी की भांति कई ऐसे आदर्श प्रस्तुत करती है, जो इनके समुदाय के लिए एक आदर्श पदचिन्ह बनता है। इसका पात्र किन्नर के परंपरागत जीवन शैली को नकारते हुए समाज की मुख्यधारा के लोगों की किन्नरों के प्रति हिकारत की भावना का प्रतिकार करते हुए संघर्षमय जीवन के साथ अवनति से उन्नति की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है। सामाजिक तिरस्कार के बावजूद वह अपने असीम धैर्य के साथ शिक्षा ग्रहण कर एक अलग पहचान बनाता है, तथा इस समाज के उत्थान को अपना दायित्व मानते हुए अपनी संस्था के माध्यम से उसके जीवन में बदलाव लाने हेतु कई अभियान भी चलाता है।
निष्कर्षः- कहना चाहूंगी कि समाज को अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए, क्योंकि किन्नर भी अब मानव समाज का ही एक अंग है जैसे हम सभी को जीने का अधिकार है, वैसे हीं उनको भी है। इन्हे अपने घर परिवार समाज में स्थान देना होगा। इन कथा साहित्य के विश्लेषण में किन्नर समाज की वेदना आत्म संघर्ष के साथ-साथ उन्हें सामाज की अनेक विसंगतियों से गुजरना पड़ता है।
संदर्भ सूची-
1. कुशवाहा शैलेंद्र सिंह किन्नर समाज और सामाजिक एवं आर्थिक पक्ष।
2. भीष्म महेंद्र किन्नर कथा।
3. निर्मला भुरारिया गुलाम मंडी।
4. हिंदी उपन्यास और थर्ड जेंडर स्त्री काल।
5. नीरजा माधव- यमदीप
पताः-
नीतू कुमारी
ग्राम – हरदतडीह
डाकघर – बरोतांड
थाना – धनवार
जिला – गिरिडीह
पिन कोड – 825412