May 24, 2023

73. साहित्य और पर्यावरण का अंतरसंबंध – राधा देवी

By Gina Journal

साहित्य और पर्यावरण का अंतरसंबंध
राधा देवी

भूमिका
भारतीय दर्शन एवं साहित्य प्रारम्भ से ही प्रकृति प्रधान एवं प्रकृति संरक्षणवादी रहा हैं। हमारे प्राचीन धर्म ग्रन्थों से लेकर लौकिक साहित्य तक ने जल, वायु, अग्नि, वृक्ष, जीव, भूमि की पूजा पर जोर दिया गया है। हिन्दी साहित्य में उल्लिखित प्रकृति, शब्द यह विचार सामने रखता है कि वह किसी में समाहित नहीं है। परिवार को भौतिक पर्यावरण में भी विभिन्न घटकों के बीच संसर्ग अवश्यभावी हैं। वस्तुतः पर्यावरण विभिन्न अन्तःनिर्भर घटकों, सजीव एवं निर्जीव के मध्य सामांजस्य एवं पूर्णता की अवधारणा है। पर्यावरण के दोनों रूपों को सहित्य में स्थान दिया गया है। जहाँ भौतिक पर्यावरण में ऋतुएँ जलवायु, मिट्टियाँ, नदियाँ, जीव-जन्तुओं को साहित्य में प्रमुखता दी गई है, वहीं सांस्कृतिक पर्यावरण भी साहित्य का अभिन्न अंग हैं। लोक रीतियाँ, रीति-रिवाज, मान्यताएँ, आदर्श आदि सांस्कृतिक पर्यावरण के विशिष्ट अंग है साहित्य ने इनके संरक्षण और प्रसार के लिए अहम भूमिका निभाई हैं।
यह तथ्य सर्वविदित है हम अपने प्राकृतिक संसाधनों एवं पर्यावरण की परवाह किये बिना निरन्तर आर्थिक विकास के लिए तत्पर हैं। प्रौद्योगिकी विकास तथा वैज्ञानिक दक्षता के आधार पर मानव ने कृषि, सिंचाई, खनन, उद्योग, परिवहन, वानिकी, भूमि प्रबन्धन आदि क्षेत्रों में तीव्र गति से विकास किया है। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा करने में उसने प्राकृतिक पर्यावरण की क्रिया प्रणाली में विध्न डाला हैं और पर्यावरण का हृास किय है। प्रकृति मानव के लिए केवल संसाधनों का स्रोतहीन ही हैं। मानव भी प्रकृति का एक अंग है। यदि समय से पहले तथा प्राकृतिक पोषणता से अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया गया तो मानव सभ्यता खतरे में पड़ सकती है। पर्यावरण् के प्रति जागरूक होना, इसके संरक्षण के लिए प्रति व्यक्ति को आगे आना होगा, क्योंकि यह समस्त मानव जाति का काम हैं। यह मानव जीवन के हर पहलू में अनिवार्य है। यही नहीं इस कार्य में लोगों, परिवारों समुदायों, देशों तथा समस्त विश्व की साझेदारी आवश्यक है तथा समस्त मानव जाति के लिए पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना अति आवश्यक है। हिन्दी साहित्य में वीरगाथा काल से ही भौतिक एवं सांस्कृतिक दोनों प्रकार के पर्यावरण के प्रति संवेदना एवं संरक्षण की अनुगूंज सुनाई देती है। संवेदना मनुष्य को अनुभूति की सघनता से जोड़ती हैं।
भारतीय सािहत्य सबसे प्राचीन ज्ञान कोष है। आज मनुष्य ने ज्ञान, विज्ञान, विकास और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनन्त यात्रा तय कर ली है, फिर भी हमारे हिन्दी साहित्य में पर्यावरण का महत्व सर्वकालिक रूप में सुरक्षित है। जब संसार के अन्य देशों और जातियों को धरती और आकाश के बीच की प्रकृति का कोई तात्विक ज्ञान नहीं था। तब हमारे कवियों ने उन्हें नाम देने के साथ उनके गुणों पर शोध करके जो निष्कर्ष दिये अभी तक महत्वपूर्ण बने हुए हैं। हमारे कवि पर्यावरण से इतनी सघन पहचान इसलिए बना सके क्योंकि वे अति संवेदनशील थे, हम भारतीय यदि अपने को सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति तथा पर्यावरणीय संवेदना का संवाहक मानते हैं तो उसके मूल में सबके प्रति हमारी संवेदनशीलता ही मुख्य कारण है। संवेदनशीलता की सघनाता ने ही हमें अपेक्षाकृत जल्दी सभ्य और पर्यावरण के प्रति सजग बना दिया।
साहित्य समाज का वास्तविक प्रतिबिम्ब है अतः साहित्य पर्यावरण के सभी रूपों को अपने में समाहित किये हुए हैं और प्रकृति मानव की सहचरी है। हम मानवीय जीवन को प्राकृतिक उपादानों से पृथक नहीं रख सकते हैं। क्योंकि मानव हृदय प्राकृतिक उपादानों के साथ पूर्णतया अनुस्यूत है। यह सबसे कल्याणकारी बिन्दु है कि हिन्दी कवियों ने प्रकृति के साथ पूर्णतया तादात्म्य सम्बन्ध की स्थापना की है। वे प्रकृति को सजीव तथा मानवीय भावनाओं से पूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार के ही समान वह भी सुख तथा दुःख का अनुभव करती है। वह मानव जगत के साथ पूर्णतया सम्बन्धित है। वह मानव के सुख-दुःख में अनुभव करती है। मनुष्य तथा प्रकृति एक दूसरे के लिए पूरक का कार्य करते हैं। अतः पर्यावरण के प्रति सजगता और जागरूकता उत्पन्न होना कवि के लिए स्वाभाविक है।
सामान्यतः विमर्श से तात्पर्य है, चर्चा, परिचर्चा, संवाद, तर्क, वितर्क आदि। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब व्यक्ति किसी समूह में किसी विषय पर चिन्तन अथवा चर्चा-परिचर्चा आदि करता है तो उसे विमर्श कहा जाता है। अतः किसी विषय विशेष के सन्दर्भ में गम्भीरता से चिन्तन-ममन, सलाह, तर्क-वितर्क, और सोच-विचार करन ही विमर्श करना है।
पर्यावरण की समस्या आधुनिक युग की समस्त गम्भीर समस्याओं में प्रथम स्थान पर है। पर्यावरण की समस्या का सम्बन्ध केवल भारत से न होकर, बल्कि यह समस्या विश्व स्तर पर है इसलिए हमें इसका संविधान करने का प्रयास भी विश्व स्तर पर ही करना चाहिए। पर्यावरण से सम्बन्धित स्टाक होम में सन् 1972 में मानवीय पर्यावरण पर सम्मेलन आयोजित किया गय। इस बात पर बल दिया गया कि उत्तम एवं सुखदायी जीवन जीने के लिए पर्यावरण हमारी संयुक्त धरोहर है और इसका संरक्षण होना चाहिए। इसमें सामाजिक पर्यावरण पर भी ध्यान देना होगा, जिसके बिना, प्राकृतिक पर्यावरण अधूर माना जायेगा, क्योंकि सन्तुलित जीवन के लिए जितना प्राकृतिक वातावरण जरूरी है उतना ही सामाजिक वातावरण जरूरी है।
समाज व्यक्ति की पहचान है। समाज राष्ट्र की पहचान है। समाज संस्कृति के उच्चादर्शों एवं नैतिक मूल्यों का दर्पण है। व्यक्ति और पर्यावरण एक ही सिक्के के दो पहलू है आज विश्व का शायद ही ऐसा कोना हो जहाँ का समाज आदर्श न रह गया हो, साथ ही अपने स्वरूप की समाज कल्याण की तिलांजलि दी जा रही है। समाज की श्रेष्ठता के मानव प्रेम, बन्धुत्व, नैतिकता, चरित्र एवं कर्म जब लुप्त प्राय से हो रहे है परिवार बिखरते जा रहे हैं, मर्यादाएँ नष्ट होती जा रही हैं पर्यावरण के साथ-साथ हमारा समाज भी प्रदूषित हो चुका है। सब यह सिर्फ विषय नहीं रह जाता बल्कि आत्म चिन्तन की सीमा में आ जाता है कि क्या कारण है कि दिनों दिन सामाजिकता नष्ट होती जा रही है, अपने नैतिक मूल्यों को खोती जा रही है।
इसी तरह प्राकृतिक पर्यावरण प्रकृति से सम्बन्धित है पर्यावरण के सभी अंग सन्तुलन बनाये रखते हैं परन्तु पर्यावरण के प्रति मानव की अज्ञानता और असावधानी से पर्यावरण को खतरे में डाल दिया है और वर्तमान में यह इतनी गम्भीर चुनौती बनकर उभरा है कि इसे विमर्श के रूप में देखने की नौबत आ गयी। आज प्राकृतिक पर्यावरण के साथ-साथ सामाजिक पर्यावरण भी अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है।
सामाजिक पर्यावरण, सामाजिक सम्बन्धों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया से प्रकट होता है। मानव जीवन के सभी पहलू सामाजिक पर्यावरण की परिधि में सम्मिलित हैं जैसे राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, शारीरिक एवं मानसिक आदि। मनुष्य जन्म से सामाजिक प्राणी हैं। वह समाज विहीन अवस्थ में जीवित नहीं रह सकता, उसका विकास समाज में ही सम्भव है। अतः मानव के सामाजिक, आर्थिक धार्मिक, राजनीतिक, मानसिक सम्बन्ध सामाजिक पर्यावरण में आते हैं। धर्मगत, वर्गगत, युगलीकरण, पारिवारिक सम्बन्ध राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध सामाजिक पर्यावरण के उदाहरण हैं।
आज मानव मंगल ग्रह की ओर मानवता जंगल की ओर जा रहा है। समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो गया है। समाज में असुरक्षा, अशान्ति और अव्यवस्था व्याप्त है। क्योंकि हम मानसिक स्तर से प्रदूषित हो गये हैं। यदि मानवता को भावी संकट से बचान है, तो साहित्य की शरण आना होगा, और इसके नीति नियमों को स्वीकार करना होगा। उदाहरण के लिए पारिवारिक पर्यावरण में आदर्श बनाये रखने के लिए मानसकार तुलसी के ग्रन्थ से गृहण की गई ये पंक्तियाँ सुख-शान्ति का पाठ पढ़ाती प्रतीत होती हैं –
पति अनुकूल सदा रह सीता
सोभ खनि सुशील विनीता
जदपि ग्रह सेवक सेवकिनी
विपुल सदा सेवा विधि गुनी
निज कर गृह परिचरजा करई
रामचन्द्र आयसु अनुसर ई
कौशल्यादि ससु गृह माहीं
सेवइ सबहि मान भद नाहीं
साहित्य और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध की उपेक्षा नहीं की जा सकती, साहित्य समष्टिगत चेतना है इसलिए उसका मानव का व्यवहार उसके समस्त कार्य-कलाप साहित्य की मूल पृष्ठभूमि होती है। प्राचीनकाल से अब तक रचना गया सम्पूर्ण साहित्य किसी न किसी रूप में मानवीय व्यवहार का प्रतिफल है। मानवीय व्यवहार के निर्धारकों में आनुवांशिकता व पर्यावरण को समान रूप से महत्व दिया गया है। आनुवांशिक कारक या गुण तो हमें माता-पिता से प्राप्त होते हैं लेकिन उसके व्यवहार पर पर्यावरकण की अमिट छाप रहती है। व्यक्ति का व्यवहार तथा उसका पर्यावरण आपस में निरन्तर अन्तःक्रिया करते रहते हें तथा दोनों ही आपस में अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। एक में कुछ भी परिवर्तन होने पर दूसरे में स्वतः ही परिवर्तन आ जाता है। अतः पर्यावरण जिस प्रकर व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है उसी प्रकार साहित्य भी अपने में परिवर्तन करके प्रत्येक गतिविधि का अंकन करता है और अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है। जैसे आदिकालीन साहित्य में वीर और ओज प्रधान विषय बनकर आया तो उसका एक मात्र कारण तत्कालीन सामाजिक पर्यावरण ही था कि साहित्य ने लोगों में शौर्य और उत्साह जागया।
बज्जिय घोर निशान राम चौहान चहौं दिसि
सकल सूर सामान्त समरि बल जंत्र-मंत्र तिस
उट्टि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट
कढ़त तेग मन बेग लगत मनो बीजु झट्ट घट
हिन्दी साहित्य का इतिहास – राम चन्द्र शुक्ल
भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्य तथा प्रकृति आपस में अन्तर्सम्बन्धित होते हैं और मनुष्य को पर्यावरण या प्रकृति का मुख्य अंग माना गया है। उनकी धारणा है कि मनुष्य पंच तत्वों से मिलकर बना है तथा व्यक्ति उसी में विलीन हो जाता हे।
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित यह अधम शरीरा।।
श्री रामचरितमानस
भारतीय साहित्य में मनुष्य तथा शेष सृष्टि को सहजीवी के रूप में माना जाता है। इसके अनुसार पर्यावरण और साहित्य आपस में अन्तर्सम्बन्धित हैं क्योंकि मकान, बाजार, दुकानें, मूल्य, रीति-रिवाज, विवाह, उत्सव, जन्मोत्सव इत्यादि सभी मानव निर्मित या कृतिम पर्यावरण का निर्माण करते हैं और पर्यावरण के ये सभी प्रकार मानव के कार्य करने के तरीके या उसके व्यवहार को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं और साहित्य का अंग बन जाते हैं तथा सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण में सम्मिलित हो जाते हैं।
‘‘मानव का विकास उसके दैहिक, दैनिक एवं भौतिक कर्म एवं धर्म पूर्णतया पर्यावरण के ताने-बाने से बुने गये हैं यहाँ तक की मानव के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास में भी पर्यावरण का महत्वपूर्ण योगदान रहता है।’’
पर्यावरणीय शिक्षा – राधावल्लभ
साहित्य ने सदैव स्वच्छ एवं प्रगतिशील पर्यावरण प्रस्तुत किया है। चाहे वह पक्ष कोई भी हो, जहाँ तक सामाजिक पक्ष की बात है तो साहित्य ने हमेशा समाज को नव प्रकाश प्रदान किया है। महाकाव्य प्रिय प्रवास में राधा विचार सामाजिक पर्यावरण के लिए संजीवनी से कम नहीं, कि वे स्वयं का दुःख भूलकर सर्वहित की बात करती है।
‘‘कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावै
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना
जातो कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला
छाया द्वारा सुखित करना तप्त भूवांगना को’’
प्रिय प्रवास
साहित्य और पर्यावरण के इस अटूट सम्बन्ध में प्रमुख भूमिका अनुकूलनशीलता की होती है। समय, देश और परिस्थितियों के अनुसार बदलने की प्रक्रिया को अनुकूलनशीलता कहते हैं। किसी भी साहित्य के दीर्घ जीवन के लिए यह बहुत आवश्यक तत्व होता है। शायद विश्व का बुहत सारा साहित्य इसीलिए समाप्त हो गया कि वह समय के अनुसार अपने को नहीं ढाल सका। भारतीय साहित्य की यह विशेषता रही है कि वह अपनी भौतिक परम्परा के सार तत्व को बनाये रखते हुए उसे नया आकार प्रकार प्रदान करता रहा है। यही नहीं साहित्य जीवन के किसी एक पहलू को लेकर नहीं चलता वरन् यह चलता है कि मानव का जीवन उद्देश्यपूर्ण है और उसका आशय ऐच्छिक लौकिक उन्नति करना है। साहित्य भी पर्यावरण की तरह जैविक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक के अनुसार सम्पूर्ण मानव जीवन को चार भागों में विभक्त करता है। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और भावात्मक तथा मनुष्य के सभी पक्षों में सन्तुलित विकास का प्रयास करता है और गृहणशीलता साहित्य की प्रमुख विशेषता है। इसलिए पर्यावरण कैसा भी हो साहित्य की पाचन शक्ति इतनी विशाल होती है कि वह सार तत्व ग्रहण कर लेता है पर्यावरण के साथ समायोजित हो जाता है। तभी कहा गया है –
अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है
अन्धा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं ंहै।
साहित्य और पर्यावरण दोनों का दूसरा सबसे प्रमुख पक्ष है सामाजिक व नैतिक। इस दृष्टि से साहित्य व्यक्ति की विशिष्ट सामाजिक सीति के अनुसार उसके समाजिक दायित्व का निर्धारण करता है। साहित्य की प्रत्येक रचना व्यक्ति को उसके पर्यावरण के अनुसार उसके दायित्व का बोध कराती है और उसके वास्तविक धर्म की शिक्षा देती है। तभी तो अपने कर्म पथ से भटके मनु जो सामाजिक एवं नैतिक वातावरण के अनुसार अपने को प्रस्तुत करने में अक्षम होते हैं और कामायनी द्वारा उन्हें पुनः अपने पर्यावरण के प्रति सजग होने तथा अपने को सही दिशा देने के लिए प्रेरित किया जाता है।
‘‘जिसे तुम समझे हो अभिशाप जगत की ज्वालाओं का मूल ईस का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको आज भूल।’’
‘‘बनो संस्कृति के मूल रहस्य तुम्हीं से फैलेगी यह बेल विश्व भर सौरभ से खिल जाए सुमन के खेलो सुन्दर खेल।’’
सामाजिक पर्यावरण को जो उत्कृष्टता साहित्य में परिलक्षित होती हैं। वह वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार है। जिसमें मनुष्य को अपने नैतिक धर्म व जीवन की सार्थकता की शिक्षा दी गई है और सम्बन्ध निर्वाह का जो स्वरूप साहित्य ने तय किया हे वे उत्कृष्ट पया्रवरण की आधारशिला है। मनई शीर्षक कविता में बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस जी लिखते हैं –
दूसरे के दुःख ते दुखी होय
अपनसु सुखु सबका बाँटि देयि
जो नाई सुख-दुख के किरला
बसि वध्य आय सुन्दर मनई
अउरन की बढ़िया महतारी
जो अपनिन ते अधकी मानयि
जग के सब लरिका अपनय अस
बसि वहथि आथि सुन्दर मनई
अतः सामाजिक पर्यावरण सामाजिक सम्बन्धों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया से प्रकृत होता है। मानव जीवन के सभी पहलू सामाजिक पर्यावरण की परिधि में सम्मिलित हैं। जैसे – राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, शारीरिक एवं मानसिक आदि। मनुष्य जन्म से ही सामाजिक प्राणी है। वह समाज विहीन व्यवस्था में जीवित नहीं रह सकता। उसका विकास समाज में ही सम्भव है। अतः मानव के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और मानसिक व आध्यात्मिक सम्बन्ध सामाजिक पर्यावरण में ही आते हैं। जैसे जातिगत सम्बन्ध समुदाय गत सम्बन्ध, धर्मगत सम्बन्ध, वर्गगत सम्बन्ध, पारिवारिक सम्बन्ध, विद्यालयगत सम्बन्ध, युगलीकरण राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध आदि सामाजिक पर्यावरण के ही उदाहरण है। जिसे साहित्य ने अपने में सहेज-समेट रखा है।
जबकि मानव मंगल ग्रह की ओर मानवता जंगल की ओर जा रही है। समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो गया है तथा समाज में असुरक्षा अशान्ति, अव्यवस्था व्याप्त है। आज हम सब मानसिक स्तर से प्रदूषित हो गये हैं। यदि मानवता को भावी संकट से उबारना है तो साहित्य व पर्यावरण के इस सम्बन्ध को जीवन की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग बनाना होगा ताकि मानवता और मानव मूल्यों की रक्षा हो सकें। साहित्य ने हमेशा इस बिन्दु पर प्रकाश डाला है कि जिस तरह मनुष्य युद्ध करना सीखता है उसी तरह वह शान्ति से रहना भी सीख सकता है। इसके लिए साहित्य व पर्यावरण के अटूट सम्बन्धों को बनाये रखना होगा और प्रतिपल यह अनुभव करना होगा कि मानव पर्यावरण की उपज है और साहित्य मानव की गतिविधियाँ हैं जो उसे वातावरण की समीपता से प्राप्त होती हैं।

सन्दर्भ सूची
1. उपन्यास ‘आनन्द मठ’ बंकिम चन्द्र चटर्जी, बसुमती प्रकाशन, इलाहाबाद पृ0सं0-69
2. साकेत – मैथिलीशरण गुप्त, अग्रवाल प्रकाशन, आगरा, पृ0सं0-168
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – रामचन्द्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0सं0-45
4. रामचरित मानस – तुलसीदास, गीता प्रेस गोरखपुर, पृ0सं0-357
5. पर्यावरण शिक्षा – डॉ0 राधावल्लभ उपाध्याय, अग्रवाल पबिलकेशन, आगरा, पृ0सं0-13
6. प्रिय प्रवास – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, साहित्य सागर प्रकाशन, जयपुर, पृ0सं0-114
7. कामायनी जयशंकर प्रसाद, राजपाल प्रकाशन, कश्मीरी गेट दिल्ली, पृ0सं0-36
8. कामायनी – जय शंकर प्रसाद, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, पृ0सं0-37
9. पढ़ीस ग्रन्थावली – डॉ0 रामविला शर्मा, उत्तर प्रदेश, हिन्दी संस्थान, पृ0सं0-126

राधा देवी
शोधार्थी, हिंदी विभाग,
छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर

पन्नन बाजपेई
शोधार्थी, हिंदी विभाग,
छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर