May 10, 2023

49. नादिरा जहीर बब्बर की नाटक जी जैसी आप की मर्जी में स्त्री

By Gina Journal

Page No.:345-349

नादिरा जहीर बब्बर की नाटक जी जैसी आप की मर्जी में स्त्री

भारतीय साहित्य में स्त्री चिंतन की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। हिन्दी साहित्य में नारी चितंन की एक लंबी परंपरा है। आज़ादी के समय से लेकर आज तक स्त्री विमर्श की एक सुदीर्घ परंपरा है। स्त्री विमर्श से तात्पर्य स्त्री के विषय में गंभीर चिंतन। इन चिंतन को ‘कहानी,कविता,उपन्यास,आत्मकथा’ आदि के माध्यम से चित्रित किया गया है। लेकिन सबसे मर्मस्पर्शी तरीके से स्त्री चिंतन का स्वरूप समकालीन नाटकों के द्वारा प्रस्तुत है। स्त्री विमर्श यथार्थ में आधुनिकता ओर समकालीनता से जुडा हुआ प्रश्न है। इसे स्त्री मुक्ति आन्दोलन से पृथक करके नहीं देखा जा सकता है।

समकालीन हिन्दी नाटक में स्त्री जीवन की अनेक छवियाँ उभर कर सामने आती है। स्त्री अपने अधिकार व समस्त प्रकार के बंधन से मुक्त होकर मनुष्य की समान जीने की आकाक्षा के साथ सामने आती है। वह देह मुक्ति के साथ लिंग से भी मुक्ति की आशा रखती है। भारतीय समाज में स्त्री जितना दबी रही है उतना ही उसके दबेपन को इस्तेमाल भी किया गया है।

टेलिविजन,सिनेमा और रंगमंच की प्रसिद्ध कलाकार है “नादिरा जहीर बब्बर”।  उनका जन्म 20 जनवरी 1948 को हुआ।राष्टीय नाट्य विद्यालय की स्नातक थे। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिला है। उन्होंने अपनी संस्था “एकजुट” के माध्यम से नाटक को एक नई दिशा में ले गया। “तुगलक,आथेलो,जसमा ओढ़न” आदि अनेक नाटकों में उन्होंने केन्द्रीय भूमिका निभाया है। “नादिरा जहिर बब्बर” द्वारा लिखा गया एक नाटक है “जी जैसी आपकी मर्जी” नामक नाटक। इसमें उन्होंने चार स्त्री पात्रों के माध्यम से उनपर होनेवाला अत्याचार का चित्रण प्रस्तुत किया है।

नाटक का शुरुआत “दीपा” नामक लडकी से होता है। आशचर्य की बात यह है कि दीपा की जन्म से पहले यानी की जब वे अपनी माँ की कोख में थी तब से शुरू हुआ उनकी यह जीवन गाथ। जब दीपा अपनी माँ की कोख में थी तब दीपा की लिंग पहचानने के लिए उसकी माँ को तुरंन्त मरवाने के लिए ऐसे किया। यहाँ भ्रूण हत्या का चित्र देख सकता है। जो बच्चा अभी तक पैदा नही हुआ है उनसे ये लोग जीने के अधिकार को छीन जाता है। दीपा की घर में पहले से ही दो लडकियाँ है इसलिए एक ओर लडकी को स्वीकार करने के लिए वो लोग तैयार नही। इसलिए दादी जी कहते है, “क्यों अपने सर पे बोझा बढा रहा है रामसरणय? मैं तो कहती हुँ गिरवा दे इस लडकी को”। एक स्त्री होकर दूसरी स्त्री पर अत्याचार कर रहा है यहाँ। प्रस्तुत आस्पताल के डॉक्टर लिंग पहचानने से इंकार कर देते है और दीपा बज जाता है। जब दीपा की जन्म हो जाती है तो सिस्टर ने आकर दादी से मिठाई खिलवाने की बात करती है। लेकिन तब दादी कहती है कि, “अरे तीसरी करमजली पैदा हुई है, हमारी किस्मत ही फूट गई।” स्त्री को बोझ के रुप में देखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा है। पुराने समाने में स्त्री माँ है, देवी है लेकिन आधुनिक युग में आते-आते वे केवल एक वस्तु मात्र बन गया। दीपा के घर में लडकी और लडके में भेद-भाव देख सकता है। जैसे एक दिन दीपा ने खेलने की बात कहा तो दादी ने कहा, घर को समालना स्त्री का काम है ना की लडकों के तरह खेलना। एक दिन दीपा घर की काम करने बाद पढ़ने के लिए बैठातो उसी समय दीपा की भाई आ जाता है। भाई को देखकर दादी ने दीपा से उसे पानी देने केलिए कहा तो दीपा गुस्से में आ कर कहा, “भाई अपने आप पानी नहीं पी सकते।” यह सुनकर क्रोध में आकर अंशुमन दीपा को थप्पड़ मारता है और दीपा को उसकी पिताने एक कोठरी में बंध कर देता है। इसी प्रकार लडकियों का बचपन को बचपन से ही पराया या ससुराल भेजनेवाला एक वस्तु मानकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। साथ ही यदी लडकी में कोई प्रतिभा होतो उस प्रतिभा को आगे बढ़ाने से वे लोग उसे रोकता है। लडके को सारी सुख-सुविधा दे कर उसका पालन-पोषण करते है, लेकिन दूसरी ओर लडकियों को इन सब से दूर रखा जाता है। शिक्षा की क्षेत्र में भी भेद-भाव देखा जा सकता हैं। जो शिक्षा लडकी को भी समान रूप से मिलना चाहिए था उससे भी उन्हें दूर रखा जाता है।

इस नाटक का दूसरी मुख्य पात्र है “वर्षा पोटे”। दीपा से बिल्कुल अलग जिन्दगी है की। उसकी परिवार में कुछ हलचल है। जैसे उसकी काकी की शादी काका से होता है और काका ने बिजनेस करने के लिए विदेश चला गया। वहाँ जाकर काकी को धोखा दे कर किसी दूसरी स्त्री से शादी करता है। लेकिन काकी ने पन्द्रह साल तक उनका इन्दजार कर के जीवन बिताया। जब पन्द्रह साल के बाद काका वापस आया तो एक बार भी उसने काकी से मिलने की कोशिश नहीं किया। वर्षा के पिता और काका के मिलन के बाद वर्षा की माता-पिता की बीच झगड़ा होता है, इसे देखकर काकी को दुःख आती है। दूसरे दिन वर्षा की माँ ने काकी की कमरे में गया तो उन्होंने अपनी दोनों हाथों की नसों को ब्लेड से कटाकर आत्महत्या कर ली थी। नीचे एक पर्ची भी थी उसमें उनकी अंतिम इच्छा थी, वो आकर उनको अग्नि दे। यहाँ स्त्री की सहन क्षमता और पति को इश्वर मानकर जीने का चित्रण देख सकता है। पति द्वारा पीडित होने के बाद भी स्त्री पति को सब कुछ मानकर आगे बडता है। क्यों कि हमें बचपन से यही सिखाती है कि पति जैसे भी हो हमें यानी की स्त्री को अडजस्ट करना है साथ ही पति की खुशी के लिए स्त्रियों को अपनी सारी आशा और इच्छा को भी त्यागना चाहिए।

पुराने जमाने से लेकर आधुनिक ज़माने तक आते ही संसार में काफी बदलाव आया, लेकिन मर्दों के अंतर्गत स्त्री के प्रति जो सोच विचार है उसमें आज तक कोइ परिवर्तन नहीं आया है। जब वर्षा कॉलेज में पडती थी तब जिग्नेश नामक एक लडका आकर उसे प्रेपोस किया। लेकिन जिग्नेश के मन में उसकी प्रति कोई प्रेम नहीं था बल्कि उसकी शरीर के प्रति एक आकर्षण था। एक युवपीढि होने के बाद भी जिग्नेश के मन में जातीय भावना है, इसलिए वर्षा से शादी करने के लिए वो तैयार नहीं, लेकिन उसके साथ खूमने-फिरने और साथ सोने में कोई प्रश्न नही। यहाँ देखा जा सकता है कि मानव किस प्रकार स्त्री को देख रहा है और किस प्रकार उसका साथ व्यवहार कर रहा है। उसे केवल एक उपभोग वस्तु मानता है। दूसरी ओर वर्षा की पिता की स्वास्थ्य बिगड़ जाता है तो घरवालों ने आकर कहा, काया झाल पोटे साहेव, काय झाल तीन-तीन लडकियाँ है। इनके कोई लडका भी तो नहीं है न। यहाँ भी भेद-भाव देख सकता है। वास्तव में वो लोग नहीं जानती थी की स्त्री की क्षमता क्या है।

सुल्ताना और बबली इस नाटक के अंत में आनेवाले दो नारी पात्र है। वास्तव में ये दो नारी पात्र पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ आवाज़ आवाज़ उठाती है। एक प्रतिरोध का बोध कराती है। छोटी उम्र में सुलताना का विवाह ‘अकील’ से हो जाता है। सुल्ताना की पति उसे बलात्कार करती है और इस दृश्य को देखकर उसकी सास ने कहा, “चल-चल बहुत नखरा हो गया…….अब उठ जा,अरे अभी नहीं तो चार-छः महीने में तो करना ही था न,ऐसी कौन सी कयामत आ गई।” एक स्त्री होकर दुसरी स्त्री पर अत्याचार कर रहा है यहाँ। उन्होंने अपने बेटे को डांटा और न ही उसे सुधारने की कोशिश किया। सास भी सुल्ताना को एक भोग वस्तु मानकर उनके साथ अन्याय कर रहा है। पन्द्रह साल की उम्र में सुल्ताना ने एक लडकी को जन्म दिया। इस प्रकार उसने तीन लडकी को जन्म दिया। चौथी बार गर्भवती बनी तो सास ने साफ कहा यदि यह बच्चा भी लडकी होतो उसे घर से निकालकर अकील का दूसरी शादी करवा दुगी। निर्भाग्य में चौथी बार भी लडकी पैदा हुई और अकील ने उसे तलाक दे कर घर से निकाल दिया। वहाँ से सुल्ताना ने जैसे-तैसे उसकी जिन्दगी को आगे बडाया। इसी बीच दो बेटियों का मृत्यु हो गया। जब सुलताना की बेटी बडी हो जाती है तो सुलताना की दूसरी शादी हक़ीम साहब से होता है। हक़ीम तो एक निर्मम व्यक्ती है। उन्होंने सुल्ताना की बेटी के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश किया। यह देखकर गुस्से में आकर सुलताना उसे मार डालता है। इसी कारण उसे जेल जाना पड़ता है। जेल से छूटने के बाद, उनकी बेटी की शादी एक शिक्षित व्यक्ति से कर दी गई।

नाटक का अंतिम नारी पात्र है बबली। उसकी शादी भी एक  पढे-लिखे आदमी से हो जाता है। पहले उसकी शादीशुदा जिंनदगी ठीक था। लेकिन कुछ साल बाद उसे पता चलता है कि उसकी पति उसे धोखा दे रहा है। तब बबली गर्भवती थी। यह बात सुनने की बाद वह पूरी तरह टूट जाती है। अब उसकी पास कोई नहीं। न वो अपनी माँ की पास जा सकता है न ही पिता के पास। मम्मी हमेशा उनसे कहा कि “बबली पुत्तर अपने हसबैंड को हर हाल में खुश रखना है।” यहाँ बबली की माँ उसकी परवाह किए बिना उससे पति को खुश रखने के लिए कहता है। नाटक के अंत में बबली एक प्रतिरोध के रूप में पूछता है कि “क्या एक छत्त और दो वक्त की रोटी देना कोई चाँद-तारे तोड लाना तो नहीं है, जिसके लिए हम अपना सब कुछ गंवा देते है; सब कुछ खो देते है, सब कुछ गंवा देते है, क्यों,क्यों,क्यों?” यह वास्तव में बबली की प्रतिरोध है इस पितृसत्तात्मक समाज के प्रति।

इस नाटक के माध्यम से नादिरा जहिर बब्बर जी ने हमारी ध्यान बहुत समस्याओं की ओर आकर्षित करने की प्रयास किया है।जैसे कि बाल विवाह, अनमेल विवह, नारी समस्या, भेद-भाव, पितृसत्तातमक समाज की अन्याय आदि। साथ ही स्त्री को मिलने वाला कुछ मानवधिकार खंडन भी प्रस्तुत नाटक में देखने को मिलता है। सबसे पहले ‘भ्रूण हत्या और जीवन जीने की अधिकार का खंडन’। उसका उत्तम उदाहरण है दीपा की जन्म होने से पहले उसे मरवाने की कोशिश करना। दूसरा ‘स्त्री को वीकर सेक्स मानकर उनके उनके साथ दुर्व्यवहार’, जैसे वर्षा की ऊपर असिट का धमकी। तीसरा ‘बाल विवाह और  अनमेल विवाह’, जैसे की सुल्ताना की मर्जी के बिना उसकी शादी करवाना। चौथा ‘बलात्कार और लडके-लडकी में भेद-भाव’ आदि अनेक स्त्री समस्या की ओर हमारी ध्यान आकर्षित करने का प्रयास प्रस्तुत नाटक के माध्यम से नाटककार ने किया। इसमें प्रमुख है स्त्री को शिक्षा से दूर रखना। यदि स्त्री पढी लिखी हो तो उन पर होने वाले अत्याचार के बारे में वह समझ जाता है और उसका विरोध करने की कोशिश जरुर करती है। इसलिए उन्हें सारी मानवाधिकार और मौलिक चीजों से दुर रखा जाता है। इसी प्रकार स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है। वास्तव में यह नाटक स्त्री और पुरुष दोनों को एक साथ प्रभावित करता है। साथ ही मानवीय सोच और समाज में भी कुछ बदलाव लाने केलिए प्रस्तुत नाटक के माध्यम से नादिरा जहीर बब्बर जी ने एक मूल भूत भूमिका निभाया है।

संदर्भ ग्रन्थ