May 10, 2023

48. समकालीन हिंदी उपन्यास में आदिवासी चेतना एवं आधुनिकता का द्वंद्व – विजय ज्योति

By Gina Journal

Page No.:336-344

समकालीन हिंदी उपन्यास में आदिवासी चेतना एवं आधुनिकता का द्वंद्व – विजय ज्योति

  समकालीन साहित्य अस्मितामूलक विमर्शों का  साहित्य  है | समाज के वे  सभी वर्ग जो प्राचीन काल से  सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक  रूप से शोषण और दमन के शिकार  थे, वह स्वतंत्र भारत में अपने अधिकार एवं अपनी अस्मिता के प्रति सजग हो रहे हैं | ऐसे में वह  सभी वर्ग जो सदियों से पीड़ित थे वे  अपने एवं अपने  समुदाय पर हो रहे शोषण ,दमन  के विरोध में एकजुट हो रहें हैं | भारतीय  संविधान एवं शिक्षा नीति  के  समानता ,बंधुत्व ,भाईचारा की संकल्पना ने भारतीय चिंतन पद्धति के  वैचारिक  स्तर में परिवर्तन का कार्य किया  | जिसका परिणाम साहित्य में विभिन्न  विमर्शों के रूप में हुआ |  दलित विमर्श ,स्त्री विमर्श एवं  आदिवासी विमर्श इसी समकालीन विमर्शों ( अस्मितामूलक चिंतन) की देन हैं | हाल के वर्षों में किन्नर विमर्श ,पर्यावरण विमर्श ,किसान विमर्श ,वृद्ध विमर्श आदि भी अपने लिए नवीन पथ तलाश रहें हैं एवं अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए आवाज उठा रहें हैं |अस्मितामूलक विमर्श का प्रारंभ दलित विमर्श एवं स्त्री विमर्श से माना जाता है |परन्तु, वर्त्तमान में सामाजिक ,राजनीतिक , आर्थिक एवं साहित्यिक रूप से  दलित एवं स्त्री अपने अधिकारों के प्रति इतने सजग एवं सशक्त हो चुके हैं कि वे  आगे का रास्ता स्वयं खोजने में सक्षम है | वर्त्तमान में स्त्री एवं दलित विमर्श के समान  आदिवासी विमर्श भी तेजी से अपनी पहचान बना रहा है |आज आदिवासी विमर्श साहित्य एवं राजनीति के केंद्र में आ गया है | आदिवासी  साहित्य के केंद्र में उनकी जल,जमीन,जंगल एवं जीवन की चिंताएँ है  |

 वैश्वीकरण,औद्योगिकीकरण  के दौर में जहाँ सभी देश स्वयं को विकसित करने की होड़ में लगे  है ऐसे समय में  विकास की  तेज गति  ने सबसे अधिक प्रभावित वैश्विक स्तर पर प्रकृति एवं पर्यावरण को किया है  |किसी भी देश के  विकास का रास्ता जंगलों से होकर ही गुजरता है| कभी सरकारी कोष में वृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों  की प्राप्ति के लिए जंगलों को काटा गया तो, कभी शहरीकरण के लिए जंगलों को रौंदा गया| जंगलों को रौंदने की प्रकिया में जंगलों में रहने  वाले आदिवासी समुदाय  को निर्वासन झेलना पड़ा |यह निर्वासन साधारण निर्वासन नहीं था| क्यूंकि बाहरी दुनियां उनके लिए बांहे फैलाए खड़ी नहीं थी | मुआवजे की राशि नवीन आवास एवं जीवनयापन के लिए अप्रर्याप्त थी  और शहरी तौर-तरीके इन्हें आते नहीं थे |शहरी तौर-तरीकों  के अनजान ये  समुदाय  अपने जड़ों से , संस्कृति से विलग हो स्वयं को ठगा हुआ महसूसकर रही थी |विस्थापन एवं जड़ों से छूटने का  दर्द,दमन और जीवन जीने के लिए किये जा रहें संघर्ष को उजागर करने का कार्य आदिवासी साहित्य में हुआ है |हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में (गद्य एवं पद्य ) आदिवासियों एवं गैर आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासियों के दर्द को उद्घाटित करने का कार्य किया है |लेकिन   गद्य विधा के अंतर्गत  उपन्यास में आदिवासियों के दर्द एवं संघर्ष के सभी पक्षों  को विस्तृत रूप से उद्घाटित करने का प्रयास समकालीन उपन्यासकारों ने किया है |समकालीन उपन्यासकारों में संजीव(सावधान नीचे आग है ,धार,जंगल जहाँ से शुरू होता है,पाँव तले दूब),रणेंद्र(ग्लोबल गाँव का देवता,गायब होता देश) ,राकेश कुमार सिंह(जहाँ खिलें हैं रक्त पलाश,पठार पर कोहरा ),विनोद कुमार (समर शेष है ),शिव प्रसाद सिंह (शैलषु)हरिराम मीणा(धूनी तपे तीर ) ,मधुकर सिंह (बाजत ढ़ोल अनहद ),मनमोहन पाठक (गगन घटा गहरानी ),श्री प्रकाश मिश्र (जहाँ बांस फूलते हैं ), तेजिंदर(काला पादरी),रामनाथ शिवेंद्र (तीसरा रास्ता),वीरेंद्र जैन (पार ),  मैत्रीय पुष्पा(अल्मा कबूतरी ) ,शरद सिंह (पिछले पन्ने की औरतें ),महुआ मांझी(मरंग गोडा नीलकंठ हुआ ) ,अल्पना मिश्र(अस्थिफूल )आदि ने प्रमुखता से  आदिवासियों के जीवन के अनछुए पहलुओं उनके जीवन से जुड़ी अधिकांश छोटी –बड़ी समस्याओं  को , दर्द एवं संघर्ष को अपनी रचनाधर्मिता से अपने उपन्यास  रेखांकित किया  है  |

उपन्यासकार संजीव के उपन्यास ‘सावधान नीचे आग है’ 90 के दशक का एक बहुचर्चित उपन्यास है जिसमें उस समय के बिहार राज्य (वर्त्तमान के झारखंड )के कोयलांचल में निवास करती संथाल जनजाति के जीवन में औद्योगिकीकरण के कारण आए परिवर्तन को रेखांकित किया है | किस प्रकार से आदिवासी समुदाय जिनका सर्वस्व जंगलों में था,कोयला कम्पनी के आ जाने के बाद बेघर हुए एवं सरकारी नीतियों से अलग कोयला माफिया,दलाल और ठेकेदार की मिली-जुली कुटिल एवं भ्रष्ट राजनीति का शिकार हुए | प्रकृति के स्वक्छंद वातावरण में विकसित प्रकृति के सच्चे पोषक को  उनके  जड़ों से उखाड़ कर कोयला खाद्यान में मजदूर बना दिया | खाद्यान में होने वाली दुर्घटनाओं  एवं मजदूरों की आवाज को दबाने के लिए अपनायी गयी क्रूर व्यवस्था की परत दर परत का उद्घाटन इस उपन्यास में संजीव ने किया है |

संजीव के  दुसरे  उपन्यास ‘धार’ में संथाल परगना के बांसगडा अंचल (वर्त्तमान झारखंड ) में  खनन ,दोहन ,कोयला माफिया ,ठेकेदारों  और पुलिस के अत्याचारों के विरोध में उठने वाले आदिवासियों की संघर्षशील आदिवासी प्रतिरोधी चेतना चित्रण किया गया है | उपन्यास में संथाल समुदाय दो वक़्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करती नजर आती है और इस दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में उन्हें  सभी गलत-सही  काम करने पड़ते हैं | अरण्यमुखी जीवन होने के कारण  शिक्षा से दूर  इस समुदाय के पास  बाहरी दुनिया में काम के सीमित क्षेत्र रहें हैं | पुरुष एवं स्त्री के पास जीवन यापन का एकमात्र  साधन मजदूरी एवं स्त्रियों के लिए एक अतिरिक्त साधन  देह व्यापार है |इस उपन्यास में आदिवासी स्त्री संघर्ष एवं चेतना  को संजीव  ने आदिवासी स्त्री मैना के माध्यम उभारा है |उपन्यास में एक जगह मैना का कथन आदिवासियों की पूरी स्थिति का वर्णन करता है |मैना कहती है-“पहले हम चोरी का चीज है नई जानता था ,भीख कब्भी नई माँगा,चुगली–दलाली,कब्भी नई किया,इज्जत कब्भी नई बेचा आज हम सब करता,आदत पड़ गया है ,बल्कि कहें ,इसके बिना गुजारा नई |”1 मैना आगे कहती है –“धन्न मनाऊँ रेल कम्पनी का कि बछड़ा–बकरा कट जाता है ,हमको भोज खाने को मिल जाता है | धन्न मनाऊँ रेलवई पुलिस का, हमको सिलतोड़ी कराता ,हमरा बहिन–बेटी,माँ के साथ रंडीबाजी करता कि हमको दू-चार पैसा भेंटा जाता |धन्न मनाऊँ सरदार निहाल सिंह का कि हमरा चोरी हजम करके रेलवई  का कूड़ा हियाँ फेंकता कि हम लोहा-पीतल बीन-बान के उनको बेंच कर पेट चलाता|’’2 इस पुरे कथन के माध्यम से संजीव ने आदिवासियों के दो वक़्त की रोटी के लिए जद्दोजहद का यथार्थ चित्रण किया हैं  | आगे मैना के माध्यम लेखक ने औद्योगीकरण से पहले और बाद के आदिवासी जीवन की भी तुलना की है | मैना कहती है – “हमको याद है आता, जब हम बच्चा था,खेती से चार-छै महीना का काम चल जाता था, आज एक दिन का भी नई| खेत-खतार,पेड़,रुख,कुआँ,तालाब,हम और हमारा बाल-बच्चा तक तेजाब में गल रआ है ,भूख में जल रआ है|”3 इस उपन्यास में संजीव ने संथाल एवं थारू आदिवासी समुदाय के सामान्य जीवन जो संघर्ष से भरा है एवं उसके विभिन्न पक्षों डाकू ,पुलिस और प्रशासन ,राजनीति ,धर्म,समाज-संस्कृति के संबंध का वर्णन   सूक्ष्मता से किया है |

 ‘पाँव तले दूब’ संजीव द्वारा रचित आदिवासी उपन्यासों की कड़ी में अगला उपन्यास हैं | इस उपन्यास में मूलतः आदिवासी समस्या,झारखंड राज्य की मांग एवं राजनीति चेतस आधुनिक शिक्षा से लेश हो रहें आदिवासी युवा वर्ग को आधार बनाकर सम्पूर्ण आदिवासी समस्या को संजीव ने रेखांकित करने का प्रयास किया हैं  | समीर के शब्दों में बघमुंडी के आदिवासियों के जीवन के वास्तविक दशा  का वर्णन संजीव ने इस प्रकार करते  है  – “कई आदिवासी घरों में घुमाते हुए तुम मुझे ले चल रहे थे | वे इतने गरीब थे कि कपड़ों के नाम पर चिथड़ों का कच्छा पहने हुए थे ,पुट्ठे तक खुले हुए | औरतें जैसे –तैसे बदन ढकें हुए थीं | बच्चे कंगालों जैसे |”4संजीव ने आदिवासियों के  भूख,गरीबी,अशिक्षा,रुढिवादिता एवं पलायन /विस्थापन के साथ नदी- नाले,जमीन,जंगल में खनन से होने वाले प्रदूषण आदि की समस्या को आदिवासी जीवन के ठोस यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत किया है | सुदीप्त के शब्दों में –“आदिवासी  लोगों की दो कमजोर नसें हैं – अरण्यमुखी संस्कृति और उत्सवधर्मिता ! अरण्यमुखी संस्कृति उन्हें सभ्यता के विकास से जुड़ने नहीं देती और उत्सवधर्मिता इन्हें कंगाल बनाए रहती है | हंडिया या दारू ये पियेंगे ही और हर उत्सव को मस्त होकर मनाएँगे पढाई-लिखाई से दूर रहेंगे|”5 आदिवासियों की उत्सवधर्मिता एवं दारू की लत  उन्हें कर्जे में डूबाए रखती है | कर्ज के बदले में चालक लोग उनसें उनकी जमीन हथिया लेते हैं | अंधविश्वास आदिवासियों की एक प्रमुख समस्या है किसी भी घटना को अन्धविश्वास से जोड़ कर  लोग देवी प्रकोप और डायन का कालाजादू मानते हैं |डायन बता कर किसी स्त्री को मार दिया जा रहा है तो किसी का सर मुंडा कर नंगा कर उत्पीड़ित किया जाता है |उपन्यास के आदिवासी युवावर्ग अपने अधिकारों के प्रति सजग तो हो रहें पर  राजनैतिक भटकाव का शिकार हो जाते हैं |सुदीप्त गैर आदिवासी होते हुए भी आदिवासी का सच्चा हितैषी पर  भ्रष्ट राजनीति का शिकार हो जाता है और आत्महत्या कर लेता है | संजीव का अगला उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ बिहार के पश्चिम चंपारण जिसे डाकुओं के कारण ‘मिनी चम्बल’ कहा जाता था  के   डाकू उन्मूलन अभियान ‘आँपरेशन  ब्लैक पाइथान’ पर आधारित है इस आँपरेशन को दिखाते हुए लेखक संजीव आदिवासियों के डाकू बनने के कारण को उद्घाटित करते हैं |शोषण,उत्पीड़न,दरिद्रता,सरकार की बेरुखी एवं भ्रष्ट राजीनीति के कारण किस प्रकार वनवासी डाकू बनने को मजबूर हो जाता है | उपन्यासकार संजीव ने आदिवासियों के  जीवन की  सभी छोटी-बड़ी समस्याओं  को सजगता से अपने उपन्यासों में  उद्घाटित किया है|

आदिवासी समस्या को लेकर लेखन के क्षेत्र में समकालीन लेखकों में रणेंद्र का नाम बहुचर्चित है | रणेंद्र के दो उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ एवं ‘गायब होता देश’ आदिवासी समुदाय पर आधारित है |उपन्यासकार रणेंद्र का उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ झारखंड के ‘असुर’ जनजाति के शोषण ,विस्थापन एवं अनवरत संघर्ष को उजागर करता है | यह उपन्यास असुर समुदाय ही नहीं सम्पूर्ण आदिवासी समुदायों की संघर्ष गाथा है जिसे वैश्वीकरण और लोकतान्त्रिक आधुनिकता लील रही है |कथाकार रणेंद्र असुर समुदाय के आविष्कारों(आग से धातु पिघलाने) का उल्लेख करते हुए सम्पूर्ण मानव के विकास में असुर समुदाय के योगदान का वर्णन करते हुए, देशकालबद्धता को कायम रखते इसे एक वैश्विक रूप देते हैं | रणेंद्र ने प्रस्तुत उपन्यास में असुरों की संघर्षगाथा का बहुत ही स्पष्ट एवं निर्मम चित्र खीचा है जहाँ एक ओर दुनिया विकास करती जा रही है वहाँ आदिवासी समुदाय अपनी नियति के खिलाफ संघर्ष कर रहा है | उपन्यास में लालचन दा की हत्या जमीन के टुकड़े के लिए पहली हत्या नहीं थी बल्कि यह हज़ारों-हज़ार साल से चल रहे घोषित-अघोषित युद्ध की नवीनतम कड़ी मात्र थी|लालचन दा का कटा सर देश-कालखंड की समझ को झकझोर देता है |आखिर हम किस युग में हैं , वैदिक काल या इक्कीसवीं सदी में | रुमझुम से बात करते हुए लेखक का यह स्मरण हो आना –

 “बरबस प्राचीन अमेरिका के इंका,माया,एज्टेक और सैकड़ों रेड इंडियंस याद आये | इसी तरह खदेड़े जानेवाले,इसी तरह मार दिए जाने वाले |असुरों की तरह ही उनकी भी चंद संख्या बची थी | बदहाल जिन्दगी गुजारती, संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन, साहित्यविहीन, धर्मविहीन | शायद मुख्यधारा पूरा निगल जाने में ही विश्वास करती है | यह उनकी उदारता है कि इंका,माया,एज्टेक और अन्य रेड इंडियंस से संबंधित ढेर-ढेर  साहित्य ,ढेर सारे अजायबघर वहाँ मौजूद हैं | छाती ठोंक-ठोंककर अपने को अत्यंत सहिष्णु कहने वाली हिन्दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी भी जगह नहीं छोड़ी थी | वे बस उनके लिए मिथकों में शेष थे | कोई साहित्य नहीं, कोई , कोई अजायबघर नहीं | विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत मात्र भी नहीं |”6 प्रस्तुत पंक्तियाँ संपूर्ण विश्व में  फैली आदिवासी समुदाय के वास्तविक स्थिति के दर्शन  कराती है |किस तरह आग और धातु की खोज करने वाली,धातु को पिघलाकर उसे आकार देने वाली  कारीगर असुर जाति सभ्यता ,संस्कृति ,मिथक  और मनुष्यता का सबसे ज्यादा मारा है |

ग्लोबल गाँव के देवता में कथाकार रणेंद्र ने आदिवासी असुर समुदाय के देवराज इंद्र से लेकर ग्लोबल गाँव के व्यापारियों तक फैली शोषण की प्रकिया को उजागर किया है | जहाँ एक ओर इनके विरुद्ध ग्लोबल गाँव के देवता हैं जैसे शिंडालको और वेदांग तो दूसरी ओर एम.पी. और विधायक हैं| तीसरी ओर शिवदास बाबा जैसे धार्मिक ठेकेदार भी हैं | इस त्रि-संधि के सामने संघर्ष कर रहें असुरों को अपनी नियति का एहसास है पर वे अपनी नियति को चुपचाप प्राप्त नहीं करना चाहते | बल्कि आखरी सांस तक संघर्ष करना उनकी रक्त में विद्यमान है |

रणेंद्र का दूसरा उपन्यास ’गायब होता देश’ में उन्होंने मुंडा समुदाय के जीवन संघर्ष को आधार बनाकर आदिवासी जीवन-समाज का यथार्थ चित्रण किया है | चुकी रणेंद्र आदिवासी समुदाय के बीच काफी समय  से रहें हैं | आदिवासी समस्याओं को  उन्होंने काफी नजदीक से देखा ,सुना और अनुभव किया है |  उन्होंने उपन्यास  ‘गायब होता देश’ में आदिवासी समाज एवं संस्कृति का सूक्ष्म चित्रण भूमंडलीकरण के परिपेक्ष्य में किया है |  उपन्यास के पूर्वकथन में ‘सोना लेकन दिसुम’ में सूत्र रूप में लेखक ने लिखा है – “सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ ,मरांग-बुरु बोंगा,पहाड़ देवता गायब हुए गीत गाने वाली ,धीमे बहने वाली ,सोने की चमक बिखेरने  वाली , हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें ‘इकिर बोंगा’-जल देवता का वास था ,गायब हो गई ,मुंडाओं की बेटे – बेटियां भी गायब होने शुरू हो गये ,सोना लेकर दिसुम ‘गायब होने वाले देश में तब्दील हो गया |”7यह पुरे उपन्यास का सूत्र है कि किस तरह मुंडा आदिवासी जीवन पर बाहरी समाज का प्रभाव और प्राकृतिक संपदाओं का अमर्यादित दोहन ने उनके  देश को ही गायब होने पर विवश कर दिया और इसके बीच मुंडाओं का  जीवन, द्वंद, संघर्ष और उत्पीड़न का शिकार हुआ |

वस्तुतः रणेंद्र के दोनों उपन्यास एक दुसरे की कड़ी है| ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ से ‘गायब होता देश’ तक का सफ़र है |दोनों उपन्यास के आदिवासी समुदाय भले अलग हैं(ग्लोबल गाँव के देवता’ में असुर समुदाय एवं ‘गायब होता देश’ में मुंडा समुदाय ) पर उनकी समस्या समस्त आदिवासियों की समस्या है |

समकालीन उपन्यास लेखन में एक सशक्त नाम महुआ माजी का है |उनका  उपन्यास  ‘मरंग गौड़ा नीलकंठ हुआ’  में लेखिका ने विकिरण प्रदूषण व विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा कही हैं | झारखंड के सिहंभूम जिले मरंग गौड़ा के आदिवासी समुदाय (‘हो’,कोल,संताली,मुंडा )खदान के उत्खनन के कारण कंपनियों ने उन्हें विस्थापित किया | युरेनियम प्राप्त करने के लिए किये जा रहे खनन से जो रेडियोधर्मी प्रदूषण का प्रभाव आदिवासियों के जीवन पर सर्वाधिक पड़ा | उपन्यास आरम्भ में ही लेखिका ने आदिवासियों के जीवन पर हुए दुष्प्रभाव का उल्लेख सगेन के संस्मरण के माध्यम से किया है –

“ततंग(दादाजी)उसे पत्थरों का डाँक्टर बनाना चाहते थे | ये उन दिनों की बात है  जब मरंग गोड़ा में सभी के हाथ पैर सही सलामत थे | किसी का सिर असामान्य रूप से बड़ा या छोटा नहीं दिखता था |किसी के देह घिनौने घावों से बजबजाती नहीं थी |केंदु के फल के बीज न तो टेढ़े हुआ करते थे और न ही गायब | गाय बकरियों के जबड़े, दांत या मसूड़े सड़ गल कर गिरते नहीं थे| आसन्न तूफान  या बारिश की जानकारी देने के लिए लिपि जैसे लालपंछी गाँव, जंगल ,टोला में हर वक़्त मोतायेन रहते | लोग भक्ति श्रध्दा से बिर बोंगा (जंगल देवता)…..बुरु बोंगा (पहाड़ देवता) की पूजा किया करते |”8 उपन्यास में सगेन के द्वारा आदिवासी जीवन सम्पूर्ण समस्या का घटना चित्र महुआ माजी ने उपन्यास में प्रस्तुत किया है एवं  युरेनियम के निकाले जाने से किस प्रकार पूरा क्षेत्र रेडियोधर्मी प्रदूषण का शिकार हो रहा है |

राकेश कुमार सिंह का उपन्यास ‘जहाँ खिलें हैं रक्त पलाश’ एवं  ‘पठार पर कोहरा’ दोनों ही झारखंड की आदिवासी समुदाय के अलग-अलग समस्याओं पर आधारित उपन्यास है| ‘जहाँ खिलें हैं रक्त पलाश’ में उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने पलामू के इतिहास को सम्बद्ध करते हुए वर्तमान की सामाजिक समस्याओं को उद्घाटित किया है |जिसमें भयावह कृषि समस्या ,अंधा वनदोहन,लचर कानून व्यवस्था ,अपराध का राजनीतिकरण और भूमिगत संघर्षों की खूनी प्रचंडता के  बीच वहाँ की लोक आस्थाओं एवं लोक संस्कृति को रेखांकित किया है | ‘पठार पर कोहरा’ उपन्यास  आदिवासियों की मुलभूत समस्या जल,जंगल,जमीन के संघर्ष पर आधारित है |आजादी के बाद भी आदिवासी के लिए लायी गई योजनाएं अधिकांश कागजी ही रही और आदिवासी समुदाय उसी तरह मुख्यधारा से अलग –थलग ही रहा |

देश की आबादी  का 10 % भारत में  आदिवासियों की जनसंख्या  है और यह जनसमूह  आजादी के 75 वर्ष हो जाने के बाद भी शिक्षाविहीन और बदहाल जीवन जीने को मजबूर है| आजादी के बाद जो भी प्रयास इनके उत्थान के लिए हुए अधिकतर भ्रष्ट राजनीति का शिकार हो गए |  आधुनिकता और विकास के नाम पर किया गया विस्थापन उन्हें  उनके  सामाजिक – सांस्कृतिक विरासत से भी बेदखल करता है | मुख्यधारा में लाने के प्रयास एवं सरकार के  दोहरा कियान्वयन  ने उनको उनके जड़ से अलग कर दोयम दर्जे का मजदुर बना दिया| अपनी जड़ों से छूटने का दर्द ,जीवन यापन की समस्या और अपनी संस्कृति को बचाने  का अनवरत  संघर्ष करते आदिवासियों की  जिजीविषा का यथार्थ और संवेदनशील चित्रण समकालीन उपन्यासकारों ने किया है | आदिवासियत और आधुनिकता के मध्य पड़े आदिवासी समुदाय के अनवरत संघर्ष की  कथा है,आज के समकालीन आदिवासी उपन्यास |

संदर्भ ग्रंथ सूची

      1.संजीव,धार,राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली,2011,पृ.54

     2.संजीव,धार,राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली,2011,पृ.54

  1. संजीव,धार,राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली,2011,पृ.41
  2. संजीव,पाँव तले की दूब,वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर ,2016,पृ.14
  3. संजीव,पाँव तले की दूब,वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर ,2016,पृ.14

     6.रणेंद्र, ग्लोबल गाँव के देवता,भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली ,2019,पृ.33

     7.रणेंद्र,गायब होता देश ,पेंगुइम रैंडम हॉउस,हरियाणा,2014,पृ.2

 विजय ज्योति

  शोधार्थी

  पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय ,पटना