May 9, 2023

30. सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में: दलित स्त्री की आत्मकथा एक अध्ययन – प्रियंका सारम्म फिलिप्प

By Gina Journal

सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में: दलित स्त्री की आत्मकथा एक अध्ययन

 प्रियंका सारम्म फिलिप्प

 

समकालीन साहित्य में दलित साहित्य  का स्थान सर्वोपरि है।आज दलित साहित्य लेखन साहित्य की तमाम विधाओं पर हो रही है।इसमें आत्मकथा एक ऐसी विधा है जो दलित साहित्य के जीता जागता इतिहास हैं। दलित आत्मकथाकार अपनी जीवन के  ज़रिए अपने समाज के सदियों पुराने दर्द एवं अनसुनी यथार्थ को कह रहा है।हिंदी में दलित आत्मकथाओं को दावा करने के लिए उसके पीछे एक विशाल परंपरा प्राप्त नहीं है।हिंदी आत्मकथा के क्षेत्र में अब एक दर्जन के परे आत्मकथाओं का प्रकाशन  भी हुआ है और इस एक दर्जन के अन्तर्गत गौरव के साथ दो दलित स्त्री की आत्मकथाएं भी शामिल है।सबसे पहले 1999में प्रकाशित कौसल्या बैसन्त्री की ‘दोहरा अभिशाप’ और 2011 में प्रकाशित सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’। श्री बजिरंग बिहारी तिवारी ने दलित स्त्री के बारें में कहा है कि,”दलित स्त्री को स्त्री होने का दलित होने का और गरीब होने का तिहरा संताप एक साथ झेलना पड़ता है गैर दलित पुरुषों केलिए वह उपभोग सामग्री है तो गैर दलित स्त्रियों के तिरस्कार योग्य समुदाय।स्वयं दलित पुरषों की निगाह उसे गैर बराबर मानती है”।(1)दलित पुरुष की तुलना में दलित स्त्री की आत्मकथा में संवेदना के पक्ष काफी गहरी एवं तीव्र है।इसलिए इसे अलग से देखना और परखने की ज़रूरत है।

दोहरा अभिशाप कई मायने में महत्वपूर्ण एवं विशेष है क्योंकि इसे हिंदी की पहली दलित स्त्री आत्मकथा होने के दर्जा प्राप्त है दूसरी बात हिंदी में प्रकाशित इस आत्मकथा की लेखिका एक मराठी भाषी है।इन दो आत्मकथाएं गैर दलित तथा दलित समाज पर एक प्रकार के तहलका मचाया है।क्योंकि दलित लोगों के प्रत्येक समस्या मानव द्वारा बनाया गया है।दलित पुरुष के संदर्भ में उनके शोषण की श्रेणी में सवर्ण समाज खड़े है,लेकिन एक दलित स्त्री केलिए उनकी शोषक वर्ग मात्र सवर्ण समाज नहीं बल्कि अपने घर परिवारवाले भी उसमे शामिल है।आत्मकथाओं के शीर्षक से ही मालूम है कि ,इसमें क्या बताना चाहती है।दोहरा अभिशाप यानी दलित स्त्री की दोहरी अभिशाप की कहानी है एक ओर दलित होने की दूसरी ओर स्त्री होने की।इसी के द्वारा साहित्य तथा पूरे समाज दलित स्त्री की दोहरी शोषण की स्थिति के बारे में अवगत हुई है। जाति एक ऐसी बात है कि ,यह दलित समाज को हर समस्या  दोहरे बनाती है।जहाँ भी दलित जाए उधर -उधर नई नई समस्याओं की सृष्टि जाति नामक अभिशाप खड़ा कर देती है।इन जातिगत समस्या एक प्रकर से दलितों को एक शिकंजा बनकर इन्हें जगड रही है और इस शिकंजों को तोड़ने का प्रयास है शिकंजे का दर्द नामक आत्मकथा।

इन आत्मकथाओं पर प्रत्यक्ष रूप से तीन पीढ़ियां सामने आती है तीनों पीढ़ियों पुरुषवाद तथा जातिवाद से संघर्ष करते हैं। दलित स्त्री के लिए समाज में बहुत सारे अलिखित नियम होते हैं जो परम्परा के पालन करने की तरह निभाते आ रही है।सबसे पहले छोटी उम्र में होनेवाली शादी को लिया  जा सकता है।अधिकांश लड़कियों की न समझ के हालत में माँ-बाप ने उसकी शादी अपने से बड़े आदमी के साथ करा देती हैं।इन अनमेल विवाह के शिकार खुद सुशीला टाकभौरे को भी बनना पड़ी है।इन अनमेल स्थिति केवल आयु में मात्र नही सोच विचार सब में प्रकट होती हैं।इन वैवाहिक रिश्ते में कभी कभी किसी के पति या किसी की पत्नी की मृत्यु होना स्वाभाविक बात है,लेकिन विडम्बना यह है कि,दूसरी शादी के लिए समाज में केवल पुरषों को ही मान्यता देते थे ।अगर दलित स्त्री की दूसरी शादी होती है तो समाज पर उस केलिए अलग नामकरण एवं समय निर्धारित होता था। समाज की नींव ही परिवार  रहा है,इसलिए घर का असर बाहर और बाहर का असर घर पर पड़ता था। दलित परिवार के प्रत्येक लोग मेहनत करने वाला ही है लेकिन यथार्थ यह है कि,दिन रात के मेहनत इन लोगों के भूख नहीं मिट पाए हैं।आर्थिक तंगी दलित परिवारों के बच्चे बूढ़े सब को शिक्षा तथा इलाज जैसी बुनियादी जरूरतों से उसे अलग कर दिया है।  दलित परिवारों से यह बात सामने आती है,पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता केवल सवर्ण समाज में निहित व्यवस्था नहीं “कौसल्या बैसन्त्री का जीवन इस बात का प्रमाण है कि,उनके व्यक्तित्व निर्माण में सर्वाधिक बाधाएं उनकी बिरादरी के पुरुषों ने भी खड़ी की। उन्होंने बेबाक शब्दों में कहा दिया कि, बाबासाहेब के निकट सहयोगियों ने भी उनके साथ जबरन यौनाचार करना चाहा।उनकी बस्ती के लोग भी उनकी जीना मुश्किल कर दिया ।इसलिए उसकी पहली मुठभेड़ सवर्ण पुरुष सत्ता से नहीं, दलित पुरुष सत्ता से है।”(2) उच्च शिक्षित एवं कॉलेज अध्यापिका सुशीला जी से पति बताता है कि,” मेरे सामने कुछ भी नहीं, तेरी औकात सिर्फ एक बर्तन मंजनेवाली नौकरानी के बराबर है”।(3)

अपने पति या बाहरवालो की नज़र में स्त्री केवल एक शरीर या बिना वेतन की नौकरानी मात्र हैं।कभी भी उसकी आशा एवं आकांक्षाओं को किसी ने कोई महत्व ही नही दिया।दलित समाज में दलित स्त्री के उन्नमन के लिए निरंतर शोर मचाने वाला पुरूष भी अपनी घर की स्त्री के साथ ऐसे नहीं रहता वह पत्नी को दासी  बनाकर आराम भरमाते है।सुशीला जी के पति टाकभौरे या कौसल्या बैसन्त्री के पति देवेंद्र दोनों इसी प्रकार के नियतवाले थे।समाज तथा घर परिवारों में लड़कों को प्रधानता देने के कारण  घर की स्त्रियों को पुत्रोत्पादन के लिए परेशान करते थे।अगर स्त्री को बच्ची हुई तो दवाब में पड़कर वह अपने आपको कौसती देती है।“देवा मैंने ऐसा कौनसा पाप किया था कि मेरे नसीब में लड़कियां लिखी है”(4)। यही बात शिकंजे का दर्द में भी सामने आती है ।सुशीला जी की किसी रिश्तेदार ने  भी अपनी पत्नी से सिर्फ लड़के को जन्म देने की आज्ञा दी गया है, खुद सुशीला जी के साथ भी पति बार बार  एक बेटे तथा दो बेटियों के बावजूद भी एक ओर लड़के की आशा प्रकट करता था। तकनिकी एवं वैज्ञानिकता के इस प्रगति के समय में भी लोगों विचार एवं जीवन में आन्तरिक परिवर्तन अभी तक हुआ ही नही।आज भी लड़कों को भाग्य एवं लड़कियों को बोझ के रूप में सोचते हैं।

घर के बाहर जाति के अभिशाप स्त्री तथा पुरुष के पीछे एक साथ भागती है।  सवर्णो की नजरों में  समाज में उन्नत पद पर काम करनेवाले दलित से भी महान है एक सवर्ण भिखारी।दलित की वास्तविकता यह है कि, दलित न तो हिन्दू थे न ही सवर्ण समाज उन्हें हिन्दू मानने को तैयार थे,फिर भी हिन्दू धर्म के अनुसार सारी दण्ड इन पर हो रही थी ।अन्ध विश्वास तथा रूढियों केलिए इनकी ज़िन्दगी में एहम स्थान भी रहे  थे।पाखंडी पूजरी लोग पैसे की लालच तथा स्त्रियों के शोषण करने केलिए  हमेशा बैठ रह थे।और दलित स्त्रियों की ही शोषण केलिए ऐसे बहुत सारी रीति रिवाज एवं अंधविश्वास दलितों के बीच प्रचलित भी थे।सुशीला  टाकभौरे अपनी माँ के सबन्ध में बताती है कि,” सोमवार के दिन की सोमवती अमावस्या को बहुत महत्व दिया जाता था माँ उस दिन  बस से होशंखाबाद जाकर नर्मदा नदी के घाट पर नहाती थी,परिवार की खुशहाली और सुख सम्पन्नता के लिए माँ गर्मी ,बरसात, हर मौसम में नर्मदा नदी में नहाने जाती थी।यह हिन्दू धर्म का अंधविश्वास था”(5)।  अंधविश्वास के कारण लोग एक ओर भयभीत रहे थे फिर भी इन अन्ध विश्वास ही  उनके ज़िन्दगी के एकमात्र सहारा है जो दर्द तथा अपमान को भूलने के लिए। दलित समाज के लोगों के उन्नमन प्राप्त होंना ही है तो दलितों को  इन सारे अंधविश्वासों को त्याग देंना ही होगा। व्यक्ति अगर किसी भी समाज या जाति से हो उस केलिए वास्तविक विकास शिक्षा के द्वारा ही संभव है  ।क्योंकि शिक्षा लोगो को आवाज़ देती है साथ बातों की सही गलत को परखने की नज़र भी प्रदान करती है।पहले समाज की स्थिति ऐसी थी कि,निन्म जाति लोगों शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था जब संवैधानिक रूप से दलितों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ तब भी इनके राह के बीच रुकावट डालते हुए सवर्ण मानसिकता सामने आई।दलित बच्चों केलिए स्कूल या कॉलेजों से ज्ञान से ज्यादा जातिगत बोध तथा अपमान मिलते थे। अपनी स्कूल के भेद भाव की बात याद करते हुए सुशीला जी लिखी है कि,सवर्ण बच्चे तथा दलित बच्चों के बीच एक भारी अन्तर दिखाते थे सवर्ण बच्चों को कक्षा के आगे बेंच पर और दलित बच्चों को कक्षा के पीछे फर्श पर बैठते थे।असल में यह सवर्ण साजिश था, जो दलितों को शिक्षा से अलग करके अपनी सेवा कार्य कराने में तथा परम्परागत काम की तरफ मुड़ने के लिए है। लेकिन शिक्षा उसे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उड़ाने केलिए ताकत दी है। कौसल्या बैसन्त्री ने  आत्मकथा की शुरुआत में लिखती है कि,”  मै लेखिका नहीं हूं न साहित्यकार लेकिन अस्पृश्यता समाज में पैदा होने से जातीयता के नाम पर जो मानसिक यातनाएं सहन करनी पड़ीं, इसका मेरे संवेदनशील मन पर असर पड़ा।“(6)।

समकालीन समय में वर्णवादी लोगों द्वारा जितनी भी प्रगति शीलता दिखाने पर भी कहीं न कहीं रूप में वह मुखौटा अपने आप पर नष्ट हो ही जाती है।अध्यापन जीवन में सुशीला जी के साथ ऐसे झूठे आचरण ज़रूर हो जाती थी। लेकिन दलित समाज को इन झूठे आचरण से दुख नहीं बल्कि इन लोगों की गिरी हुई मानसिकता पर सिम्पति आती हैं। यदि दलित स्त्री की बात कहती है तो वह अपनी शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन तथा क्रांतिकारी चिंतन हेतु सब को यानी अपने आत्मसम्मान पर चोट पहुंचाने वाले सारे व्यक्ति एवं चिंतन को ललकारने के लिए आज सक्षम बन गई है। मात्र यह नहीं अपने जीवन के खुलास करके अपने अपमान तथा संघर्षों को दूसरे शोषित इंसान के लिए वह कह देती हैं।

दलित स्त्री आत्मकथाओं द्वारा यह बात साफ स्पष्ट होती है कि, दलित स्त्री या समाज की हर समस्या मानव द्वारा बनाये गए है और प्रत्येक समस्या वैयक्तिक नहीं बल्कि सार्वभौमिक है। सवर्ण मानसिकता से इन चिंतन को उखाड़कर फेंकने निःसन्देह मुशिकल की बात है लेकिन संघर्ष करके आगे ज़रूर जा सकते हैं।

संदर्भ ग्रथसूची

1.श्यामसुंदर पांडेय, हिंदी आत्मकथा:संदर्भ और प्रकृति, पृ:70

2.बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख,हंस,जुलाई 2000

3.सुशीला टाकभौरे, शिकंजे का दर्द,पृ:136

4.कौसल्या बैसन्त्री, दोहरा अभिशाप, पृ:11

5.वही  ,पृ:30

6.कौसल्या बैसन्त्री, दोहरा अभिशाप, पृ:1

 प्रियंका सारम्म फिलिप्प

 श्री शंकराचार्य संस्कृत सर्वकलाशाला

   कालडी, केरला