36. समकालीन दौर : प्रकृति विमर्श – कुमार मंगलम
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समकालीन दौर : प्रकृति विमर्श – कुमार मंगलम
शोध सार : साहित्य में विमर्श का दौर जो चला,उसकी जरूरत आज भी बनी हुई है।प्रकृति विमर्श को लेकर समकालीन दौर में हिंदी साहित्य के जो भी रचनाकार उपन्यास,कहानी कविता में चिंता-चेतना-चिंतन से गुजर रहे हैं। इस आलेख में उन्हें आज की पर्यावरणीय परिस्थितियों से जोड़ते हुये उभारा गया है।
हिंदी साहित्य में नब्बे के दशक से विमर्श का दौर प्रारम्भ हुआ।विमर्श के इर्दगिर्द एक शब्द गलबाहीं डाले घूमता-फिरता है,वह शब्द है-अस्मितामूलक। अस्मिता की रक्षा हेतु साहित्य में जो वैचारिक एवं तार्किक स्तर पर रचनाप्रक्रिया चली उसे विमर्श समझा जाना चाहिये।मुख्यधारा सेजो छूटते जा रहे हैं,जिनकी स्थिति दयनीय है,जिनके रक्षा एवं बचाव के लिये साहित्य को रचनात्मक रूप से प्रतिरोध दर्ज कराना पड़ रहा है,वही विमर्श के खांचे में हैं।
आज समकालीन दौर में स्त्री,दलित,आदिवासी आदि विमर्शों के साथ प्रकृति की अस्मिता को लेकर साहित्य प्रचुर मात्रा में समृद्ध हो रहे हैं। आदिवासी विमर्श भी प्रकृति के समीप है,जहाँ जल-जंगल-जमीन आदिवासी समाज का प्राणतत्व बनकर उभरता है।
हाल के समकालीन दौर में सम्पूर्ण विश्व प्राकृतिक असंतुलन जैसे गम्भीर समस्या से ग्रसित विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है। विश्व के सभी देशों में प्रकृति को लेकर विमर्श को खास तवज्जो दी जा रही है और प्राकृतिक असंतुलन को कम करने की बात ज़ोर-शोर से चल रही है। यूँ तो इस समस्या को कम करने के लिए विश्व के देशों ने कई क़दम उठाये हैं, कई तरह की अंतरराष्ट्रीय संधियाँ हुई हैं जिसका पालन करने के लिए तमाम राष्ट्र एक पटल पर एकत्रित दिखाई देते हैं।
गद्य एवं पद्य दोनों विधा में प्रकृति विमर्श को उपयुक्त स्थान मिला है।कई जगह प्रकृति के जगह पर हम पर्यावरण शब्द से रूबरू होते हैं।वास्तव में पर्यावरण प्रकृति का घटक है, जिसके मूल में जीवन तत्व है। प्रकृति से खिलवाड़ यानि जीवन से विमुख हो जाना है।
‘डायलेक्टिक्स ऑव नेचर’ पुस्तक में प्रकृति से छेड़खानी के दुष्परिणाम बताते हुए फ्रेडरिक एंगेल्स कहते हैं – “प्रकृति पर मनुष्य की विजय को लेकर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं, क्योंकि ऐसी हर जीत हमसे अपना बदला लेती है। पहली बार तो हमें वही परिणाम मिलता है जो हमने चाहा था, लेकिन दूसरी और तीसरी दफा इसके अप्रत्याशित प्रभाव दिखाई पड़ते हैं जो पहली बार के प्रत्याशित प्रभाव का प्रायः निषेध कर देते हैं।“
भारतीय संस्कृति में वन और वनस्पति का बहुत अधिक महत्व रहा है। हमारी संस्कृति में प्रकृति हमेशा से पूजनीय रही है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘कुटज’ में लिखा है –“यह धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। इसीलिए मैं सदैव इसका सम्मान करता हूँ और मेरी धरती माता के प्रति नतमस्तक हूँ|”
भूमंडलीकरण’ के लाग-लपेट में फँसकर विकासशील देशों ने अपने यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करना शुरू किया और आज पर्यावरणीय संकट से जूझता खड़ा है। विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खनिज संसाधनों का अनियंत्रित खुदाई, नदियों और तालाबों पर बाँध बनाने से भयावह स्थिति पैदा हो गई है।लगभग सारे खनिज संसाधन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में पाये जाते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है।वहाँ के मूल निवासियों को विस्थापित का दंश झेलना पड़ रहा है।
प्राकृतिक चेतना के कई स्तर आधुनिक उपन्यासों में दिखाई देते हैं।जहाँ कथानक के माध्यम से रचनाकार ने विमर्श को हमारे समक्ष निःसंकोची भाव से खड़ा किया।
पर्यावरण चिंतन को रख लिखे गए कुछ प्रमुख उपन्यास निम्नलिखित हैं,-मरंग गोड़ा नील कंठ हुआ(महुआ माजी), रह गई दिशाएँ इसी पार(संजीव), हिडिम्ब (एस.आर.हरनोट) व कुइयांजान(नासिरा शर्मा) ग्लोबल गांव के देवता(रणेंद्र)आदि। इन उपन्यासों ने पर्यावरण सम्बंधित अनेकोनेक प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है।
‘रह गई दिशाएँ इसी पार’ में संजीव जीव-वैज्ञानिकों द्वारा क्लोंनिग और जेनेटिक्स के क्षेत्र में की जाने वाली अभूतपूर्व उपलब्धियों को मानवीय संबंधों के जटिल संसार में पनपने वाली विकृतियों की संज्ञा देते हैं। संजीव इसमें जीवों की महत्ता को दर्शाते तथा कृत्रिमता का विरोध करते हैं। ‘मरंग गोड़ा नीलकठं हुआ’ उपन्यास में ‘महुआ माजी’ आदिवासियों के प्रकृति से सम्बन्ध को दर्शाते हुये टूटन की असीम पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं।
नासिरा शर्मा का उपन्यास कुइयाँजान जल संरक्षण सम्बंधित हमारे प्रयास को नया आयाम देता है। बड़े ही रोचकता एवं सहजता से समस्याओं को उभारा गया है।
प्रसिद्ध उपन्यासकार रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ एक महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित उपन्यास है। वर्ष 2009 में प्रकाशित यह उपन्यास वस्तुतः आदिवासियों-वनवासियों के जीवन के सन्तप्त का सारांश है। उपन्यास के ब्लर्ब पर असुर समुदाय के जीवन के बारे में लिखा गया है- ‘‘शताब्दियों से संस्कृति और सभ्यता की पता नहीं किस छन्नी से छन कर अवशिष्ट के रूप में जीवित रहने वाले असुर समुदाय की गाथा पूरी प्रामाणिकता व संवेदनशीलता के साथ रणेन्द्र ने लिखी है। आग और धातु की खोज करने वाली, धातु पिघलाकर उसे आकार देने वाली कारीगर असुर जाति को सभ्यता, संस्कृति, मिथक और मनुष्यता सबने मारा है। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ असुर समुदाय के अनवरत जीवन संघर्ष का दस्तावेज है। हाशिए के मनुष्यों का सुख-दुख व्यक्त करता यह उपन्यास झारखण्ड की धरती से उपजी महत्त्वपूर्ण रचना है। असुरों की अपराजेय जिजीविषा और लोलुप-लुटेरी टोली की दुरभिसन्धियों का हृदयग्राही चित्रण।’’
समकालीन दौर में उपन्यास के जैसे प्रकृति विमर्श को लेकर कहानी भी आगे की ओर अग्रसर है।एस. हारनोट की कहानी ‘एक नदी तड़पती है’ में विकास के नाम पर बाँधों के निर्माण एवं उससे लोगों के विस्थापन के साथ ही साथ एक नदी के तड़प कर मरने की व्यथा दिखाई गई है। किस प्रकार कम्पनी के बड़े बाबुओं और नेताओं ने आधुनिक यंत्रों के साथ नदी पर बेरहम आक्रमण शुरू कर दिया और नदी तड़प- तड़प कर मरने लगी।कहानी में कथाकार लिखते हैं- “नदी धीरे- धीरे कई मीलो तक घाटियों में जैसे स्थिर व जड़ हो गई थी। उसका स्वरुप किसी भयंकर कोबरे जैसा दिखाई देता था मानो किसी ने उसकी हत्या करके मीलों लम्बी घाटी में फेंक दिया हो। अब न पहले जैसा बहते पानी का नदी- शोर था न ही कोई हलचल।“
प्रदीप जिलवाने की कहानी ‘भ्रम के बाहर’ में भी कथाकार ने जलपरी के माध्यम से पर्यावरणीय संकट एवं नदियों के विनाश की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। जिस नदी में साल भर पानी रहता था, बाँध बनने की वजह से अब वह कुछ महीनों में ही सिमट जाती है। कारखानों के रासायनिक गंदगी मिलने से नदी दुषित हो गई है। कहानी में जलपरी अपनी व्यथा सुनाते हुए कहती है- “कल घूमते–घूमते नदी से आगे तक निकल गई थी, तो वहाँ पानी इतना विषैला था कि मेरी सांसे लगभग बंद हो गई थी। मैं तत्काल पलट कर भाग आई। थोड़ी दूर वापस आई तो कुछ मछलियों ने बताया कि उधर आगे जाकर बहुत सी फैक्टरियो का विषैला रसायन और अपशिष्ट नदी में सीधे जाकर मिलता है, जिससे उस तरह की सारी मछलियाँ पानी में हर साल मर जाती है।“
भार्गव द्वारा ‘कजरी और एक जंगल’ ऐसे ही पर्यावरणीय चिंता को केन्द्र में रखकर रची गई कहानी है, जिसमें जंगल को देवता माना गया है। लोक का विश्वास है कि यह जंगल किसी परिस्थिति में रक्षा करता है। कजरी अपने पिता के साथ जंगल के मुहाने पर ही एक झोपड़ी में रहती है। उसे जंगल से बड़ा प्यार है। उसके पिता भी रोज जंगल से सूखी लकड़ियाँ, कुछ फल और फूल लेकर आते हैं। लकड़ियों को बाजार में बेचकर ही उनकी जीविका चलती है। लेकिन इस जंगल पर अवैध व्यापारियों की नजर पड़ गई है, वह जानवरों का शिकार करते हैं, पेड़ों को काटकर तश्करी करते हैं। कजरी इन लोगों को एक बार देखती है और अपने बाबा से कहती है –“बाबा देखों, ये लोग जंगल के पीछे ही पड़े हैं, जब देखो तब ये आते हैं और जानवरों को मार देते हैं और फिर उनकी खाल बेच देते हैं। कभी चोरी से पेट काटकर लकड़ियाँ ले जाते हैं।“
‘मुरारी शर्मा’ अपनी कहानी ‘प्रेतछाया’ में ऐसे ही गाँव का चित्रण करते हैं, जहाँ विकास के आड़ में जंगल के दोहन का खेल होता है। देवधाम के नाम पर पहाड़ में मंदिर की स्थापना की जाती है और देखते ही देखते मंदिर के आस-पास की भूमि पूँजीपतियों के नाम हो जाती है। विधायक भी इस काम में भरपूर मदद करते हैं।
“विधायक के कहने पर इस सड़क को प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना में डाल दिया गया। जंगल में ही आरा मशीनें लगाकर देवदार के पेड़ों को काट-काट कर स्लीपर बनाए गए। सैकड़ों देवदार के स्लीपर गाड़ियों में भरकर रातों-रात गायब कर दिए गए।“
उपन्यास और कहानी के बाद,जब समकालीन कविता की तरफ बढ़ते हैं,तो प्रकृति घटक विविध रूपों में उपस्थिति दर्ज करा प्रकृति विमर्श को परिपुष्ट करती है।
समकालीन कविता- इसकी आस्था न वाद में है, ना दर्शन में, ना धर्म में, ना राजनीति मे,ना धर्मनिरपेक्षतावादी नाटक में। केवल गहरी आस्था उस मानव में है, जो जीने के लिए चौतरफा लड़ाई लड़ रहा है। श्रमरत एवं कर्मरत मानव।
इस दौरान मनुष्य विकास की होड़ में प्राकृतिक संपदा के दोहन में लगा हुआ था।औद्योगिकरण विश्व के कोने-कोने में पहुंच चुका था।जिससे प्रदूषण में बहुत बढ़ोतरी हुई। दूसरी तरफ पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से प्राकृतिक असंतुलन को बढ़ावा मिल रहा था।मानव जीवन के लिए असंतुलन चिंता का विषय बनने लगा फिर कवि प्रकृति-संपदा के प्रति अत्यधिक सचेत हुए। देखते-देखते कविता के केंद्र में मुख्य विषय बनकर प्रकृति आने लगी।
बाघ कविता संग्रह के विषय में केदारनाथ सिंह लिखते हैं, “आज का मनुष्य प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अंजाने बाघ उसके लिए मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय के बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है,जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भविष्य जुड़ा हुआ है…।“
आज लगभग अखबारों और डिजिटल मीडिया के माध्यम से देखते हैं कि गाँव-शहर में देखा गया शेर,बाघ,तेंदुआ, इत्यादि। मनुष्यों ने भोग-लिप्सा में धुत होकर जंगलों को नाश कर जंगली जानवरों के घर उजाड़ दिये। अब वह जब आपके इर्दगिर्द मंडरा रहा है तो आप स्वयं को भयग्रस्त दिखा रहे हैं।
“और बाघ है कि उसे प्यास लगती ही नहीं
शानदार परछाई को देखने….”
केदारनाथ सिंह
गढ़वाल के वातावरण में पले-बढ़े वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल विकास के नाम पर पहाड़ों की दुर्दशा को देखा था,और उससे पूर्व ही अच्छादित सौंदर्य को भी। बदलाव को व्यक्तिगत क्षति के रूप में देखते हुए उन्होंने काव्य सृजन किया है।समाज को कोढ़ की तरह प्रदूषण जकड़ लिया है,हम स्वच्छ और निर्मल स्थान को भी पल भर में कूड़ा-करकट का ढेर बना देते हैं।गंगा जैसी पवित्र नदी जो संस्कृति की संवाहिका है,उसमें कारखाने से निकलने वाले ज़हर को पानी में बहा रहे हैं।हमें जागरूक हो बचाव के रास्तें ढूंढने होंगे। वीरेन डंगवाल ने अपनी कविता ‘गंगा स्तवन’ में हृदय विदारक पीड़ा को स्थान दिया है,-
“चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना,
गाद-कीच-तेल-तेजाबी रंग सभी पी लेना
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से।
वीरेन डंगवाल
“हमे याद है
यहां थी वह नदी इसी रेत में
कभी-कभी एक आवाज सुनाई देती है रेत सी…
मंगलेश डबराल
लगातार भौगोलिक परिवर्तन समाज में हो रही है। रोज नई इमारतें बनने से प्राकृतिक संपदा नष्ट हो रही है। जिसके फलस्वरूप समाज में अजनबीपन छा गया। इस व्यथा को अरुण कमल ने अपने काव्य में समेटा है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने प्रकृति के समक्ष विकट परिस्थितियां पैदा किया है। मदन कश्यप ‘अपना ही देश’ कविता में उक्त बातों को रेखांकित करते हुए दिखते हैं।
“धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूं ताकता पीपल का पेड़
लोहे के फाटक का घर था इक मंजि
अरुण कमल
“यह नए युग के सौदागर हैं
हम खेर काटते रहे
इन्होंने पूरा जंगल काट डाला…..।“
मदन कश्यप
आदिवासी ‘अस्मिता’पर जो भी कविताएं रची जा रहे हैं, उसके केंद्र में प्रकृति और पर्यावरण है।प्रकृति और पर्यावरण के अभाव में मानव आदिवासी स्वर लुप्त हो जाएगा। अनायास! प्रकृति की शोभा यानि उसकी प्रवृत्ति मिटती जा रही है धरती से जो सोचनीय है।प्रकृति क्षरण से प्रकट भयावह स्थिति को देखकर समझा जा सकता है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति समस्या बनकर उभरेगी।
नई पीढ़ी और प्रकृति को बाजार से जोड़कर कवयित्री जंसिता केरिकट्टा खतरे में पड़े वजूद पर चिंतन करते हुये काव्य में भावबद्ध किया है।
“ परिंदो और तितलियों को
जैसे झारखंड की राजधानी से
लुप्त हो चुकी है ‘सोबरनाखा’।“
वंदना टेटे
“बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन
हम बंद हो रहे हैं,सब ओर से
अनुज लुगुन
“मैंने नन्ही पीढ़ी से कहा,
देखो, यही थी कभी गाँव की नदी।“
जंसिता केरिकट्टा
कोरोनाकाल ने हमें प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग होने का संदेश दिया है। उसने स्वार्थी मनुष्यों को अपनी ताकत से वाकिफ कराया है। प्रकृति को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए मुहिम छेड़ना होगा। हम देखते हैं कैसे,हमारा सभ्य समाज प्रकृति से कटता जा रहा है। हमें प्रकृति के साथ खड़ा होकर,समस्त जीवों के जीवन को बरकरार रखना होगा। पर्यावरण को विकार ग्रस्त करने का साफ अर्थ है-जीव धारियों का प्राण संकट में डालना। वास्तव में समकालीन कविता प्रकृति संतुलन की मांग करता है।कवि अष्टभुजा शुक्ल द्वारा रचित काव्य ‘चैत का बादल’ रुमानियत का प्रतीक नहीं है,समय की विडंबना है;जिसे देख किसान आशंकित नजर आते हैं।
“मुँह अन्हार
सन्न मारे
गाँव में माया पसारे
कहाँ से उपरा गये
भड़ुए, अघी ये चैत के बादल!”
अष्टभुजा शुक्ल
पेड़ के कटने से जो दुष्प्रभाव हम भुगत रहे हैं- वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी, जलवायु-परिवर्तन, रेगिस्तान का फैलाव,वनस्पतियों का विलोपन,जल-चक्र को नुकसान, मृदा अपरदन की समस्या,आदिवासी जीवन के लिये खतरा,औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों का नाश।लुप्तप्रायजीव-जंतुओं में दिनोदिन बढ़ोतरी।कवि राकेश रंजन अपनीकविता में जंगल का खरगोश से बिछड़न को दर्शाते हुये उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं।
“अब तो खरगोश हेत
जंगल के ख़्वाब भी
तरसते थे
बस उसके आँसू
धरती के दिल पर तेज़ाब-से
बरसते थे…”
राकेश रंजन
सन्दर्भ ग्रन्थ:
सिंह केदारनाथ,प्रतिनिधि कविताएं,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली2018
लुगुन अनुज,पत्थलगड़ी,वाणी प्रकाशन,21-ए दरियागंज, नई दिल्ली,2021
टेटे वंदना, कोनजोगा,प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची,2021
टेटे वंदना, किनिर,प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची,2021
केरकट्टा जसिंता,ईश्वर और बाजार,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली2022
मौर्य शिवेन्द्र,हिंदी साहित्य में पर्यावरण,मनीषा प्रकाशन एवं शोध विवेक संस्था वाराणसी,2017
रंजन राकेश:कविताकोश
शुक्ल अष्टभुजा:कविताकोश
कमल अरुण,प्रतिनिधि कविताएं,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली2018
कश्यप मदन,प्रतिनिधि कविताएं,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली2018
शुक्ल कुमार आलोक:21वीं सदी के हिंदी उपन्यासों में पर्यावरणीय विमर्श,सेतु पत्रिका(नवम्बर)
शर्मा सुभाष,पर्यावरण और विकास, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली,2017
मियां रहीम,समकालीन हिन्दी कहानी में पर्यावरण विमर्श /अपनी माटी,सितंबर 2022
मैं प्रमाणित करता हूं कि मेरा यह आलेख मौलिक है।
कुमार मंगलम
शोधार्थी ( हिन्दी विभाग )
पाटलिपुत्र विश्विद्यालय , पटना