38. गीतांजलि श्री की “माई ” उपन्यास में चित्रित नारी – गोपिका
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गीतांजलि श्री की “माई ” उपन्यास में चित्रित नारी – गोपिका
वैश्विक नारीवादी आंदोलन की एकबहुत बड़ी किरदार सिमोन द बोउअर अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स ‘ में कहती हैं कि महिलाओं की बराबरी की बात करते समय हमें उनके जैविक अंतर की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। वह कहती है ,”महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर है उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।” इस तरह महिलाओं को दबाकर रखने में भारत की भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था विजय पाया हैं। नारी को हमेशा द्वयं दर्जे का स्थान दिया गया हैं। आधुनिक महिला लेखिकाओं ने इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था को तोड़ डालने की परिश्रम में हैं। हिंदी साहित्य में सीमन्तिनी उपदेश से आज तक देखें तो इस रूठीवादी व्यवस्था को खंडित करना अति कठिन हैं। आधुनिक महिला लेखिकाएँ भारतीय नारी की विविध समस्याओं के बारे में लिखती हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ओर आवाज़ उठाना कठिन काम हैं। पौराणिक काल से लेकर आज तक जो भी औरतें आवाज़ उठायी हैं उन सब को समाज से बहर निकला गया। इस सन्दर्भ में गीतांजलि श्री का नाम महत्वपूर्ण हैं। एक लेखिका के रूप में वह नारीवाद को केंद्र में रखकर अधिकतम रचनायें की हैं। समकालीन कथा साहित्य में गीतांजलि श्री का नाम बहु चर्चित हैं। गीतांजलि जी स्री विमर्श को नयी दिशा देती हैं।”मई “गीतांजलि जी का पहला उपन्यास हैं। स्री विमर्श को ध्यान में रखकर अधिक रचनायें की हैं।यह उपन्यास 1993 में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित किया गया।“मई” एक लघु उपन्यास हैं।स्री विमार्श की अलग अलग आयाम उनकी विविध उपन्यासों में हैं।नारी की अंतश्चेतना उनकी उपन्यास की मुख्य संवेदना हैं।
“माई ” सिर्फ गीतांजलि श्री की उपन्यास का पात्र नहीं ,बल्कि हर घर में रहनेवाली हैं।पितृसत्तात्मक व्यवस्था इन माइयों को शोषित कर रहे हैं। उन्हें समाज से लड़ना पद रहा हैं। ऐसे लाखों माइयाँ हैं जिनको हम देखकर हैरान हो जाएँगे। इन लोग जीवन में कुछ नहीं बन सके। वे दूसरों के लिए ज़िंदगी जिया मारा। घर के चारदीवारों के अंदर रहने में इन माईयाँ मज़बूर हो गए हैं। उपन्यास की माई गीतांजलि श्री की पितृसत्ता की ओर तीखा प्रहार हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देते हैं।
उपन्यास की नारी पात्र “माई “,”सुनैना”,”दादी ” आदि लोग अलग अलग व्यक्तित्व के लोग हैं।माई हमेशा झुकी रहती हैं। “हम तो शुरू से जानते थे कि माई की रीढ़ की हड्डी कमज़ोर हैं। डॉक्टर ने भी बाद में यही कहा। कि हरदम झुकनेवालों का यही हश्र होता है”[i]। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही माई की इस हालत की ज़िम्मेदार हैं। सुनैना आधुनिक विचारों वाली लड़की हैं।वह माई को समझने की पूरी कोशिश करती हैं। माई को बचने की प्रयास करती हैं। लेकिन अंत तक पूरी कोशिश करने के बाद भी वह अपनी माई को बचा नहीं पाती। सुबोध भी माई को ड्योढ़ी से बाहर लाना चाहता हैं। अंत में दोनों हार जाते हैं। “माई को पकड़ने निकले थे। बचपन बीत गया। या क्या पता नहीं बीता ,पर किसी मोड़ पर बाद का वक्त भी आ गया ,लेकिन माई ने हमारे दिमाग को छलनी कर दिया ,बार -बार उसमें से फिसल गई। हमने उसे पकड़ने को हाथ बढ़ाया पर अपने हाथ से आगे हम खुद फ़ैल गए ,अपने ही कोई छोर पकड़ के रह गए[ii]।”
दादी एक ऎसी पात्र जो अनेक सालों से ड्योढ़ी के अंदर दबी रहती हैं। वह माई के ऊपर हुकुम चलती हैं। ड्योढ़ी के बाहर तो राजा दादा था। दादी यह जानती तक नहीं हैं कि अनेक सालों से एक पिंजरे के अंदर फसी हुई है। “दादी” हमें अनेक सालों से प्रताड़ित होने वाली अनेकों नारियों की याद दिलाती हैं। लेखिका अपनी नारी पत्रों को अलग अलग तरीके से बनाने की कोशिश किया हैं। इन नारी पात्र हमें सुपरिचित लगते हैं। यह तीन पीढ़ी की कहानी के रूप में बताये गए हैं। हर पीढ़ी में नारी प्रताड़ित हो रही हैं। एक नारी की अनेक ज़रूरतें होते हैं। पर उसे इन बुनियादी ज़रूरतों को खुद पूरा करने की इजाज़त नहीं। स्री होने के कारण लेखिका स्त्री की पीड़ा को समझने और अपनी रचनाओं के द्वारा उनकी व्याधाओं को व्यक्त करने की कोशिश भी करते हैं।” माई” उपन्यास में स्री जीवन की विभिन्न पक्षों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया हैं। नारियों के अंदर आवाज़ उठाने की क्षमता होते हुए भी बाहरी कड़ियाँ उन्हें चुप रहने में मज़बूर करते हैं।सिमोन द बअउर कहते है कि ‘वन ईस नोट बोर्न अ वुमन ,बट बिकम्स वन’ अर्थात स्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता हैं। सिमोन अपनी पुस्तक में लिखती है “औरत को औरत होना सिखाया जाता है। औरत बनी रहने केलिए उसे अनुकूल किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण से यह समझ में आएगा कि प्रत्येक मादा मानव जीवन अनिवार्यत :एक औरत नहीं[iii]।” इस स्थिति को नारीवाद के ज़रिये लेखिका तोड़ डालती हैं.। उनके नारीपात्र अपनी जीवन संघर्षों से जूझते ज़रूर है लेकिन वह हार मानने को तैयार नहीं। सुनैना नमक पात्र ऐसी स्थिति से गुज़रते हुए नज़र आते हैं। वह अपनी और माई की जीवन को नये अर्थ देने की प्रयास में निरंतर संघर्ष करती रहती हैं। वह हार मानने तैयार नहीं हैं। सुनैना जानती हैं की उसके अंदर एक माई दादी सब हैं। वह खुद माई और दादी नहीं बनना चाहती। वह आत्मनिर्भर और मज़बूत नारी बनना चाहती हैं। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीना चाहती हैं।
माई हमेशा चुप रहती है। “माई की आग की बात तो कभी नहीं उसकी आग तो न बचपन न जवानी न बुढ़ापे में देखी या जानी। उसने तो आग को भीतर खींचकर ऐसे छुपा लिया कि बाहर निकलती शीतलता में अंगारों का कोई आभास नहीं रह गया। उसकी आग का हम मान ही कर सके बस सोच पाए[iv]”। लेकिन यह चुप्पी ही उसका सबसे बड़ा हथियार है। क्योंकि वह अपने अंदर संघर्ष करती रहती है। “माई जलती रही अंदर खींचकर आग को। पर समझे ,माई की भी आग थी खोखल नहीं ,आग थी ? जिसका दूसरों के लिए जलना हमने देखा था पर जिसका अपना जलना ,अपने लिए ,हमने नहीं देखा[v]“।यह चुप रहना भी एक तरह का युद्ध था अपने आप से।गीतांजलि जी स्वयं को” माई “उपन्यास के साथ जोड़ने की प्रयास किया है। उनकी कथा लेखन की शैली देखकर हमें यही लगेगा कि माई या सुनैना वह खुद थी। या उनकी बहुत निकट रहकर उन्होंने उनकी जीवन को देखा ,जाना और लिखा हैं। एक स्री होने के नाते समाज से हमेशा संघर्ष करना पड़ता हैं। लेखिका जो अपनी अंदर की नारी के बारे में लिखती है उन्हें बहुत अधिक संकटों की सामना करना पड़ता है । वर्जीनिया वुल्फ कहती है “अगर मुझे किताबों की समीक्षा करनी है तो मुझे एक भीमकाय राक्षस से लड़ने की ज़रुरत पड़ेगी। और एक भीमकाय राक्षस एक औरत थी[vi]”अर्थात वे कहती है कि उन्हें बहुत अधिक आत्मसंघर्ष करना पड़ता है। यही बात हर लेखक को सामना करना पड़ता हे।
लेखिका रूढ़िवादी संस्कारों के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा देती हैं। रूढ़िवाद के खिलाफ आवाज़ उठाने के कारण उनकी नारी पात्र अधिक मज़बूत व्यक्तित्व के हैं। यह भी कह सकते है कि वह स्वयं अपनी नारिपत्रों को सशक्त बनाना चाहती है जो अनेक औरतों को लड़ने की प्रेरणा दे सके।एक स्री की आतंरिक पीड़ा इस उपनयास में हैं। उत्तराधुनिकता और आधुनिकता को उपन्यास में जोड़ा है।लेखिका स्री जीवन को सूक्ष्म दृष्टि से लिखकर स्री की मनोवैज्ञानिकता सम्बंधित अनेक प्रश्न पाठक के लिए छोड़ते हैं। नारीवाद को केंद्र बिंदु में रखने के कारण उपन्यास की कथावस्तु में अधिक अविष्कार की ज़रूरत नहीं हुआ हैं। सीधे एक परिवार की शोषित नारी को दिखाना बहुत उचित रहा।क्योंकि यह स्थिति यथार्थ हैं ,इसको हम समाज से जुड़ सकते हैं। उस नारी की आतंरिक चेतना का सही रूप से विश्लेषित किया गया हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मन के भीतर ही युद्ध करने के बाद “माई”दुनिया से अलविदा कह जाती हैं। लेकिन आनेवाली पीढ़ियों को अनेक सवाल छोड़कर जाती हैं।यह सवाल हर एक व्यक्ति से हैं जो नारी को इतने साल संघर्ष करने को मज़बूर किया और लाखों करोड़ों ‘माईयों ‘को अनेक पीथियों से कैद में रखा। लेखिका समाज में बदलाव चाहती हैं ।
जब स्री शिक्षा पाती है तब वह अपने सामने की व्यवस्थिति के बारे में सोचने लगती है। नारीवाद की ओर आकृष्ट हो जाती हैं। नारी स्वयं समाज से युद्ध करने लगती है। लेकिन इस उपन्यास की माई शिक्षित होने कि बावजूद भी चुप रहती है। इस स्थिति को लेखिका समझने कोशिश करती है। यह चिंतनीय है। लेखिका सुनैना की माध्यम से इसकी चर्चा भी करती है। सुनैना आधुनिक मूल्यों से प्रेरित है।,शिक्षित है ,वह बचपन से आवाज़ उठाने की तरीका सीखी है। माई इसके लिए उसे सक्षम बनाया भी। माई सुनैना और सुबोध को सामान रूप से सम्मान करते है। इस कारण से वह अपने व्यक्तित्व का मूल्य समझते हैं। लेकिन माई को इस तरह सम्मान और आदर देनेवाला कोई नहीं था।, इसलिए वह चुप होती रही। आवाज़ उठाने की हिम्मत गायब हो गयी।
स्री की पीड़ा को समझना आसान कार्य नहीं है। स्री मुक्ति की आंदोलन अनेक सालों से है लेकिन आज भी उसको संघर्ष करना पड़ है। माई अपने लिए ज़िन्दगी नहीं ,वह दूसरों के लिए जिया और मारा। लोग समझते नहीं कि उसकी अपनी ज़िन्दगी है। वह दूसरों की खिलौना नहीं। महादेवी वर्मा कहती है कि “किसी भी शास्त्रकार ने पुरुष से भिन्न करके उसकी समस्या को नहीं देखा[vii]।”इस तरह नारी की अपनी इच्छाओं की पूर्ती का सवाल इस उपन्यास में है। स्री की अधिकारों और अस्तित्व को स्थान देना एक समाज में महत्वपूर्ण कार्य होते है। इसकी और सोचने को” माई ” उपन्यास प्रेरित करते हैं।
सन्दर्भ सूचि
[i] श्री,गीतांजलि ,माई ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली ,1993 ,पृष्ठ -9
[ii] श्री,गीतांजलि ,माई ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली ,1993 ,पृष्ठ -165
[iii] द बअउर ,सिमोन ,स्री: उपेक्षिता,अनुवादक डॉ प्रभा खेतान,दिल्ली ,पृष्ठ 23
[iv] श्री,गीतांजलि ,माई ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली ,1993 ,पृष्ठ -49
[v] श्री,गीतांजलि ,माई ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली ,1993 ,पृष्ठ -167
[vi] वही ,पृष्ठ -121
[vii] वर्मा महादेवी ,श्रंखला की कड़ियाँ ,स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य का प्रश्न ,पृष्ठ -110
गोपिका पी
शोधार्थी
श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी
केरल