May 20, 2023

55. समकालीन साहित्यकार मेघ सिंह ‘बादल’ के उपन्यासों में दलित विमर्श  – सोनाली राजपूत                 

By Gina Journal

Page No.:388-393

समकालीन साहित्यकार मेघ सिंह ‘बादल’ के उपन्यासों में दलित विमर्श  

                                         सोनाली राजपूत                                                 

 शोध सारांश – 

     उपन्यास आधुनिक युग की देन है।  आधुनिक काल में उपन्यास हिंदी साहित्य की प्रमुख और महत्त्वपूर्ण विधा रही है। आधुनिकता के बाद हिंदी साहित्य की गद्य विधाओं में उपन्यास विधा सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रसिद्ध रही। प्रेमचन्द्र ने उपन्यास को मानव जीवन का चित्र माना है। उपन्यास में जीवन के समस्त आयाम की चर्चा विस्तार से की जाती है। उपन्यास में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि पहलुओं को पाठक वर्ग तक पंहुचाने का कार्य किया जाता है। मेघ सिंह ‘बादल’ दलित साहित्य के महत्वपूर्ण साहित्यकार है। इन्होनें अपने उपन्यासों के माध्यम से शोषित और पीड़ित दलित समाज का चित्रण किया। मेघ सिंह ‘बादल’ ने केवल दलित समस्याओं को ही उजागर नहीं किया बल्कि रुढ़िवादी परम्परा का भी विरोध किया है, उन्होंने अपने उपन्यास के माध्यम से  स्त्री जीवन के कई मार्मिक पहलुओं को शब्द-बध्द किया है। मेघ सिंह ‘बादल’ ने दलित सामज के अन्तर्विरोध को पाठक वर्ग के समक्ष लाने का भरसक प्रयास किया है।

बीज शब्द

     दलित विमर्श, दलित उपन्यास, दलित समाज, उत्पीड़न, शोषण, अस्मिता, विरोध,       यथार्थ,  जातिभेद, पीड़ित, रुढ़िवादी परंपरा, शारीरक शोषण

शोध आलेख

     हिंदी दलित साहित्य में उपन्यास दलित जीवन की व्यथा को प्रकट करने वाली शक्त विधा के रूप में उभरकर सामने आई हैं। “उपन्यास हिंदी की अपनी जातीय विधा नहीं है। पश्चिम में उदित होकर बंगाल के जरिए हिंदी में उपन्यास का प्रवेश हुआ।1” बंगाल से विकास यात्रा करके ये विधा हिंदी साहित्य में आई और हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा लोकप्रिय रही। इसके साथ ही लगभग हर विमर्श को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखे जाने लगे। इन विमेर्शो में से मुख्य रूप से स्त्री और दलित विमर्श केन्द्रित उपन्यासों को पाठक वर्ग ने सबसे ज्यादा पसंद किया। बीसवी शताब्दी से हिंदी दलित उपन्यास का विकास माना जाता है। दलित उपन्यास की कोई लम्बी परंपरा नहीं रही। लेकिन कम समय में दलित उपन्यास की जड़े हिंदी साहित्य में काफी गहरी और मजबूत हुई। “हिंदी दलित साहित्य में उपन्यासों का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। संख्यात्मक दृष्टि से कम होने के बावजूद हिंदी में उपन्यास विधा की जड़े काफी गहरी हैं, और सामाजिक यथार्थ को सही रूप में चित्रित करने की क्षमताएं उपन्यासों में मौजूद हैं।2” पहला उपन्यास 1954ई. में ‘बंधन मुक्त’ राम जी लाल द्वारा लिखा गया। डी.पी वरुण द्वारा रचित ‘अमर ज्योति’ सन 1982ई. में प्रकशित हुआ। डॉ. धर्मवीर का पहला उपन्यास ‘पहला ख़त’ सन 1989ई. में प्रकशित हुआ। इसके साथ ही हिंदी दलित उपन्यास का विकास होता है ।

    दलित उपन्यास में दलितों द्वारा बरसों से झेला हुआ यथार्थ, सामंतवादी शोषण तथा जातीय व्यवस्था के द्वारा दलितों के साथ हो रहे अत्याचारों, उत्पीड़न और शोषण को लिखित रूप में उजागर करते है। “दलित साहित्य लेखन में दलित उपन्यासों का अपना महत्त्व है। जिसमें जीवन के समग्र रूप से वर्णन होता है । उपन्यासकार के समक्ष जीवन सभी पहलुओं पर विचार करने की सुविधा होती है, जिसमें दलित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, शिक्षणिक, धार्मिक, नैतिक और राजनैतिक संदर्भो से जुड़े जीवन का चित्रण किया जा सकता है । दलित उपन्यास व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित न होकर पुरे समाज पर केन्द्रित है । देश की और समज की परिस्थितियों, परम्परों , नीतियों के अन्याय के विरुद्ध एक अलग अवधारणा की स्थापना के उद्देश्य से दलित उपन्यास लिखे गए ।3” इन उपन्यासों में दलित समाज के साथ-साथ पूरे भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं पाखण्ड को उकेरा है, जिसमें लेखकों को सफलता भी हासिल हुई है।

मेघ सिंह ‘बादल’ ने लगभग साहित्य सभी विधाओं में रचनाएँ की। इन्होनें उपन्यास, नाटक, कविता, निबन्ध, आत्मकथा, आलोचना, आदि विधाओं में लिखा। मेघ सिंह ‘बादल’ ने जिस भी विधा में लिखा दलित समाज और दलित समाज की पीड़ा के विषयों को केंद्र बनाकर लिखा। मेघ सिंह ‘बादल’ खुद दलित समुदाय से थे इसलिए उन्होंने जो भोगा उसको शब्द-वद्ध करने पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया। इनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है । मेघ सिंह ‘बादल’ ने अपने उपन्यास के माध्यम से दलित समाज की मज़बूरी के साथ-साथ समाज कैसे उनके साथ भेदभाव करता रहा है, इसकी मार्मिक झलक प्रस्तुत की है। इन्होनें अपने उपन्यासों के माध्यम से इस भेदभाव से पीड़ित, शोषित  दलितों की मानसिक स्थिति किस रूप से प्रभावित होती है इसका चित्रण किया है । उपन्यास ‘दर्द भरे मोड़ो से’  में जब ज्ञानेश्वर जब कहता है कि अभी बेटी 14 वर्ष की है शादी की उम्र 18 वर्ष होती है, उसके बाद ही उसका विवाह करना ठीक रहेगा। इस पर सुमित्रा कहती है कि- “छोटी जाति और गरीब लोगों के साथ न तो समाज में अच्छा व्यव्हार होता है और न ही न्यायलय से न्याय मिल पता है क्योंकि वे न्याय पाने के लिए सक्षम नहीं हो पाते। इसलिए मेरी राय में अपनी बेटी के लिए कोई लड़का  ढूंढ लो और उसकी शादी कर दो।4” सुमित्रा ने इस पर न्यायलय व्यवस्था पर सवाल उठाया है। सुमित्रा को डर है क्योंकि उसकी बेटी बड़ी हो रही, कही उसके साथ कोई अनहोनी न हो जाए, इसलिए वह चाहती  है कि उसकी बेटी की शादी जल्द-से-जल्द हो जाए। अगर भविष्य में उनकी बेटी के साथ किसी प्रकार की अनहोनी हो जाती है तो समाज उनका साथ नहीं देगा न ही न्यायलय उनके पक्ष में फैसला लेगा, क्योंकि समाज स्वार्थी हो गया वह उनकी ही मदद करेगा जिनसे उसे लाभ होगा, ऐसे में दलितों की कौन सुनेगा उनके पास न पैसा है और न ही  सत्ता का साथ है।

मेघ सिंह ‘बादल’ अपने उपन्यासों के माध्यम से दलित समाज में व्याप्त कई सामाजिक समस्याओं  को भी उजागर करते है। अपने उपन्यास में बाल विवाह जैसी रुढ़िवादी प्रथा का वर्णन कर उसका विरोध किया है। “कान्ता की शादी 11 साल की उम्र में 20 साल उम्र के युवक हरीश के साथ करने से कान्ता शुरू से ही नाराज़ थी।5” कान्ता की शादी कम उम्र में उसके माता-पिता ने कर दी, जिसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थी। इसमें मेघ सिंह ‘बादल’ ने एक स्त्री के जीवन की समस्याओं से हमें रूबरू कराया, आज भी समाज में कई लड़कियों की शादी उनके इच्छा के विरुद्ध कर दी जाती है, और उन्हें मज़बूरी बस इस सम्बन्ध को जीवनभर निभाना भी पड़ता है।

आज भी गाँव में साहुकारों और ठाकुरों के खेतों में दलितों मजदूरी करके अपने जीवन यापन करते है, और जीवन भर कर्ज चुकाते रहते हैं, लेकिन इस कर्ज या व्याज़ से आज़ाद नहीं हो पाते है । दूसरों के खेतों में मजदूरी करते-करते अपना ज़िन्दगी बिता देते हैं। “गाँवों में दलितों के सामने यह बहुत बड़ी समस्या है कि उन पर सवर्ण नाजायज तरीके से दबाव बनाकर काम कराते हैं, बेगार कराते हैं और दलितों के मना करने पर इस तरह की धौंस धमकी देते हैं। दलितों के पास जमीन होती नहीं है, किसी-किसी पर होती सो भी वस्ती से दूर होती है। सवर्णों के पास घनी तथा वस्ती के पास होती है। इसी के आधार पर वे दलितों पर धास तथा दबाव बनाते हैं। खेतों में शौच के लिए नहीं जाने देते। दलितों के घरों में शौचालय नहीं होते हैं। जमीन होती नहीं है। इस कारण उन्हें सवर्णो दाब-दवाश में रहना पड़ता है। एक बात और होती है दलित गरीब होते हैं उनके पास पैसा नहीं होता है। उन्हें इन्हीं सवर्णों से व्याज पर रुपया लेना पड़ता है। मय व्याज हमें रुपया चुकाना पड़ता है। इतने पर भी उधार रुपया देने को भी आँख दिखाते हैं। मजबूरन दलितों को इनके अधीन रहकर बेगार करनी पड़ती है। कुछ भले भी होते हैं जो मानवीय व्यवहार करते हैं। किन्तु हरेन्द्रसिंह जैसे लोग तो जबरन डण्डे के बल पर काम कराते हैं। बेगार कराते हैं। नाना प्रकार से शोषण करते हैं। दलितों की बहन-बेटियों के शरीर का शोषण करते हैं। दलित उत्पीड़न आम बात हो गई है ।6” सोहन के माध्यम से मेघ सिंह ‘बादल’ ने दलित उत्पीड़न और दलित शोषण का यथार्थ रूप प्रस्तुत किया है। दलित वर्ग के साथ भेदभाव गाँव और शहर हर जगह होता रहा है और होता है, किराये पर मकान देने से पहले, लोग सबसे जाति पूछते हैं और दलित होने पर वे मकान देने से मना कर देते है। समाज जितना आधुनिक दौर में कदम रख रहा है, उसके साथ ही आज भी जातिगत भेदभाव जैसी मानसिकता ने उनके मन-मस्तिष्क में घर कर लिया है, वो आज भी उससे इतर सोचने-समझने में आसमर्थ हैं। “शहर में भी दलितों के पास मकान ज्यादा नहीं होते। सवर्ण लोग शहर में भी मकान कराये पर देने से पहले जात पूछते हैं तथा जाति से दलित होने पर मकान कराये पर नहीं देते।7” दलित स्त्रियाँ हमेशा शारीरिक तथा मानसिक शोषण की शिकार होती रही है। उनकी देह के साथ हमेशा खेलबड़ किया गया। “सोहन ने कहा, दलित युवतियाँ इन्हीं सवर्णों के खेतों में काम करके घासफूँस लेने जाती है। उसका भी सवर्ण नाजायज लाभ उठा लेते हैं और बलात्कार उत्पीड़न आदि घिनौनी हरकत करते रहते हैं।8” दलित वर्ग अगर इन लोगों के खिलाफ रिपोर्ट भी कर देते हैं लेकिन ये लोग जनबल और धनबल के आधार पर रिहा हो जाते है और अपनी कुरीतियों को जारी रखते हैं। दलित स्त्री घर और समाज दोनों जगह पीड़ित की जाती  है, उसका संघर्ष घर से ही शुरू हो जाता है।

 

निष्कर्ष –

मेघ सिंह ‘बादल’ ने अपने इन उपन्यासों के माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त खोखली मानसिकता को उजागर किया और दलित शोषण, उत्पीड़न, दलितों की दयनीय स्थिति का वर्णन कर पाठक वर्ग को समाज के यथार्थ रूबरू किया है। मेघ सिंह ‘बादल’ ने अपने उपन्यासों के माध्यम से संघर्षशील दलित जीवन के अपमान, अन्याय, अत्याचार और पीड़ित दलितों की आवाज़ को अभिवक्त किया है। अपने उपन्यास के माध्यम से वो दलित वर्ग को अधिकारों के प्रति सजग भी करते है और इसके साथ ही वर्ण व्यवस्था और सवर्णों द्वारा किये गए अत्याचारों के प्रति आक्रोश का वर्णन भी करते है। इनके उपन्यासों के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमतावादी व्यवस्था को नष्ट करके समता, स्वतंत्रता, बंधुता तथा न्याय आदि मानव मूल्यों का प्रचार-प्रसार किया गया है ।

सन्दर्भ-

  1. उपन्यास और हिन्दी आलोचना-शम्भूनाथ मिश्र, के.के. पब्लिकेशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 61
  2. हिंदी दलित साहित्य की विविध विधएं-रश्मि चतुर्वेदी,सरस्वती प्रकशन, कानपुर,प्रथम संस्करण-2014ई.,पृष्ठ संख्या – 17
  3. दलित साहित्य समग्र परिहरम- डॉ. मनोहर भंडारे, पंराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2013 ई.पृष्ठ संख्या – 17
  4. दर्द भरे मोड़ो से(उपन्यास) – ‘मेघ सिंह बादल’, निलेश प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2017ई.पृष्ठ संख्या-12
  5. कड़वे घूँट- मीठे स्वाद(उपन्यास) – मेघ सिंह ‘बादल’, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2018ई. ,पृष्ठ संख्या – 43
  6. शूल भरे पथ(उपन्यास)- मेघ सिंह ‘बादल’, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2019ई. ,पृष्ठ संख्या – 25
  7. शूल भरे पथ(उपन्यास)- मेघ सिंह ‘बादल’, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2019ई. ,पृष्ठ संख्या – 26
  8. शूल भरे पथ(उपन्यास)- मेघ सिंह ‘बादल’, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2019ई. ,पृष्ठ संख्या – 26

    शोधार्थी

    सोनाली राजपूत                         

    हिन्दी विभाग

    दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार (824236)