33. सुखबीर सिंह की कविताओं में दलित चेतना – आंचल यादव
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सुखबीर सिंह की कविताओं में दलित चेतना
आंचल यादव
दलित चेतना या दलित विमर्श समकालीन हिंदी कविता का केंद्रीय विषय है । दलित कविता ने हिंदी कविता को जहां एक नए सांचे में ढाला है। वही उसे नए मुहावरे और अर्थ भी प्रदान किए हैं और इस प्रकार दलित कविता ने विषय और विस्तार दोनों की दृष्टि से हिंदी दलित चेतना को समृद्ध किया है जिससे हिंदी कविता को नए आयाम मिले हैं। दलित को समझे बिना दलित चेतना को नहीं समझा जा सकता। वामपंथी साहित्यकारों की दृष्टि में दलित का अभिप्राय सर्वहारा है तो दक्षिणपंथी साहित्यकारों की दृष्टि में दलित का अर्थ गरीब है जो आर्थिक रूप से वंचित और शोषित है।
दलित कविता का विकास
समकालीन कविता में दलित कविता का उदय एक नवीन चेतना के रूप में हुआ। हिंदी दलित कविता ने समकालीन हिंदी कविता को एक नए स्वर से समृद्ध किया। समकालीन दलित कवियों के कवि धर्म से दलित कविता के स्वरूप में धीरे-धीरे बदलाव आता गया । दलित कवियों की कविताओं में युगीन चेतना और सरोकारों का निरूपण मिलता रहा है। दलित कविताएं जाति से उठकर अपने सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति नजर करती आई हैं। ये कविताएं पारंपरिक हिंदी कविता से एकदम भिन्न है। इनकी प्राथमिकता न तो प्रेम वर्णन है और न ही प्रकृति चित्रण। इनमें शोषण,दमन और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन है। भारतीय दलित साहित्यकार एवं चिंतक कंवल भारती दलित कविता का परिचय देते हुए लिखते है
“दलित कविता उस तरह की कविता नहीं है, जिसे आमतौर पर कोई प्रेमी अंधेरे में पागल होकर गुनगुनाने लगता है। यह वह कवि कविता भी नहीं है जो पेड़-पौधे, फूल-फूलों और नदियों-झरनों और पर्वतमालाओं की चित्रकारिता में लिखी जाती है। किसी का शोक गीत और प्रशस्ति गान भी नहीं है। दरअसल यह वह कविता है जिसे शोषित, पीड़ित एवं दमित दलित अपने दर्द की अभिव्यक्ति करने के लिए लिखता है। यह वह कविता है जिसमें दलित अपने जीवन के संघर्ष को उतार देता है ।यह दमन, अत्याचार , अपमान और शोषण के खिलाफ युद्ध गान है। यह कविता एक तरीके से स्वतंत्रता , समानता और भ्रातृत्व भाव की स्थापना और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा करती है इसलिए इसमें समतामूलक समाजवादी समाज की परिकल्पना है।”
दलित कविता जाति और वर्ग समाज की स्थापना करने वाले दलितों द्वारा लिखी गई कविता है । यह एक क्रांतिकारी आवास निर्माण में विश्वास रखती है।
दलित कविता ने जिस मुखरता और आत्मविश्वास के साथ अपनी संघर्ष-यात्रा को पूरा किया है। उससे पता चलता है कि समाज में व्याप्त हजारों साल के शोषण, दमन से मुक्ति की छटपटाहट दलित कविता में नजर आती है ।
हिंदी दलित कविता की स्थापना में कुछ काव्य संकलनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस सन्दर्भ में डाक्टर एन सिंह का कथन विचारणीय है। वे लिखते है –
“सन् १९१४ के बाद भी दलित कविता कभी लोकगीत के रूप में, तो कभी रैदास और कभी अम्बेडकर के जीवन और विचारों के काव्यात्मक आख्यानों के रूप में निरन्तर विकसित होती रही।”२
हिंदी दलित कविता की स्थापना में ‘पीड़ा जो चीख उठी’ तथा ‘दर्द के दस्तावेज’ का अप्रतिम योगदान है। ‘पीड़ा जो चीख उठी’ में पच्चीस दलित कवियों की दो-दो कविताएं संकलित हैं। यह प्रथम दलित कविता संकलन है लेकिन इसका कोई संपादक नहीं है। डॉक्टर एन सिंह द्वारा संपादित काव्य संकलन ‘दर्द के दस्तावेज’ को हिंदी दलित कविता के प्रतिनिधि के रुप में मान्यता मिली। इसी संदर्भ में राधेश्याम तिवारी ‘दलित साहित्य के प्रतिमान’ पुस्तक में लिखते हैं –
“अनेक कवियों की कविताओं के संकलन का संपादन डॉक्टर एन सिंह ने किया है। यह संग्रह दलित साहित्य के चयन की दिशा में एक स्मरणीय प्रयास है। संग्रह के कवि डॉ प्रेम शंकर , डॉ सुखबीर सिंह, डॉ चंद्रकुमार वरठे, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ रामशिरोमणि ‘होरिल’, डॉ दयानंद बटोही आदि हैं।”३
इस काव्य संकलन को कुमायूं विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है।हिंदी में दलित कविता की शुरुआत बीसवीं सदी के आठवें दशक में हुई। इसकी प्रेरणा डॉक्टर अंबेडकर की विचारधारा, महात्मा ज्योतिबा फुले का संघर्ष , मार्क्स की क्रांतिकारी दृष्टि तथा मराठी का दलित साहित्य भी रहा है।
दलित कविता में सबसे पहला नाम हीरा डोम का आता है जिनकी कविता ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में ‘सरस्वती’ में छपी थी । इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ और बस्स’ ! बहुत हो चुका ‘ में दलितों की स्थिति का चित्रण करते हुए लिखते हैं –
“बस्स!
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएंगे संतप्त जनों के!”४
दलित कविताओं का स्वर समता स्वतंत्रता और बंधुत्व की स्थापना करना है कविता की अनिवार्यता को बताते हुए डॉ एन सिंह लिखते हैं “कविता लड़ने पर उतारू बेजुबान आदमी की आवाज है”५
आठवें और नौवें दशक में हिंदी के जिन कवियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया उनका विवरण इस प्रकार है- डॉक्टर मनोज सोनकर का ‘शोषितनामा’, डॉ रामशिरोमणि होरिल का ‘करील के कांटे’, ‘जीवन राग’, डॉक्टर सुखबीर सिंह का ‘बयान बाहर’, ‘अनंतर’, ‘सूर्यांश’ और ‘पुनसर्संभवा’, डॉ प्रेम शंकर अवस्थी के ‘नयी गंध’ और ‘कविता: रोटी की भूख तक’, डॉ दयानंद बटोही की ‘यातना की आंखें’, डॉक्टर सोहनपाल सुमन का ‘अंधा समाज बहरे लोग’, डॉक्टर पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी के ‘द्वार पर दस्तक’, ‘सवालों के सूरज’ ,लालचंद राही का ‘मूक नहीं मेरी कविताएं’, मोहनदास नैमिशराय का ‘सफदर का बयान’ , डॉ जयप्रकाश कर्दम का काव्य संग्रह ‘गूंगा नहीं था मैं’ आदि ने दलित कविता को प्रतिष्ठित किया है।
डॉ. सुखबीर सिंह और उनका कविता-संसार
हिंदी दलित कविता की पहचान बनाने में डॉ. सुखबीर सिंह का अप्रतिम योगदान रहा है। वे सधे और स्पष्ट शब्दों में अपनी बात रखते थे। डॉक्टर सुखबीर सिंह के चार कविता-संग्रह है- ‘बयान बाहर’, ‘अनंतर’, ‘सूर्यांश’ और ‘पुनसर्संभवा। इन चारों में दलित चेतना के स्वर सुनाई पड़ते हैं। इन कविताओं में ग्रामीण जीवन की झलक, हाशिए पर पड़े समाज की पीड़ा के साथ-साथ संवेदनशील मन की छवि दृष्टव्य है। उनकी कविताओं में अनुभूति की गहनता, प्रमाणिकता और शिल्प की प्रौढ़ता देखी जा सकती है जो इन कविताओं का महत्वपूर्ण अंग है । इस कारण ये कविताएं जनजीवन का बोध कराने के साथ-साथ समाज को भीतर तक झकझोरती है। इसी संदर्भ में डॉ. मंजु मुकुल संपादित पुस्तक ‘बयान बाहर से पुनर्संभवा तक’ में लिखती है –
“वे अपने संघर्षों के ताप से पूरी तरह सधे और बंधे हुए। वे एक ऐसे स्कॉलर थे, जिनकी आंखों में अपनी जाति का संघर्ष, कलम में बेबाकीपन, अपने समय से सीधे टक्कर लेने की क्षमता, शासन -प्रशासन, रस्में-रवायतें सब कुछ शामिल थे।”६
डॉ. सुखबीर सिंह का पहला काव्य संग्रह ‘बयान बाहर’ सन् 1985 में प्रकाशित हुआ। इसमें ग्रामीण जीवन का चित्रण और उससे जुड़ी स्मृतियों को साझा किया है। इसमें पेड़-पौधे, फूल-फूलों और गांव आदि के माध्यम से यथार्थ जीवन की नग्नताओं से पर्दा उठाया है। वे ‘बयान बाहर ‘ की भूमिका में लिखते हैं
” ग्रामीण जीवन, दलित वर्ग का जीवन तथा नारी जीवन की वर्तमान त्रासदी को कविता के केंद्र में लाना आज पहले से भी अधिक आवश्यक है। यही सामाजिक प्रतिबद्धता की मांग है।”७
‘बयान बाहर’ में कुल पैंतीस कविताएं हैं। जिनमें से है – बयान बाहर, करवट, प्रश्न ,जंगल का लोकतंत्र, किसी नेता के नाम, जुलूस , मोक्ष, गर्म राख, तमाशा, जंगल की बात आदि ।
‘बयान बाहर’ में दलित चेतना की कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं ने दलित साहित्य आंदोलन को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी दलित साहित्य में यह संग्रह मील का पत्थर साबित हुआ है। इस संग्रह की कविताओं ने परंपरावादी भारतीय मानसिकता से बाहर निकलकर सोचने पर विवश किया है। इसने पूर्व स्थापित परंपरावादी मान्यताओं और सिद्धांतों को सवालों के घेरे में खड़ा किया है। इन्होंने सहज एवं सरल शब्दों में अपनी बात रखी है। इनकी अभिव्यक्ति में कहीं आक्रोश है तो कहीं विद्रोह। इस काव्य संग्रह में संकलित लंबी कविता ‘बयान बाहर’ में वे लिखते हैं-
“यहां न वर्तमान सत्य है
न सच है भविष्य
जो कुछ है, सिर्फ भूत है
इसलिए आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा
आज भी आज भी एकदम अछूत है”८
इनकी कविताओं में कोई जल्दबाजी या दबाव नहीं मिलता। इनकी कविताओं में दलित जीवन की लाचारी पर आंसू बहाती है। इनका ग्रामीण मन शहरी जीवन की जद्दोजहद में अपने आशियाने को ढूंढता है। दलित जीवन की टीस इन कविताओं में देखी जा सकती है। इन्होंने कविता एक ढर्रे पर नहीं लिखी । इनकी कविताओं में विविधता देखने को मिलती है।
डॉक्टर सुखबीर सिंह का ‘बयान बाहर’ के बाद दूसरा काव्य संग्रह ‘अनंतर’ सन 1987 में प्रकाशित हुआ। इस बीच देश में काफी उथल-पुथल मच चुकी थी जिसका प्रभाव इनकी कविताओं में मिलता है। ‘ब्लू स्टार ऑपरेशन’ के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसकी प्रतिक्रिया में भड़के सांप्रदायिक दंगों ने सभी को हिला कर रख दिया। लेखक भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे। इनके काव्य संग्रह अनंतर में कुल उन्नतीस कविताएं हैं जो इस प्रकार है -अनंतर, बीच यात्रा में , भीड़ का तेवर , नाव, युगोत्तिराधिकार , अंधेरे की परतें , आश्वस्ति , लाल कुलबुलाहट , समय पुरुष :समय शिशु , निर्णय का दायित्व , दोपहर, चुनाव, प्रेम, मिट्टी का तेल आदि। इनकी कविताएं साम्प्रदायिक दंगों, सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य में हुए बदलावों को उकेरती है।
प्रस्तुत है ‘अनंतर’ काव्य संग्रह की एक कविता ‘मिट्टी का तेल’ का पद्यांश –
“मिट्टी के तेल का स्वाद
कुआं खोदते उस मजदूर से मत पूछो
जो फेफड़ों में भरता है
मिट्टी के तेल भरी धूल
जेब में कुछ सिक्के
और जिस्म में रोग के कीटाणु लिए
अपने गरीब मुल्क को लौट आता है।”९
इस कविता में एक मजदूर की दयनीय दशा का बारीकी से चित्रण किया गया है।
डॉ सुखबीर सिंह का तीसरा काव्य संग्रह ‘सूर्यांश’ है जिसमें चौबीस कविताएं शामिल हैं। इनमें हैं – सूर्याश, ठोस कविता, अंश, तुम , नक्शा मेरे देश का, सूखा फूल, पौधे , फूल, सागर और लहरें आदि । इनमें देश के सामाजिक – धार्मिक जीवन का ताना-बाना पेश किया गया है। इसमें डॉक्टर अंबेडकर से प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण किया है। वहीं दलित उत्पीड़न को दिखाया गया है. वर्तमान देश के लोकतंत्र की स्थिति पर प्रश्न उठाए हैं व दलित राजनीति के दोगलेपन सवाल खड़े करती हैं।
‘सूर्यांश’ एक लंबी कविता है जो भारतीय लोकतंत्र के बीच दलित उत्पीड़न को केंद्र में रखती है।देश की राजनीति तले जनता का उत्पीड़न होता रहता है। दलित राजनीति के दोगलेपन पर प्रश्न उठाती यह कविता प्रस्तुत है –
“अछूत कहीं जाने जातियों के ऊपर भी
थोप दिए गए हैं नेता
तथाकथित सवर्णों के द्वारा
मंत्री /सांसद/ विधायक
वे भी उतने ही मक्कार एवं चोर हैं
जितने सवर्ण नेता हरामखोर हैं।”१०
इनकी कविताएं संपूर्ण जनमानस में बदलाव एवं चेतना का संदेश देती हैं। नवीन क्रांति का संचार करती हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है डॉक्टर सुखबीर सिंह की कविताएं लगभग तीन दशक तक फैली रचनात्मक उथल-पुथल और समाज को अपनी कविताओं में एकत्रित करती हैं। इनकी कविताओं में दलित चेतना मिलती हैं। इन्होंने अपने समय के साहित्य में अप्रतिम रचनात्मक योगदान दिया है। दलित साहित्य के विकास में इनके योगदान को नकार नहीं जा सकता । इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। इनकी कविताओं में जमीनी सच्चाईयां है जो रचनात्मक संघर्ष को बखान करती हैं। इनकी कविताओं के माध्यम से इनके रचनात्मक चिंतन को खोजा जा सकता है। इनकी कविताएं समाज को सजग और सशक्त बनाने के साथ-साथ जागृत करने का माद्दा रखती हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची
१ भारती,कॅंवल, दलित कविता का संघर्ष, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, २०१२, पृष्ठ -१३
२ सिंह, डॉ एन, दलित साहित्य के प्रतिमान, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,२०१४, पृष्ठ -२३
३ वहीं, पृष्ठ -२३
४ वहीं, पृष्ठ -२४
५ वाल्मीकि, ओमप्रकाश, कंवल भारती (संपा), दलित निर्वाचित कविताएं, इतिहासबोध प्रकाशन,२००६, पृष्ठ -६७
६ मुकुल,डॉ.मंजु, बयान बाहर से पुनर्संभवा तक, शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली,२०२१, पृष्ठ -५
७ वहीं, पृष्ठ -८
८ वहीं, पृष्ठ -८
९ वहीं, पृष्ठ -१७०
१० वहीं, पृष्ठ -२०८
आंचल यादव
पीएच.डी शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली