104. समकालीन हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श-डॉ.सी.बालकृष्ण
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समकालीन हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श-डॉ.सी.बालकृष्ण
सार
साहित्य किसी जाति , धर्म या वर्ग का साहित्य नहीं है , बल्कि यह संपूर्ण मानवता की बात करने वाला साहित्य है। साहित्य ब्रह्मानंद सहोदर है , साहित्य वह सूरम्य रचना है , जो हृदय से निकल कर हृदय को ही प्रभावित करती है। साहित्य और सामाजिक जीवन का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। समाज जीवन , सामाजिक चेतना , सामाजिक परिवेश के साथ उसके बदलते चित्र को भी अंकित करने का कार्य साहित्य में हो रहा है। साहित्य समाज का दर्पण है।
‘ दलित ’ का शाब्दिक अर्थ है – कुचला हुआ। दलित अर्थ व्यापक रूप में पीड़ित के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। आज के संदर्भ में दलित का अर्थ होगा वह जाति या समुदाय जिसका अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्था के कारण सवर्णो या उच्च जातियों द्वारा दमन हुआ है। जिनको दूषित किया गया है , रौंदा गया है। इस प्रकार दलित वर्ग में वे सभी जातियां सम्मिलित हैं , जो जातिगत सोपान क्रम में निम्न स्तर पर है और जिनको शताब्दियों से दबाकर रखा गया है। देशकाल के अनुसार दलित जातियों को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। जिनके लिए शुद्र , अछतू अंत्यज , हरिजन , अनुसूचित जातियों ( शिड्यूल कास्ट ) आदि शब्दों का प्रयोग होता रहा है।
दलित साहित्य सातवें दशक में हिन्दी साहित्य की एक विधा के रूप में अस्तित्व में आया। दलित साहित्य की अनुगूंज आज भारत ही नहीं , अपितु अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी सुनी जा सकती है। दलित साहित्य के प्रारम्भिक दौर मे ज्यादातर कविताएं ही लिखी गई। सातवें दशक में अनेक दलित रचनाकारों ने कहानी विधा को अपनाया। उस समय इन कहानियों को हिन्दी सम्पादकों द्वारा इतना प्रतिसाद नहीं रहा। फिर भी इन दलित साहित्यकारों ने अपने हौंसले को कम नहीं होने दिया। हिन्दी दलित कहानियों का समकालीन परिदृश्य आठवें दशक में तेजी से उभरता दिखाई देता है तथा नये रचनाकार उभरकर इस साहित्य को नई दिशा दिखाने का प्रयास करते रहे। हिन्दी कहानियों में अनेक उतार – चढ़ाव तथा कथित आन्दोलनों से अलग दलित कहानी बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य के यथार्थ चित्रण की विशिष्ट धारा के रूप में सामने उभरकर आयी। हिन्दी कहानी में नई कहानी , अकहानी , समान्तर कहानी तथा जनवादी कहानी आदि पड़ावों से गुजरते हुए वर्तमान हिन्दी कहानी का रूझान उसे वैचारिक प्रतिबद्धता से जोड़ता है।
हिन्दी दलित साहित्य में कहानियों का लेखन सन् 1980 के आसपास प्रारंभ हुआ। मोनदास नैमिशराय , ओमप्रकाश वाल्मीकि , जयप्रकाश कर्दम , सूरजपाल चैव्हान , प्रेम कपाड्यिा , कुसुम वियोगी आदि का कहानिकारों ने अपने दौर में दलितों के वेदना और समस्याओं को कहानी के माध्यम से समाज के सामने उठाने का प्रयास किया। दलित कहानियां , यथार्थवादी आदर्शवादी तथा चेतनावादी विचारधारा के धरातल पर लिखी गई। कहानीकारों का मूल उद्देश्य दलितों को अन्याय , अत्याचारों से मुक्त कराना तथा उन्हें न्याय दिलाना ही मुख्य लक्ष्य रहा है। दलित कहानियों के पात्र आदर्शवादी जीवन जीना चाहते हैं , कि कोई उन पर जुल्म या अन्याय करता , तो उसका प्रतिकार करना भी उनकी यथार्थवादी जीवन का स्वरूप है और यही दलित साहित्य का यथार्थ भी। दलित कहानिकार रमेश जलौनिया की प्रसिद्ध कहानी ‘ जीने का अधिकार ’ में गांव का ठाकुर चतरसिंह व पंडित चित्तरंजन दोनों घूश के भाई कटोर को इसलिए जंगल में मार कर फेंक देते हैं क्योंकि कटोरा खाना खाने के बाद ठाकुर के यहां की बेगारी का काम करने को कहता है। इसका प्रतिकार करते हुए घंशू अपने भाई के हत्यारों को कुल्हाड़ी से मार देता है। अपनी बिरादरी के लोगों को कुछ कहने के लिये दरोगा को रोकता है और कहता है “ सुनो , जरा ध्यान से सुनो , तुम नीची जाति के कहे जाने वाले लोग गांव में इतने अधिक हो और ऊंची जाति का ढ़ोंग रचने वाले मुठ्ठीभर फर्क है , तो सिर्फ इतना कि तुम सब डरपोक हो। असंगठित हो। अशिक्षित हो , इसीलिए अपने अंदर से इन बुराइयों को निकालो। तुम भी इन्हीं की तरह इन्सान हो , पशु नहीं , इसलिए तुम्हें भी इन्हीं की तरह जीने का हक है। अपने आपको पहचानो। अपनी ताकत को जानो। मैंने अपने भाई की हत्या का बदला ले लिया है। अब मुझे फांसी होने का कोई गम नहीं। ” अन्याय के प्रति इस प्रकार की विद्रोही भावना दलितों में दिखाई देती है।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद दलितों के मन में यह आशा आकांक्षा थी कि अब रूढ़िवादी परंपरा का अंत होगा छुआछूत की भावना से हम मुक्त होंगे। संविधान के अनुसार शिक्षा तथा नौकरियों में हमें आरक्षण मिलेगा कुछ हद तक दलितों की स्थिति में सुधार हुआ है। दलित शिक्षित होने लगे , नौकरियां मिलने लगी , किन्तु समानता नहीं मिली। भेद – भाव की भावना आज भी हमें दिखाई देती है। इसीलिए तो दलित साहित्य का सृजन अन्य साहित्य की तुलना में ज्यादा जोर पकड़े हुए है। सूरजपाल चैहान की ‘ साजिश ’ कहानी का नत्थू कठिनाई से बी . ए . की परीक्षा पास करके ट्रान्सपोर्ट के धन्धे के लिए बैंक से कर्जा लेना चाहता है , किन्तु बैंक मैनेजर रामसहाय शर्मा , नत्थू की दिशाभूल करके उसे सूअर पालने के लिए कर्ज देना इसीलिए पसंद करता है , क्योंकि नत्थु एक अछतू वर्ग का युवक है। मैनेजर शर्मा अपने हेडक्लर्क सतीश भरद्वाज से कहता है , “ देख सतीश अगर ये अछूत अपना खानदानी धन्धा बन्द कर कोई नया धन्धा करने लगे , तो आने वाली पीढ़ियां हमारे घरों की गन्दगी कैसे साफ करेगी। उस स्थिति में घर की गन्दगी क्या तुम खुद साफ करोगे ?
प्राचीन काल से ही महिलाओं की उपेक्षा हुई है। आज के युग में महिलाएं असुरक्षित जान पड़ती है। लगभग रोज ही हमें समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि महिलाओं पर कैसे अत्याचार हो रहे है। हमारे संतों ने भी महिला को ढोल , गंवार , शूद्र , पशु , नारी ये सब ताड़न के अधिकारी कहकर उपेक्षा की है। ‘ अपना गांव ’ कहानी में मोहनदास नैमिषराय ने ठाकुर के खेतों में कबूतरी काम करने से नकार देती है , तो ठाकुर का बेटा अपने साथियों के साथ उसे नंगा घुमाता है। पत्रकार को हरिया बताता है , “ म्हारी जात के औरतों को पैले से ही ठाकुरों के द्वारा नंगा किया जाता रहा है। उनकी बेइज्जती की जाती रही है। गांव का रवाज बन गया है ये। ”
उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए भी दलितों को यातनाएं दी जाती है। ‘ सुरंग ’ कहानी में दयानंद बटौही स्वयं एम . ए . द्वितीय क्लास में पास है। उन्हें आगे रिसर्च करना है , किन्तु वर्णवादी व्यवस्था उसे रिसर्च करने से रोकती है। कार्यकर्ता नेता से कहता है , “ यह हरिजन है , इन्हें हिन्दी में रिसर्च करने नहीं दिया जा रहा है , हम सभ्य कहलाने वालों केपरिवार के थर्ड क्लास लड़के – लड़कियों को रिसर्च करने दिया जा रहा है , यूनियन के अध्यक्ष रघुनाथ की बहन एम . ए . में थर्ड क्लास लाई है , उसे हिन्दी में रिसर्च करने दिया गया है , जबकि हरिजन सेकेंड क्लास के है तथा हिन्दी प्रायः सभी पत्र – पत्रिकाओं में इनकी कहानियां , कविताएं और साहित्यिक निबंध लोग चाव से पढ़ते हैं। ”
प्रेम कपाड़िया ने अपनी कहानी ‘ हरिजन ’ में वासना को मिटाने के लिए किस तरह मंदिर में देवदासिओं को पुजारी अपनी वासना पूर्ति के लिए रखते हैं , इसका चित्रण किया है। देवदासी पार्वती अपने बच्चे को पढ़ाना चाहती है , किन्तु मंदिर का पुजारी कहता है , “ अरे परबतिया , कहीं राख में फूल खिलते है भला ? वह हरिजन है …… हरिजन कैसे पढ़ सकता है ? हमारे वेदों में हरिजनों को वेद – पुराण सुनने की भी मनाई है ….. पढ़ने की बात तो दूर रही। खैर ! छोड़ ! अलमारी में सोमरस की शीशी है ….. उसे निकाल ले और गिलास में डाल दे …….. तब तक मैं कपड़े उतारता हूं। ’’
अक्सर देखा जाता है कि गांव के ठाकुर जमीदारों के लड़के दलित लड़कियों की छेड़ा – छाडी करने में माहिर होते है। बेचारी बेबस लड़कियां अपनी विवशता को बदनामी से छुपाती है। कानून के रक्षक भी ठाकुर जमीदारों के गुलाम होते हैं। कानून के रक्षक ही आज काननू के भक्षक बन गए हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘ यह अंत नहीं ’ एक प्रसंग देखिये – किसन की बहन बिरमा के साथ गांव के मुखिया तेजभान का लड़का सचीन्दर छेड़खानी करता है। किसन अपने मित्रों से विचार – विमर्श कर पुलिस की मदद लेना चाहता है , किन्तु पुलिस इन्सपेक्टर कहता है – “ छेडा़ – छाड़ी हुई है …….. बलात्कार तो नहीं हुआ ……. तुम लोग बात का बतंगड़ बना रहे हो। गांव में राजनीति फैलाकर शांति भंग करना चाहते हो। मैं अपने इलाके में गुंड़ागर्दी नहीं होने दूंगा ……… चलते बनो , आगे कहता है ‘ फूल खिलेगा तो भौरे मण्डराएंगे ही।
दलित कहानियों में दलितों के आंसुओं से उनके जीवन की दुखभरी गाथाएं दलित लेखकों ने प्रस्तुत की है। इन कहानियों द्वारा दलितों के वास्तविक जीवन , उनकी यातनाओं पीड़ाओं और उनकी जो उपेक्षा हुई है , उसकी अभिव्यक्ति हुई है। यह समाज में हो रहे परिवर्तनों का परिणाम है। जिसकी प्रेरणा है समता , स्वतंत्रता , बधुता एवं अन्याय के विरूद्ध न्याय मिल सके। इस दलित साहित्य से समाज में चेतना का निर्माण हो रहा है।
संदर्भ :
- साजिश: सुरजपाल चैहान।
- सुरंग: दयानंद बटोही।
- अपना गांव : मोहनदास नैमिषराय।
- हरिजन: प्रेम कपाड़िया।
डॉ.सी.बालकृष्ण
सहायक प्राध्यापक,
हिंदी विभाग, क्राइस्ट अकादमी ,
बेंगलूर -560082