May 20, 2023

68. आदिवासी जीवन और प्रकृति- ‘जहाँ बाँस फूलते है ‘उपन्यास के संदर्भ में – लक्ष्मी के. एस. 

By Gina Journal

Page No.: 487-493

आदिवासी जीवन और प्रकृतिजहाँ बाँस फूलते है उपन्यास के संदर्भ में I

लक्ष्मी के. एस. 

साहित्य उसे कहा जाता है, जिसमें युगबोध के साथ समाज जीवन का यथार्थ चित्रण होता है। यह साहित्य कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि विधाओं से संपन्न है। उपन्यास वर्तमान युग की एक सशक्त विधा है। हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में उपन्यास सामाजिक यथार्थ, नए मानव मूल्य सभ्यता और संस्कृति आदि को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने में कारगर सिद्ध हो रहा है। वास्तव में समकालीन युग तक आते हुए भी उपन्यास मुख्य विधा के रूप में ही स्थिर है। समकालीन युग के द्वितीय दशक भारी बदलाव का दौर है। एक तरफ भूमंडलीकरण के बीच सिकुड़ती दुनिया है तो दूसरी ओर तेज़ी से बदलती परिस्थितियाँ एवं उससे फैले बदरंग यथार्थ भी है। ऐसे बदलाव के कारण  समकालीन  हिंदी उपन्यासों में स्त्री, दलित, आदिवासी, पारिस्थितिकी, किन्नर जैसे हाशिएकृत विषयों का गंभीर विचार विमर्श हो रहा हैं।

           समकालीन साहित्य में एक विमर्श के रुप में “आदिवासी जीवन” की काफी चर्चा हो रही है। क्योंकि इसमें सदियों से अपने अधिकारों और अपनी अस्तित्व से वंचित हाशिएकृत समाज के खुरदरे जीवन यथार्थ को वाणी मिली है। वास्तव में आदिवासी लोग वे हैं जो हमारे समाज के, हमारी जमीन के सबसे पुराने ,सबसे दमदार और प्रकृति से सबसे अच्छा संबंध रखकर जीने वाले लोग हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो,  वे प्रकृति के साथ मिलकर जीने वाले तथा प्रकृति की सुरक्षा एवं पवित्रता को बनाए रखने वाले जनजाति समुदाय हैं। प्रकृति ही उनका परिवार है। लेकिन आज बाजारवादी, पूंजीवादी, भौतिकवादी तथा उपभोक्तावादी मानसिकता के कारण आदिवासी तथा प्रकृति दोनों के लिए ही कोई जगह नहीं बनती। आज मनुष्य ने आदिवासी क्षेत्र और उनके प्राकृतिक संपदा को औघोगिकी घरानों, भू माफिया, सरकार तथा दलालों आदि के लिए लूट की चीज़ बन कर रह गई है। सच्चाई यही है कि आज विकास और औघोगिकीकरण के अग्रसर होने वाले मनुष्य अपने अल्पकालीन लाभ के लिए आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों को अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बन रहा है। आवश्यकता से अधिक इन संसाधनों के दोहन से आदिवासी जीवन और प्रकृति की स्थिति में नुकसान पहुँच  रही है। अतः आज के संकट की घड़ी में आदिवासी जीवन और प्रकृति  में आने वाले  समस्याओं एवं प्रतिरोधों का मूल्यांकन  बहुत ही जरूरी है, ताकि इसका लाभ समाज को मिल सके।

       हिंदी साहित्य में प्राचीन काल से ही आदिवासी जीवन और प्रकृति के केंद्र में रखकर कई उपन्यास लिखे गए हैं। लेकिन समकालीन हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन और प्रकृति पर मानव अत्याचार और इसके फलस्वरूप उत्पन्न आदिवासी जीवन की विविध समस्याओं को भी विषय के रुप में देखा जा सकता हैं ।समकालीन आदिवासी उपन्यासकारों में प्रकृति तथा आदिवासी जीवन का संबंध को अच्छी तरह पहचानने वाले लेखक हैं श्री प्रकाश मिश्र । आदिवासी जीवन तथा प्रकृति के आधार पर लिखा हुआ उनके दो उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ (1996), और ‘रूपतिल्ली की कथा’ (2006) बहुत चर्चित एवं उल्लेखनीय है।

       प्रकृति और मिज़ोरम के आदिवासी संघर्ष को केंद्र में रखते हुए श्री प्रकाश मिश्र ने उपन्यास लिखा है “जहाँ बाँस फूलते हैं”। इस उपन्यास में श्री प्रकाश मिश्र ने आदिवासी जन जीवन पर अधिक बल देते हुए उत्तर-पूर्व मिज़ो जनजाती के जीवन संघर्ष के आधार पर  उनके अस्मिता, स्वतंत्रता, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, एवं स्त्री शोषण की प्रक्रिया को  प्रतिबध्दता और सहभागीदारिता के स्तर पर उदघाटित किया जाता है साथ ही वहाँ का इतिहास, भूगोल, संस्कृति भाषा, जीवनचर्या, खान-पान, प्रकृति, जगंल, पहाड़ व पशु पक्षियों के जीवन और सार्थक प्रस्तुति व उपस्थित इस सार्थक एवं मूल्यवान स्वरूप प्रदान करती है । प्रस्तुत उपन्यास की कथा मिज़ोरम का छोटा सा डोपा गांव पर आधारित है। सैंतीस  अध्याय में विभक्त प्रस्तुत रचना की विषय वस्तु मिज़ो विद्रोह है  लेखक मिज़ो विद्रोह की इस कथा को केवल आदिवासी जीवन संघर्षों तक सीमित न रखकर प्राकृतिक वातावरण की पक्ष को भी उजागर करते हैं। क्योंकि मिज़ो जनजातियों का जीवन प्रकृति पर जुड़ा हुआ है और उनका अस्तित्व तथा जीविका प्रकृति एवं इसकी उदारता पर निर्भर है। इसलिए इस उपन्यास में वहाँ की पहाड़ियों की ऊंचाई, काटने का तीखापन, नदी का बहाव, आसमान की चमक, पानी का स्वाद, पेड़ों की छाव, लहराती फसल की खुशबू, भूख से ऐंठते आदमी का आवाज, शिकारी की चालाकी, पशुओं का बर्ताव, नाचते पाँव, हवा की छुअन, धूप की गर्मी ये सारी चीजें कहीं-न-कहीं हमें नजर आती है।

       मिज़ोरम का प्रमुख उत्पाद बाँस है। बाँस मिज़ोरम के जीवन और संस्कृति का अभिन्न अंग है और इसका इस्तेमाल धार्मिक अनुष्ठानों, कला और संगीत में भी किया जाता है। भौगोलिक क्षेत्रफल की तुलना करें  तो मिज़ोरम  में बाँस का सबसे बड़ा जंगल है। यहाँ तीन तरह के बाँस पाए जाते हैं, और इनमें सामूहिक पुष्पन के दो अलग-अलग चक्र चल रहे हैं। मौजूदा सामूहिक पुष्पन को मिज़ो भाषा ‘मौ तम’ कहा जाता है। मिज़ोरम  में बाँस का फूल खिलना अकाल, विनाश और अपशकुन का प्रतीक माना जाता है। इसके लिए मिज़ो भाषा में ‘माउटम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। वास्तव में इस उपन्यास की मुख्य कथा माउटम नामक घटना से संबंधित है। मिज़ो जनजीवन पर आधारित प्रस्तुत उपन्यास में माउटम घटना को केन्द्र में रखकर 1968 ई.  में ‘लालडेग विद्रोह’ को बड़ी तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस घटना के अनुसार मिज़ोरम  में हर 50 साल की अवधि के बाद  बाँस फूलते हैं जिन्हें वहाँ के चूहे खाकर बहुत अधिक बच्चे पैदा करते हैं और मिज़ोरम  में अकाल की स्थिति बन जाती है। इस उपन्यास के नामकरण का भी एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है “ये फूल बिरल आते हैं, लेकिन जब आते है तो प्रकृति नया असुतंलन पैदा करती है। चूहे  इन फूलों को खाते है जिससे उनकी प्रजजन शक्ति असामान्य ढंग से बढ़ जाती है। लाखों की संख्या में पैदा हुए चूहे खेतों की फसल, घरों में रखा अनाज, फल, सब्जियों समेत जो सामने आता है, सब चट कर जाते है। साल बीतते-बीतते अकाल पड़ जाता है। आदिवासी बड़े-बूढ़ों का कहना था कि अगले तीन साल में इस इलाके में ज्यादातर बाँस की कोठियों में फूल आएगा उससे पहले सारे बाँस यदि जला नहीं दिए जाते तो तबाही तय है”1

         ऐसे हालत के कारण मिजोरम के आदिवासी जन जीवन एवं वहाँ के प्राकृतिक वातावरण में असंतुलन की स्थिति बन जाती है। इसका दो मुख्य कारण है। एक तो अकाल है, दूसरा जानवरों की संख्या में वृद्धि पड़ना था। पहली  समस्या यह है कि मिज़ोरम  एक कृषि प्रधान देश है और मिज़ोरम  की अधिकतर फसलें वर्षा आधारित होती है । वर्षों बरसात न हो तो यह फसल नष्ट हो जाती है ।  इसलिए इस अकाल के कारण मिज़ोरम में,  कृषि उत्पादन की कमी, पशु की संख्या में कमी , चारों की कमी  आदि के कारण कृषि तंत्र पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके साथ स्थायी संपत्तियाँ (भूमि, मकान, जवाहरात)  आदि को बचाने की मजबूरी, भुखमरी, रोग तथा कुपोषण में मृत्यु आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके  समान अकाल के समय बाँस  सूख जाता है। सूख जाने से बाँस का  फूल अत्यधिक ज्वलनशील भी होता है।  दो बाँसों के आपस में रगड़ने से इनमें भी आग लगने का भी खतरा रहता है। यह अन्य पौधे से सूर्य के प्रकाश को अवरुद्ध करता है। यह अन्य पौधों को बड़ी  नुकसान पहुंचाता है। जिससे जंगल के विकास में बाधा उत्पन्न होता है। दूसरी समस्या यह है कि, किसी एक स्थान पर जानवरों की संख्या अधिक हो जाती है, जिस कारण प्राकृतिक वातावरण  में विपरीत प्रभाव पड़ता है क्योंकि किसी विशेष प्रजाति की संख्या बहुत अधिक होती है। इस अधिक आबादी वाली प्रजातियों की प्राकृतिक गतिविधियों तनाव के कारण प्रकृति को प्रभावित करती है। प्रस्तुत उपन्यास में बाँस के फूल खिलने से चूहे की अधिक संख्या बढ़ती है। ऐसे  कारणों  से  प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति बन जाती है।  मुख्य  बात यह है कि बाँस  में फूल खिलने के कारण उत्पन्न इस अकाल एवं जानवरों की संख्या में वृद्धि की समस्या का प्रभाव मिज़ोरम  की जनता तक सीमित नहीं बल्कि वहाँ  की प्रकृतिक वातावरण एवं समस्त जीवमंडल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ऐसे कारण से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है।

      इस प्रकार मिज़ो विद्रोह के प्रमुख कारणों में बाँस के फूलने से आए अकाल  एवं  दुर्भिक्षा भी रहा होगा। इसके साथ इस उपन्यास में यह भी  दिखाई पड़ती है कि मिज़ोरम की मिज़ो जनजाति के जल, जंगल, जमीन के लिए उन पर होनेवाले शोषण एवं शोषण के खिलाफ संघर्ष को बड़ी तीव्रता के साथ नज़र आती है  विकास की ओर अग्रसर होने वाले पूंजीपति लोगों के  उपभोक्ता वृत्ति के कारण मिज़ोरम के पूरी जीव मंडल पर असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है।  मिज़ोरम का पहाड़ी पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण बाज़ार एवं उपभोक्तावाद को भी बढ़ावा मिलने लगा, जिसकी वजह से वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का अधांधुध दोहन होने लगा।  इसका यथार्थ चित्रण श्री प्रकाश मिश्र ज्वलंत समस्या के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। इसलिए एक जगह श्री प्रकाश मिश्र ने विकास के नाम से क्या समस्या है? यह उपन्यास के पात्र दोला  द्वारा मिज़ोरम  की समस्या का विश्लेषण इस प्रकार किया है “मिज़ोरम  पिछड़ा है, गँवार है। दुखी है, दरिद्र है। इसे बदलना चाहिए। इसे बदलना तो वाई भी चाहता है। पर वाई भी दो है। एक तो सरकार है, जो नीति बनाती है: उन्हें वैसा ही छोड़ दो; सिर्फ़ उन्हें लिखाओ-पढ़ाओ और आरक्षण की बदौलत नौकरी दो। सुरक्षा के लिए ज़रूरी हो तो सड़कें बनवा दो। लोग वाक़ई भूखों मरने लगें तो थोड़ा अन्न पहुँचा दो। किन्तु इन्हें छेड़ो नहीं। एक विशाल गणतंत्र की विरासत ‘एकता में अनेकता’ के उदाहरण स्वरूप इनकी जीवन पद्धति अक्षुण्ण रखो। ‘एन्थ्रोपोलोजीकल म्यूज़ियम के पीस’ के रूप में। दूसरा, इस नीति को क्रियान्वित करने वाले वाइयों का दल है; जो विकास के लिए मिले पैसे अपनी जेब में रख लेता है, यहाँ का अदरक, चावल, मिट्टी के मोल ले जाकर अपने वतन में सोना बनाता है, यहाँ की सुरा-सुन्दरियों का उपभोग इस तरह करता है कि जैसे मिज़ोरम  उसकी ज़मीनदारी हो, उपनिवेश हो और वह इस उपनिवेश का एकमात्र मालिक।”2 उपन्यास का अंत कुछ इस प्रकार होता है मिज़ो विद्रोहियों की पराजय होती हैं, सरकार द्वारा शांति-वार्ता की चर्चा होती है लेकिन वह असफल हो जाती है। बहुत अधिक संख्या में विद्रोही मारे जाते हैं जो बच जाते हैं वो जंगलो में चले जाते हैं।

       ये सच है आज आदिवासियों को जब उनके  जल जंगल जमीन से वंचित किया जा रहा है तो उनमें असंतोष पैदा हो रहा है। यह असंतोष कभी-कभी आंदोलन या विद्रोह में परिणत हो जाता है। विवेच्य उपन्यास में मिज़ो जनजाति की समस्याओं जैसे जमीन-जंगल पर अधिकार, नौकरी में जगह, ठेकेदार का शोषण आदि को जाहिर करते हुए उनको मुख्यधारा से जोड़ने की समस्या पर प्रकाश डालता है। एक तरफ वह उनका  एन्थ्रोपोलोजीकल म्यूज़ियम  बनाकर रखना चाहती है तो दूसरी तरफ वह उनके हैबिटार को उजाड़ कर वहाँ की प्राकृतिक संपदा लूटकर विदेशियों के हवाले कर देना चाहती है।  इससे विस्थापन, पर्यावरण विघटन, प्रदूषण, तथा पर्यावरण असंतुलन आदि विविध समस्याएँ पैदा हो रही है ।

       अतः यहाँ निष्कर्ष रुप में कहा जाए तो, विकास या प्रगति शब्द आदिवासी और प्रकृति के बीच खाई पैदा करने वाले बन गया  आज की औद्योगिकरण एवं वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न प्राकृतिक संसाधनों का असंयमित दोहन, उपभोक्तवादी संस्कृति, आधुनिक जीवन शैली आदि कई कारणों से आदिवासी जीवन और प्रकृति में नुकसान पहुँच रही है। आदिवासी चितंक अनुज लुगुन ने जो कहा है इस संदर्भ में एकदम उल्लेखनीय है “इसलिए आज जब प्रकृति के ऊपर संकट पैदा हुआ तो यह स्वाभाविक रूप से आदिवासी समाज के लिए भी संकट का कारण बना। फलस्वरूप अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बचाने के लिए आदिवासियों का प्रतिरोध खड़ा हुआ तो साथ ही प्रतिरोध का यह स्वर अपने सहजीवियों की रक्षा के लिए भी उठा। यही वह मूल वजह है कि आज साहित्य में जल, जंगल और जमीन का स्वर आदिवासी समाज के संघर्ष के साथ जुड़कर साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है।… जल, जंगल और जमीन के पक्ष में खड़ा आज का आदिवासी साहित्य नव-साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिपक्ष है।”3 इससे स्पष्ट है आदिवासी जीवन और प्रकृति परस्पर संबंधित पक्ष है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व प्रशंनाकित होता है। उनके संपूर्ण अस्तित्व एवं जीवन जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी हुई  है। प्रकृति के बिना उनका कोई अस्तित्व नहीं है। प्रकृति ही उनके जीवन का मुख्य भाव रहा है। इसीलिए प्रकृति को सुरक्षित एवं स्वस्थ रखना अनिवार्य है।

संदर्भग्रंथ सूची

मूल ग्रंथ

श्रीप्रकाश मिश्र, ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’, यश पब्लिकेशन्स 1110753, गली नं. 3 सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110032

पहला संस्करण: 1996

संशोधित संस्करण: 2011

आलोचनात्मक ग्रंथ

  1. डॉ. अहमद एम. फिरोज़, वाङमय त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका, आदिवासी विशेषांक भाग- 2, 2014, पृ. सं.- 154
  2. 2. श्रीप्रकाश मिश्र, ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ – पृ. सं.- 36
  3. 3. नायर उषा ,पारिस्थितिक संकट और समकालीन रचनाकार पृ सं- 36

 

प्रस्तुतकर्ता

लक्ष्मी के. एस. 

शोधार्थी, हिन्दी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी, केरल