88. अपराध, नियम और न्याय: कोर्ट मार्शल के विशेष संदर्भ में-अर्चना एस नायर
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अपराध, नियम और न्याय: कोर्ट मार्शल के विशेष संदर्भ में।
-अर्चना एस नायर
ग्लोरिया स्टैनेम नामक एक पत्रकार की एक कहावत है कि ‘नियम और न्याय हमेशा एक नही होता है’। यह ज़रूरी नहीं कि जो नियम है वह न्याय भी है। इनका संबन्ध अभेद्य है लेकिन इनमें भी भेद है। स्वदेश दीपक के प्रभावी नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ की कहानी भी कुछ यही है। नाटक का नाम एक मिलिटरी प्रोसीज़र है जिसमें भारतीय सशस्त्र सेना में सेना अधिनियम,1950 अनुभाग 69, उपधारा (अ) के तहत आर्मी सैनिकों एवं अफ़सरों के अपराध को मिलिटरी कोर्ट के ज़रिए कार्यवाही कर सज़ा सुनाई जाती है। इस औद्योगिक न्यायिक दण्ड विधान को कोर्ट मार्शल कहा जाता है।
नाटककार स्वदेश दीपक के पुस्तक के पहले अंश में कहा गया है कि यह नाटक जितना बाहर घटित होता है, उतना ही हमारे भीतर भी। एक अपराध को मुख्य घटना बनाकर नाटककार ने मानव स्वभाव एवं सामाजिक यथार्थ को उजागर किया है। नाटक का पहला अंक घटना और समस्या का विस्तार करता है तो दूसरा अंक पात्रों के द्वंद्व और संघर्ष तथा संघर्ष के चरमोत्कर्ष का अंत है। नाटक की शुरुआत में अपराधी सवार रामचन्दर है जिसपर अपने दो उच्च अधिकारियों पर गोली चलाने और उनमें से एक की हत्या करने का आरोप है। रामचन्दर के गुनाह कुबूल करने पर कोर्ट मार्शल के प्रिसैडिंग अफ़सर कर्नल सूरत सिंह को केस आसान लगता है किन्तु रामचन्दर की ओर से कैप्टन बिकाश राय के वाद विवाद उन्हे असमंजस में डाल देता है। रामचन्दर ने अपराध किया है पर उसे उस अपराध तक ले जाने वाली कडी, भारतीय समाज में अब भी पनप रही अमानवीय वर्ण एवं जाति व्यवस्था है।
भारतीय सशस्त्र सेना एक ऐसा सरकारी संस्थान है जहाँ जाति आधारित आरक्षण की अनुमति नही है फिर भी जात-पाँत और उच्च नीचत्व की भावना यहाँ भी विद्यमान है। हमारे समाज में कोढ़ रोग की तरह व्याप्त जातिवाद, सामंती विचारधारा, दमन-शोषण, नस्लवादी अहं आदि के निर्दयी चेहरे को कोर्ट मार्शल उजागर करता है। नाटककार ने नाटक के ज़रिए एक आपराधिक घटना-दुर्घटना को दिखाया है और एक कोर्ट के कमरे से बाहर ले जाकर समूचे समाज के सामने रख दिया। मनुष्य मन के, मानविक स्वभाव की व्याख्या कर समाज के ज़हन में यह सवाल रखा है कि क्या रामचन्दर का गुस्सा जायज़ था, परिस्थिति क्या थी और क्या अपराध का शिकार व्यक्ति भी अपराधी हो सकता है। यहां घटनाएं एसी हैं कि हत्यारा और पीडित, दोनों ही एक ही समय शिकार भी हैं और गुनाहगार भी हैं। नाटककार ने इस बात की पूरी कोशिश की है कि न्याय का तराज़ु दोनों ओर समान रहे।
भारत ने विकास के कई पडाव पार कर लिये इसके बावजूद भी योग्यता का माप दण्ड क्या जाति या धर्म है? कोर्ट मार्शल कानूनी न्याय पेश कर सवाल करता है कि क्या योग्य व्यक्ति अपनी सभी योग्यताओं के होते हुए भी जीवनपूर्ण अपने जन्म को कलंक मानने पर बाध्य कर दिया जाए क्योंकि कुछ तथाकथित अभिजात वर्ग को लगता है कि उसका योग्य होना और मुख्यधारा में आना एक सामाजिक अपराध है। सुनवाई में जब रामचन्दर को बोलने का अवसर दिया जाता है, तब अपराध की सीमाएँ बदलने लगती हैं। जहाँ नाटक की शुरुआत में अपराधी केवल रामचन्दर था, नाटक के अन्त तक आते-आते न केवल कैप्टन वर्मा और कैप्टन कपूर बल्कि पूरा समाज कढ़्घरे में खडा रहता है। अधिकारियों द्वारा लगातार प्रताडित होने और उनके कटु वचन,गालियाँ सुनने और आतंक सहने के बाद अपनी माँ की आबरू और सम्मान पर लगे कलंक ने रामचन्दर को हत्यारा बनने पर विवश कर दिया नाटक में एक जगह कैप्टन राय कहते हैं – “ कानून और संविधान ने सबको बराबर क दरज़ा, बराबर का अधिकार दे दिया। लेकिन बडे आदमी ने छोटे आदमी को, ऊँचे आदमी ने नीचे आदमी को यह अधिकार नहीं दिया।“
जब छोटे छोटे विरोध दबाकर-कुचलकर रखा जाता है तो वह विस्फोटक विद्रोह बन जाता है।रामचन्दर का अपने से बेहतर होना कैप्टन कपूर को अपने खानदानी खून का अपमान लगता है जबकि रामचन्दर की इसमें कोई गलती ही नहीं है। कैप्टन कपूर का अहं मात्र रामचन्दर तक सीमित नहीं था, उनकी अपनी पत्नी उन्हे जानवर के नाम से सम्बोधित करती है। हत्या की रात रामचन्दर के क्षमा का बाँध टूट गया था जिसका फल एक हत्या में बदल गया। यहाँ सवाल नैतिकता एवं अनैतिकता का भी है। हमारी न्याय व्यवस्था किसी को भी नियम को अप्ने हाथ में लेने का हक़ नहीं देती। उसी प्रकार हमारी नीति व्यवस्था और संविधान जाति के नाम पर व्यक्ति में भेद करने की इजाज़त भी नहीं देती। दोनों ही अनैतिक है और असंवैधानिक भी हैं। भेद इतना है कि एक शरीर को निस्तेज करती है तो दूसरी आत्मा को। कैप्टन कपूर और कैप्टन वर्मा की प्रताडना नैतिक अपराध है, संविधान की मर्यादा के खिलाफ़ है, फिर भी किसीने उन्हे रोकने का प्रयास नहीं किया। इसी कारण रामचन्दर को हत्या जैसा सामाजिक एवं कानूनन अपराध करना पडा। अपने स्टेटमेंट में कैप्टन राय कहते हैं – “जो व्यवस्था , जो समाज जाति-भेद के आधार पर चलेगा, ऊँच-नीच के तराज़ू में आदमी को तोलेगा, उसकी आयु कभी लंबी नहीं होती।“ नाटककार रामचन्दर के यथार्थ को अपनी पूर्णता में बताते हुए भी उसके अपराध को सही सिद्ध करने की कोशिश नहीं करता। हम एक न्याय व्यवस्था एवं नीति सत्ता के तहत जीते आ रहे हैं। निजी आक्रोश अगर रोज़मर्रा के अपराध का रूप ले लें तो समाज में अव्यवस्था एवं अराजकता फैल जाएगी। नाटककार ने रामचन्दर की सज़ा से दो बातों की पुष्टि की है, एक यह कि कोई भी ज़ुर्म सज़ा से ऊपर नहीं है और दूसरा यह कि हमेशा न्याय और नियम एक नहीं होते। एक का दूसरे के बिना अस्तित्व नहीं है किन्तु दोनों अपने सार्वभौमिक आशय में अक्सर अलग हैं।
नाटक के पूरे मुकदमे में सवार रामचन्दर चुप रहता है और जब अन्त में वह बोलता है तो उसका आर्तनाद न केवल पूरे कोर्ट में, पूरे समाज के अंतर्मन में गूँजता है। रामचन्दर और कैप्टन कपूर इस बात के उदाहरण हैं कि कानून की सज़ा और वैयक्तिक सहानुभूति अलग-अलग भी हो सकते हैं। प्रिसैडिंग अफ़सर कर्नल सूरत सिंह रामचन्दर को सज़ा-ए-मौत सुनाने क निर्णय लेते हैं जो उनका फ़र्ज़ था किन्तु वे पूरे आदर और सम्मान के साथ उसे अपने ब्रिगेडियर बनने की दावत में बुलाते हैं और उसके साथ ड्रिन्क करते हैं। सूरत सिंह के लिए फ़र्ज़ की नज़र और इन्सानियत की नज़र दोनों पैनी है। सूरत सिंह पहले केस को बडी ही निर्ममता के साथ देखते हैं और रामचन्दर के इकबाल-ए-ज़ुर्म पर उन्हे मुज़रिम करार दे देते हैं लेकिन कैप्टन बिकास राय की दलीलें और रामचन्दर की चुप्पी उन्हे सही नतीजे पर पहुँचने के लिए बाध्य कर देती है। रामचन्दर की कहानी एक ही समय करुणा और क्रूरता की त्रासदी की कहानी है।
नाटक का एक अनिवार्य पात्र एक अनाम सैनिक भी है जो पूरे मुकदमे का मूक साक्षी है। उसकी उपस्थिति ‘अंधा युग’ के प्रहरी की भाँति है, वह केवल देख नहीं रहा है। वह भोग भी रहा है और अन्त तक आते अपने आक्रोश को दहकते शब्दों में व्यक्त भी करता है। जब गार्ड कैप्टन कपूर से कहता है कि “मुझे रामचन्दर समझने की गलती ना करें” तो वह केवल अपने लिये नहीं अपने जैसे हर उस व्यक्ति के लिये आवाज़ दे रहा है जो रामचन्दर की तरह चुप रहने पर मजबूर रह गये थे।
नाटक में कानूनी न्याय की पूर्ति अवश्य दिखती है तो साथ में पोएटिक न्याय को भी दिखाया गया है जहाँ कत्ल करने वाले को तो सज़ा मिली साथ में उस कत्ल की सबसे बडी प्रेरणा बनने वाले को अपने कर्मों की सज़ा मौत ही मिली। नाटककार ने हर अपराध की सज़ा दिलाकर मनुष्य मन में मुखरित न्याय को भी आत्मसात किया है। यहां कोर्ट मार्शल केवल सवार रामचन्दर का नहीं हो रहा था, कोर्ट मार्शल था समय का, कानून का, व्यवस्था का, अफ़सरशाही का और शासन तंत्र के क्रूर चेहरे का। नाटक की बीज बिन्दु एक भयंकर त्रासदी से युक्त व्यक्ति जीवन का है जिसे जीवन भर भर्त्सना ही मिली फिर भी वह हर जगह अव्वल रहा। उसे गौरव की प्राप्ति भी तब हुई जब वह मौत के करीब था। उसे सज़ा मिली किन्तु साथ में न्याय भी मिला। फिर भी सवाल यह रह जाता है कि जिसे एक नैतिक अपराध कहकर छोड दिया गया, क्या उस खामोश उत्पीडन का कोई दण्ड नहीं है? अगर कैप्टन कपूर अपने अहं के कारण मारे नहीं जाते तो तबादला लेकर किसी और रामचन्दर को प्रताडित नहीं करते? क्या हमारी नियम व्यवस्था इतनी पक्की है कि बराबर का अधिकार और बराबर की सज़ा की उम्मीद की जा सकें?
देश की इतनी तरक्की के बावजूद भी समाज आज भी जातिवादी, सामंतवादी सोच को ज़िन्दा रख रहा है। घोर अमानवीयता, संवेदनहीनता और मूल्यहीनता, बनावटी चेहरे और अवसरवादिता समाज पर हावी हैं, ऐसे समाज में वर्ग-वर्ण-धर्म-जाति-नस्ल की उच्चता के नाम पर अपराध होते रहेंगे और मज़लूम प्रताडना और अभिशापित सज़ा पाते रहेंगे। हमें एक ऐसा समाज चाहिए जहां रामचन्दर अपराध और आत्मग्लानि को नहीं आत्मगौरव को अपनी पहचान बनाएँ। उसके लिए न्यायव्यवस्था में दीमक की तरह चिपकी उच्चनीचत्व की भावना को ही मिटाना होगा। सामाजिक न्याय और नैतिक न्याय को अपनी पूर्णता में समझकर नाटककार स्वदेश दीपक द्वारा रचित यथार्थ का आइना है 20वीं शती का सशक्त नाटक कोर्ट मार्शल जो अपराध, नीति और न्याय के धुंधले, अनछुए पहलुओं को खोलकर समाज और कानून के सामने कई सवाल खडे कर रहा है जिसका जवाब जानना और देना समाज के लिये अनिवार्य है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
स्वदेश दीपक – कोर्ट मार्शल और अन्य नाटक, जगरनाट बुक्स, नई दिल्ली
गिरीश रस्तोगी – 20वीं शताब्दी का हिन्दी नाटक और रंगमंच, भारतीय ज्ञानपीट, नई दिल्ली
https://indianarmy.nic.in> documents
https://www.un.org> global issues
अर्चना एस नायर,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
राजकीय महिला महाविद्यालय,
तिरुवनंतपुरम।