May 23, 2023

87. सौन्दर्य का विमर्श और समकालीनता – डॉ. अरुण प्रसाद रजक

By Gina Journal

Page No.: 624-630

सौन्दर्य का विमर्श और समकालीनता

डॉ. अरुण प्रसाद रजक

शोध-सार- सौन्दर्य की अवधारणा को लेकर हमेशा विमर्श चलती रही है। भाववादी विचारक सौन्दर्य का सम्बन्ध मनुष्य की अंतश्चेतना से जोड़ते हैं, जबकि भौतिकवादी विचारकों की दृष्टि में सौन्दर्य का कोई अलौकिक आधार नहीं होता, वह वस्तु और व्यक्ति से अनिवार्य रूप से जुड़ा है। सुन्दरता वस्तु का गुण है और गुण को वस्तु से अलग नहीं किया जा सकता। सौन्दर्य का संबंध विचारधारा, परम्परा और समकालीनता से है।

बीज शब्द– सौन्दर्य, विमर्श, विचारधारा, समाजिकता, समकालीनता, परम्परा, इतिहासबोध

आलोचना- सौन्दर्यशास्त्र के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाले तो एक तरफ कुछ उपयोगी तथ्य मिलेंगे तो दूसरी ओर हम पायेंगे कि हमें अब इस विषय पर बहुत सी चीजों को खारिज कर देना पड़ेगा। वहां बहुत से ऐसे विचार और सिद्धांत मिलेंगे जिन्हें किसी भी प्रकार से स्वीकार कर पाना आज के समय में हमारे विवेक के लिए संभव नहीं। पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने सौन्दर्य को इन्द्रिय का विषय नहीं, प्रज्ञा का विषय कहा। गिलबर्ट और कून्न ने अपनी पुस्तक ‘सौन्दर्यशास्त्र का इतिहास’ में बताया है कि ‘प्लेटो ने सौन्दर्य को प्रज्ञात्मक कहा है।’1 प्लेटो के अनुसार प्रज्ञात्मक सौन्दर्य ही निरपेक्ष और चरम सौन्दर्य है। इस प्रज्ञात्मक सौन्दर्य को प्लेटो ने प्रकाश रूप माना है जो वस्तुत: आत्मचैतन्य का प्रतीक है।2 वर्तमान समय में सत्ता के दमनात्मक स्वरूप को देखते हुए प्लेटो की इस बात का कोई महत्त्व नहीं रह जाता कि सौन्दर्यशास्त्र को राज्य के नियंत्रण में काम करना चाहिए। वर्तमान समय का सौन्दर्यशास्त्र तो राज्य या सत्ता के दमनतंत्र के विरुद्ध होगा। सुकरात सौन्दर्य को नैतिकता के प्रश्न से जिस प्रकार जोड़ते हैं, उसकी प्रासंगिकता आज बिल्कुल दूसरे रूप में बनी हुई है। वे सौन्दर्य का आकर्षण अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति मानते थे। पारम्परिक मूल्यों को जिस प्रकार की चुनौती सुकरात देते हैं उसी प्रकार अरस्तू, प्लेटो के सौन्दर्य- चिन्तन पर सवालिया निशान लगाते हैं। वे राज्यसत्ता से अलग समाज सापेक्ष कला या सौन्दर्य की पहल करते हैं। अरस्तू जब सौन्दर्य में नैतिक तत्त्व की विवेचना करते हैं तो वह उन तथाकथित भाववादियों से भिन्न नजर आते हैं जो सौन्दर्य को आत्मचैतन्य का प्रतीक मानते हैं।

डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने निबंध ‘सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास’ में बताते हैं ‘‘प्लेटो से लेकर हेगेल तक अनेक भाववादी दार्शनिक यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे कि सौन्दर्य की सत्ता सुन्दर वस्तु से पृथक है।’’3 सौन्दर्य को आत्मगत मानकर उसे धर्म या राज्यसत्ता से जोडऩे की दिक्कतें हम सभी देख चुके हैं। सौन्दर्य के विद्रूपीकरण के लिए सत्ता व्यवस्था प्रमुख रूप से उत्तरदायी होती है, कारण प्रेस, नियम, संरचना संचार- संधान, आकाशवाणी, रेडियो, टेलीविजन एवं अन्यान्य मास मीडिया के उपादानों पर नियंत्रण वह खुद अपने हित में करती है और जनता को वास्तविक तथ्यों एवं द्वंदों से यदा- कदा गुमराह भी करती है। सुन्दरता वस्तु से जुड़ी हुई है। इसी संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की महत्वपूर्ण टिप्पणी है— ‘‘सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। यूरोपीय कला- समीक्षा की यह एक बड़ी ऊंची उड़ान या बड़ी दूर की कौड़ी समझी गयी है। पर वास्तव में यह भाषा के गड़बड़ झाले के सिवाय कुछ नहीं है। जैसे वीर कर्म से पृथक वीरत्व कोई पदार्थ नहीं है, वैसे ही सुन्दर वस्तु से पृथक सौन्दर्य कोई पदार्थ नहीं।’’4 आचार्य शुक्ल ने सौन्दर्य के संबंध में भीतर और बाहर के भेद को व्यर्थ माना है, क्योंकि जो हमारे मन के भीतर है वही बाहर है। यह सही है कि सौन्दर्य का अनुभव अवश्य आत्मगत स्तर पर होता है, लेकिन उसकी स्थिति वस्तुगत होती है।

सौन्दर्यशास्त्र और विचारधारा में गहरा एवं परस्पर संबंध होता है। ऊपर- ऊपर यह कार्य- कारण संबंध जैसा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह इतना ही नहीं है। गहराई से जाकर देखने में यह पता चलता है कि दोनों के बीच बड़ा ही द्वंद्वात्मक संबंध है। राजनीतिशास्त्र की शब्दावली में कहें तो जैसा जनता और उनके प्रतिनिधि के बीच होता है, दर्शन की शब्दावली में कहें तो जैसा प्रकृति और पुरुष के बीच होता है। यह स्थिर या शाश्वत न होकर सतत परिवर्तनशील होता है। लेखक और पाठक के व्यक्तित्व के विकास के समानान्तर इसमें बदलाव आता रहता है। सर्वेश्वर की सौन्दर्य- दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कला और सौन्दर्य के प्रतिमानों के परिवर्तनशीलता को पहचानती है। बकौल सर्वेश्वर ‘‘कला में शाश्वत कुछ नहीं होता। यह लगातार बदलने वाला नदियों का तट है। इसमें न मूल्य शाश्वत हैं न सिद्धांत और न आपके आलोचना सिद्धांत। इसलिए ‘रस सिद्धांत’ वाले इधर जो शाश्वत की बात कर रहे हैं वह गलत है।’’5 जो कलाकार  विचारधारा की उपेक्षा कर कला को शाश्वत बनाना चाहते हैं, उनके लिए सर्वेश्वर की यह स्थापना ध्यान देने लायक है— ‘‘सामाजिक परिवेश परिवर्तनशील है तो उसमें पैदा होने वाले मूल्यों में भी लगातार बदलाव आता रहता है। भाव- विचार का यह बदलाव रचना में लगातार चला करता है… जीवन की भांति साहित्य भी लगातार गतिशील और विकासशील प्रक्रिया है।’’6 सौन्दर्य में बदलाव विचारों में बदलाव के कारण होता है। समय, परिस्थितियां व परिवेश इस बदलाव की दशा और स्वरूप को निर्धारित करते चलते हैं।

सौन्दर्य के प्रतिमान विचारधारा सापेक्ष होते हैं। इसका मतलब यह भी है कि पहले की कला और साहित्य में जो कुछ भी सुन्दर और मूल्यवान था, वह नष्टï नहीं हुआ, हमारी विचारधारा में समाविष्ट हो गया, परम्परा में समाविष्ट हो गया। इसलिए लेखक की सौन्दर्यानुभूति उसकी ऐतिहासिक संवेदनात्मक अनुभूति होती है। इस अनुभूति में विचारधारा और परम्परा अन्तर्भुक्त होते हैं। अपनी इसी ऐतिहासिकता के चलते सौन्दर्यानुभूति सतत परिवर्तनशील एवं गतिशील अवयव है। इतिहास- दृष्टि स्वयं एक गतिशील प्रक्रिया है। अत: विचारधारा एवं परम्परा युक्त सौन्दर्यानुभूति कभी जड़ नहीं हो सकती। सर्वेश्वर ‘बुद्धिजीवी’ कविता में कहते हैं— ‘‘आज के विश्वकर्मा तो सभी ऐसे हैं युग धर्मा/ नया रचते हैं, मरम्मत नहीं करते।’’7 कला और सौन्दर्य पर विचार- विमर्श करते समय कलावादी विचारक परम्परा से अपने को अलगाते हैं। यह आज की सबसे बड़ी ‘सांस्कृतिक ट्रेजडी’ है। जबकि परम्परा और इतिहास के भीतर से नये प्रयोग न करने के कारण ही हमारा ‘नया विचार’ तट ही रह जाता है, सही तल नहीं पाता है। नदी, तट के अभाव में तो कहीं जा सकती है, तल के बिना नदी, नदी नहीं रहती है। बिखरी हुई जल राशि कहीं का कहीं मारा- मारा फिरता है। नदी ही जल को धारा का रूप देती है, गति देती है, सौन्दर्य देती है।

पथराए सिद्धांत वाले सौन्दर्यानुभूति की एक और पहचान यह भी है कि यहां विचारधारात्मक शून्यता का आलम होता है। यह विचारधारात्मक शून्यता आगे चलकर समाजहीनता में पर्यवसित होती है। नयी कविता की ‘जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि’ वस्तुत: इतिहास- दृष्टि एवं परम्परा रहित सौन्दर्यचेतना ही है जो रचना को एक बंधे बंधाये ढर्रे से बाहर नहीं निकलने देती। सर्वेश्वर की सौन्दर्य- दृष्टिï में इतिहास की चेतना समाहित है। इतिहास बोध के कारण वे परम्परा को सम्मान देते हुए साक्षात्कार में कृष्णदत्त पालीवाल से कहते हैं— ‘‘इतना जानता हूं कि कवि अपनी परम्परा से कटकर नहीं रह सकता। बिना जड़ों के कहीं पौधा पनप सकता है? कवि में रहने वाली परम्परा रचना में कितना सर्जनात्मक उपयोग पा सकी है। यह परख पाना भी बच्चों का खेल नहीं है। फिर परम्परा का अर्थ परम्परागत होना नहीं है— परम्परा से अतीत और वर्तमान का एक अनिवार्य रिश्ता है— जो आज के कवि को वाल्मीकि और निराला से साथ जोड़ती है। परम्परा कवि के चुनाव की तमीज़ का निर्धारण है— कवि को क्या छोडऩा है परम्परा में और क्या चुनना यह उसकी अपनी समझ पर निर्धारित चुनाव है।’’8 सर्वेश्वर में परम्परा के प्रति आस्था है। चुनाव की तमीज और सजग दृष्टिï के कारण ही रचना में दुहराव या बासीपन नहीं आता। दुहराव या बासीपन सौन्दर्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह दुहराव या बासीपन रचनाकार की इतिहास दृष्टि से ही दूर होता है।

सौन्दर्यानुभूति और समकालीनता का साहचर्य

परम्परा के साथ समकालीनता पर भी बहस जरूरी है। समकालीनता एक जीवन- दृष्टि है, जहां कविता अपने समय का आकलन करती है— तर्क और संवेदना की सम्मिलित भूमि पर। सर्वेश्वर के  लिए समकालीनता, आधुनिकता का विकसित रूप है। वह एक ऐसी दृष्टिï है जो सिर्फ वर्तमान पर ही नहीं टिकी रहती, बल्कि सौन्दर्यधर्मिता के प्रासंगिक उन्मेषों को उसके समूचे विस्तार में रखकर देखती है। समकालीनता के मुहावरे को स्पष्टï करते हुए सर्वेश्वर कहते हैं— ‘‘समकालीनता भविष्य के लिए उपजनेवाली वर्तमान की चेतना है। कविता में समकालीनता की पहचान के लिए हमें कवि के काव्यानुभव, काव्यानुभूति की बनावट, काव्य- सृजन- प्रक्रिया, काव्य के उपकरण, काव्य- भाषा, बिम्ब, प्रतीक, उपमान, लय, छंद आदि सभी की परख करनी पड़ती है। क्योंकि कविता की समकालीनता की परख इन सभी की परख से जुड़ी परख है। वास्तव में, यह परम्परा और इतिहास- बोध से विकसित आधुनिक भावबोध है- जो कवि की संवेदना को अनेक स्तरों, रूपों, कोणों से तराशता है।’’9 समकालीनता, कवि की संवेदना को तराशने की प्रक्रिया में काव्य- सौन्दर्य को एक नयी, गत्यात्मकता एवं गतिशीलता देती है। सौन्दर्यानुभूति अगर गतिशील न हो, वह सिर्फ वर्तमान की कई स्थिर वस्तु जैसी चीज बनकर रह जाय, तो ऐसी ‘वर्तमान की मारी सौन्दर्यानुभूति’ मानव मुक्ति के संघर्ष में परिवर्तनकामी हथियार का रूप नहीं ले सकती। सर्वेश्वर समकालीनता में इतिहासबोध की सजग- दृष्टिï को परखते और उससे मानव मुक्ति का संबंध जोड़ते हुए कहते हैं— ‘‘यह आदमी की मुक्ति क्या है? यह सवाल मेरे लिए समसामयिक सवाल हो जाता है। मुझे परम्परा से इसका उत्तर नहीं मिलता। इस उत्तर की खोज करने की जरूरत भर मिलती है। अपने समय के अनुसार इस जरूरत को पहचानना इंसान की बर्बरता के बदलते स्वरूप को पहचानता इतिहास बोध है। मुझे मंदिर के द्वार पर मस्तक टेके आदमी का भूखा पेट दिखायी देने लगता है और उन ताकतों के चेहरे भी जिन्होंने एक बहुत बड़ी साजिश से इसे यहां तक ला पटका है और कहलाया है- मो सम कौन कुटिल खल कामी। इस कुटिल खल कामी का इतिहास बोध हमें समसामयिक बनाता है। कुटिल खल कामी शब्दों में अतीत की प्रतिछाया पर मैं अपने युग के कर्म की धार चढ़ाता हूँ और एक नयी पहचान के साथ जनमुक्ति के लिए इसे हथियार की तरह निकाल लेता हूं।’’10

निष्कर्ष- स्पष्ट है कि समकालीनता अंतत: जनचेतना का सौन्दर्यात्मक रूप ही है। समकालीनता मानव मुक्ति के संदर्भ में ही सौन्दर्य के वृहत्तर आयामों को खोजती है। ‘वर्तमान की मारी सौन्दर्याभिरुचि’ में मानव मुक्ति का अंतर्वस्तु नहीं हो सकता। ऐसी सौन्दर्याभिरुचि समकालीनता के विमर्श में गतिशील इतिहासबोध की सजग दृष्टि को खारिज कर देती है, इसलिए यह ‘जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि’ कहलाती है।

संदर्भ- सूची :

  1. 1. गिल्बर्ट एण्ड कून्न, ‘ए हिस्ट्री ऑफ एस्थेटिक्स’, मैकमिलन प्रकाशन, न्यूयार्क, द्वितीय संस्करण, 1939, पृ. 45
  2. 2. गिल्बर्ट एण्ड कून्न, ‘ए हिस्ट्री ऑफ एस्थेटिक्स’, मैकमिलन प्रकाशन, न्यूयार्क, द्वितीय संस्करण, 1939, पृ. 129- 130
  3. 3. शर्मा, डॉ. रामविलास, ‘आस्था और सौन्दर्य’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1990, पृ. 28
  4. 4. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, ‘चिंतामणि : भाग-1’, इण्डियन प्रेस, प्रयाग, 1966, पृ. 105
  5. पालीवाल, कृष्णदत्त, ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का रचनाकर्म’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृ. 230
  6. पालीवाल, कृष्णदत्त, ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का रचनाकर्म’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृ. 230
  7. सक्सेना, सर्वेश्वरदयाल, ‘बुद्धिजीवी’, वीरेन्द्र जैन (सं.), ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली खण्ड : एक’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004, पृ. 331
  8. पालीवाल, कृष्णदत्त, ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का रचनाकर्म’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृ. 253
  9. पालीवाल, कृष्णदत्त, ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का रचनाकर्म’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृ. 254
  10. सक्सेना, सर्वेश्वरदयाल, नामवर सिंह (सं.), ‘आलोचना’, अप्रैल- सितम्बर, 1979, पृ. 19

डॉ. अरुण प्रसाद रजक

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,

गोरूबथान गवर्नमेंट कॉलेज,

कलिम्पोंग, पश्चिम बंगाल      

सम्पर्क: 20, पी. बी. एम. रोड, चाम्पदानी, पो.- बैद्यबाटी, जिला- हुगली, पिन-७१२२२२