May 23, 2023

86. वर्गीय असमानता में जूझनेवाले दिव्यांग मजदूर: ‘खोटे सिक्के’ के परिप्रेक्ष्य में – टिनु अलेक्स. के

By Gina Journal

Page No.: 619-623

वर्गीय असमानता में जूझनेवाले दिव्यांग मजदूर: ‘खोटे सिक्के’ के परिप्रेक्ष्य में

टिनु अलेक्स. के

सारांश – हिंदी साहित्य में शोषक और शोषित वर्ग को केंद्र में रखकर अनेक रचनाएं हुई है। पूंजीपति एवं उद्योगपति के षड्यंत्रों से जूझनेवाले अनेक मजदूर होते हैं, जिन्होंने आपनी जिंदगी ऐसे लोगों के हाथों में सौंपकर शोषण का शिकार बनते हैं। प्रस्तुत कहानी में दिव्यांग मजदूरों के जीवन यथार्थ का दस्तावेज किया है। टकसाल में जिस प्रकार खोटे सिक्कों  को बाहर कर दिया जाता है ठीक उसी प्रकार ही दिव्यांग मजदूरों की जिंदगी भी है।

बीज शब्द- दिव्यांग, व्हाइट कॉलर जॉब, पोजीशन, मानवाधिकार

शोध आलेख

समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में कई शताब्दियों से मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करता है। समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। प्रत्येक धर्म ईश्वर की रचना के रूप में मनुष्य के समानता की घोषणा करता है। इसलिए यह अवधारणा मानव जीवन के प्रारंभ से ही मौजूद है। आज समानता की अवधारणा राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर जोर देती है जिसमें तमाम मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं। सामान्य से तात्पर्य है- सामान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व पाकर सम्मान पाने योग्य बनना। आज समानता  व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसके अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है। फिर भी समाज में समानता की बजाय असमानता अधिक नजर आती है। आर्थिक रूप से पीड़ित साधारण लोगों को वर्गीय असमानता का शिकार होना पड़ता है। आर्थिक अभाव के कारण समाज में सम्मान पाना भी उनके लिए असंभव है। ऎसे में समाज के संपत्ति पर राज करने वाले शोषक वर्ग के नीचे गर्दन दबाकर जीना पड़ता है।

अंग्रेजों से आजादी के बाद देश की जाति, धर्म और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों से आजादी दी लेनी बाकी थी जिसके लिए उस दौर के क्रांतिकारी लेखकों ने अपनी कलम उठाई और इन विषयों को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाकर उन पर लिखना शुरू किया। इन क्रांतिकारी लेखकों की सूची में मन्नू जी का विशेष स्थान है। उन्होंने लैंगिक असमानता, वर्गीय असमानता आदि को अपनी कहानियों के माध्यम से दूर करने की कोशिश की है। यह निर्विवाद है कि उन्होंने स्त्री जीवन की विसंगतियां एवं उनके मनोविज्ञान पर लेखनी चलाई है लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने समाज में पीड़ित एवं शोषण का शिकार होनेवाले सर्वहारा वर्ग पर भी अक्षरविन्यास किया है। इसका एक उत्तम दृष्टांत है’ खोटे सिक्के’ कहानी। इस कहानी में मजदूर वर्ग की त्रासदी को प्रस्तुत किया गया है। जीवन भर टकसाल में यंत्रवत परिश्रम करनेवाले तथा लगन से राष्ट्र विकास में योगदान देनेवाले तत्पर मजदूरों का अधिकारी वर्ग की ओर से प्रताड़ित किया जाता है।

कहानी में खन्ना साहब पूंजीवादी वर्ग का प्रतिदान करते हैं। अपने टकसाल को देखने आए कॉलेज छात्रों को टकसाल में होनेवाले सारी गतिविधियों का वर्णन करते हैं। टकसाल में  मशीनों के द्वारा किस प्रकार सिक्कों का निर्माण करते है, सिक्कों का निर्माण करते समय किन-किन मशीनों का उपयोग करना पड़ता है  आदि की व्याख्या करते हैं। भारत में गरीबी आज भी एक गंभीर समस्या है। गरीबी को एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें

एक व्यक्ति जीवन ज्ञापन के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हो जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लंबे वर्षों के बाद भी गरीबी को मिटाने में आज भी हमारे नेता गण असफल रहा है। बढ़ती जनसंख्या, अशिक्षा आदि गरीबी के प्रमुख कारण है। इसलिए मनुष्य जीवन यापन के लिए अपनी जान को खतरे में डाल कर  काम करने में मजबूर हो जाते हैं। आज भी शिक्षा का क्षेत्र समाज के पूंजीपति वर्गों तक ही खुला है। हमारे देश में वाइट काँलर जॉब के लिए प्राप्त इंश्योरेंस,  सुरक्षा आदि अशिक्षित मजदूरों को आज भी प्राप्त नहीं है।  अपनी मेहनत एवं कार्य क्षमता का लाभ उठाने वाले खन्ना साहब जैसे लोग उनको उचित वेतन भी नहीं देता है। अपने अधिकारों की मांग करने के लिए उनके साथ कोई यूनियन भी नहीं है। इन लोगों के साथ हाथ थामकर अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई भी साथ नहीं देते हैं, इसलिए खन्ना साहब जैसे लोग आज भी इन मजदूरों का फायदा उठाते है। दिव्यांग मजदूरों की अवस्था इससे भी बदतर है।एक छात्र खन्ना साहब से पूछते है –

“इन मजदूरों को तनख्वाह क्या मिलती होगी?

साठ रुपये मासिक

आदमी यों साठ रुपये की खातिर अपनी जान जोखिम में डाल देता है? “

टकसाल के इन खतरनाक मशीनों के बीच काम करने के कारण मजदूरों की टांग कट जाते हैं। निरंतर ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती है। फिर भी आदमी रोजी रोटी के लिए टकसाल में आकर अपनी जान जोखिम में डालकर काम करने आ जाते हैं। इन दुर्घटनाओं में दिव्यांग हो जाने वाले मजदूरों को खन्ना साहब जैसे लोग कोई सहायता नहीं देते हैं। उन्हें तुच्छ रूप में मुआवजा देकर बाहर कर देते हैं।

भारतीय संविधान के अनुसार, दिव्यांग श्रमिकों को कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं-

1995 में पारित विकलांग कानून के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि कार्य के दौरान हुई दुर्घटना में यदि कोई व्यक्ति घायल हो जाता है तो उससे सेवा मुक्त नहीं किया जाएगा। उसकी पदावनती भी नहीं की जाएगी। उसे दूसरा पद दिया जाएगा जहां वह काम कर सके। यदि उसे ऐसा पद न दिया जा सके तो उसे तब तक बिना पद के ही सेवा में रख जाएगा जब तक उपयुक्त पद न हो। किसी भी परिस्थिति में उसके वेतनमान और सुविधाओं में किसी भी किस्म की कोई भी कटौती नहीं की जाएगी। इसके अलावा कार्य के दौरान होनेवाली दुर्घटना के कारण होनेवाले नुकसान की भरपाई के लिए वर्कमैन कंपनसेशन कानून-1930 के तहत हर्जाने का प्रावधान है और साथ में कर्मचारी राज्य बीमा कानून – 1948 के तहत इस अवधि में इलाज और छुट्टी आदि का प्रावधान है। प्रस्तुत कहानी में दिव्यांग मजदूरों के अधिकारों सख्त उल्लंघन  देख सकते हैं। टकसाल में काम करने वाले दिव्यांग मजदूर खोटे सिक्के के समान है। खन्ना साहब के शब्दों में

” बहुत सावधानी के बावजूद कभी-कभी बहुत सारे सिक्के बिगड़ ही जाते हैं। जहां सिक्के ढलते हैं, अगर उस मशीन में जरा सी भी खराबी हो जाती है तो सारे सिक्कों की शेप बिगड़ जाती है और फिर उनकी गिनती खोटे सिक्कों में होने लगती है।”

शेप बिगड़ने के कारण खोटे सिक्कों का उपयोग नहीं करते। इसलिए इन खोटे सिक्कों से कोई फायदा नहीं है। दिव्यांग मजदूरों की स्थिति भी इन खोटे सिक्कों के समान है। टकसाल में आजीवनांत काम करने के कारण मजदूरों की टागें कट जाते है। कभी-कभी उन खतरनाक मशीनों के बीच काम करनेवाले मजदूरों को खोटे सिक्कों की के समान ध्यान नहीं देते। इसलिए खन्ना साहब कहते है-

“खोटे सिक्कों को हम चला नही देते, वापस टकसाल में ही खपाते है। जो चीज हमारी खोटी होती है उसकी जिम्मेदारी हमारी है।”

खोटे सिक्कों के समान मजदूरों का शेप भी बिगड़ जाते हैं अर्थात वे दिव्यांग हो जाते हैं। खन्ना साहब खोटे सिक्कों को बेकार चीज की तरह देखते हैं, ठीक उसी प्रकार ही दिव्यांग मजदूरों के प्रति उनका व्यवहार है। जब दिव्यांग हो गए मजदूरों की औरतें मदद मांगने आई तो खन्ना साहब उनके साथ बुरी तरह से बर्ताव करते हैं-

” दिमाग खराब हो गया है, जिसके दोनों टांगे नहीं है वह क्या खाक काम करेगा? चलो हटो यहां से, मौके- बेमौके शेर खाने आ जाते हैं।”

अपने बर्ताव की सफाई देते हुए खन्ना साहब कॉलेज छात्रों से कहते हैं-

” टांगे कट गई तो हमने  दो सौ रुपए मुआवजा के दे दिए। और हम कर भी क्या सकते हैं? यों इन लोगों को यहां बिठाना शुरू कर दे तो टकसाल अपंगों का अड्डा ही बन जाए।”

मनुष्य यदि दिव्यांग बन जाए तो समाज उन्हें उपयोग शून्य वस्तु के रूप में देखते हैं। समाज ऐसे लोगों को आदर और सम्मान देते हैं जो सभी अंगों से पूर्ण हो। प्रस्तुत कहानी में खन्ना साहब के दुर्व्यवहार देखने पर भी शिक्षित सभ्य समाज का प्रतिनिधित्व करनेवाले कॉलेज छात्रों ने भी इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाते है। उन्हें सहानुभूति तो है लेकिन समाज में पीड़ित इन लोगों के साथ खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है। केवल किताबों में मात्र लिखित शैक्षिक व्यवस्था पर करार प्रहार भी किया है। छात्र केवल पढने एवं परीक्षा में अंग हासिल करने के लिए ही ऐसे आदर्शों की पढ़ाई करते हैं। प्रायोगिक तौर पर इसका उपयोग करने में वे लोग अक्षम है। खन्ना साहब के बाद शायद इन्हीं छात्रों को ऐसे टकसाल चलाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में दिव्यांग मजदूरों के जिंदगी में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं है। इसलिए कानून बनाने के बाद भी एसी शोषण का कोई अंत नहीं है। इसलिए मन्नु जी की यह कहानी में समाज में पीड़ित दिव्यांग मजदूरों की जिंदगी की सच्चाई को सत्यता के साथ प्रस्तुत किया है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. खोटे सिक्के- मन्नू भंडारी।
  2. विकलांगों के अधिकार- विनोद कुमार मिश्र

टिनु अलेक्स. के

शोधार्थी

हिंदी विभाग, कोच्चिन विज्ञान व प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, केरल