May 23, 2023

85. मूल्य क्षरण के दौर में हाशिए पर वृद्ध : समकालीन हिंदी उपन्यासों के संदर्भ में – राहिता.पी.आर

By Gina Journal

                                                         

Page No.: 613-618

मूल्य क्षरण के दौर में हाशिए पर वृद्ध : समकालीन हिंदी उपन्यासों के संदर्भ में – राहिता.पी.आर

         वृद्धावस्था जीवन की वह अवस्था है जहां पहुंचकर व्यक्ति मृत्यु की कामना करता है। वृद्धावस्था में मनुष्य अपने युवावस्था की स्मृतियों और पूरे जीवन में उनकी सफलता – असफलता के बारे में विचार करके बाकी का जीवन व्यतीत करता है। शारीरिक कमजोरी के कारण वृद्ध व्यक्ति को कमाऊ से किसी पर आश्रित बनना पड़ता है यही कारण है कि कोई भी व्यक्ति वृद्ध नहीं होना चाहता। भारत में वृद्धों की स्थिति निम्न नहीं थी। भारतीय परंपरा के अनुसार वृद्धों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। वृद्ध व्यक्ति घर का मुखिया होता था और घर के सारे फैसले लेने का हक उनको था। लेकिन भारतीय संस्कृति पर भूमंडलीकरण और औद्योगीकरण का गहरा प्रभाव पड़ा। लोग पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने लगे। आज आधुनिक जीवन शैलियों को अपनाने के कारण परंपरागत मूल्य तेजी से परिवर्तित हो रहे हैं। जिसके चलते नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है।

         मूल्य कभी स्थाई नहीं रहता। मूल्य परिवर्तित होते रहते हैं। मूल्य जब सकारात्मक हो तो परिवर्तन बिलकुल सही है| लेकिन जब मूल्य पूरे समाज के लिए या समाज के किसी वर्ग के लिए नकारात्मकता फैलाए तो वह उस समय के समाज के विकास में  बाधा बनता है । भारत में सांस्कृतिक मूल्यों का पतन तीव्र गति से हो रहा है। यह, वह देश है जहां रोज़ वृद्धों का अभिवादन उनके पैर छूकर किया जाता था। लेकिन आज नई संस्कृति के पनपने से वृद्धों को परिवार और समाज के किनारे कर दिया गया। पीढ़ी संघर्ष आर और मूल्य परिवर्तन की पीड़ा ने अनेक समकालीन हिंदी उपन्यासों में अभिव्यक्ति पाई हैं। पुराने मूल्यों के नष्ट होने से संबंधों में प्रेम, दया, करुणा जैसे मानवीय मूल्यों के साथ-साथ सम्मान करना, ऋण चुकाना, धर्म का पालन करना जैसे सांस्कृतिक मूल्य भी खत्म हो चुके हैं । नए मूल्यों का आधार है धनार्जन करना। धन पाने की होड़ में युवा पीढ़ी स्वार्थी बनते गए जिससे व्यक्तिवाद को प्रश्रय मिला। आज हर व्यक्ति सबसे ज्यादा स्वयं अपने आप से प्यार करता है। जिस माता-पिता ने उन्हें उन्हें पाल पोस कर बड़ा किया उनका निरादर कर रहे हैं और उन्हें बोझ समझकर वृद्धाश्रमों में छोड़ देते हैं। इस बारे में डॉ. राधा गिरधारी ने लिखा है-  “पुरानी मान्यताओं के विरोध ने, माता – पिता के जीवन में होने वाले हस्तक्षेपों से दूर हटने की प्रवृत्ति से पारिवारिक संबंध तनावपूर्ण बनते जा रहे हैं| शिक्षकों की आत्मकेंद्रिता ने  एकल परिवार का निर्माण करके पारिवारिक तनावों को खड़ा किया|”1

         हर समाज में पुरानी पीढ़ी के लोग परंपरागत मूल्यों के समर्थक होते हैं। लेकिन नई पीढ़ी इन मूल्यों को तोड़कर नए मूल्यों को स्थापित करते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण होने पर नैतिक मूल्यों का पतन तीव्र गति से हो गया है। अर्थ प्राप्ति के पीछे युवा पीढ़ी इतना व्यस्त हो गए कि प्यार और सहानुभूति जैसे पुराने मूल्यों को छोड़कर स्वार्थी बन गए। इस प्रकार मूल्य विघटन होने के कारण समाज में वृद्धों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है। परिवार और समाज में उनका शोषण हो रहा है। वृद्धों की इन समस्याओं को ‘कागज की नाव’, ‘दौड’, ‘समय सरगम’, ‘रेहन पर रग्घू’ , ‘गिलिगडु’ और ‘चार दरवेश’ जैसे अनेक उपन्यासों में अभिव्यक्त की गई हैं।

       आज की नई पीढ़ी में नैतिक मूल्यों का अभाव है जिसे देखकर आज के वृद्ध दु:खी होते हैं। वृद्धजन यह उम्मीद करते हैं कि उनके बच्चे उनके साथ रहें, वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करें और उनका सम्मान करें। पर आज की नई पीढ़ी का रहन – सहन और प्रवृत्तियों को वृद्ध स्वीकार नहीं कर पाते हैं इस कारणवश उन्हें दुखों का सामना करना पड़ता है। काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘ रेहन पर रग्घू’ का केंद्र पात्र रघुनाथ बच्चों का अनैतिक आचरण देखकर दुखी होते हैं जब कि उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बच्चों और छात्रों को नैतिकता का पाठ पढ़ाया था। उनकी आशा होती है कि वह अपने बच्चों की शादी करवाएं । लेकिन उनका बड़ा बेटा बिना बताए ही शादी करता है। बड़ी बेटी अपने अवैध संबंध का खुलासा इस तरह करती है कि वह टूट जाते हैं। इतना ही नहीं छोटा बेटा भी उनसे दूर एक विधवा के साथ रहने लगता है। वृद्धों के विचारों और मान्यताओं की अवहेलना करने से वृद्धों को मानसिक तनाव होता है।

           पुरानी और नई पीढ़ी के सोच में अंतर पीढ़ी संघर्ष का कारण बनता है। युवा पीढ़ी पुराने परंपरागत मूल्यों को तोड़ने में आनंद पाते हैं। सुरेंद्र वर्मा का उपन्यास  ’मुझे चांद चाहिए’ में भी पीढ़ी संघर्ष के कारण दुखी होते पिता को देख सकते हैं। वर्षा वशिष्ठ आधुनिक विचारों वाली लड़की है वह अपना नाम बदलकर यशोदा शर्मा से वर्षा वशिष्ठ रख लेती हैं इस बात के लिए पिता के नाराज होने पर वह कहती हैं “अब हर तीसरे चौथे के नाम में शर्मा लगा होता है। मेरे क्लास में ही सात शर्मा है।….और यशोदा ? घिसा पिटा दकियानूसी नाम। उन्होंने किया क्या था ? सिवा कृष्ण को पालने के?”2 वर्षा के पिता को इस बात से दुख होता है कि उनकी बेटी ने उनके खानदानी नाम को भी बदल दिया और उनके धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों को भी चोट पहुंचाया। आधुनिकता के पीछे पड़ कर आजकल के बच्चे अपने वृद्ध माता-पिता को दुखी करते हैं जिससे पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संघर्ष पैदा होता है।

            आज संयुक्त परिवार का विघटन एक आम बात बन गई है। कोई भी वृद्धों को घर में रहने नहीं देना चाहता। युवा लोग घर में बुजुर्गों को बोझ समझते हैं और घर में एक वृद्ध व्यक्ति का रहना उनके लिए शर्मिंदगी की बात है। ‘कागज़ की नाव’ में मेहलका अपने ससुर ज़हूर मियां को घर के एक गंदे कमरे में गंदे कपड़ों में रहने के लिए मजबूर करती है। हालांकि उनका बेटा विदेश में है और वह उनकी सारी जरूरतों का खयाल रखने के लिए कहता है। फिर भी महलका उन पर ज्यादती करती है । लेखिका कहती है –“ बेटे ने उनके आराम का सारा सामान कमरे में सजा दिया था।……. मगर महलका उनकी हर गलती पर बच्चों की तरह उन्हें सज़ा देती और बहाने – बहाने से एक-एक करके चीजें वहां से उठा ले जाती। ढेरों तस्वीहें थीं। वह तक नहीं छोड़ीं। अच्छे कपड़े धुलने और सूखने के बहाने गायब हो जाते।”3

          इस तरह का दृश्य ‘गिलीगडु’ में भी देख सकते हैं। उपन्यास में बाबू जसवंत सिंह अपने घर में कानपुर में रहते थे| लेकिन उनकी पत्नी की  मृत्यु के बाद उन्हें अपने बेटे नरेंद्र के पास दिल्ली आना पड़ता है। उन्हें दिल्ली बुलाते वक्त नरेंद्र ने कहा था फ्लैट के दो कमरों में से एक वह खुद और दूसरा बच्चे इस्तेमाल करते हैं। इसलिए बालकनी में स्लाइडिंग ग्लास लगवा कर बच्चों को वहां रहने देंगे ताकि दिल्ली आने पर बाबूजी आराम से रह सके। लेकिन दिल्ली आने के बाद बाबू जसवंत सिंह चौंक जाते हैं जब ड्राइवर को उनके सामान बालकनी में रखते हुए देखा। आज के युवा अपना एक नाभिक परिवार चाहता है।  उसमें अपने माता-पिता का दाखिल होना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता। उनके बेटे के घर में रहने लगने के बाद उन्हें सब की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। उपेक्षा सह कर अकेलापन और अवसाद में डूब जाते हैं। बहू उन्हें हर चीज के लिए ताना देती है। वह  कहती है- “बाबूजी आप रोज सुबह अपने कमरे की बत्ती बंद करना भूल जाते हैं। भूल जाने से बिजली का मीटर तो नहीं खामोश बैठ जाएगा।”4 अपने बेटे और बहू के तानों और शिकायतों को झेलने के बाद भी वे बेटे के घर को अपना समझकर रहने की कोशिश करते हैं। इस संदर्भ में लेखिका कहती है कि – “वह बार-बार इस घर को अपना घर समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि उन्हें दसियों बार दसियों तरह से समझाया जा चुका है कि वह अपने काम से काम तक सीमित रहे।”5 वृद्ध लोग जो भी करें युवा लोगों को गलत ही लगता है।  अपने ही घर में उन्हें हर काम के लिए टोका जाता है। ‘चार दरवेश’ का केंद्र पात्र रामप्रसाद अपने घर में बेटी और दामाद के साथ रहते हैं। फिर भी दामाद उन्हें हर वक्त कोसता रहता है। वह कहता है-“ लिथड़ा गू अब मैं साफ करूं। साली अच्छी मुसीबत है। बूढ़े हैं तो अपने को बूढ़ों की तरह संभाल कर रखना चाहिए। अम्माजी पुन्न आत्मा थी। बगैर किसी को कष्ट परेशानी दिए समय से चोला छोड़ दिया।” 6

           इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में वृद्ध महिलाओं का जीवन और भी ज्यादा खतरे में है । ज्यादातर वृद्ध महिलाओं को घर में एक नौकरानी की हैसियत से रखा जाता है। ‘ चार दरवेश’  उपन्यास में इसका चित्रण मिलता है। दिलीपचंद की मौसी को उनका बेटा और बहू नौकरानी की तरह घर के सारे काम करवाते हैं। अपनी पीड़ा व्यक्त करती हुई मौसी कहती है – “खाने पीने की मीठी उम्दा चीजें छुपा कर रखी जाती है। बासी -तिबासी पेट में डालने के लिए बढ़ा दिया जाता है। नौकरानी की तरह घटना पिसना पड़ता है।” 7

          भारतीय समाज और भारतीय परिवार वृद्धों के रहने के लिए सुरक्षित था लेकिन आज परिवारवालों के साथ भी वृद्ध सुरक्षित नहीं है| हर जगह उनका शारीरिक शोषण हो रहा है| वृद्धों की हत्याएं बढ़ती जा रही हैं ‘समय सरगम’ उपन्यास में एक वृद्ध महिला कामिनी को उनके भाई मिलकर मार डालते हैं| कामिनी के मकान हड़पने के लिए उन्हें स्लो प्वाइजन दिया जाता है| कामिनी की काम वाली कहती है – “दो -दो डॉक्टर है साहिब एक नहीं । हर मंगल को भाई लोग का डॉक्टर आता है जैसे कहता है मैं वैसे ही करती हूं|”8

          ‘रेहन पर रग्घू’ में रघुनाथ का भतीजा गुंडे भेजता है ताकि वह रघुनाथ के गांव का ज़मीन अपने नाम कर सके। प्रस्तुत उपन्यास में रघुनाथ अशोक विहार कॉलोनी में रहने जाते हैं| वहां सारे बुजुर्गों का अकेले रहने के कारण लूटमार और हत्याएं रोज-रोज होते रहते हैं।  ‘गिलीगडु’ में भी ऐसा दृश्य देख सकते हैं। उपन्यास का केंद्र पात्र कर्नल स्वामी एक सेवानिवृत्त बुजुर्ग है। उन्होंने अपने प्लॉट बेचकर बेटों की मदद की थी। लेकिन बेटे पैसों के दुराग्रह में आकर उनका शारीरिक शोषण करते हैं। कर्नल स्वामी का बेटा श्रीनारायण  चाहता है कि कर्नल स्वामी अपना फ्लैट बेच कर उसे पैसे दें ताकि वह एक बंगला बना सके। इस उद्देश्य से वह उन्हें मारता पीटता है। इस विषय का विवरण मिसिस श्रीवास्तव इस तरह देती है-“ श्री नारायण ने भीतर से ही उनके आपसी मामले में दखल न देने की धमकी दी। घबराए श्रीवास्तव जी ने सौ डायल कर पुलिस सहायता बुला ली। पुलिस ने दरवाजा खुलवाया। लहूलुहान कर्नल स्वामी को कैलाश अस्पताल ले जाया गया।“ 9 आज स्वार्थ और लोभ के आगे मानवीय मूल्य कमजोर पड़ चुका है ।

आधुनिक समय में ऐसा कोई भी वृद्ध नहीं है जिन्हें किसी भी समस्या का सामना ना करना पड़ता हो। वृद्धों को किसी न किसी प्रकार दबाया जाता है। वृद्धों की इस दमित स्थिति को समकालीन उपन्यासों में अभिव्यक्त किया गया है। नैतिक मूल्यों का पुनःस्थापन होगा तभी वृद्धों को समाज में अपना स्थान प्राप्त होगा।

  संदर्भ ग्रन्थ सूची 

  1. डॉ.राधा गिरधारी, राजेंद्र यादव के उपन्यासों में व्यक्ति और समाज, पृ.सं:93
  2. सुरेन्द्र वर्मा , मुझे चाँद चाहिए , पृ :14
  3. नासिरा शर्मा , कागज़ की नाव , किताबघर प्रकाशन,2018, पृ :13
  4. चित्रा मुद्गल, गिलिगडु ,सामयिक प्रकाशन, 2002 ,पृ:56

      5 .वही, पृ: 94

  1. हृदयेश, चार दरवेश ,भारतीय ज्ञानपीठ,2013, पृ: 120
  2. वही , पृ :25
  3. कृष्णा सोबती, समय सरगम, राजकमल प्रकाशन,2002, पृ: 99
  4. चित्रा मुद्गल, गिलिगडु, सामयिक प्रकाशन,2002, पृ: 137

  राहिता.पी.आर

 शोधार्थी, एस.एस.यु,एस कालडी